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वर्धमान जीवन-कोश २० ज्ञान-कल्याणक •१ देवों द्वारा महोत्सव(क) विज्ञायाऽऽसनकंपेन केवलज्ञानमीशितुः। इन्द्राः सह सुरैस्तत्र समाजग्मुः प्रमोदिनः ।। ५ ।।
केऽप्युत्पेतुः केपि पेतुर्ननृतुः केऽपि केऽपि च । जहसुः केपि च जगुबूच्चक्र: केपि सिंहवत् ।। ६ ।। केऽप्यश्ववदहेषन्त बहुः केऽपि हस्तिवत् । रथवत् केऽपि चीच्चक्र : पूच्चक : केऽपि नागवत् ॥ ७ ॥ स्वामिनः केवलोत्पत्या हृष्टात्यानोऽपरेऽपि हि । चतुर्विधा दिविषदो विविधं विचिचेष्टिरे ॥ ८ ॥
-त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग ५ जब भगवान् महावीर को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ तब इन्द्रों के आसन कंपित हुए । भगवान् को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है -ऐसा जानकर देवों के साथ हर्ष को प्राप्त कर वहां आये । उस अवसर पर कतिपय देवगण नाचने लगे,कतिपय कुदने लगे, कतिपय हंसने लगे, कतिपय गाना गाने लगे । कतिपय देव सिंह की तरह गर्जने लगे । कतिपयदेव अश्व की तरह हेषारव करने लगे। कतिपय देव हस्ति की तरह नाद करने लगे, कतिपय रथ की तरह चोरकार करने लगे, कोई सर्प की तरह पुकार मारने लगे।
अस्तु भगवान को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है अत: केवल ज्ञान से हर्ष को प्राप्त हुए चारों निकाय के देव अभ्य भी विविध चेष्टा करने लगे। (ख) इति भगवति वृत्तान्निर्जितारौ तदैव नभसि जयनिनादो देवसंधैर्जजम्भे ।
सुरपटहरवौघ रुदमासीत्खलोकं भुवनपतिविमानेच्छादितं यात्रयास्य ॥ १३३ ।। धनकुसुमवृष्टिश्चापतत्खात्सुरेन्द्राः असमपरमभक्त याश्रीपति प्राणमंस्तम् । विगतमलविकाराः संबंभूबुर्दिशोऽष्टौ गगनममलमासीत् केवलश्रीप्रभावात् ।। १३४ ॥ मृदुशिशिरतरोऽस्मान्मातरिश्वा ववौ च सकलसुरपतीनां कम्पिरे विष्टराणि।। समवसरणभूतिं यक्षराडाशु चक्र ह्यसमगुणनिधे श्रीवर्धमानस्य भक्त्या ॥ १३५ ॥
-वीरवर्धच० अधि १३ इस प्रकार चारित्र के प्रभाव से भगवान् के कर्मशत्रु ओं के बीत लेने पर आकाश में उसी समय देषसमूह के द्वारा जय-जयकार शब्द हो गया। तथा देव-दुन्दुभियों के शब्दों से आकाश व्याप्त हो गया। भगवान की दर्शनयनत्रार्थ आने वाले भुवनपत्ति देवों के विमानों से आकाश अच्छादित हो गया।
केवल लक्ष्मी के प्रभाव से आकाश में सघनपुष्प-वृष्टि होने लगी। और देवेन्द्रों ने बाकर उन श्रीपति महावीर जिनेन्द्र को अनुपम परम भक्ति से नमस्कार किया। उस समय पाठों ही दिशाएँ मल-विकार से रहित (निर्मल ) हो गयी धौर आकाश भी निर्मल हो गया।
उस समय मृदु शीतल समीच मन्द-मन्द बहने लगी और सभी देवन्द्रों के आसन कम्पायमान हुए। तभो यक्षराज ने आकर अनंत गुणों के निधान श्री वर्धमान जिनेन्द्र को भक्ति सकवसरण की रचना की।
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