________________
१४८
वर्धमान जीवन-कोश होत्था ॥ तओ णं समणे भगवं महावीर उप्पण्णवरणाणदंसणधरे अप्पाणं च लोगं च अभिसमेक्ख पुव्वं देवाणं धम्ममाइक्खति, तओ पच्छा मणुस्साणं ॥
-आया० श्रु० २/अ १५/सू० ४०.४१ जिस दिन श्रमण भगवान् महावीर को अन्तिम परिपूर्ण केवलज्ञान-केवल दर्शन उत्पन्न हुआ, उस दिन भवनपति. वाणण्यंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक देवों में तथा देवियों में उनके नीचे आने-जाने से चहल-पहल हो गयी। तत्पश्चात सर्वज्ञ सर्वदर्शी श्रमण-भगवान् महावीर ने आत्मा और लोक के स्वरूप को जानकर पहले देवों को और फिर मनुष्यों को धर्म का उपदेश दिया। (ग) तओणं समणे भगवं महावीरे उप्पण्णणाणदंसणधरे गोयमाईणं समणाणं णिग्गंथाणं पंच महव्वयाई
सभावणाई छज्जीवनिकायई आइक्खइ भासइ परूवेइ, तंजहा--पुढविकाए आउकाए, तेउकाए, वाउकाए, वणस्सइकाए, तसकाए।
-आया० २/अ १५/सू ४०/पृ० २४१ भगवान् ने द्वितीय देशना में भावना सहित पंच महाव्रत, छज्जीवनिकाय का उपदेश दिया-यथा-पृथ्वीकाय, अपकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय तथा त्रसकाय२१ मगवान महावीर और दिव्यध्वनि (क) णिग्गंथाइय समेड भरंतह, केवलि किरणहो धरविरहंतह ।
गय छासट्टि दिगंतर जामहि, अमराहिउमणि चिन्तइ तामहि ।। इम सामग्गि सयल जिणणाहहो, पंचमणाणुग्गम गयबाहहो । किंकारणु ण उ वाणि पयासइ, जीवाइय तच्चाइ ण भासइ ।
-वड्ढमाण च० (जयमित्तल) भगवान् महावीर केवलज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात इन्द्रभूति गौतम के समागम नहीं होने तक ६६ दिन दिव्य-ध्वनि नहीं खिरने पर भी भूतल पर विहार करते रहे। यथा
केवलज्ञान रूपी सूर्य की किरणों के धारण कर लेने पर निर्गुन मुनि आदि के साथ भारतवर्ष में विहार करते हुए छयासठ दिन बीत जाने पर भी जब भगवान् को दिव्य वाणी प्रकट नहीं हुई, तब अमरेश्वर इन्द्र के मन में चिन्ता
सामग्री के होने पर भी क्या कारण है कि भगवान् अपनी वाणी से जीवादि तत्त्वों को नहीं कह रहे हैं।
दिगम्बर परम्परा के अनुसार भगवान् महावीर ने केवलज्ञान प्राप्ति के ६५ दिन बाद श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन पहला प्रवचन किया था। इसके विपहीत श्वेताम्बर परंपरा के अनुसार भगवान महावीर को जिस दिन केवलज्ञान उत्पन्न हुआ उस दिन देवों के मध्य में प्रथम प्रवचन किया था। (ख) दिगम्बर मतानुसार
प्रस्तावेऽस्मिन् विलोक्याशु गणान् द्वादशसंख्यकान् । स्वस्वकोष्ठेषु चासीनान् सद्धर्मश्रवणोत्सुकान् ।।७८।। यामत्रये गतेऽप्यस्याहतो न ध्वनिनिर्गमः । हेतुना केन जायेतादीन्द्रो हृदीत्यचिन्तयत् ।।६।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org