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वर्धमान जीवन-कोश तिपयारहिं पीढहिं सुन्दरेहिं बारह - कोहहिं मणोहरेहिं । रयणमय-धम्म-चक्कर्हि फुरन्तु । गंधउ इहिं सुरहर - सिरिहरन्तु ॥
-वड्ढमाणच. संधि ६/कड २३ मेघ-समूह का विध्वंस कर देनेवाले तोरणों पर उत्तम १०८.१०८ अंकुश, चंवर मादि मंगल द्रव्य सुरक्षित थे-जो भगवान् की विभूति को प्रकट कर रहे थे। तथा (गोपुरों के भीतर) नाट्यशालाए, वीथियाँ अशोक, सप्तच्छद्र, चम्पक एवं आम्र नामक चार उपवन ( अशोक बादि चार प्रकार के वृक्ष ? ) चन्दा, नन्दवती एवं नन्दोत्तर नामक तीन प्रकार की वापियाँ तथा मणिमंडप, क्रीड़ा पर्वत एवं लता-मंडप बने हुए थे।
देव यन्त्रों द्वारा विधिपूर्वक रचित प्रासाद, सभामंडप, भवन बादि की पंक्तियाँ भी सुशोभित थीं। (वीथियों के चारों ओर) एक-एक (वीथी) परमयूर, माला आदि दस भेदवाली तथा किंकिणी रवों से सूर्य के घोड़ों को भी त्रस्त कर देनेवाली ऊंची-ऊंची फहराती हुई १०८-१०८ ध्वजा पताकाएं थीं।
किकिणियों द्वारा निर्मित सुन्दर शाल बनाये गये जो कि पद्मराग मणियों के द्वारा बनाये गये गोपुर मुखों से युक्त थे।
गगन चुम्बी मणिमय स्तूप बने हुए थे-जो अपनी किरणावलि से महागजों को भी ढंक देनेवाले थे।
स्फटिक के निर्मल एवं श्रेष्ठ प्राकार हरिन्-मणियों से निर्मित तथा नूपुरों से युक्त श्रीगृह (श्रीमंडप) तीन प्रकार के सुन्दर पौठ एवं मनोहर १२ कोठे बने हुए थे।
इसी प्रकार रत्नमय चक्र से स्फुरायमान तथा स्वर्गश्री का हरण करने वाली गंधकुटी से वह समवशरण शोभायमान था। २० भगवान महावीर और चतुर्विध संघ की उत्पत्ति
. द्वितीय समवसरण में - तीर्थोत्पत्ति (क) तित्थं चाउव्वण्णो संघो सो पढमए समोसरणे । उप्पण्णो उजिणाणं वीरजिणिदस्स बीयंमि ॥२८७।।
-आव०/नि/गा २८७ मलय टीका-तीर्थ नाम प्रवचनं, तच्च निराधारं न भवतीति चतुर्वर्णः, संघं उच्चते, स जिनानाम्
ऋषभादीनां प्रथम एव समवसरणे उत्पन्नः, वौरजिनेन्द्रस्य पुनर्द्वितीये समवसरणे, मध्यमापांपुरि, यत्र हि केवलज्ञानयांमुत्पन्नं, तत्र तथाकल्पत्वात् समवसरणमभूत् यावतान
तत्र संघो जातः।
सामान्यतः तीर्थंकरों के प्रथम समवसरण में ही चतुर्विध संघ की उत्पत्ति हो जाती है। भगवान ऋषम आदि के प्रथम समवसरण में ही चतुर्विध संघ की उत्पत्ति हो गई लेकिन भगवान महावीर के चतुर्विध संघ की उत्पत्ति द्वितीय समवसरण में हुई। उनका प्रथम समवसरण निराधार-निष्फल गया। (ख) जिण्णं दिवसं समणम्स भगवओ महावीरस्स णिव्वाणे कसिणे जाव समुप्पण्णे, तण्णं दिवसं भवण
वइवाणमंतरजोइसियविमाणावासिदेवेहि य देवीहि य ओवयंतेहिं य जाव उप्पिजलगभूए यावि
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