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(ख) मृत्वैशाने मध्यमायुः सोऽभूदेव स्ततश्च्युतः ।। ८० ।।
वर्धमान जीवन - कोश
- त्रिशलाका० पर्व १० / सर्ग १
+++ अग्निज्जोओ णाम बंभणो + + + । मरिऊण य ईसाणे कप्पेऽजहण्णमुक्कोसट्ठिई देवो
- चउपन्न० पृ० ६७
भगवान महावीर का जीव अग्निद्योत ब्राह्मण के भव में परिव्राजक दीक्षा ग्रहण करके तथा सर्वायु चौसठ लाख पूर्व का जीकर आयुक्षेष में मर कर ईशान देवलोक में अजधन्य - अनुत्कृष्ट आयु वाले देव रूप में उत्पन्न हुआ । (ग) पुनः प्राक्कर्मणा भूत्वा परिव्राजकदीक्षितः । कालं स पूर्ववन्नीत्वा स्वायुषोऽन्ते मृति व्यगात् ॥ ११६ ॥ तदज्ञानतपक्लेशाद् बभूवासौ सुरौ दिवि । सनत्कुमारसंज्ञ े सप्ताब्धयायुकः सुखान्वितः ।। १२० ।। - वीरवर्ध मान० अधि २
सग्गं जाय उसुरु |
(घ) चिरु कालें पंचत्त, लहेविणु । सणकुमार विष्फुरंत भूसण भा भासुरु । सत्त जलहि पमियाउ महामइ ।
गणगणे मग महिय सुरय गइ ।
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- वड्ढमाणच० संधि २
(च) परिव्राजकदीक्षायां नीत्वा कालं सपूर्ववत् । सनत्कुमार कल्पेऽल्पं देवभूयं प्रपन्नवान् ॥ ७५ ।। सप्तान्ध्युपमितायुको भुक्त्वा तत्रामरं सुखम् ॥
- उत्तपु० ७४
वहाँ भी परिव्राजक की दीक्षा लेकर पहले के समान ही अपनी आयु बितायी और आयु के अंत में मरकर देव पद को प्राप्त हुआ ।
• १० क संसार भ्रमण
ईशान देवलोक के बाद भगवान महावीर के जीव ने संसार भ्रमण किया था ।
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.११ अग्निभूति पारिव्राजक या अग्निमित्र ब्राह्मण
(क) मंदिरे अग्निभूई छप्पन्नाउ' सणकुमारम्मि ।
- आव० निगा ४४२ पूर्वार्ध
मलयटीका - गमनिका - ईशानाच्च्युतो 'मंदिर' इति मंदिरसन्निवेशे अग्निभूतिनामा ब्राह्मणो बभूव, तत्र षट्पञ्चाशत् पूर्वंशतसहस्राणि जीवितमासीत् परिव्राजकश्च बभूव ।
- - ( आव० निगा० ४४३ उत्तरार्ध )
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