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वर्धमान जीवन - कोश
२५६
उस काल उस समय में आर्य सुधर्मा अनगार के ज्येष्ठ शिष्य आर्य जंबू नामक अनगार थे । जो काश्यप गोत्रीय और सात हाथ ऊँचे शरीरवाले यावत् आर्य सुधर्मा स्थविर से न बहुत दूर, न बहुत समीप अर्थात् उचित स्थान पर, ऊपर घुटने और नीचा मस्तक रखकर, ध्यानरूपी कोष्ठ में स्थित होकर संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे ।
• २ जंबू स्वामी :
तद्दिवसे चे जंबू सामिभडरओ विट्ठु (विष्णु) आइरियादीणमणेयाणं वक्खाणिददुवालसंगो कंवली जादो । सोवि अट्ठत्तीसवासाणि ३८ केवलविहारेण विहरिदूण णिव्वुई गदो । एसो एत्थोसप्पिणीए अंतिम केवली । - कसापा० /गा १/ टीका / भाग १ / १०८४-८५ जिस दिन सुधर्मा स्वामी मोक्ष पधारे उसी दिन जंबू स्वामी भट्टारक विष्णु आचार्य आदि अनेक ऋषिगण द्वादशांग की व्याख्या करके केवली हुए । वे जंबू स्वामी भी अड़तीस वर्ष तक केवली विहार रूप से विहार करके मोक्ष को प्राप्त हुए।
ये जंबू स्वामी इस भरत क्षेत्र सम्बन्धी अवसर्पिणीकाल में पुरुष परम्परा की अपेक्षा अंतिम केवली हुए हैं।
•३ जंबू जाव पज्जुवासति
पठित जाव - यावत् पद से
जंबू णामं अणगारे कासवगोत्तेणं सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए वज्जरिसहनारायसंघयणे कणगलगणिघसपम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे ओराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी ऊछूढसरीरे संखित्तविउलतेउलेसे चोहसपुव्वी चउणाणोवगए सव्वक्खरसन्निवाई अज्जसुहम्मस्स थेरस्स अदूरसामंते उड्ढजाणू अहोसिरे झाणकोट्ठोवगते संजमेणं तवसा अप्पाणं भवेमाणे विहरति । ततेणं अज्ज जम्बू णामं अणगारे जायसड्ढे जायसंसए जायकोउहल्ले, संजायसंसए संजाय - कोउहल्ले, उप्पन्नसड्ढे उप्पन्नसंसए उप्पन्नकोउहल्ले, समुप्पन्नसड्ढे समुप्पन्नसंसए समुप्पन्नको उहल्ले उठाए उट्ठेति उट्टाए उट्ठेत्ता जेणामेव अज्जसुहम्मे xxx ।
- विवा० श्रु २/अ १ / सू १
आर्य जम्ब अणगार आर्य सुधर्मा स्वामी के पास संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विहरण कर रहे थे, जो कि काश्यप गोत्र वाले हैं, जिनका शरीर सात हाथ प्रमाण का है, जो पालथी मारकर बैठने पर शरीर की ऊँचाई और चौड़ाई बराबर हो — ऐसे संस्थान वाले हैं, जिनका वज्रर्षभनाराच संहनन है, जो सोने की रेखा के समान और पद्मराग (कमलरज) के समान वर्णवाले हैं, जो उग्रतपस्वी साधारण मनुष्य की कल्पना से अतीत को उग्र कहते हैं — ऐसे उग्र तप के करनेवाले, दीप्ततपस्वी — कर्मरूपी गहन वन को भस्म करने में समर्थ तप के करनेवाले, तप्ततपस्त्री -कर्म संताप के विनाशक तप के करनेवाले और महातपस्वी – स्वर्गादि की प्राप्ति की इच्छा बिना तप करने वाले हैं, जो उदार प्रधान हैं, जो आत्म शत्रुओं के विनष्ट करने में निर्भीक है, जो दूसरों के द्वारा दुष्प्राणो गुणा को
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