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वर्धमान जीवन - कोश
समस्त नरेन्द्राधोशों की प्रिय, समर्थ एवं दुर्लभ लक्ष्मी को प्राप्त कर निखिल नरनाथों के मन में किंकरत्व का भाव जगा दिया । किन्तु जो वैर धारण किये हुए थे उनका सर्व स्थापहरण कर अपने सदाचरण से उन पर तत्काल ही वह उसी प्रकार छा गया, जिस प्रकार की भ्रमर विकसित शतदल कमल पर ॥ ३ ॥
દર
कुछ ही दिनों में राजा प्रियदत्त ने उस चक्ररत्न द्वारा बड़ी ही मरलता पूर्वक पृथ्वो के छहों खण्डों को अपने वश में कर लिया ।
बत्तीस सहस्र नरेन्द्रों, सोलह सहस्र देवेन्द्रों और मदनानल में झोंक देनेवालो श्रेष्ठ छयानबे सहल श्यामा कामिनियों से परिवृत्त वह चक्रवर्ती प्रियदत्त उसी प्रकार सुशोभित रहता था जिस प्रकार देवी समूह से सुरराज इन्द्र ||५|| इस प्रकार सुख पूर्वक राज्य करते हुए तथा विषय सुख रूपी समुद्र में स्थित रहते हुये भी जिन धर्म में उत्कंठित उस चक्रवर्ती ने तेणासी लाख पूर्व व्यतीत कर दिये ।
अन्य किसी एक दिन देदीप्यमान रत्नों से सेवित उस चक्रवर्ती ने दर्पण में अपना मुख देखते हुए श्रुतिमूल ( कान के पास ) में केशों से छिपा हुआ एक नव पलित श्वेत केश देखा || ७ ||
शत्रु समूह के विमर्दन से प्रवृत्त बुद्धिवाला वह चक्रवर्ती उस श्वेत केश को देख कर विचार करने लगा - "मुझे छोड़कर ऐसा कौन बुद्धिमान होगा, जो विषय विषयों में इस प्रकार उलझा रहता हो ॥ ८ ॥
वह चक्रनाथ मोक्ष का पथ जान कर राज्यलक्ष्मी एवं धन-धान्यादि को छोड़कर अक्रोधी, निर्मोही, अलोभी एवं अकिंचन तीर्थनाथ क्षेमंकर को नमस्कार कर अपने अरिंजय नामक बहुश्रुत पुत्र को पृथ्वी सौंपकर वह चक्रवर्ती सोलह सहस्र नचनयों के साथ सुरनरों के देखते-देखते ही दिगम्बर मुनि हो गया ॥ १० ॥
* २६४ पोट्टिलभव (प्रियमित्र चक्रवर्ती) में - ( श्वे० व दिग्० मान्यता )
(क) समणे भगवं महावीरे तित्थगरभवग्गहणाओ घट्ट पोट्टिलभवग्गहणे एगं वासकोडिं सामण्णपरियागं पाउणत्ता सहस्सारे कप्पे सवट्ठविमाणे देवत्ताए उववण्णे ।
- सम० पइसम / सू ८६ / पृ ६११६१२ मलय टीका—'समणे' श्यादि, यतो भगवान् पोट्टिलाभिधानराजपुत्रो बभूव, तत्र वर्षकोटि प्रव्रज्यां पालितवानित्येको भवः, ततो देवोऽभूदिति द्वितीयः ततो नन्दनाभिधानो राजसूनुः छत्रामनगर्यां जज्ञ इति तृतीयः तत्र वर्ष लक्षणं सर्वदा मासक्षपणेन तपस्तप्त्वा दशमदेवलोके पुष्पोत्तरवर विजय पुण्डरिकाभिधाने विमाने देवोऽभवदिति चतुर्थस्ततो ब्राह्मणकुंडग्रामे ऋषभदत्तब्राह्मणस्य भार्याया देवानन्दाभिधानायाः कुक्षावुत्पन्न इति पंचमस्ततस्त्र्यशीतितमे दिवसे क्षत्रियकुंडग्रामे नगरे सिद्धार्थमहाराजस्य त्रिशला - भिधानभार्यायाः कुक्षा विन्द्रवचनकारिणा हरिनैगमेषिनाम्ना देवेन संहतस्तीर्थकरतया च जात इति षष्ठः । उक्तभवग्रहणं हि विनानान्यद्भवग्रहणं षष्ठ श्रूयते भगवत इत्येतदेव षष्ठभवग्रहणतया व्याख्यातं यस्माच भवणादिदं पठतदप्येतस्मात् षष्ठमेवेति सुष्ठुच्यते तीर्थकर भवग्रहणात्षष्ठे पोट्टिलभवग्रहणे इति ।
श्रमण भगवान् महावोर तीर्थंकर का भव ग्रहण करते के पूर्व छट्टु पोट्टिलभव ( प्रियमित्र चक्रवर्ती ) में एक कोढ़ वर्ष मण- पर्याय का पालनकर सहस्त्राय नामक देवलोक में सर्वार्थं नाम के विमान में देवरूप में उत्पन्न हुए ।
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