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वर्धमान जीवन-कोश मलय टीका-(अप्रतिष्ठात् नरकात् ) तस्मात् अपि उद्धृत्य सिंहो बभूव xxxi (ख) त्रिपृष्ठजीवो नरकादुद्धृत्याऽजनि केसरी।
–त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग ११ श्लो०१८२ पूर्वार्ध (ग) अथैषनारकः श्वभ्रान्निर्गत्य स्वायुषः क्षये । वनिसिंहगिरौ सिंहो बभूवाशुभपाकतः ॥ २ ॥
-वीरच० अधि ४ वह त्रिपृष्ठ नारायण का नारकी जीव आयु के क्षय होने पर वहाँ से निकलकर वनिसिंह नामक पर्वत पर पापोदय से सिंह हुआ। (घ) एत्यंतरे परइ विचिन्तु दुहु अणुहुंजे विणु अलहंतु सुहु ।
कह-कहव विणिग्गउ कय हरिसे सरि-सर-सिहरिहिं भारह वरिसे। सोचक्कपाणि पिंगल-णयणु । भंगुर-दाढा भासुर - वयणु । सीहयरिहिं भीसणु सीहु हुओ। णं वइवसुसइ अवयरिउ दुओ।
-वड्डमाणच० संधि ६ कड ११ इसी मध्य में त्रिपृष्ठनारायण ने नरक में विचित्र दुःखों को भोगा, वहाँ पर लेश मात्र भी सुखानुभव न कर सका। जिस किसी प्रकार वह चक्रपाणि नदी और तालाबों से हर्षिल भारतवर्ष में एक पर्वत शिखर पर पिंगल-नेत्र, भयानक दाड़ों एवं तमतमाये वदनवाला तथा सिंहों में भी भयानक सिंह योनि में उत्पन्न हुमा । (च) परस्परकृतं दुःखमनुभूय चिरायुषा । स्वधात्रीकृतदुःखं च तस्मान्निर्गत्य दुस्तरात् ॥ १६८ ॥ द्वीपेऽस्मिन् भारते गङ्गानदीतटसमीपगे । वने सिंहगिरौ सिंहो भुन्वाऽसौ बृहितांहसा ॥१६६ ॥
-उत्तपु० पर्व ७४ पर वहाँ परस्पर किये हए दुःख को तथा प्रथिवी संबंधी दु:ख को चिरकाल तक भोगता रहा। अन्त में उस दुस्तर नरक से निकल कर वह तीव्र पाप के कारण इस जबूद्वीप के भरतक्षेत्र में गंगानदी के तट के समीपवर्ती धन में सिंहमिरि पर्वत पर सिंह हुआ ।
२२ चतुर्थ नरक अथवा प्रथम नरक के नारको के भव में (क) xxxसीहो नरएसुx
-आव० निगा ४४८ का अंश मलय टीका-xxxसीहो बभूव, मृत्वा च पुनरपि नरक एवोत्पन्न इति । (ख) केसर्यपि विपन्न: संश्चतुर्थ नरकं ययौ /१८२
-त्रिशलाका० पर्व० १०/सर्ग १ भगवान महावीर का जीष सिंह भव क्षय करके चतुर्थ नरक में नारकीप उत्पन्न हुए।
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