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बुद्धिमान होते हैं । वे सरलतापूर्वक समझाये वे उस तत्त्व के मर्म तक पहुँच जाते हैं । तीर्थंकर के साधुओं के लिए पाँच महाव्रतों का चार महाव्रतों का कथन किया गया है ।
वर्धमान जीवन - कोश
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जा सकते हैं और ऐसे बुद्धिमान होते हैं कि संकेत मात्र कर देने से ही इसलिए धर्म के नियमों में भेद किया गया है अर्थात् प्रथम और अन्तिम विधान किया गया है और मध्य के बाइस तीर्थंकरों के साधुओं के लिए
पहले तीर्थंकर के साधुओं का आचार दुर्विशोध्य है और अन्तिम तीर्थंकर के साधुओं का आचार दुरनुपालक है और मध्य के बाइस तीर्थंकरों के साधुओं का आचार सुविशोध्य और सुपालक है । अर्थात् प्रथम तीर्थंकर के साधु अपने कल्प ( आचार ) को शीघ्र समझ नहीं पाते हैं । उनकी प्रकृत्ति सरल होती है, इसलिए उनकी बुद्धि शीघ्रता से पदार्थों के अवधारण करने में समर्थ नहीं होती । अन्तिम तीर्थंकर के साधु वक्रजड़ होते हैं, वे किसी बात को सरलतापूर्वक समझते नहीं और समझ जाने पर भी उसका सरलता से पालन नहीं करते, क्योंकि इस काल के जीव कुतर्क उत्पन्न करने में बड़े कुशल होते हैं । मध्य के बाइस तीर्थंकरों के मुनियों को शिक्षित करना या साधु कल्प का बोध देना और उनके द्वारा उसका पालन किया जाना — ये दोनों बातें सुलभ होती है, इसलिए इनके लिए चार महाव्रतों का विधान किया गया है और प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के मुनियों के लिए पाँच महाव्रतों का विधान किया गया है ।
(ख) सचेलक - अचेलक के सम्बन्ध में : साहु गोयम ! पण्णा ते, छिष्णो मे संसओ इमो । अचेलगो य जो धम्मो, जो इमो संतरुत्तरो । एगज्जपवण्णणं, विसेसे किण्णु कारणं । सिमेवं बुवाणं तु, गोयमो इणमन्त्रवी । पच्चयत्थं च लोगस्स, णाणाविह विगप्पणं । अह भवे पइण्णा उ, मोक्ष- सब्यसाहणा ।
अण्णो वि संसओमज्झं, तं मे कहसु गोयमा ||२८|| सिओ वद्धमाणेण, पासेण य महाजसा ||२६|| लिंगे दुविहे मेहावी ! कह विप्पच्चओ ण ते ||३०|| विष्णाणेण समागम्म, धम्म- साहण - मिच्छियं ||३१|| जत्तत्थं गहणत्थं च, लोगे लिंगपओयणं ||३२|| गाणं च दंसणं चेव, चरितं चेव णिच्छए ||३३|| - उत्त० अ २३ /गा २८ से ३३
हे गौतम! आपकी बुद्धि श्रेष्ठ है । आपने मेरा यह संशय दूर कर दिया है । मेरा और भी संशय है इसलिए हे गौतम! उसके विषय में भी मुझे कहिए अर्थात् मेरा जो दूसरा संशय है उसे भी दूर कीजिये ।
दूसरा प्रश्न - महायशस्वी महामुनिश्वर भगवान् वर्धमान स्वामी ने जो यह अचेलक ( परिमाणोपेत श्वेत और अल्प मूल्यवाले वस्त्र रखने ) रूप धर्म कहा है और भगवान् पार्श्वनाथ स्वामी ने जो यह मानोपेत रहित, विशिष्ट एवं बहुमूल्य वस्त्र रखने रूप धर्म कहा है, तो एकही कार्य के लिए अर्थात् मोक्ष प्राप्ति रूप कार्य के लिए प्रवृत्ति करनेवालों में परस्पर विशेषता होने में क्या कारण है ? हे मेधाविन् ! बाह्यवेश के दो भेद हो जाने पर क्या आपके मन में संदेह उत्पन्न नहीं होता है ? जब दोनों बाते सर्वज्ञ कवित है तो फिर मतनेद का क्या कारण है ?
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इस प्रकार कहते हुए केशीकुमार श्रमण को गौतम स्वामी इस प्रकार कहने लगे । भगवान् पार्श्वनाथ स्वामी और भगवान् वर्धमान स्वामी ने विज्ञान द्वारा अर्थात् केवलज्ञान द्वारा जानकर यथायोग्य धर्म-उपकरणों की आज्ञा दी
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