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वर्धमान जीवन-कोश भगवान् भी स्तुति कर इन्द्र विराग को प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् प्रभु सर्व भाषा में समझा जाय--ऐसी वाणी से देशना दी। यह भगवान् महावीर को द्वितीय देशना थी।
___ "अहो ! यह संसार समुद्र की तरह दारुण है और उसका कारण वृक्ष में बीज की तरह कर्म ही है। .... स्वयं के ही किये कर्म से विवेक रहित हुआ प्राणी कूप खोदने वाले की तरह अधोगति को प्राप्त होता है और शुद्ध हृदय वाला पुरुष, स्वयं के हो कर्म से महत् बांधने वाले की तरह ऊर्ध्वगति को प्राप्त होता है। •३ भगवान महावीर और समवसरण
द्वितीय समवसरण में तीर्थ की स्थापना हुई-ग्यारह गणधर दीक्षितमलय टीका-xx x तत्र भगवान् x x x संक्षेपतो धर्मदेशनां कृत्वा द्वादशसु योजनेष मध्यमानाम नगरी, तत्र सोमिलाख्थो नाम ब्राह्मणः, स यज्ञ यष्टुमभ्युद्यतः, तत्र चैकादशोपाध्यायाः, खल्वागताः, ते च चरमशरीरा भवान्तरोपा जितगणधरलब्धयश्च, तान् विज्ञायासंख्येयाभिवकोटिभिः परिवृतो देवोद्योतेन दिवस इवा शेषं पंथानमुद्योतयन् देवपरिकल्पितेष सहस्रपत्रेषु नवनीतस्पशेष पमेष चरणन्यासं विदधानो मध्यमनगर्या महसेनवनोद्यानं सम्प्राप्तः ॥ x x x तत्थ किरसोमिलज्जोत्तिमाहणो तस्स दिक्खकालम्मि । पउरा जणजाणवया समागया जन्नवाडम्मि ।। एगते अ विवित्ते उत्तरपासम्मि जन्नवाडस्स । तो देवदाणविंदा करिति महिमं जिणिदस्स ।। भवणवइवाणमंतर जोइसवासी विमाणवासी य । सव्विड्ढीइ सपरिसा कासी नाणुप्पयामहिमं ।।
-आव० नि गा ५४० से ५४२ टीका-तत्र पापायां मध्यमायां किलशब्दः पूर्ववत्, सोमिल: आर्य इति-व्राह्मणः तस्य दीक्षाकाले यागकाले पौरा-विशिष्टनगरनिवासिलोका जनाः-सामान्यलोका जनपदा-नानाजनपदभवा लोका समागता यज्ञ पाटे ॥ xxx
भगवान महावीर ने अपापा नगरी के नजदीक महासेन उद्यान में संक्षेपतः धर्म देशना दी।
अपापा नगरी में सोमिल नामका एक धनाढ्य ब्राह्मण रहता था। उसने यज्ञकर्म में विचक्षण ग्यारह द्विज को यज्ञ करने के लिए आमंत्रित किया। एकादश उपाध्यायों का समागत हुआ। वे चरम शरीरी थे। उन्होंने अनेक देवों को आकाश मार्ग से भगवान् महावीर के समवसरण की ओर जाते हुए देखा।
ग्यारह ही गणधरों ने ४४०० शिष्यों के साथ भगवान के पास दीक्षा ग्रहण की ! .४ देशना का निष्कर्ष-अपापा नगरी के
दूसरे समवसरण में-चतुर्विध संघ की स्थापना महाकुला महाप्राज्ञाः संविग्ना विश्ववंदिताः। एकादशाऽपि तेऽभूवन्मूलशिष्या जगद्गुरोः ॥१६॥ इतश्च चन्दना तत्र शतानीकगृहस्थिता। पश्यन्ती यान्तमायान्तं दिविषजनमम्बरे ॥१६॥ स्वामिनः केवलोत्पत्तिनिश्चयाद्वतकांक्षिणी। त्रिदशैरदवीयोभिनिन्ये श्रीवीरपर्षदि ॥१६२।।
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