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वर्धमान जीवन-कोश कामभोग समस्त दुःखों के निधानभूत है-ऐसा विचार करा और अपने चचेरे भाई विशाखनन्द को बुलाकर वह उद्यान उसे ही देकर और सब राजलक्ष्मी छोड़कर वह विश्वनन्दी शीघ्र ही संभूतगुरु के समीप गया और मुनिराज के चरणों को मस्तक से नमस्कार कर तथा सर्व परिग्रह को छोड़कर एवं देह, भोग, संसार आदि सभी में वैराग्य को प्राप्त होकर विश्वनन्दी ने तप को ग्रहण कर लिया।
विश्वनन्दी मुनि पक्ष-मास आदि तपों के करने से अतिकृश शरीर एवं निर्बल होकर नानादेश, ग्राम, वनादिक में बिहार करते ओठ, मुख और शरीर के सूख जाने पर भी ईर्यापथ पर दृष्टि रखे हुए अपने शरीर की स्थिति के लिए मथुरापुरी में प्रविष्ट हुए। उस समय निन्द दुध्यसनों के सेवन से राज्यभ्रष्ट हुआ और किसी अन्य राजा का दूत बनकर मथुरापुरी में आकर किसी वेश्या के भवन के अग्रयाग पर बैठा हुआ वह कुबुद्धि विशाखनन्द सद्यः प्रसूता गाय के सोंग के आघात से अतिकृशदेह और क्षीणपराक्रम दुर्बल उन विश्वनन्दी मुनि को गिरता हुआ देखकर हास्यपूर्वक अपना घात करने वाले दुर्वचन इस प्रकार बोला । +++।
इस प्रकार के उसके दुर्वचन सुनकर, क्रोध और मान कषाय के उदय से यह मुनि कोप से रक्तनेत्र होकर मन में बोला-अरे दुष्ट, मेरे तप के माहात्म्य से तू इस प्रहास्य का स्वमूलनाशक महान् कटुक फल पायेगा, इसमें कोई सदेह नहीं है। इस प्रकार ज्ञानियों द्वारा निन्दित निदान उसके विनाश के लिए वह मुनि करके अपने तप से अंत में संन्यास के साथ मरा वह महाशुक्र देवलोक में उत्पन्न हुआ जिसकी स्थिति सोलह सागर थी।
बल, वीर्य, लक्ष्मी और नयनीति से युक्त तथा श्रेष्ठ ऐरावत हाथी की सूड के समान दीर्घभुजाओं वाले उस यवराज विश्वनन्दि ने अपनी चाचा की आज्ञा का उल्लंघन कर अपना स्थान (अलग ) बनवाया।
किसी दिन विश्वनन्दी कुमार अपने मनोहर नामक उद्यान में अपनो स्त्रियों के साथ क्रीड़ाकर रहा था। उसे देख, विसाखनन्द उस मनोहर नामक उद्यान को अपने अधीन करने की इच्छा से पिता के पास जाकर कहने लगा कि मनोहर नाम का उद्यान मेरे लिए दिया जाये अन्यथा मैं देश परित्याग कर दूंगा-आपका राज्य छोड़कर अन्यत्र चला जाऊंगा।
पुत्र के वचन को सुनकर तथा हृदय में धारणकर स्नेह से भरे हुए पिता ने कहा कि वह वन जितनी-सी वस्तु है, मैं तुझे अभी देता हूं। इस प्रकार अपने पुत्र को संतुष्ट कर उसने विश्वनन्दी को बुलाया और (छल कपट से) कहा कि "इस समय राज्य का भार तुम ग्रहण करो, मैं समीपवर्ती विरुद्ध राजाओं पर आक्रमण कर उनके द्वारा किये गये क्षोभ को शान्त कर कुछ ही दिनों में वापस आ जाऊंगा। राजा के वचन सुनकर श्रेष्ठ पुत्र विश्वनन्दी ने उत्तर दिया कि 'हे पूज्यपाद ! आप यहीं निश्चित होकर रहिए, मैं ही जाकर उन राजाओं को दास बनाये लाता हूँ।'
आचार्य कहते हैं कि देखो ! राजा ने यह विचार नहीं किया कि राज्य तो इसी का है, भाई ने स्नेहवश मुझे दिया है। केवल धन के लिए ही वह उस श्रेष्ठ पुत्र ठगाने के लिए उद्यत हो गया सो ऐसे दुष्ट अभिप्राय को धिक्कार हैं।
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