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वर्षमान जीवन-कोश ३४ वर्धमान-महावीर और समवसरण-देशना १ चतुर्विधा दिविषदो विविधं विचिचेष्टिरे ।। ८ ॥
प्रतिवप्रचतुर्दारं वप्रत्रितयभूषितम् । चक्र : समवसरणं यथाविधि दिवौकसः ॥ ६ ।। न सर्वविरतेरहः कोऽप्योति विदन्नपि । कल्प इत्यकरोत्तंत्र निषण्णो देशनां विभुः ॥ १० ॥ तत्तीर्थजन्मा मातंगो यक्षः करिरथोऽसितः । बीजपूरं भुजे वामे दक्षिणे नकुलं दधत् ।। ११॥ सिद्धायिका तथोत्पन्ना सिंहयाना हरिच्छविः। समातुलिंगवल्लक्यौ वामबाहू च बिभ्रती ॥ १९ पुस्तकाऽभयदौ चोभौ दधाना दक्षिणौ भुजौ। अभूतां ते प्रभुनित्याऽऽसन्ने शासनदेवते । ।
–त्रिशलाका० पर्व १०/ चूंकि ज भक ग्राम के बाहर जुवालिका नदी के तट पर शामाक नामक किसी गृहस्थ के क्षेत्र में महावोग को केवलज्ञान-( केवल दर्शन ) उत्पन्न हुआ ।
भगवान के केवलज्ञान के उत्पन्न होने से हर्ष को प्राप्त चार प्रकार के देव दूसरी तयह भी अन्य चेष्टा लगे। तत्पश्चात् देवों ने तीन किला वाला और प्रत्येक किले में चार-चार दरवाजे वाले समवसरण की रचना
यहाँ सवं विरती के कोई योग्य नहीं है-ऐसा जानते हुए भी भगवान् समवसरण में बैठकर देशना दी
उनके तीर्थ में हाथी के वाहन चाला, कृष्णवर्णी वाम भुजा में बीजपूर ( बीजोरा ) और दक्षिण भा नकुल का धारण करता हुआ मातंग नामक यक्ष और सिंह के आसनवाली नीलवर्ण वाली, दो वाम भुजा में कि और वोणा और दा दक्षिण भुजा में पुस्तक और अभय को धारण करतो हुई सिद्धायिका नामक देवी-ये दोनों प्रभु के पास रहनेवाले शासन देव हुए। नोट-यह भगवान् को प्रथम देशना निष्फल गयो। क्योंकि वहां सिर्फ देव थे। देवों के व्रत नहीं होता
तीर्थकर की देशना निष्फल नहीं जाती है परन्तु वीर भगवान् की प्रथम देशना किसी के भी विरदि का ग्रहण न होने से निष्फल गयी। २ पुज्वविणिम्मियभाग, जोयणपरिवेढमंडलाभोयं । पायारतिउणमणिमय-गोउरविस्थिण्णकयस
अह दोणि य वक्खारा, अट्ठमहापाडिहेरसंजुत्ता। अट्ठइ नाडयाइ, दारे दारे य नच्च सोलस वरवावीओ, कमलुप्पलविमल सलिलपुण्णाओ। चउसु विदिसासु मज्झे हवंति चत्तारि चई भयवं पि तिहुयणगुरू, विचितसोहासणे सुहनिविट्ठो। छत्ताइछत्त-चामर-असोग-भामण्डलसणा पढम्म य वक्खारे, परिसा निग्गन्थमहरिसोणं तु ? तयणन्तरं पिबीए, सोहम्माईसुरवहूणं ॥२॥ तइयम्मि य वक्खारे, परिसा अजाण गुणमहन्तीणं ॥ ३ ।। तत्तो परं तु नियमा, जोइसर्व परिसा य ॥ ४ ॥ ५६ ॥ वन्तरवहूण तत्तो ५ परिसा उण भवणवासियवहूर्ण ॥ ६ ॥ तत्तो परं तु नियमा, जोइसि सुरवराणं ॥ ७॥ ५७ ।।
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