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वर्धमान जीवन-कोश
एक समय गायक गान कर रहे थे और वासुदेव शयन कर रहा था। उस समय उसने स्वयं के शय्यापाल को आज्ञा दी कि ये जो गायक गाना गा रहे हैं जब मुझे निद्रा आ जाय तब उन्हें वारण कर देना। प्रत्युत्तर में शय्यापाल ने कहा-बहुत ठीक है-ऐसा कहा।
बाद में त्रिपृष्ठ निद्रित हो गया परन्तु गायकों के मधुरगान में लुब्ध हुआ शय्यापाल ने गायकों को बिदा नहीं किया । ऐसा करने से प्रातःकाल हो गया । फलस्वरूप वासुदेष को निद्रा भंग हुई–ठठा। उसने गायकों का गान देखकर शय्यापाल को कहा-इन गायकों को तुमने विदा क्यों नहीं किया । प्रत्युत्तर में वह बोला-स्वामी! गायन के लोभ से विदा नहीं किया।
शय्यापाल का यह उत्तर सुनकर त्रिपृष्ठ कुपित हुआ। इस कारण प्रातःकाल उसके कान में तपा हआ शीशा डाला फलस्वरूप शय्यापाल तुरन्त मृत्यु को प्राप्त हुआ। इस कुकृय से त्रिपृष्ठ ने असाता बेदनीय कर्म का निकाचित 'बंधन किया। इसके सिवाय उस भव में भगवान महावीर के जीव ने अन्यान्य भी घनीभूत महा बुरे परिणाम वाले उनकर्म भी बंधन किया।
.२. सप्तम नरक के नारकी के भव में (क) तत्र वासुदेवत्वंच चतुरशीति-( ग्रंथाप्र० ६६०० ) वर्षशतसहस्राणि पालयित्वा अधः सप्तमनरकपृथिव्यामप्रतिष्ठाने नरके त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थिति रकः संजात इति, अमुमेवार्थं प्रतिपादयन्नाहचुलसीइमप्पइ8 -
-आव० निगा ४४८ का अंश मलय टीका-चतुरशीतिवर्षशतसहस्राणि वासुदेवभवे खल्वायुष्कमासीत् , तमनुभूय अप्रतिष्ठाने नरके समुत्पन्नः xxx |
भगवान महावीर का जीव चौरासी लाख वर्ष का त्रिपृष्ठ वासुदेव का भव क्षय करके सप्तम नरक में समुत्पन्न हए।
(ख) तच्छ्र त्वा कुपितो विष्णुः प्रभाते तस्य कर्णयोः । अक्षेपयस्त्रपु तप्तं शैय्यापालोमृतश्च सः ।। १७८ ।।
त्रिपृष्ठः कर्मणा तेन वेद्य कर्मन्यकाचयत् । प्रभुत्वादन्यदप्युग्रं कर्माबध्नाद् दुरायति ॥ १७६ ।। अहिंसादिष्वविरतो महारंभपरिग्रहः। चतुरशीत्यब्दलक्षी प्राजापत्योऽत्यवायत् ।। १८० ।। मृत्वाच सप्तमावन्यामुदपद्यत नारकः । तद्वियोगात्प्रवजितोऽचलो मृत्वा शिवंययौ ॥ १८१ ।।
-त्रिशलाका० पर्व० १०/सर्ग १ (ग) अइकसायुक्कडयाए य तेण बद्धं अप्पइट्ठाणे णरए आउयंति । पालिउण चुलसीतिवरिससयसहस्सा सवाउयं कालमासे कालं काऊण उववण्णो अहे सत्तमाए अपइट्ठाणे णरए तेत्तीससागरोवमाऽऽऊ णारगोत्ति।
-चउप्पण्ण० पृ० १०३
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