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वर्धमान जीवन - कोश
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बंब तो हमारे प्राणों के रहने में सन्देह है ? अपने समान लोगों से इस प्रभु के साथ स्पर्धा करके क्या मरना है ?' इस प्रकार कहकर वे सब वेषवारी साधु भगवान् के चरण-कमलों को नमस्कार करके वहाँ से चले । किन्तु भरतेश के भय से अपने घर जाने में असमर्थ होकर वहीं वन में ही पाप से स्वेच्छाचारी होकर वे दीन शठ फलों का भक्षण करने लगे । और नदो आदि का जल पोना उन्होंने प्रारम्भ कर दिया ।
(थ मरीचिरपि तैः सार्धं पीडितोऽतिपरीषदैः । तत्समानक्रियां कर्तुं
प्रवृत्तोऽधविपाकतः ॥ ८४ ॥ ८५ ॥
निन्द्य कर्म तु तान् विलोक्य वनदेवता । इत्याह रे शठा यूयं शृणुतास्मद्वचः शुभम् ॥ वेषेणानेन ये मूढाः कर्मेदं कुर्वतेऽशुभम् । निन्यं सत्त्वक्षयं कर्तृ श्वभ्राब्धौ ते पतन्त्यघात् ॥ ८६ ॥ गृहिलिङ्गकृतं पापमल्लिङ्गन मुच्यते । अर्हल्लिङ्गकृतं पापं वज्रलेपो जायते ॥ ८७ ॥ अतो दं जगत्पूवेषं मुक्त्रा जिनेशिनाम् । गृहणीध्वमपरं नो चेद्रः करिष्यामि निग्रहम् ॥ ८८ ॥ इति तद्वचसा भीता मुक्त्वा वेषं बुधाचितम्। जटादिधारणैर्नानावेषं ते जगृहुस्तदा ।। ८६ ।। मरीचिरपि तोत्रात्तमिध्यात्वोदयतः स्वयम् । परिव्राजकदीक्षां स हत्वा वेष निजं व्यधात् ॥ ६०॥ तच्छास्त्ररचनेस्याशु दीर्घ संसारिणः स्त्रयम् । शक्तिरासीदहो यत्र यद्भावि तत्किमन्यथा ।। ६१ ।। वीरवधच ० अधि २
पाप के उदय से अति घोर परोषों के द्वारा पीड़ित हुआ मरोवि भी उन लोगों के साथ उनके समान हो क्रियाएं करने के लिये प्रत हो गया । इन भ्रष्ट साधु को नि-कर्म करते हुए देख कर घनदेवता ने कहा'अरे मूर्खो, तुम लोग हमारे शुभ वचन सुनो '
'इन नग्नवेष को धारण कर जो मूहजन ऐसा निन्द्य अशुभ और जीवातक कार्य करते हैं, वे उस पाप फल से घार नरक के सागर में पड़ते हैं । अरे वेषवारियो, गृहस्थ-वेज में किया हुआ पाप तो जिलिंग के धारण करने से छू जाता है किन्तु इस जिनलिंग में किया गया पाप बच्चनेप हो जाता है। ( उसका छूटना बहुत कठिन है ) मतः जितेश्वर देव के इस जगत्पूज्य वेष को छोड़कर तुम लोग कोई अन्य वेष धारण करो । अन्यया मैं तुम लोगों का निग्रह करूंगा।' इस प्रकार वनदेवता के वचन से भयभीत होकर विद्वत्पूज्य जिनवेष को छोड़कर तब उन लोगों ने जटा आदि को धारण करके नाना प्रकार के वेष ग्रहण कर लिये ।
मोचि ने भी तो मिध्यात्व कर्म के उदय से जिनवेष को छोड़कर स्वयं ही परिव्राजक दीक्षा को धारण कर लिया | दोघं सतारी इस मरोचि के उस परिब्राजक दीक्षा के अनुरूप शास्त्र की रचना करने में शीघ्र हो शक्ति प्रगट हो गयी । अहो | जिस का जैसा भवितव्य होता है, वह क्या अन्यया हो सकता है ।
(द) तादृग्वेषं च तं दृष्ट्वाऽच्मं जनोऽखिलः । साबुधर्म सताचख्यौ सोऽपि तेषां जिनोदितम् ॥ ४४ ॥ किं त्वं स्वयं नाचरसीत्य नुयुक्तः पुनर्जनैः । मेहमारं न तं वोढुमीशोऽस्मीति शशंस सः ।। ४५ ।। धर्माख्यानप्रतिबुद्वान् स तु भञ्यानुपस्थितान्। शिध्यात् समयामास स्वामिने नाभिसूनवे ॥ ४६ ॥ त्याचारो विजहार मरोचिः स्वामिना सह । - त्रिशलाका० पर्व १० । स १
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