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दोनों परम्पराओं के अनुसार भगवान् महावीर के पूर्वभवों में उक्त छह भवों का अन्तर कैसे पड़ा। यह प्रश्न विद्वद्वजनों के लिए विचारणीय है ।
प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने पूर्व के अनेक भव लक्ष्य कर मरीचि तापस को कहा- यह अन्तिम तीर्थंकर होगा । यह महावीर की घटना उनके पच्चीस भव की या इकतीस भवपूर्व की है ।
मरीचि भरत का पुत्र था। सुर-असुरों द्वारा की गई भगवान् ऋषभदेव के केवल ज्ञान की महिमा को देखकर वह भी अपने पांच सौ भाइयों के साथ निर्ग्रन्थ बना था। कालान्तर में भगवान् महावीर के संघ से निष्कासित हो गया। बाद में त्रिदंडी तापस हो गया ।
श्वेताम्बर परम्परानुसार महावीर के कुल सत्ताईस भवों का वर्णन मिलता है, जिसमें दो भव मरीचि भव से पूर्व के हैं और शेष के बाद के सत्ताईस भवों में प्रथम भव नयसार कर्मकार का था। इस भाव में नयसार ने किसी तपस्वी मुनि को आहार दान किया था और प्रथम बार सम्यग् दर्शन उपार्जित किया। सताईस भवों में महावीर ने जहां चक्रवर्तित्व और वासुदेवत्व पाया वहां उन्होंने सप्तम नरक तक का भयंकर दुःख भी सहा । पच्चीसवें भाव में तीर्थंकरत्व प्राप्ति के बीस निमित्तों की आराधना करते हुए तीर्थंकर गोत्र नामकर्म बांधा। एम्बीसवें भाव में प्राणत नामक दशवें स्वर्ग में रहे और सत्ताईसवें भव में महावीर के रूप में जन्म लिया ।
श्रीधर ने अपभ्रंश भाषा में रचित अपने वढ्ढमाण चरिउ में भगवान् महावीर का चरित दिगम्बर परम्परानुसार ही लिखा है तो भी कुछ घटनाओं का उन्होंने विशिष्ट वर्णन किया है। जैसे
त्रिपृष्ठनारायण के भव में सिंह के उपद्रव से पीड़ित प्रजा जब उनके पिता से जाकर कहती है, तब वे उसे मारने को जाने के लिए उद्यत होते हैं। तब कुमार त्रिपृष्ठ उन्हें रोकते हुए कहते हैं । जय मह संतेवि असिवरु लेवि पहिण करण अर्थात् यदि मेरे होते सन्ते भी आप खंग लेकर क्या लाभ ?
उट्टिउ करि कोड वरि विलोड ता कि मतएण ॥ एक पशु का निग्रह करने जाते हैं तो फिर मुझ पुत्र से
ऐसा कहकर त्रिपृष्ठ कुमार सिंह को मारने के लिए स्वयं जंगल में जाता है और विकराल सिंह को दहाड़ते हुए सम्मुख आता देखकर उसके खुले हुए मुख में अपना नाम हाथ देकर दाहिने हाथ से उसके मुख को फाड़ देता है और सिंह का काय जीव से अलग कर देता है ।
सिंह के मारने की इस घटना का वर्णन श्वेताम्बर पंथों में भी पाया जाता है।
दिगम्बर परम्परा के अनुसार भगवान् महावीर ने केवलज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद ६६ दिन तक मौन पूर्वक विहार किया क्योंकि तब तक उन्हें गणधर गणका संघ का धारक, जो कि भगवान् के उपदेशों को स्मृति रखकर उनका संकलन कर सकता, नहीं मिला था। विहार करते-करते महावीर मगध देशकी राजधानी राजगृही में पधारे और उसके बाहर विपुलाचल पर्वत पर ठहरे। उस समय राजगृही में राजा श्रेणिक रानो चलना के साथ राज्य करते थे।
दिगम्बर परम्परानुसार भगवान् महावीर को केवल ज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् इन्द्रभूति गौतम के समागम नहीं होने तक ६६ दिन दिव्यध्वनि नहीं खिरने पर भी भूतल पर विहार करते रहे। केवलज्ञान रूप सूर्य की किरणों के
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