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वर्धमान जोवन-कोश अथाधिप्राणतं पुष्पोत्तरनामनि विस्तृते । विमाने स उपपेदे शय्यायामुदपद्यत ॥१
–त्रिशलाका० पर्व १० । सर्ग १ । महाशुक्र देवलोक से च्यवन कर भगवान महावीर का जीष भरतक्षेत्र में छत्रा नामकी नगरी में राजा को भद्रा नामको रानी से नन्दन नामक पुत्र हुए ॥ २१७ ॥ यौवनावस्था के प्राप्त होने पर उसे गा बैठा कर जित शत्रु राजा संसार से निर्वेद को प्राप्त होकर दीक्षा ग्रहण को। लोगों को आनन्द उत्पन्न करने वे नन्दन राजा समृद्धि से इन्द्र को तरह होकर यथा विधि पृथ्वी पर राज्य करने लगे ॥ २१८, २१६ ॥
चौधोस लाख वर्ष राज्य का भोग कर-विरक्त होकर वह नन्दन राजा पोट्टिलाचार्य के पास दीक्षा ग्रहा निरन्तर मासोपवास करने से स्वयं के श्रामण्य की उत्कृष्ट स्थिति में पहुंचते हुए नन्दन मुनि गुरु के साथ में आकर, पुरा आदि में विहार करने लगे ।। २२०-२२१ ।।
दोनों प्रकार के अपध्यान (आत्त-रौद्र ) से और द्विविध बंधन ( राग-द्वेष ) से वजित थे। तीन प्रक दंड ( मन, वचन, काय ), तीन प्रकार के गौरव ( ऋद्धि-रस सता ) और तोन जाति के शल्य ( माया-निदान दर्शन ) से रहित थे। चाय कषायों को उन्होंने क्षीण किया, चार संज्ञा से वर्जित थे, चार प्रकार की विका वजित थे, चतुर्विध धर्म में परायण थे और चार प्रकार के उपसर्गों से भो उनका उद्यम स्खलित था । पंचविष बत में सदा उद्यमी थे और पंचषिध काय ( पाँच इन्द्रियों के विषय ) के प्रति सदा द्वेषी थे। प्रतिदिन पाँच प्रक स्वाध्याय में आसक्त थे। पांच प्रकार की समिति को धारण करते थे और पांच इन्द्रियों के विजेता थे।। वनिकाय के रक्षक थे। सात प्रकार के भय के स्थान से वर्जित थे। आठ मद के स्थान से विमुक्त थे। नवविध चयं गप्ति का पालन करते थे और दश प्रकार के यति-धर्म को धारण करते थे। सम्यग् प्रकार एकादश अध्ययन करते थे। बारह प्रकार की यतिप्रतिमा को वहन करने से रूचि वाले थे। २२२ से २२७ ।
दुःसह ऐसो परीषह की परम्परा को वे सहन करते थे। उन्हें किसी भी प्रकार को स्पृधा नहीं थी, नन्दन मुनि ने एक लाख वर्ष तप किया। वे महातपस्वी मुनि-अहत् भक्ति आदि बीस स्थानकों की आराक दुःकर तीर्थकर नाम कर्म का उपार्जन किया । २२८ से २१०
इस प्रकार मूल से निष्कल क साधुत्व का आचरण कर आयुष्य के अंत में उन्होंने इस प्रकार आराधना
दृष्कर्म की ग्रहणा, प्राणियों की क्षमणा, शुभभावना, चतु:शरण, नमस्कार स्मरण एवं अनशन-इस प्रकार प्रकार की आराधना कर, स्वयं के धर्माचार्य, साधुओं, साध्वियों को क्षमत-क्षामना करने लगे। साठ दिन । प्रत का पालन कर, पचोस लाख वर्ष का आयुष्य पूर्ण करा, मृत्यु प्राप्त कर, प्राणत नाम के दशवे देवलो पुष्पोत्तर नाम के विस्तार वाले विमान में उपपाद शय्या में उत्पन्न हुए ।। २६६.२६६ ।।। (घ) एएसि चउवोसाए तित्थगराणं चउवीसं पुव्वभविया णामधेज्जा होत्था, तंजहा
पढमेत्थ वइरणामे विमले तह विमलवाहणे चेव । तत्तो य धम्मसीहे सुमित्त तह धम्ममित्ते य ।
अदोणसत्त संखे सुदंसो नंदणे य बोद्धव्वे । ओसप्पिणीए एए तित्थकराणं तु पुव्वभवा ।।
-सम० पइसम सू २२३ ।
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