________________
२०८
वर्धमान जीवन-कोश जियपंचिंदियस्स भग्गतिदंडस्स छज्जीवदयावरस्स णिवियअट्ठमयस्स दसधम्मुज्जयस्स अट्ठमाउगणपरिवालियस्स भग्गबाबीसपरीसहपसरस्स सच्चालंकारस्स अत्थो कहिओ। तदो तेण गोअमगोत्तेण इंदभूदिणा अंतोमुहुत्तेणावहारियदुवालसंगत्थेण तेणेव कालेण कयदुवालसंगगंथरयणेण गुणेहि सगसमाणस्स सुहमा इरिस्स गंधो बक्खाणिदो। ततो केत्तिएणवि कालेणकेवलणाणमुप्पाइय बारसवासाणि केवलविहारेण विहरिय इंदभूदिभडारओ णिबुई संपत्तो ।१२॥
-कसापा०/गा १/टीका भाग १/पृ० ८३/८४ जो आर्य क्षेत्र में उत्पन्न हुए है, मति, श्रुति, अवघि ओर मनःपर्यय :-इन चार निर्मल ज्ञानों से संपन्न है, जिन्होंने दीप्त, उग्र और तप्त तप को तपा है, जो अणियादि आठ प्रकार की वैक्रियक लब्धियों से संपन्न है, जिनकी सर्वार्थ सिद्धि में निवास करने वाले देवों से अनन्त गुण बल है, जो एक मुहूर्त में बारह अंगों के अर्थ और द्वादशांग रूप ग्रंथों के स्मरण और पाठ करने में समर्थ है, जो अपने पाणिपात्र में दी गई खीर को अमृत रूप से परिवर्तित करने में या अक्षय बनाने में समर्थ है, जिन्हें आहार और स्थान के विषय में अक्षीण ऋद्धि प्राप्त हैं, जिन्होंने सर्वावधि ज्ञान से अशेष पुद्गल द्रव्य का साक्षात्कार कर लिया है, तप के बल से जिन्होंने उत्कृष्ट विपुतमति मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न कर लिया है, जो सात प्रकार के मद से रहित है, जिन्होंने चार कपायों का क्षय कर दिया है, जिन्होंने पांच इन्द्रियों को जीत लिया है। जिन्होंने मन, वचन, कायरूप तीन दण्डों को भग्न कर दिया है, जो छह कायिक जीवों की दया पालने में तत्पर है, जिन्होंने कुलमद आदि आठ मदों को नष्ट कर दिया है।
जो क्षमादि दस धर्मों में निरन्तर उद्यत है। जो आठ प्रवचन मातृक गणों का अर्थात् पांच समिति और तीन गुप्तियों का प्रतिपालन करते है। जिन्होंने क्षुधादि बाइस परीषहों के प्रसार को जीत लिया है। और जिनका सत्य ही अलंकार है-ऐसे आर्य इन्द्रभूति के लिए उन महावीर भट्टारक ने सर्वथा उपदेश दिया। उसके अनन्तर उन गौतम गोत्र में उत्पन्न हुए इन्द्रभूतिने एक अंतर्मुहूर्त में द्वादशांग के अर्थ का अवधारण कर के उसी समय बारह अंग रूप ग्रंथों की रचना की और गुणों से अपने समान ही सुधर्माचार्य को उसका व्याख्यान किया।
तदनन्तर कुछ काल के पश्चात् इन्द्रभूति भट्टारक केवल ज्ञान को उत्पन्न करके और बारह वर्ष तक केवलि-विहार रूप से विहार करके मोक्ष को प्राप्त हुए। .१० छद्मावस्था में गौतम गणधर ने छट्ठ-तप-बेले २ की तपस्या अनेक बार की।
(क) तेणं कालेणं तेणं समएणं रोहीडएनामं नयरे होत्था। x x x तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जे? अंतेवासी छ?क्खमणपारणगंसि तहेव जाव रायमग्गमोगाढे x x x ।
-विवा० श्रु २/अ ६/सू २, ५, ६ जब श्रमण भगवान् महावीर रोहितक नगर पधारे थे। उस समय भगवान् के ज्येष्ठ शिष्य गौतम स्वामी षष्ठ क्षमण-बेले के पारणे के लिए भिक्षार्थ गये और रागमार्ग पधारे ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org