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वर्धमान जीवन-कोश लज्जा को प्राप्त होऊँगा परन्तु एक उपाय है जिससे व्रत भी कुछ अंश में रह जाता है और पैसा श्रम भी उठाना नहीं पड़ता है।
ये श्रमण भगवंत त्रिदण्ड अर्थात् मनोदण्ड, वाक् दण्ड, और कायदण्ड से विरक्त हैं और मैं त्रिदण्ड का विजेता है अतः मेरा तीन दण्ड का लांछन हो । ये साधु केश के लोच से मुण्डित है और मैं तो शस्त्र से केशों को मुण्डने वाला व शिखाधारो होऊ । ये साधु महाव्रतधारी है और मैं अणुव्रतधारी बनूं। ये मुनि निष्किचन है और मैं मुद्रिकादि परिग्रहधारी होऊँ । ये मुनि मोहरहित हैं परन्तु मै मोह से आच्छादित होने से छत्र वाला होऊ । ये महर्षि उपानद् रहित हैं परन्तु मैं पादको रक्षा के लिए उपानद् को ग्रहण करूंगा। ये साधु शोल के द्वारा सुगन्धित है परन्तु मैं शोल से सुगन्धित नहीं हूं। अत: सुगन्धी के लिये मेरे श्रीखण्ड चन्दन का तिलक होना चाहिए। ये महर्षि कषाय रहित होने के कारण और शुक्ल और जीर्ण वस्त्रधारी है। इसके बनिबस्त कषाय वाले ऐसा हमारा कषाय (रंगे हुए ) वस्त्र है। ये मुनिगण तो घने जोवों को विराधना वाले सचित जल का आरम्भ छोड़ा है । इसके बनिबस्त हमारे मित जल से स्नान-पान हो।
इस प्रकार स्वयं की बुद्धि से विचार करके कष्ट से कायर ऐसा मरोचि लिंग का निर्वाह करने के लिए त्रिदण्डी सन्यास को ग्रहण किया । (त) यक्वा देहममत्वादोन भूखा मेरुसमोऽवलः । हन्तुक रिसंतानं कर्मारातिनिकन्दनम् ।। ७६ ।।
दधे योगं परं मुक्यै षमासावधिनारतवान् । प्रलम्बितमुनादण्डो ध्यानपूर्व जागुरुः ।। ७७ ।। ततस्ते क्षुत्तिपासादीन् सर्वान् घोरपरोषहान् । तेन साधं चिरं सोढ्वा पश्चात्सोदु किलाक्षमाः ।७८॥ तमक्लेशभराक्रान्ता दोनास्या धृतिदूरगाः । जनयुरित्य मन्योन्यं सुन्छ, दोनतया गिरा ।। ७६ ।। अहो एष जगद्भर्ता वचकायः स्थिराशयः । न ज्ञायते कियकालमेवं स्थास्यति विश्वराट ॥ ८ ॥ अस्माकं प्राणसंदेहो वततेस्मसनानकैः । यतोऽनेन समस्पर्धा कृत्वा मतव्यमेव किम् ॥ ८१ ।। इत्युक्त्वा लिङ्गिनः सर्वे ते नत्वा तस्कमाम्बुजौ । भरतेशभयाद् गन्तुमशक्काः स्वालयं ततः ।। ८२ ।। तत्र व कानने पापात्स्वेच्छया फळभक्ष गम् । कतु पातु जलं दोना स्वयं प्रारेभिरे शठाः ।। ८३ ।।
. -वीरवर्धच० अधि-२ भगवान् वृषभदेव ने देह से ममता आदि को छोड़कर और मेरु के समान अचल होकर कर्मशत्रुओं को सन्तान का नाश करने के लिये कर्मधेसरी का घातक छह मास की अवधि वाला प्रतिमा योग मुक्ति प्राप्ति के लिये धारण कर लिया और आत्म-सामध्यपान वे जगद्गुरु अपने भुजादण्डों को लम्बा करके ध्यान में अवस्थित हो गये ।।
भगवान् वृषभदेष के साथ जो चार हजार राजा लोग दोक्षित हुये थे, वे कुछ दिन तक तो भगवान् के समान ही कार्योत्सर्ग में खड़े रहे और भूख प्यास मादि सभो घोर परीषहों को सहन करते रहे। किन्तु आगे दोघकाल तक भगवान के साथ उन्हें सहने में असमर्थ हो गये। - वे सब तप के क्लेशभार से आक्रांत हो गये उनके मुख दोनता से परिपूर्ण हो गये, उनका धेर्य चला गया. तब वे अत्यन्त दान-वाणी से परस्पर में इस प्रकार वार्तालाप करने लगे-'अहो। यह जगद्-भर्ता वकाय और स्थिरचित वाला है, हम नहीं जानते हैं कि यह विश्व का स्वामी कितने समय तक इसी प्रकार से खड़ा रहेगा?
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