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वर्धमान जीवन-कोश ऐसा विचार कर अग्निभूति पांच सौ शिष्यों सहित समवसरण में गया और जिनेश्वर के पास बैठ गया।
उसे देखकर भगवान् बोले कि- "हे गौतम गौत्री अग्निभूति ! तुम्हारे हृदय में ऐसा संशय है कि कर्म है या नहीं। और यदि कर्म होता है तो प्रत्यक्षादि प्रमाण के अगम्य होने पर मूर्तिमान कहा जाता है। इस प्रकार के कर्म को अमूर्तिमान जीव किस प्रकार बांध सकता है। अतिमान जीव को मूर्तिवाले कर्म से उपघात और अनुग्रह किस प्रकार होता है। इस प्रकार का तुम्हारे हृदय में संशय है। यह संशय व्यर्थ है। क्योंकि अतिशय ज्ञानी पुरुष कर्म को प्रत्यक्ष ही जानते हैं । और तुम्हारे जैसे छमस्थ पुरुष को जीव की विचित्रता देखने से अनुमान से कर्म जाना जाता है। कर्म को विचित्रता से ही प्राणियों को सुख-दुःखादि विचित्र भाव प्राप्त होते रहते हैं। इससे सिद्ध होता है कि कर्म का अस्तित्व है। ऐसा अग्निभूति ! तुम निश्चित करो।
कितनेक जीव राजा होते हैं और कितनेक हाथी, अश्व और रथ के वाहनपन को प्राप्त होते हैं। उसी प्रकार कितनेक उसके पास उपानह आदि पैर से चलनेवाले होते हैं, कईएक हजारों प्राणियों के उदर भरनेवाले महद्धिक पुरुष होते हैं और कोई भिक्षा मांगकर भी स्वयं का उदर नहीं भर सकते हैं। देश, काल एक समान होने पर एक व्यापारी को बहुत लाभ होता है और अन्य की मूल पूंनी भो नष्ट हो जाती है-ऐसे कार्यों का कारण कर्म है क्योंकि कारण बिना कार्य को विचित्रता नहीं हो सकती है। मूत्तिमान् कर्म का अमूर्तिमान जोव के साथ जो संगम है वह भी आकाश और घट की तरह खराखर नहीं मिलता है। तथा विविध जाति के मद्य से और औषध से अमूर्त · ऐसे जीव को भी उपघात और अनुग्रह होता है। इसी प्रकार कर्मों से जीव को उपघात और अनुग्रह होता है-वह भी निर्दोष है ।
इस प्रकार भगवान महावीर ने अग्निभूति के संशय का निवारण किया। फलस्वरूप अग्निभूति ईर्ष्या छोड़कर पांच सौ शिष्यों के साथ भगवान के पास दीक्षा ग्रहण की।
.२ दीक्षी के समय-अग्निभूति की आयु :
थेरणं अग्निभूई सत्तालीसं वासाई अगारमझा वसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए।
-सम० सम ४७/सू २ टीका-'अग्निभूइ' त्ति वीरनाथस्य द्वितीयो गणधरस्तस्य चेह सप्तचत्वारिंशद्वर्षाण्यगारवासः उक्तः,
__ आवश्यके तु षट्चत्वारिंशत् , सप्तचत्वारिंशत्तमवर्षस्यासंपूर्णत्वादविवक्षा, इह त्वसम्पूर्णस्यापि पूर्णत्वविवक्षेति संभावनया न विरोध इति ।
स्थविर अग्निभूति सैंतालीस वर्ष की अवस्था में अनगार-प्रव्रज्या ग्रहण की।
मोट :-आपके बड़े भाई इन्द्रभूति तीन वर्ष बड़े थे। .३ अग्निभूति के माता-पिता का नाम : (क) इतश्च मगधे दश गोवरग्रामनामनि । ग्रामे गोतमगोत्रोऽभूद्वसुभूतिरिति द्विजः ॥४६॥ तस्येन्द्र भूत्यग्नि तिमा। त्यभिधाः सुताः। पत्न्यां पृथिव्यामभवंस्तेऽपि गोत्रेण गोतमाः ॥५०॥
–त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग ५
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