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वर्धमान जीवन-कोश तदन्तर पराक्रम से सुशोभित विश्वनन्दी जब काका की अनुमति ले, शत्र ओं को जीतने के लिए अपनी सेना के साथ उद्यत करता हुआ चला गया तब बुद्धिहीन विसाखभूति ने क्रम का उल्लंघन कर वह वन अन्याय की इच्छा रखने वाले विशाखनन्द को दे दिया ।
विश्वनन्दी को इस घटना का तत्काल ही पता चल गया। वह क्रोधाग्नि से प्रज्ज्वलित हो कहने लगा कि देखो काका ने तो मुझे धोखा देकर शत्रु राजाओं के प्रति भेज दिया और मेरा वन अपने पुत्र के लिए दे दिया। क्या 'देखो' इतना कहने से ही मैं नहीं दे देता ? वन है कितनी चीज ? इसकी दुच्येष्टा मेरी सज्जनता का भंग कर रही है। ऐसा विचार कर वह लोट पड़ा और अपना वन हरण करने वाले को मारने के लिए उद्यत हो गया। इसके भय से विशाखनन्द वहाँ से भागा और एक पत्थर के खम्भा के पीछे छिप गया परन्तु बलवान विश्वनन्दी ने अपनी हथेलियों के प्रहार से उस पत्थर के खम्भे को शीघ्र हो तोड़ डाला। विशाखनन्द वहां से भी भागा। यद्यपि वह कुमार का अपकार करने वाला था परन्तु उसे इस तरह भागता हआ देखकर कुमार को सौहार्द्र और करुणा दोनों ने प्रेरणा दी जिससे प्रेरित होकर कुमार ने उसे कहा कि डरो मत । यही नहीं, उसे बुलाकर वह वन भी उसे दे दिया तथा स्वयं ससार को दुःखमय स्थिति का विचार कर संभूत नामक गुरु के समीप दीक्षा धारण करली सो ठीक ही है क्योंकि नीच जनों के द्वारा किया हुआ अपकार भी सज्जनों का उपकार करने वाला ही होता है ।
उस विशाखभूति को भी बड़ा पश्चाताप हुआ। 'यह मैंने बड़ा पाप किया है-ऐसा विचार कर उसने प्रायश्चित स्वरूप संयम धारण कर लिया।
१८ महाशुक्र कल्प देव भव में (क) xx+ महसुक्के उववन्नो xxx ।
-आव० निगा ४४६ उत्तरार्ध मलयटीका-xxx मृत्वा च सनिदानोऽनालोचिताप्रतिक्रान्तः अंते मासिकेन भक्त न महाशुक्र कल्पे उपपन्न उत्कृष्टस्थितिर्देव इति ।
भगवान महावीर का जीव विश्वभूति क्षत्रिय भव से सनिदान मर कर महाशुक्र कल्प देवलोड में उत्कृष्ट स्थिति के देव के रूप में उत्पन्न हुआ ? (ख) भ मिष्ठवीर्यो भयासं मृत्यवेऽस्य भवान्तरे । अनेन तपसोग्रेण निदानमिति सोऽकरोत् ।। १०६ ।। संपूर्य कोटिवर्षायुरनालोच्य च तन्मृतः । विश्वभ तिर्महाशुक्र प्रकृष्टायुः सुरोऽभवत् ।। १०७ ।।
-त्रिशलाका० पर्व १० । सर्ग १ (ग) विस्सभ तो वि अणगारो + + + कालमासे कालं काऊग महासुक्के देवलोए उकोसहिईओ देवो समुप्पण्णो।
-चउप्पन्न० पृ०६६
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