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"पंचशैल में अर्थात् पाँच पहाड़ों से शोभायमान
राजगृह नगर के पास स्थित, नाना प्रकार के
वृक्षों से
व्याप्त, • सिद्ध तथा चारणों से सेवित और सर्व पर्वतों में उत्तम ऐसे अति रमणीक विपुलाचल पर्वत के ऊपर भव्यजनों के लिए भगवान् महावीर ने धर्म तीर्थ का प्रतिपादन किया । ऐन्द्र अर्थात् पूर्व दिशा में चौकोर आकार वाला ऋषिगिरि नाम का पर्वत है । दक्षिण दिशा में बेभार और नैऋत्य दिशा में विपुलाचल नाम के पर्वत है । ये दोनों पर्वत त्रिकोण आकार वाले हैं । पश्चिम, वायव्य और उत्तर दिशा में धनुष के आकार वाला छिन्न नाम का पर्वत है । ऐशान दिशा में गोलाकार पांडु नाम का पर्वत है । ये सब पर्वत कुश के अग्रभागों से ढंके हुए हैं ।
वर्धमान जीवन - कोश
किस काल में धर्म तीर्थ का प्रतिपादन किया — ऐसा पूछने पर शिष्यों को काल का ज्ञान कराने के लिए आगे काल की प्ररूपणा की गयी है । वह इस प्रकार है- उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के भेद से काल दो प्रकार का है । जिस काल में बल, आयु और शरीर की ऊचाई का उत्सर्पण अर्थात् वृद्धि होती है वह काल उत्सर्पिणी काल है । तथा जिस काल में बल, आयु और शरीर की ऊंचाई की हानि होती है वह अवसर्पिणी काल है । उनमें से प्रत्येक काल सुषमसुषमादि के भेद से छह प्रकार का होता है। उनमें से इस भरत क्षेत्र सम्बन्धी अवसर्पिणी काल के चौथेदुःषभ-सुषमा काल में नौ दिन और छः मास अधिक तेतीस वर्ष अवशिष्ट रहने पर धर्मतीर्थ की उत्पत्ति हुई ! कहा भी है।
इस अवसर्पिणी काल के दुषभसुषमा नामक चौथे काल के पिछले भाग में कुछ कम चौतीस वर्ष बाकी रहने पर धर्म तीर्थ की उत्पत्ति हुई ।
(ग) श्वेताम्बर मतानुसार भगवान् की द्वितीय देशना - अपापा नगरी में
( भगवान् महावीर और समवसरण ) द्वितीय समवसरण में तीर्थ की स्थापना
परोपकारैकपरः
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च
प्रभुः ।
उपकारार्हलोकानामभावात्तत्र तीर्थकृन्नामगोत्राऽख्यं कर्म वेद्यं महन्मया । द्यसन्निकाय नि कोटीभिरसंख्याताभिरावृतः । सुरैः संचार्यमाणेषु
स्फुटे मार्गे दिन इव देवोघोतेन निश्यपि । द्वादशयोजनाध्वनां भव्य सत्त्वैर लंकृताम् ॥१७॥ गौतमाद्यः प्रबोध हैर्भूरिशिष्य समावृतैः । यज्ञाय मिलितैर्जुष्टामपापामगमत्पुरीम् ||१८||
तस्या अदूरे पुर्याश्च महासेनवनाभिघे । उद्याने चारुसमसरणं विबुधाव्यधुः ||१६|| सञ्जातसर्वातिशयः स्तूयमानः सुरासरैः । पूर्वद्वारेण समवसरणं प्राविशत्प्रभुः ||२०| द्वात्रिंशद्धनुरुत्तुंगं रत्नच्छंदच्छं विर्निभम् । ततः प्रदक्षिणीकृत्य
चैत्यवृक्षं जगद्गुरुः ॥२१॥ नमस्तीर्थामेत्युदित्वा पालयन्नर्हतीं स्थितिम् । सपादपीठे न्यषदत्पूर्व सिंहासने प्रभुः ||२२|| स्वामिनः प्रतिरूपाणि तन्महिम्नैव नाकिनः । विचक्रिरे भक्तिमन्तस्तिसृष्वन्यासु दिक्ष्वपि ||२३|| यथाद्वारं प्रविश्याथ यथास्थित्यत्रतस्थिरे । पश्यन्तः स्वामिवदनं सर्वे सुरनरादयः ||२४|| नमस्कृत्य जगन्नार्थं द्य सन्नाथः कृताञ्जलिः । रोमाञ्चितवपुर्भक्तया स्तोतुमेवं प्रचक्रमे ||२५|| - त्रिशलाका० पर्व १० / सर्ग ५
प्रक्षीणप्रेमबंधनः || १४॥
भव्यजंतुप्रबोधेनानुभाव्यमितिभावयन् ॥१५॥ स्वर्णाब्जेषु दधत्क्रमौ ॥ १६॥
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