________________
वर्धमान जीवन-कोश वलय समु रयणमय धूलिसारु, चउदिसहि माण-थंभेहिं चारु । चउसरवरु जललहरीहिं मंजु, परिहा - पाणिय - पायडिय कंजु ।
मणिमय वेइय-बल्ली-वणेहिं, वेदिउ जण - णयण सुहावणेहिं । पत्ता-वरविहि रइय मणिगण खइय कणय परिहे परिपुन्नउँ । रुप्पय मयहिं णहयल गयहिं गोडर मुहहिं रवण्णउँ ।
--वड्ढमाणच संधिह/कड २२ भगवान् को केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद जब हरि-इन्द्र ने आदेश दिया तब यक्ष ने एक समवशरण की रचना की। वह १२ योजन प्रमाण विशाल था, जो गगन तल में नीला-नीला भासता था। तथा जो रत्नमय धूलि से बने बलय के समान शाल (परकोटों), चतुर्दिक निर्मित चार मानस्तंभों से सुशोभित मंजुल जल-तरंगों वाले चार सरोवरों, जल से परिपूर्ण तथा कमल पुष्पों से समृद्ध परिखाओं तथा लोगों के मन को सुहावनी लगने वाली वल्ली-वनों से वेष्टित मणिमय वेदिका-(से वह समवशरण शोभायमान था) और
घत्ता-उत्तम विधियों से रचित, मणियों द्वारा खचित (जटित), कनक मय परिधि से परिपूर्ण, रौप्यमय और गगनचुम्बी गोपुर मुखों से रमणीक
जयइ सुयाणं पभवो तित्थयराणं अपच्छिमो जयइ । जयइ गुरू लोगाणं जयइ महप्पा महावीरो॥ भदं सव्वजगुज्जोयगस्स भई जिणस्स वीरस्स । भई सुराऽसुरणमंसियस्स भई धुयरयस्स ।।
-नन्दी• गा २, ३/पृ०२ समग्र श्रुत ज्ञान के मूल स्रोत जयवंत है। २४ तीर्थंकरों में अंतिम तीर्थकर जयशील है, जगवंत होने से ही लोकमात्र के गुरु है। महात्मा महावीर अपने आत्मगुणों से सर्वोत्कृष्ट है-छतः जयवंत है।
समस्त जगत में ज्ञान का प्रगश करने वाले का कल्याण हो, राग-द्वेष रहित परम विजयी जिन महावीर का भद्र हो। देव-असुरों के द्वारा वन्दित का भद्र हो। अष्टविध कर्म-रज को सर्वथा नष्ट करने वाले महावीर का सदैव भद्र हो।
तोरणहिं विहंसिय घंधलेहि वर अट्ठोत्तर सय मंगलेहि ण उ सालि वीहि घउ उववणेहिं x x x तिपयार वावि मणि मंडवेहिं कीला महिहर लय मंडवेहिं । अमरा जंतेहिं विहिय रईहे पासाय सुहालय घर तईहे अट्ठोत्तर - अट्ठोत्तर सएहिं एक्केक्कु अलंकरियउ धएहिं दह भेय महा धुव्विर धएहिं किंकिणि रव तासिय रवि-हएहिं । किकिणि - णिम्मिय - साले सुहेण पर पउमराय - गोउर - मुहेण मणिमय थूहहिं फंसिय पहेहिं । किरणावलि पिहिय महागएहिं । फलिहामल - पायारें वरेहिं हरि मणमय णेउर सिरिहरेहि
•१६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org