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वर्धमान जीवन - कोश
उनका यह विचार मंत्री के जानने में आया । उसने राजा को सूचित किया । फलस्वरूप राजा ने मंत्री को पूछा कि - अपने को अब उनसे आत्म रक्षा किस रीति से करनी चाहिए ? क्योंकि जनवृन्द राजा के समान है । मंत्री ने कहा कि हे देव ! अपने को भी उनके साथ धेला होकर उनकी तरह रहना चाहिए ।
तत्पश्चात् राजा और मंत्री कृत्रिम घेला होकर
इसके सिवाय अन्य कोई उपाय इस समय योग्य नहीं है । उनके मध्य में रहने लगे । और स्वयं की संपत्ति का भोग करने लगे ।
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जिस समय वापस शुभ समय आया और शुभ वृष्टि हुई उस समय वे नवीन वृष्टि के जलपान के करने से सर्व मून प्रकृति वाले हो गये ।
इस प्रकार दुःषम काल में गीतार्थ मुनि श्री वेषधारियों के साथ उनकी तरह होकर रहेंगे । परन्तु भविष्यत् में स्वयं के समय की इच्छा रखेंगे ।
अस्तु इस प्रकार स्वयं के स्वप्नों का फल सुनकर महाशय हस्तिपाल राजा प्रतिबोध को प्राप्त हुआ । दीक्षा ग्रहण कर मोक्ष स्थान प्राप्त किया ।
नोट - अपापा नगरी में समवसरण में भगवान् देशनार्थ बैठे । सुरासुर सेवित प्रभु स्वयं के
आयुष्य का अन्त जानकर
अंतिम देशना के लिए बैठे । भगवान् का पदार्पण सुनकर हस्तिपाल राजा भगवान् के निकट आया और भगवान् की देशना सुनने के लिए बैठा ।
* भगवान् महावीर की राजगृह में धर्म देशना - ( मेघकुमार के दीक्षित वर्ष में )
विचित्तं धम्ममाइकखइ ।
२१ तए णं समये भगवं महावीरे मेहणस्स कुमारस्त तीसेय महइ महालियाए परिसाए मज्म गए नाया० श्रु १/अ ४ / सू० १०० २ इतश्च विहरन् भव्यावबोधाय जगद्गुरुः । सुरासुरपरीवारोययौ राजगृहं पुरम् ।।३६२ ।। तस्मिन् गुगशिले चैत्ये चैत्यवृक्षोपशोभितम् । सुरप्रकूल समवसरणं शिश्रिये प्रभुः || ३६३|०
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पीयूपवृष्टिदेशीयां विदधे धर्मदेशनाम् ||३७५ || श्रुत्वा तां देशनां भर्तुः सम्यक्त्वं श्रेणिक्रोऽश्रयत् । श्रावकधर्म स्वभयकुमाराद्याः प्रपेदिरे ||३७६॥ - त्रिशलाका • पर्व १० / सर्ग ६ वीर भगवान् अमृत
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भगवान् महावीर राजगृह में गुणशीलक चैत्य में पधारकर वहाँ समवसरण में पधारे । सृष्टि जैसी धर्म देशना दो !
प्रभु की देशना सुनकर श्रेणिकराजा सम्यत्रत्व को प्राप्त किया और अभयकुमारादि ने श्रावक धर्म अंगीकार
किया ।
१०. ब्राह्मण कुंडग्राम में धर्म देशना - ( ऋषभदत्त देवानन्दा दीक्षित हुए) ०२ तर णं समणे भगवं महावीरे उसभदन्तस्स माहणस्स देवाणंदाए महालियाए X X X धम्मं परिवइ । १२ विहरन् ब्राह्मकुंडग्रामे गात् परमेश्वरः । पुदात्तस्माद्वहिः स्थिते ।
बदुशालाभिवाद्याने
चक्रः समवसरणं
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माहणीए तीसे य मइति
भग० श / उ ३३ / सू १४६
त्रिदशोत्तमाः ॥२॥
त्रिवनं
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