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वर्धमान जीवन कोश ___ सब शब्दों में जैसे मेघगर्जन प्रधान है तथा नक्षत्रों के मध्य में जैसे सब को आनन्द देने वाले कांति के । महानुभाव चन्द्रमा प्रधान है तथा गंध (गुण और गुणी के अभेद से) अर्थात् गन्धवाले पदार्थों में जैसे गोशीर्ष भयधा चन्दन श्रेष्ठ है इसी तरह मुनियों के मध्य में इसलोक तथा परलोक के सुख की कामना नहीं करने वाले भर महावीर स्वामी को श्रेष्ठ कहते है। (m) जहा सयंभू उदहीण से8. णागेसु वा धरणिंदमाहु से?' । खोओदए वा रस वेजयंते, तवोवा मुणि वेजयंते ।।
-सय० श्रु १ । अ६ । गा २० । पृ० ___ जैसे सब समुद्रों में स्वयंभूरमण समुद्र प्रधान है तथा जैसे नागों में धरणेन्द्र सर्वोत्तम हैं एव जैसे सब रस में इक्षुरसोदक समुद्र श्रेष्ठ है इसी तरह सब तपस्वियों में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी श्रेष्ठ है । (त) हत्थीसु एरावणमाहु जाते सीहो मीगाणं सलिलाण गंगा। पक्खीसु या गरुले वेणुदेवे, णिव्वाणवादीणिह णायपुत्ते !!
-सूय० श्र. १ अ६ / गा २१ । पृ० ३०३ । टीका-+ + + । निर्वाण-सिद्धिक्षेत्राख्यं कर्मच्युतिलक्षणं वा स्वरुपतस्तदुपायप्राप्तिहेतुतो वदितु शीलं येषांते तथा तेषां मध्ये ज्ञाता:-क्षत्रियास्तेषां पुत्रः अपत्यं ज्ञातपुत्रः-श्रीमन्महावीरवर्धमा स्वामी स प्रधान इति, यथावस्थितनिर्वाणार्थवादित्वादित्यर्थः ।
जैसे हस्ति में ऐरावण हस्ति प्रधान है, पशुओं में सिंह, नदियों में गगा, पक्षिओं में गरुड़ प्रधान है बेहे मोक्षमार्ग की स्थापना करने वालों में महावीर प्रभु श्रेष्ठ थे। (थ) जोहेसु णाए जह वीससेणे, पुप्फेसु वा जह अरविंदमाहु । खत्तीण से? जह दंतवक्के, इसीण से? तह वद्धमाणे ।।
-सूय० श्रु १। अ६ । गा २२ टीका-योधेसु मध्ये 'ज्ञातो' विदितो दृष्टांतभूतो वा विश्वा-हस्त्यश्वरथपदातिचतुरंग समेता सेना यस्य स विश्वसेनः-चक्रवर्ती यथाऽसौ प्रधानः, पुष्पेषु च मध्ये यथा अरविन्दं प्रधानमा तथा क्षतात् त्रायन्त इति क्षत्रियाः तेषां मध्येदान्ता-उपशान्ता यस्य वाक्येनैव शत्रवः स दान्तवाक्या चक्रवर्तीयथाऽसौ श्रेष्ठः । तदेव बहून् दृष्टांतान प्रशस्तान प्रदाधुना भगवन्तं दार्टान्तिकं स्वनामग्राहमा तथा ऋषीणां मध्ये श्रीमान वर्धमानस्वामी श्रेष्ठ इति ।।
जैसे योद्धाओं में वासुदेव प्रसिद्ध है, पुष्प मैं अरविन्द और क्षत्रिय में चक्रवर्ती श्रेष्ठ है -वैसे ही ऋषि में वर्धमान स्वामी श्रेष्ठ थे। द) दाणाण सेट्ठ अभयप्पयाणं, सच्चेसु या अणवज्जं वयंति । तवेसु या उतम बंभचेरं, लोगुतमे सर्व णायपुत्ते ।।
-स्य० श्रु १ । अ ६ । गा २३ । पृ०३ टीका-xxx तथा सर्वलोकोत्तमरूपसंपदा-सर्वातिशायिन्या शक्त्या क्षायिकज्ञानदर्शनाए शीलेन च ज्ञातपुत्रो' भगवान् श्रमणः प्रधान इति ।
जैसे दान में अभयदान श्रेष्ठ है, सत्यवचन में निरवद्यवचन और तप में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ है-वैसे ही लोक में न श्रमण ज्ञातपुत्र थे।
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