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वर्धमान जोवन-कोश अथैकदा नरेशोऽसौ क्षेमकर जिनेश्वरम् । वंदितु परिवारेण विभूत्यामा ययौ मुदा ।। ७४ ।।
तद्धिताय जिनाधीशोऽसो दिव्यध्वजिनानघम् । गणान् प्रतीत्यनुप्रेक्षापूर्वकं धर्ममादिशत् ।। ७६ ।। इयन्ति मे दिनान्यत्र संयमेन विना वृथा । गतानि विषयासक्तस्यातः किंकाललंघनम् ॥ १०४ ।। विचिन्त्येति पदं दत्त्वा सर्वमित्राख्यसूनवे । निधिरत्नादिभिः सार्ध श्रियंहत्वा तृणादिवत् ।। १०५ ॥ मिथ्यात्वाद्य पधीन् सर्वानन्तरे च नराधिपः । जग्राहाश्वाहतीं मुद्रां मुक्तये मुक्तिकारिणीम् ।। १०६ ॥ दुर्लभां त्रिजगल्लोके देवतिर्यक्कुजन्मिनाम् । सहस्रभूमि पैः साकं संवेगादिगुणान्वितैः ॥ १० ॥
-वीरच० अधि ५ (ख) अस्तमभ्युद्यतार्को वा प्रान्तकालं समाप्तवान् । धातकीखंडपूर्वाशा विदेहे पूर्वमागगे ॥ २३५ ॥
विषये पुष्कलावत्यां धरेशः पुण्डरीकिणी । पतिः सुमित्रविख्यातिः सुव्रतास्य मनोरमा ॥ २३६ ।। प्रियमित्रस्तयोरासीत्तनयो नयभूषणः । नाम्नैव नमिताशेषविद्विषश्चक्रवर्तिताम् ॥ २३७ ॥ संप्राप्य भुक्तभोगाङ्को भगुरान्सर्वसंगमान्। क्षेमंकरजिनाधीशवक्त्राम्भोजविनिर्गतात् ॥ २३८ ।। तत्त्वगर्भगम्भीरार्थवाक्यान्मत्वा विरक्तवान् । सर्वमित्राख्यसूनौ स्वं राज्यभारं निधाय सः ।। २३६ ।। भव्यभूपसहस्रण सह संयममाददे । प्रतिष्ठानं यमास्तस्मिन्नवा पंस्तेऽष्टमातृभिः ।। २४० ।।
-उत्तपु० पर्व ७४ उत्तम धातकी खण्ड द्वीप के पूर्वभागवर्ती पूर्व विदेह में पुष्कलावती नाम का देश है। वहां पर पुण्डसीकिणी नगरी है जो विशाल शाश्वती, दिव्य और चक्रवर्ती द्वारा भोग्य है। उस नगरी का स्वामी सुमित्र नाम का पतिपुण्यवान् राजा था। उसकी व्रत भूषित सुनता नामकी सुन्दर रानी थी। उन दोनों के महाशुक्र विमान से माकर वह देव दिव्य लक्षण वाला, जगत्प्रिय, प्रियमित्र नाम का पुत्र हुआ।
यौवन अवस्था में महामंडलेश्वर को राज्य लक्ष्मी से युक्त पिता के पद को पाकर वह उत्तम सुख को भोगने लगा तत्पश्चात् उसके अद्भुत पुण्य से स्वयं ही चक्रादि सभी चौदह रत्न और उत्कृष्ट नव निधियां क्रमशः प्रकट हुई।
इस प्रियमित्र चक्रवर्ती के परम पुण्य से विद्याधर और भूमि गोचरी राजाओं से उत्पन्न हुई, रूप और लावण्य की खानी ऐसी छियान हजार रानियाँ थी।
इसके पश्चात् एक दिन वह चक्रवर्ती अपने परिवार के साथ बड़ो धिभूति से हर्षित होता हुआ क्षेमं कर जिनेश्वर की वंदना करने के लिये गया। तब जिनेश्वर देव ने उसके हित के लिये दिव्य-धनि द्वारा सर्व गणों को लक्ष्य करते हुए प्रतीति (श्रद्धा) और अनुप्रेक्षापूर्वक धर्म का उपदेश दिया।
मेरे विषयासक्त से इतने दिन यहाँ पर संयम के बिना व्यथं चले गये हैं। अतः अब समय बिताने से क्या लाभ है ? ऐसा विचार कर और सर्वमित्र नाम के पुत्र के लिए राज्य पद देकर नौ निधि ( पद्म, काल, महाकाल, सर्वरन पाण्डक, नैसर्प, माणष, शंख और पिंगल ) और चौदह रत्नों के साथ सारी राज्यलक्ष्मी को तृणादि के समान छोड़कर तथा मिथ्यात्व आदि रूपी आन्तरिक परिग्रहों को भी छोड़कर उस नरेश ने मुक्ति प्राप्ति के लिए मुक्तिकारिणी तोन लोक में देव, तिर्यञ्च एवं कुजन्म वाले नारकियों को दुर्लभ ऐसी आहती ऐसी जिनमुद्रा को संवेग-वेराग्य आदि गुणो से युक्त एक हजार राजाओं के साथ उस नराधिप प्रियमित्र चक्रवर्ती ने शीघ्र ग्रहण कर लिया।
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