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वर्णमान जीवन-कोश
१०३ गर्भाधान से पूर्व छह मास तक सिद्धार्थ नरेश के मन्दिर में कल्पवृक्षों से उत्पन्न हुए पुष्पों के और सुगन्धित जलवर्षा के साथ, तथा बहुमूल्य धाले मणियों और सुवर्णों के द्वारा श्री जिनेश्वर देव की विभूति से सेवा करने के लिए प्रतिदिन महारत्नवृष्टि करने लगा। (च) सक्काण लेवि भत्तिए णविवि । णिहि • कलस - हत्थु धणवइ महत्थु ।
मण - भंति तोडि आहुट्ठ - कोड़ि। वर मणि · गणेहिँ गयणंगणेहिं । वरिसियउ ताम छम्मास जाम। x x x
-वड्डमाणच० संधि , कड ६ महाधनपति-कुबेर अपने मन की भ्रांति को तोड़कर तथा भक्तिपूर्वक नमस्कार कर साढ़े तीन करोड़ श्रेष्ठ मणिगणों से युक्त निधि कलश हाथ में लेकर गगन रूपो आँगन से ( कुण्डपुर में ) उस समय तक बरसाता रहा, जब तक कि छः मास पूरे न हो गये हो । ३३ वर्धमान तीर्थंकर-भगवान् महावीर १ गर्भ प्रवेश (क) इह जंबुदीवि भरहतरालि। रमणीय - विसइ सोहा-विसालि ॥
कुंडउरि राउ सिद्धत्थु सहिउ । जो सिरिहरु मग्गण-वेस रहिउ ।।
दो - बाहु वि जो रणि सहसबाहु । सुहि - दिण्ण - जीउ जीमूयबाहु ।
दालिदहारि रायाहिराउ । जो कप्परुक्खु णउकट्ठभाउ । पत्ता-पियकारिणि देवि तुग - कुभि कुभत्थणि। तहु रायहु इट्ट णारीयण • चूडामणि ।।
-वीरजि० संधि १/कड ६ इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में विशाल शोभाघारी विदेह प्रदेश में कुडपुर के राजा सिद्धार्थ राज्य करते हैं । वे आत्म-हितैषी है और श्रीधर होते हुए भी विष्णु के समान धामनावतार संबंधी याचक वेष से रहित हैं।
उनकी भुजाएं तो दो ही थीं, किन्तु युद्ध में वे सहस्रबाहु जैसी वीरता दिखलाते थे। वे सुधी अर्थात् विद्वानों को जीविका प्रदान करते थे, अतएव वे साक्षात् जीमूतवाहन थे जिन्होंने अपने मित्र के लिए अपना जीवनदान कर दिया। वे राजाधिराज लोगों के दारिद्रय को दूर करने वाले कल्पवृक्ष थे, तथापि कल्पवृक्ष के समान वे काष्ठ और कटुभाव-युक्त नहीं थे।
__ ऐसे उन सिद्धार्थ राजा की रानो प्रियकारिणी देवी थी जो विशाल हाथियों के कुभस्थलों के समान पीनस्तनी होती हुई समस्त नारी-समाज की चूड़ामणि थी। (ख) दुवई-एयह बिहिं मिजक्ख कमलक्ख । सलक्खणु रक्खियासवो ॥ चउर्व समु जिणिंदु सुउ सोही। पय - जुय - णविय - वासवो ।।
-वीरजि.संधि१ । कड ७
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