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वर्धमान जीवन-कोश सोविजाय - दिव्यज्झणि भासइ। तहो संदेहु असेसु विणासइ । पंच सयहिं दिय - सुयहें सम्मिल्लें। लइय दिक्ख विप्पेण समेल्लें।
तम्मि दिवसे अवरणहए तेणवि। सोवंगा गोतम णामेणवि । जिण - मुह - णिग्गय अत्थालंकिय । वारहंगं सुय - पय रयणंकिय ।
-वड्ढमाणच० संधि १०/कड २ भासइ अहर - फरण - परिवजिउ, खयरामर नर नियरहिं पुजिउ । दोविह जीव सिद्ध - संसारिय। संसारिय णिय - कम्में भारिय ।।
-वड्ढमाणच० संधि १०/कड ४ सुमेरु पर्वत पर जिनेन्द्र कान्हवन करने वाले तथा विप्र वहुक के वेषधारी उस सुरेन्द्र ने गौतम गोत्ररूपी नंभागण के लिए चन्द्रमा के समान तथा गुण-समूह के निवास-स्थल उस इन्द्रभूति गौतम को देखा तथा उसे वह स्वयं ही ले आया, जहाँ कि स्वामी जिन विराजमान थे। दूर से मानस्तम्भ देखकर उस (गौतम) का मान-अहंकार उसी प्रकार नष्ट हो गया, जिस प्रकार कि सूर्य के सम्मुख अंधकार-समूह नष्ट हो जाता है। उस गौतम ने निरहंकार भाव से नतशिर होकर पृथिवी-मंडल पर असाधारण उन परमेश्वर के जीव-स्थिति पर प्रश्न किया, जिनका उत्तर परमानन्द जिनेश्वर ने स्पष्ट किया। उस उत्पन्न दिव्य-ध्वनि को उस गौतम ने समझ लिया, जिससे उस (गौतम) का सम गया। अपने ५.० द्विज-पुत्रों के साथ मिलकर उस गौतम विप्र ने सब कुछ त्यागकर जिन-दीक्षा ले ली। पूर्वाह्न में दीक्षा लेने के साथ ही उसे (गौतम को) ७ विख्यात (अक्षीण) लब्धियाँ (बुद्धि, क्रिया, विक्रिया,
बल) उत्पन्न हो गयों तथा उसी दिन अपराह्न में उस गौतम नामक ऋषि ने महावीर-जिन के मुख से निर्गत अर्थो से अलंकृत सांगोपांग द्वादशांग श्रुतपदों की रचना की।
विद्याधरों, देवों और मनुष्यों द्वारा पूजित महावीर जिनेंद्र ने ओष्ठ-स्फुरण के बिना ही सप्त तत्त्वों पर इस प्रकार प्रवचन किया
सिद्ध और संसारी के भेद से जीव दो प्रकार के होते हैं। अपने कर्मों के भार को ढोनेवाले जीव संसारी कहलाते हैं। •८ णिस्तंसयकरो वीरो महावीरो जिणुत्तमो । राग-दोस-भयादीदो धम्मतित्थस्स कारओ ॥१६॥ ५१. कत्थं कहियं ? सेणियराए सचेलणे महामंडलीए सयलवसुहामंडल भुजंते मगहामंडल-तिल
ओवमरायगिहणया रयिदिसमहिट्ठिय - विउल - गिरिपव्वए सिद्धचारणसेविए बारहगणपरिवेड्ढिएण कहियं । उत्तं च"पंचसेलपुरे रम्मे, विउले पव्वदुत्तमे। णाणादुमसमाइण्णे, सिद्धचारणसेविदे ॥१७॥ ऋषिगिरिरैन्द्राशायां चतुरस्रो याम्यदिशि च वैभारः। विपुलगिरिनैऋत्यामुभौ त्रिकोणो स्थिती
तत्र ।।१८।।
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