________________
वर्धमान जीवन-कोश
ऐसा अभिग्रह ग्रहण कर भगवान् प्रतिदिन भिक्षा के समय में उच्च-नीच गृह में गोचरी के लिए फिरने लगे। परन्तु भगवान् के उपयुक्त अभिग्रह होने के कारण यदि कोई भिक्षा देता तो भगवान् भिक्षा को ग्रहण नहीं करते थे। फलस्वरूप नगर के लोग प्रतिदिन सोच करते और स्वयं की निंदा करते थे।
इस प्रकार अशक्य अभिग्रह होने के कारण भिक्षा को ग्रहण किये बिना बावीस परीषहों को सहन करते हए भगवान् ने चार प्रहर की तरह चारमास व्यतीत किये।
एक समय भगवान् सुगुप्त मंत्री के घर पर भिक्षार्थ पधारे । वहाँ उनकी स्त्री नन्दाने भगवान को दूर से देखा। ये 'महावीर अहंत' हमारे भाग्य के कारण हमारे घर पधारे। इस प्रकार बोलती हुई नंदा आनंदको प्राप्त-भगवान् . के सम्मुख गयी। और वह बुद्धिमान श्राविका भगवान् को कल्पित भोजन-पदार्थ भगवान् के पास रखा।
परन्तु भगवान् अभिग्रह के कारण उसमें से किसी को भी ग्रहण किये बिना चले गये। फल स्वरूप- तत्काल नंदा का हृदय मंद हो गया । मैं अभागिनी हूं, मुझे धिक्कार है, मेरा मनोरथ पूर्ण नहीं हुआ। इस प्रकार शोक-संताप करने लगी। इस प्रकार खेद करती हुई उसे उसको दासी ने कहा कि हे भद्र ! ये देवार्य प्रतिदिन इसी रीति से भिक्षा लिये बिना ही चले जाते हैं-आज तक कार्य पूर्ति नहीं हआ है।
दासो की यह बात सुनकर नंदा ने विचार किया कि भगवान् ने किसी प्रकार का अपूर्व अभिग्रह किया है --- ऐसा जाना जाता है जिससे कि प्राशुक अन्य भी नहीं ग्रहण करते हैं।
अब प्रभु के उस ग्रहित अभिग्रह को किसी प्रकार से जाना लेना चाहिए। इस प्रकार चिंता करती हुई नंदा आनन्द रहित होकर बैठी हुई थी कि उस समय सुगुप्त मंत्री घर आया। उसने नंदा को चिता से व्याकुल देखकर कहा-हे प्रिया! तुम उद्विग्न चित्तवालो केसे दिखाई देती हो। क्या किसी ने तुम्हारी आज्ञा का उल्लंघन किया है। मैंने तुम्हारा क्या अपराध किया है। प्रत्युत्तर में नंदाने कहा-स्वामी ! किसी ने भी मेरी आज्ञा का उल्लघन नहीं किया है। आपने भी कोई अपराध नहीं किया है।
परन्तु में श्री वीर भगवान् को पारणा नहीं कराने सकी---- इसमे मुझे बहुत बड़ा खेद है।
भगवान् वारप्रभु नित्य भिक्षार्थ अपने नगर ( कौशाम्बी ) में आते हैं और किसी अपूर्व अभिग्रह को ग्रहण करने से भिक्षा लिये बिना हो चले जाते हैं। इसलिए हे महामंत्री ! तुम्हें उस प्रभु के अभिग्रह को जान लेना चाहिये । यदि तुम यह नहीं जानते हो तो दूसरों के चित्त को देखने वाली तुम्हारी बुद्धि व्यर्थ है।
प्रत्युत्तर में सुगुप्त ने कहा-हे प्रिया ! महावीर प्रभुका अभिग्रह जिस रीति-भांति जाना जाय बसा प्रात: काल प्रयास करूंगा।
उस समय मृगावती राणी की नाम विजया को छड़ोदार स्त्री वहाँ आयी थी। उसने दंपती की बात को सुना। फलस्वरूप यह सर्व हकीकत उसने स्वयं को स्वामिनी मृगावती के पास जाकर कही। यह बात सुनकर मृगावती राणा को भी तत्काल खेद उत्पन्न हुआ।
शतानिक राजा संभ्रम को प्राप्त हुआ और उसे खेद का कारण पूछा । फल स्वरूप मृगावती जरा भृगुटी ॐची कर अंतर के खेद और क्षोभ के उद्गार से व्याप्त ऐसो वाणी से बोली-"राजागण तो इस चराचर जगत को स्वयं की बात-मोदारा से जान सकते हैं और तुम तुम्हारे एक शहर को भी नहीं जान सकते हो-तब तुम्हारे पास
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org