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धारण कर लेने पर निर्गुन मुनि आदि के साथ भारतवर्ष में विहार करते हुए छयासठ दिन बीत जाने पर भी भगवान को दिव्यवाणी प्रकट नहीं हुई तब अमरेश्वर इन्द्र के मन में चिन्ता हुई कि सकल सामग्री के होने पर मो क्या कारण है कि भगवान् अपनी वाणी से जीवादि तत्वों को नहीं कह रहे हैं। इन्द्र चिन्तित हुआ और अवधि ज्ञान से गणधर के अभाव को जानकर तथा वृद्ध ब्राह्मण का रूप बनाकर गौतम को लाने के लिए गया ।
तिलोयपण्णत्ती, धवला-जयधवला टीका और हरिवंश पुराण में श्रावण कृष्णा तिपदा के प्रातःकाल अर्थात केवलज्ञान की बैसाख शुक्ला दशमी को उत्पत्ति हो जाने के ६६ दिन पश्चात भगवान् महावीर के द्वारा धर्म देशना का स्पष्ट उल्लेख होने पर भी सकलकोति ने वीर वर्धमान चरित में इसका उल्लेख कयों नहीं किया-यह बाद विचारणीय है।
___ वहीं पर आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा, जिसे गुरु पूर्णिमा भी कहते हैं, के दिन इन्द्रभूति नाम का गौतम गोत्री वेद-वेदांग में पारंगत एक शीलवान् ब्राह्मण विद्वान् जीव-अजीव विषयक संदेह को दूर करने के लिए महावीर के पार आया। और सन्देह दूर होते ही उसने महावीर के पादमूल में जिनदीक्षा ले लो और उनका प्रधान गणधर बन गया उसके बाद ही प्रातःकाल में भगवान महावीर की प्रथम देशना हुई। जैसाकि प्राचीन गाथाओं में लिखा है
"पंच शैलपुर में ( पांच पर्वतों में शोभायमान होने के कारण राजगृह को पंच शैलपुर या पंचण्हाडी कहते हैं ) रमणीक, नाना प्रकार के वृक्षों से व्याप्त और देव-दानव से वन्दित विपुल नामक पर्वत पर महावीर भव्यजनों को उपदेश दिया।"
वर्ष के प्रथम मास अर्थात् श्रावण मास में, प्रथम पक्ष अर्थात् कृष्ण पक्ष में, प्रतिपदा के दिन, प्रातःकाल समय अभिजित् नक्षत्र के उदय रहते हुए धर्मतीर्थ की उत्पत्ति हुई ।
अस्तु दिगम्बर परम्परानुसार भगवान की प्रथम देशना राजगृही में ही श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के ब्राह्ममुहुर्त । होने के प्राचीन उल्लेख है।
हरिवंश पुराणकार आचार्य जिनसेन भी श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के प्रातःकाल अभिजित् नक्षत्र के समर भगवान महावीर को दिव्यध्वनि प्रकट होने का उल्लेख किया है
भगवान महावीर के धर्म संघ में १४००० साधु और ३६०.० साध्वियां बताई गई है। संघ विस्तार कार्य कैवल्य और बोध प्राप्ति के साथ-साथ ही प्रारम्भ हो गया। सहस्रों २ के थोक ( समूह ) विविध घटना प्रसंगों साथ दीक्षित हुए थे। दीक्षित होनेवालों में बड़ा भाग वैदिक पण्डितों, परिव्राजकों व क्षत्रिय राजकुमारों का होता था
महावीर-इन्द्रभूति आदि ग्यारह पंडितों व चार हजार चार सौ उनके ब्राह्मण शिष्यों को दीक्षित करते हैं। महावीर अपनी जन्मभूमि में आकर पांच सौ व्यक्तियों के परिवार से अपने जामाता को व पन्द्रह सौ परिवार से अपर पूत्री प्रियदर्शना को दीक्षित करते हैं।
अस्तु भगवान् महावीर के ग्यारह गणधर थे। अग्निभूति, वायुभूति, अचलभाता, मेतार्य और प्रभासपांच गणधरों का निर्वाण भगवान से पहले हो चुका था। ब्यक्त, मण्डित, मौर्य पुत्र और अंकपित-इन चार गणधा का निर्वाण भगवान के निर्वाण के कुछ महीने पहले हुआ। इन्द्रभूति भगवान के परिनिर्वाण के साढ़े बारह वर्ष भी
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