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बाद में कहा - नहीं है - ऐसा मत कहना ।
उसे तत्काल नगर के बाहर निकाला ।
दूत आकर उन सब वार्ता को अश्वग्रीव राजा को कही । फलस्वरूप अश्वग्रीव क्रोध में अग्नि की तरह प्रज्वलित हुआ ।
हयग्रीव राजा और त्रिपृष्ठ और अचल युद्ध की इच्छा से स्वयं स्वयं के सैन्य को लेकर रथावतं गिरि के पास मेघ की तरह परस्पर अथड़ाते हुए दोनों के पक्ष के सैनिक परस्पर युद्ध करने लगे । जब सैनिकगण का क्षय होने लगा तब अश्वग्रीव और त्रिपृष्ठ दोनों ने संन्यों के युद्ध रोक कर स्वयं ही रथी होकर युद्ध करने लगे । अश्वग्रीव के सर्व अस्त्र-शस्त्र निष्फल होने से उसने शत्रु की ग्रीवा को छेदने में संपट ऐसा चक्र त्रिपृष्ठ के ऊपर छोड़ा | उस समय लोगों ने हाहाकार किया। वह चक्र जैसे अष्टापद पशु पर्वत के शिखर पर पड़ता है - वेसे हो तु भाग से त्रिपृष्ठ के उरस्थल पर पड़ा ।
बाद में वीर श्रेष्ठ त्रिपृष्ठ उस चक्र को हाथ में लेकर उससे कमलनाड की तरह लीलामात्र में अश्वग्रीव के कंठ को छेद डाला ।
चौरासो लाख वर्ष का सर्वायु का पालन करा त्रिपृष्ठ वासुदेव सातवीं नारकी के अप्रतिष्ठान नरकावास में समुत्पन्न हुआ ।
(घ) अह विजयार्धोत्तर श्रेण्यामलकापुरे । मयूरग्रीवराजाभूद् राज्ञी नीलाब्जनास्य च ।। ६८ ।। तयोर्विशाखनन्दः स चिरं भ्रान्त्वा भवार्णवे । स्वर्गादेत्य सुतो जातः क्वचित्पुण्यविपाकतः ॥ ६६ ॥ अश्वग्रीवाभिधो धीमांस्त्रिखण्डश्रीविमंण्डितः । अर्धचक्री सुरैः सेव्यः प्रतापी भोगतत्परः ॥ ७० ॥
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वर्धमान जीवन - कोश
इस प्रकार कहते हुए दूत पर कुमार क्रोधित होकर घसीट कर
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।। ६८ ।।
तो संपविवाहादिवार्ताश्रवणवह्नितः । चरास्याच्च ज्वलिताशु सोऽश्वग्रीवो नराधिपः ॥ ६७ ॥ बहुभिः खगपैः सैन्येनावृतः सङ्गराय च । रथावर्ताचलं प्राप चक्ररत्नाद्यलंकृतः तदागमनमा चतुरंगबलान्वितः । प्रागेवागल्य तत्रास्थास्त्रिपृष्ठः सह बंधुना ॥ ६६ ॥ ततोऽद्भूततरणे तत्र निर्जितो भाविचक्रिणा । मायेतरादि संग्रामैहयग्रीवोऽतिविक्रमात् । १०० ।। चक्ररनं क्रुधादायासन्नमृत्युर्व्यघोदयात् । परीत्य प्रेषयामास त्रिपृष्ठ प्रति निष्ठुरम् || १०१ || तत्तं प्रदक्षिणीकृत्य तस्थौ तद्दक्षिणे भुजे । तस्य पुण्यविपाकेन त्रिखंडश्रीवशीकरम् ॥ १०२ ॥ त्रिपुष्ठो द्रुतमादाय चक्र शत्र भयंकरम् | उद्दिश्य स्वरिपु कोपाद क्षिपन्निष्ठुराशयः ।। १०३ ।। अश्वोवाऽपि तेनाप्य मृत्ति रौद्राशयोऽशुभात् । बहारम्भघनाथः प्राग्बद्धश्वभ्रायुरेव च ॥ १०४ ॥ कृल्नदुःखाकरीभूतं शमेदूर घृणास्पदम् । महापापोदयेनागात्सप्तमं नरकं कुधीः ।। १०५ ॥ वीरवर्ध मानच० संधि३/ तस्याभूत्तयोरलकापुरे । १२८ ॥
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(च) उदक्छ ेण्यां खगाधीशो मयूरग्रोवनामभाक् । नीलकजना प्रिया
विशाखनन्दः संसारे चिरं भ्रान्त्रातिदुःखितः । अश्वग्रीवाभिधः सूनुरज निष्टापचारवान् ।। १२६ ॥ ते सर्वऽपि पुरोपात्तपुण्यपाकविशेषतः । अभीष्टकामभोगोपभोगैस्तृप्ताः स्थिताः सुखम् ॥ १३० ॥
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