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वधमान जीवन-कोश परमार्थ रूप से निप्रन्थ बन गये। दुर्बुद्धि मरीचि त्रिजगत्प्रभु से मुक्ति का परम सन्मार्ग कप उपदेश सुनकर के भी संसार के कारणभूत अपने खोटे मत को नहीं छोड़ा। प्रत्युत मन में स चने लगा कि जैसे इन पूज्य तीर्शनाथ ऋषभदेव ने परिग्रहादि को त्यागने से तीन जगत के जीवों को क्षोभित करने वाली सामथ्य प्राप्त की है, उसी प्रकार मै भी अपने द्वारा प्रपित इस अन्य मत का लोक में व्यवस्थित करके उसके निमित से महान सामय वाला होकर त्रिजगत् का गुरु हो सकता हूँ। मै इस अवसर को पाने के लिए प्रतीक्षा करता हूँ। वह सामथ्य मुझे अवश्य प्राप्त होगी।
इस प्रकार के मान कषाय के उदय से वह दुष्ट अपने खोटे मत से विरुद्ध नहीं हुआ। वह पा उसी तीन दण्ड युक्त वेषको धारण कर और हाथ में कमण्डलु लेकर कायक्लेश सहने में त पर रहने लगा। वह प्रात:काल शीतल जल से स्नान करके कंदमूलादि फलों को खा करके और बाहरी परिग्रह के त्याग से अपनी प्रख्याति करने लगा, तथा कपिल आदि अपने शिष्यों को इन्द्रजाल के समान अपने कल्पित निन्द्य मतान्तर को यथाथ प्रतिपादन करता हुआ मिथ्यामार्ग के प्रवर्तन का अग्रणी बनकर चिरकाल तक भारतभूमि में परिभ्रमण करता रहा। अंत में भरतेश वह पुत्र मरोचि यथाकाल मरण को प्राप्त होकर अज्ञान तपके प्रभाव से ब्रह्मकल्प में दस सागरोपम की आयु का धारक और अपने पुण्य के योग्य सुख-संपति से युक्त देव हुआ।
अहो, इस प्रकार के कुतप को करने वाला व्यक्ति यदि स्वर्गलोक को प्राप्त हुआ, तो जो लोग सुतप को करेंगे, उनके तप का क्या फल कहा जाये ? अर्थात् वे तो और भी अधिक उतम फल को प्राप्त करेंगे।
मरीचि के शिष्य कपिल द्वारा सांख्यदर्शनका प्रवर्तन xxx कविलो अंतद्धिओ कहए ।।
-आव निगा ४३६ उत्तरार्धं
(र) मलय टीका-कपिलोऽपि ग्रंथार्थपरिज्ञानशून्य एव तद्दर्शितिक्रिधारतो विजहार, आसुरिनामा च शिष्योऽनेन प्रत्राजित इति, तस्य स्वभाचारपात्रंदिदेश एवमन्यानपि शिष्यान् स गृहीत्वा शिष्यप्रवचनानुरागततरो मृत्वा ब्रह्मलोक एवोत्पन्नः, स ह्य त्पत्तिममनन्तरमेवावधि प्रयुक्तवान् कि मया हुतं वेष्टं वा दानं वा दत्तं येनैषां दिव्या देवद्धिः प्राप्तेनि, स्त्रं पूर्वभवं विज्ञाय चिन्तयामास-मम शिष्यो न किञ्चिद्वेत्ति, तत्तस्योपदिशामि तत्त्वमिति, तस्मै आकाशस्थपंचवर्णमंडलकस्थः, तत्त्वं जगाद, आह च - कपिलो अंतद्धिओ कहए' कपिलः अन्तर्हितः कथितवान , किं ?' अव्यक्ताद् व्यक्त प्रभवति, ततः षष्टितन्त्र, तथा चाहुस्तन्मतानुसारिणः -- 'प्रकृतेमहांस्ततोऽङ्कारस्तस्माद् गणश्च षोडशकः । तस्मादपि षोडशकात् पंचभ्यः पंच भूतानी ।। १ ।।
(ल) कविलो वि ग्रन्थस्थविण्णाणरहिओ केवलं तिकि करियाणुढाणपरायणो विहरति । अण्णया तेण आसुरी णाम पवावओ। तस्य य सो कविगो आचारमेत्तं उद्दिसिऊण अण्णे य बहवे सीसा पवावेऊण य, सदरिसणाणुगयचित्तो मरिऊण बम्भलोगं चेव गओ। तेण य उम्पत्तिसमणतरमेव उवउत्तो
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