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वर्धमान जीवन-कोश
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त्रिपृष्ठ वासुदेव ने शय्यापाल के कान में तपा हुआ शीशा डाला-फलस्वरूप शय्यापाल मरण को प्राप्त हुआ। इस कृत्य से अर्थात् अतिकषायोदय से त्रिपृष्ठ वासुदेव ने असात्ता वेदनीय कर्म का निकाचित बंध किया। इसके अतिरिक्त उस भव में अन्य महा उग्र कर्म किये। हिंसादिक में अविरत रूप में, महा-आरंभ, महापरिग्रह में तत्पर त्रिपृष्ठ वासुदेव-चौरासी लाख वर्ष का आयुष्य समाप्तकरा-मरण को प्राप्त होकर सप्तम नरक में नारकी रूप में समुत्पन्न हुआ। (घ) एक्को य सत्तमाए, पंच य छठ्ठीए पंचमी एक्को । एक्को य चउत्थीए, कण्होपुण तच्चपुढवीए ।
-सम० सू० २४७ त्रिपृष्ठ वासुदेव अपने आयुष्य को पूर्ण कर सप्तम नरक में नारको रूप में उत्पन्न हुआ। कहा है
प्रथम वासुदेव ( त्रिपृष्ठ वासुदेव ) सप्तम नरक में, दूसरे से छठे तक वासुदेव छठ्ठी नरक में, सातवां वासुदेव पांचवीं नरक में, आठवां वासुदेव ( लक्ष्मण ) चतुर्थ नरक में तथा नववां कृष्ण वासुदेव तीसरी नरक में समुत्पन्न
(च) मृत्युपर्यन्तमेवातिगृड्या वृत्तांशदूरगः। धर्मदानार्चनादीनां नाममात्र विहाय च ॥ ११२ ।।
ततः श्वभ्रायुरेवासौ बह्वारम्मपरिग्रहैः। अतीवविषयासक्त्या बध्वा दुर्ध्यानलेश्यया ॥११३ ।। शैद्रध्यानेन मुक्त्वासून् पापमारेण पापधीः । धर्मादृते पपातान्ते सप्तमे नरकार्णवे ॥ ११४ ।।
-वीरच० अधि ३ (छ) राज्यलक्ष्मी चिरं भुक्त्वाप्यतृप्त्या भोगकांङ क्षया । मृत्वागात्सप्तमी पृथ्वी बह्वारम्भपरिग्रहः ॥१६७।।
-उत्तपु० पर्व ७४ (ज) भुजिऊण चक्कवइ - लच्छिया महि तिखंड जुत्ता समिच्छिया। णिय-णियाण-वसु-कन्हु सुत्तओ। मरेवि रुद्द झाणेण पत्तओ।
घत्ता-दुत्तरदुक्खोहे सत्तम णरइ सपाउ । __तक्खणे मेत्तेण तेतीसंबुहि - आउ ॥
-वड्डमाणच० संधि ६/कड ह तीनों खंडवाली पृथ्वी से युक्त चक्रवर्ती-पदरूपी लक्ष्मी का समिच्छित भोग करके सोते-सोते ही अपने निदान के वश से रौद्रध्यानपूर्वक मरकर पापी त्रिपृष्ठ-तत्काल ही दुस्तर दुःखों के गृह-स्वरूप तेतीस-सागर की आयुवाले सातवें नरक में जा पहुंचा।
२१ सिंह के भव में (क) xxxअप्पइसीहो xxx
-आव निगा ४४८ का अंश
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