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वर्षमान जीवन कोश (ख) वरदाम तीथ-आदि पर विजय
ततो जगाम याम्यायां कर्कस्थितइवार्यमा। वरदामानममरं नृपः प्राग्वदसाधयत् ।। १६७ ॥ गत्वा प्रतीच्यां प्रभासतीर्थशमपि चक्रभत । विधिना साधयामास प्रति सिन्धु जगाम च ।। १६८ ।। कृताष्टमस्य प्रत्यक्षीभूय सिन्धुर्महीपतेः । रत्नभद्रासने दिव्ये प्रददौ भूषणानि च ॥ १६६ ।। तां विमृज्य स वैताढ्य चक्ररत्नानुगो ययौ । वैताढ्याद्रिकुमारं चासाधयद्विहिताष्टमः ।। २०० ।। गतस्याभितमिस्र चाष्टमस्थस्य महीपतेः । कृतमालः स्त्रीरत्नार्हमन्यच्चाभरणं ददौ ।। २०१ ।। उत्तीर्य चर्मणा सिन्धु सेनानीश्चक्रिशासनात् । लीलया साधयामास सिन्धोः प्रथमनिष्कुटम् ॥२०२।। भूयोऽप्यभ्येत्य सेनानीः प्रिय मित्रस्य शासनात्। कृताष्टमो दंडघातात्तमिस्रामुदघाटयत् ।। २०३ ।। चक्र यारूढो गजरत्नं तत्कुभे न्यस्य दक्षिणे । मणिरत्नं प्रकाशाय तमिस्रां प्राविशद् गुहाम् ।। २०४ ।। काकिण्या मंडलान्यर्कमंडलाभानि पाश्वयोः । लिखन् गुहायां द्योतायचक्री चक्रानुगो गयौ ।। २०५ ।। पद्ययोन्मग्ननिमग्ने नद्यौ तीर्खा महीपतिः। स्वयमुद्धटितेनोदगद्वारेण निरयागिरेः । २०६ ।। आपातनाम्नः किरातानजेषीत्तत्र चक्रभृत् । असाधयञ्च सेनान्या द्वितीयं सिंधुनिष्कुटम् ।। २०७ ।। चक्रानुगो निवृत्याथ भूपो वैताढ्यमभ्यगात् । वशीचक्र द्वयोः श्रेण्योस्तत्र विद्याधरांश्च सः ॥ २०८ ।। साधयित्वा स सेनान्यां गांगं प्रथमनिष्कुटम् । स्वयमष्टमभक्त न गंगादेवीमसाधयत् ।। २०६ ।। खंडप्रपातया सेनान्युद्घाटितकपाटया । वैताठ्याद्रनिर्जगाम ससैन्योऽपि महीपतिः ।। २१० ।। अथाष्टमतपःस्थस्य प्रिय मित्रस्य चक्रिणः। नवापि निधयोऽभूवन्नैसपीद्या वशंवदाः ।। २११ ॥ जितषटखंडविजयश्चक्री मूकां पूरी ययौ। चक्रीमत्त्वाभिषेकोऽस्य चक्र द्वादशवार्षिकः ।। २१३ ।। अमरैन वरैश्चापि महोत्सवपुरःसरम्। नीत्या पालयतस्तस्य पृथिवीं पृथिवीपतेः ।। २१४ ।।
--त्रिशलाका० पर्व १०/सर्ग १ तत्पश्चात् कर्माशी के सूर्य की तरह चक्रवर्ती दक्षिण दिशा की ओर चला । वहाँ वरदाम नामक देव को पूर्व ( मागध देव की तरह ) तरह साध लिया ।
वहां से पश्चिम की तरफ जाकर प्रभासपति को साधा।
इसके बाद सिंधु नदी के समीप आया। वहाँ जित मन से अष्टम तप किया-ऐसे चक्रवर्ती के पास सिंधु नदी प्रत्यक्ष होकर दो दिव्य रत्नमय भद्रासन और दिव्य आभूषण दिये। उस देवो को विदाई कर चक्र के मार्गानुसार चक्रवर्ती वेताह्यगिरि के पास आया। वहाँ अष्टम तप कर वेताढ्यादि कुमार नामक देव को साधा। - इसके बाद तमिस्रा गुफा के पास जाकर अष्टम तप किया। फल स्वरूप वहाँ स्थित कृतमाल देव स्त्रीरत्न के योग्य ऐसे दूसरे आभूषणों को दिये ।
बाद में सेनापति चक्रवर्ती की आज्ञा से चर्मरत्न के द्वारा सिंधुनदी को पारकर लीला मात्र में उसकी प्रथम निष्कुट साध लिया।
__ वहाँ से वापस आकर चक्रवर्ती की आज्ञा से अष्टम तप कर दण्ड रत्न के घात से उसने तमिस्रा गुफा का द्वार खोला।
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