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वर्धमान जीवन-कोश ईदशं स तदुच्छित्त्यै निदान बुधनिन्दितम् । कुत्वा स्वतपसा प्रान्ते संन्यासेनाभवद्व्यसुः ॥ ५५ ॥ ततस्तपः फलेनासौ तब्रवाभूत्सुरो दिवि । यत्रास्ति सुखसंलीनो विसाखभ तिसन्मुनिः ॥ ५६ ॥
- वीरच० अधि ३ स निदानोऽभवत् प्रान्ते कृतसंन्यासनक्रियः। स्वयं विशाखभ तिश्च महाशुक्रमुपाश्रितो ।। ११८ ॥ तत्र षोडशवाराशिमानमेयायुषौ चिरम् ।
x ॥ ११६ ॥
-उत्तपु० पर्व ७४ घत्ता-मगहे सरजुत्त देह-विउत्तु सोलहि जलहि समाउ ।
महसुक्कि सतेउ जायउ देउ सो सुन्दरयर काउ ।। ५६ ।। तस्थवि विसाण दी पहूउ, सुउ जिणवर-तउ विरइ विसरउ
-वड्डमाणच० संधि ३/कड १७, १८ इस प्रकार ज्ञानियों द्वारा निन्दित निदान विसाखनन्द के विनाश के लिए वह मुनि करके अपने तप के अन्त व्यास के साथ मरा और उस तप के फल से उसी स्वर्ग में ( महाशुक ) देव उत्पन्न हुआ, जहाँ पर विसाखभति नियाज का जीव सुख में मग्न देव था। वहाँ पर उन उत्तम दोनों देवों की आयु सोलह सागर प्रमाण थी।
त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में विष्ठ वासुदेव का समय-काल| पंचऽरहते वदंति केसवा पंच आणुपृथ्वीए। सिज्जंस तिविट्ठाई धम्म पुरिससीहपेरंता ।।
-आव• निगा ४१६ मलय टीका-x + + 'आनुपूयां' परिपाट्या, 'सेन्जंस तिविट्ठाइ धम्म पुरिससोहपेरता' श्रेयांसादीन् तिपृष्ठादयः धर्मपर्यन्तान् पुरुषसिंहपर्यन्ता इति । प्रथम पांच घासुदेव-अनुक्रम से श्रेयांसनाथ यावत् धर्मनाथ तीर्थ कर के काल में हुए अर्थात् प्रथम त्रिपृष्ठ वि-श्रेयांसनाथ तीर्थकर के काल में हुए यावत् पांचवे वासुदेव पुरुषसिंह-धर्मनाथ तीर्थकर के काल में हुऐ । तिविठ्ठ, णं वासुदेवे यउरासीई वाससचसहस्साई सम्वाउय पालइत्ता अप्पइहाणे नरए नेरइयत्ताए
-सम० सम ८४/५० ८६६ | टीका-'तिविट्ठ,' त्ति प्रथमवासुदेवः श्रेयांसजिनकालभावीति अप्रतिष्टानो नरकः-सप्तमपृथिव्या जानां मध्यम इति ।
त्रिपृष्ठ वासुदेव ग्यारह तीर्थ कर श्रेयांसनाथ के समय-काल में हुए। आयुष्यपूर्ण कर सातवीं नरक के विष्ठान नरकावास में समुत्पन्न हुए ।
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