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वर्धमान जीवन कोश
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बांधने के महाअशुभ पापोदय से समस्त दुःखों की खानिभूत, सुख से दूर, घृणास्पद सातवें नरक को प्राप्त हुआ । त्रिखण्ड का अधिपति होने से त्रिपृष्ठ को अर्धचक्रवर्ती का पद मिला ।
• १२ त्रिपृष्ठ वासुदेव का राज्याभिषेक
(क) अचलश्च त्रिपृष्ठश्च प्रथमौ हलिशाङ्क्षिणौ । इत्याघोप सुरेव्योम्नि पुष्पवृष्टिपुरस्सरम् || १७० ।। तयोः सर्वेऽपि राजानः सद्योपि प्रणति ययुः । ताभ्यां चासाधि भरतक्षेत्रयाम्यार्ध मोजसा || १७१ ।। शिलां कोटिशिलां दोष्णोपाय मून्यतपत्रवत् । प्रथमः पुंडरीकाक्षो धारयामास लीलया ।। १७२ ।। विक्रमाक्रांतभूचक्रः पोतनपुरं ययौ । अभिषिक्तश्चार्ध चक्रिपदे देवैर्नृ पैरपि ।। १७३ ।। नंदुरतोऽपि त्रिपुष्ठ तत्तदाश्रयत् । रत्नीभूतां गायनेषु तमेयुः केऽपि सुस्वराः ॥ १७४ | - त्रिशलाका० पर्व ० १० / सर्ग १
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(ख) xxxदेवेहिं च घुट्ठ जहेस तिविट्ठ, पढमो वासुदेवोउपन्नोति, ता सवे रायाणी पणिवाय मुवगया, अवतियं अद्भभरहं, कोडियसिला दंडवाहाहिं धारिया, एवं रहावत्तपञ्वयसमीवे जद्धमासि, एवं परिहायमाणे बले कण्हेण किरजष्णुमाणि जाव किवि पाविया ।
- आव० निगा ४४५ / मलयटीका से उद्धृत
त्रिपृष्ठ ने अश्वग्रीव को चक्ररत्न के द्वारा मार गिराया - तब "यह अचल और त्रिपृष्ठ प्रथम बलभद्र और वासुदेव है - ऐसी देवों ने पुष्पवृष्टि द्वारा आघोषना की । तत्काल सर्व राजागण आकर उन्हें प्रणाम किये । बाद मैं दोनों वीरों ने स्वयं के पराक्रम से दक्षिण भरतार्द्ध को साध लिया। बाद में प्रथम वासुदेव स्वयं की भुजा से कोटि शिला का उपाड़न कर छत्र की तरह लीला मात्र में मस्तक तक ऊँची की। बाद में सर्वभूचक्र को पराक्रम से दबाकर वह पोतनपुर गया । वहाँ देवों और राजाओं ने उसका अर्धचक्रीपन का अभिषेक किया । जो जो रत्नवस्तु उनसे दूर थी— वे सर्व त्रिष्ठ के पास आकर उनके आश्रित हुई । उनमें वे गायकों में से यत्नरूप कितनेक मधुर स्वर वाले गायक भी त्रिपृष्ठ के पास आये ।
• १३ त्रिपृष्ठ भव में कर्मों का गठबन्धन
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रत्नीभूता गायनेषु तमेयुः केऽपि सुस्वराः ।। १७४ ।। एकदा तेषु गायत्सु शय्यापाल हरिर्निशि । ऊचे मयि शयाने मी विस्रष्टव्यास्त्वया खलु || १७५ ।। आमेत्यूचे तापाल आगान्निद्रा च शार्ङ्गिणः । तद्गीतलुब्धो व्यस्राक्षीद्गायनान् सोऽपि तान्नहि ॥ १७६ ॥ । तेषु गायत्सु चौत्तस्थौ विष्णुरूचे च ताल्पिकम् । त्वया विसृष्टाः किं नामी सोऽप्यचे गीतलोभतः ॥ १७॥ तच्छवा कूपितो विष्णुः प्रभाते तस्य कर्णयोः । अक्षेपयस्त्रप, तप्तं शय्यापालो मृतश्च सः ।। १७८ ।। त्रिपृष्ठः कर्मणा तेन वेद्य कर्मन्यकाचयत् । प्रभुत्वादन्यदप्यु कर्माऽवनाद् दुरायति ॥ १७६ ॥ - त्रिशलाका० पर्व ० १० / सगँ १
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