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भक ग्राम में भगवान् ने प्रथम देशना दी ।
फलस्वरूप उस समय वहाँ उपकार के योग्य ऐसे जीवों का बिल्कुल अभाव होने से परोपकार में तत्पर और जिनका प्रेमबंधन क्षीण हो गया है— ऐसे वर्धमान महावीर ने अपापा नगरी की ओर विहार किया
मेरे तीर्थंकर नाम गोत्र नाम का मोटा कर्म वेदने के अनुभव करने योग्य है। ऐसा विचार कर असंख्प कोटि देवों से पर चरण छोड़ते हुए भगवान् दिवस की तरह देवों के उद्योत से वाली भव्य प्राणियों से अलंकृत और यथार्थ बुलाये हुए, विमों से सेवित अपापा नगरी में भगवान आये। पहुँचे । महासेन उद्यान में ठहरे ।
योग्य है। उन भव्य जीवों को प्रतिबोध देने के योग्य परिवारित और देवों के द्वारा संचारित सुवर्ण कमल रात्रि में भी प्रकाश करते हुए बारह योजन के विस्तार प्रबोध के योग्य बहुत से शिष्यों से परिवारित, गौतमादिक अर्थात् भगवान् महावीर वैशाख शुक्ला एकादशी को मध्यम पावा
उस पुरी के नजदीक महासेन वन नामक उद्यान में देवों ने एक सुन्दर समवसरण की रचना की । तत्पश्चात सर्व अतिशयों से संपन्न, सुर असुरों से स्तवित भगवान् ने पूर्वद्वार से उस प्रवेश किया ।
वर्धमान जीवन कोश
बतीस धनुष ऊंचे रन के प्रतिच्छंद चेत्य वृक्ष को तीन प्रदक्षिणा कर 'तीर्थाय नमः' ऐसा कहकर आती मर्यादाओं को पालन कर भगवान् पादपीठ युक्त पूर्व सिंहासन पर बैठे। भक्ति वाले देवों ने प्रभु की महिमा से हो अन्य तीन दिशाओं में प्रभु के प्रतिरूप किये।
सत्य ही बोलना चाहिए ।
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उस अवसर पर सर्व देवों तथा मनुष्यादि योग्य द्वार से समवसरण में प्रवेश कर प्रभु के शरीर को देखते स्वयं स्वयं के योग्य स्थान में बैठे 1
तत्पश्चात् शकेन्द्र भक्ति से रोमाञ्चित शरीर से प्रभु को नमस्कार कर अंजलि जोड़कर स्तुति की। कर्म के बंध का कारण ऐसी प्राणी की हिंसा कदाचित् भी नहीं करनी चाहिए ।
हमेशा स्वयं के प्राणी की तरह दूसरों के प्राणी की रक्षा करने में तत्पर रहना चाहिए ।
आत्म पीड़ा की तरह पर जीव को
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पीड़ा को दूर करने की इच्छा रखता हुआ प्राणी असत्य नहीं बोलते हुए
मनुष्य के बहि:प्राण लेने की तरह अदत्त द्रव्य कदाचित् भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। क्योंकि उसके द्रव्य का हरण करने से उसका वध किया हुआ हो कहा जाता है ।
बहुत जीवों का उपमर्दन करने वाला मैथून का कभी भी सेवन नहीं करना चाहिए। प्रशापुरुष को परब्रह्म (मोक्ष) को देने वाला ब्रह्मचर्य को ही धारण करना चाहिए ।
परिग्रह का ग्रहण नहीं करना चाहिए। अति परिग्रह के ग्रहण करने से अधिक भार से बलद की तरह प्राणी विधुर होकर अधोगति में गिरते है ।
इन प्राणातिपातादि के दो भेद हैं- सूक्ष्म और बादर । इनमें से यदि सूक्ष्म को नहीं छोड़ा जा सकता है तो सूक्ष्म के त्याग में अनुरागी होकर बादर का त्याग अवश्य ही करना चाहिए ।
इस प्रकार की भगवान की देशना सुनकर सर्व लोक आनन्द में मग्न होकर चित्रवत् स्थिर हो गये ।
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