________________
वर्धमान जीवन-कोश
१६६ ३ पितरौ दुःप्रतीकारावीदग्धीभगवानपि । तावुद्दिश्य जनांश्चापि विदधे देशनामिति ॥१४॥
–त्रिशलाका० पर्व १०॥सर्ग - अन्यदा भगवान् ब्राह्मणकुंड ग्राम पधारे। उसके बाहर बहुशाल नामक उद्यान में देवों ने तीन गढ़वाले समवसरण की रचना की। भगवान सिंहासन पर बैठे।
देवानंदा ब्राह्मणी तथा ऋषभदत्त ब्राह्मण को लक्षित कर और अन्य लोगों को लक्षित कर भगवान ने देशना दी। ११ चंपानगरी में धर्म देशना—(कूणिक राजा, सुभद्रादि देवियों के समक्ष)
तएणं समणे भगवं महावीरे कूणियस्स रण्णो भिंभसारपुत्तस्स सुभद्दापमहाण य देवीणं तीसेय महतिमहालियाए इसिपरिसाए मणिपरिसाए जइपरिसाए देवपरिसाए अणेगसयाए अणेगसयवंदाए अणेगसयमवंदपरियालाए ओहबले अइबले महब्बले अपरिमियबल - वीरिय - तेय - माहप्पकंतिजुत्ते सारयणवत्थणिय - महुरंगभीर - कोंचणिग्घोस - दुदुभिस्सरे उरे वित्थडाए कंठे वट्टियाए सिरे समाइण्णाए अगरलाए अमम्मणाए 'सुव्यत्तक वर - सण्णिवाइयाए पुण्णरत्ताए सव्वभासाणुगामिणीए सरस्सईए जोयणणीहारिणासरेणं अद्धमागहाए भासाए भासइ-अरिहा धम्म परिकहेइ।
तेसिं सव्वेसिं आश्यिमणारियाणं अगिलाए धम्म आइक्वइ। सावि यणं अद्धमागहा भासा तेसिं सव्वेसिं आरियमणारियाणं अप्पणो सभासाए परिणमेणं परिणमइ। x x x ॥७१॥
धमममइक्खइ-इणमेव णिग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवलिए संसुद्ध, पडिपुण्णे णेयाउए सल्लकत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे ‘णिज्जाणमग्गे णिव्वाणमग्गे' अवितहमविसंधि सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे। इत्थंठिया जीवा सिझंति बुझं ति मुच्चंति परिणिव्यायंति सव्वदुक्खाणामंतं करेंति ।
-ओव० सू०७१, ७२ तब ओघबली ( सदा समान बल वाले ), महाबली ( प्रशस्त बल वाले ), अपरिमित शारीरिक शक्ति ( बल शारीरिक प्राण ) वीर्य ( आत्म जनित बल ), तेज, माहत्म्य ( महानुभावता ) और कांति से युक्त और शरद ऋतु के नव-मेघ की मधुर गंभीर ध्वनि, क्रच पक्षी के निर्घोष और दुदभि नाद के समान स्वर वाले उन श्रमण भगवान् महावीर ने भभसारपत्र कूणिक को, सुभद्रा आदि देवियों को, कई सौ और कई सौ वृन्द परिवार वाली उस अति विशाल परिषद् को, ऋषि ( अतिशय ज्ञानी साधु ) परिषद् को, मुनि ( मौनधारी साधु परिषद् को ), यति ( चरण में उद्यत साधु ) परिषद् और देव परिषद् को, हृदय में विस्तृत होती हुई, काठ में ठहरती हुई, मस्तक में व्याप्त होती हुई अलग-अलग नीच स्थानीय उच्चारण वाले अक्षरों से युक्त, अस्पष्ट उच्चारण से रहित ( या हकलाहट से रहित ), उत्तम स्पष्ट वर्ण संयोगों से युक्त, स्वर कला से संगीतमय और सभी भाषाओं में परिणत होने वाली सरस्वती के द्वारा, एक योजन तक पहुँचने वाले स्वर से, अर्धमागधी भाषा में धर्म को पूर्ण रूप से कहा ।
उन सभी आर्य-अनार्यों को अग्लानि से ( तीर्थंकर नाम कर्म के उदय से अनायास बिना थकावट के) धर्म हा। वह अर्द्धमागधी भाषा भी, उन सभी आर्य-अनार्यो की अपनी-अपनी स्वभाषा में परिवर्तित हो जाती थी।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org