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वर्धमान जीवन-कोश
४५ भारद्वाज सदा कुशास्त्र के अभ्यास में तत्पर रहता था। पुनः उस कुज्ञान से उत्पन्न संवेग से उसने तीन दंडों से मडित त्रिदंडी दीक्षा ग्रहण कर और तप से देवायु को बाँधकर मरा और उसके फल से माहेन्द्र नामक के स्वर्ग में सात सागरोपम आयुका धारक और अपने तप से उपार्जित पुण्य के अनुसार सुख को भोगने वाला देव रूप में उत्पन्न हुआ।
.१४क-संसार भ्रमण ( श्वे. ) (क) संसरिय थावरो ++ +
-आव० निगा०४४३ का अंश मलयटीका-भारद्वाजो +++ मृत्वा च माहेन्द्र कल्पेऽजघन्योत्कृष्टस्थितिर्देव बभूवेति (निगा ४४२
माहेन्द्राच्च्युतः संसृत्य कियन्तमपि कालं संसारे + + । (ख) मृत्वा माहेन्द्रकल्पेऽभूत् स सुरो मध्यमस्थितिः ॥ च्युत्वा भ्रान्स्वा भवं राजगृहेऽभूत्स्थावरोद्विजः ।।८३ ।।
-त्रिशलाका० पर्व १० । सर्ग १ (ग) तओ विचुओ पुणो संसारमाहिंडिऊण xxx।
--चउपन्न० पृ०६७ भगवान् महावीर का जीव माहेन्द्र देवलोक से चवकर कियत्काल संसार-भ्रमण किया। .१४ क-त्रस-स्थावर योनि के असंख्यात भव ( दिग्० ) (क) ततः प्रच्युत्य दुर्मार्गप्रकटीकृतजेनसः। महापापविपाकेन निन्द्याः सर्वा अधोगतीः ।। १२६ ।।
प्रविश्यासंख्यवर्षाणि चिरं भ्रान्त्वा सुखातिगः । दुःकमशृंखलाबद्धस्त्रस स्थावरयोनिषु ॥ १३० ।। सर्वदुःखनिधानेषु नानादुःखातिपीडितः । वचोऽतिगं महादुःखं मिथ्यात्वफलतोऽन्वभूत् ।। १३१ ॥ इति कुपथविपाकाच्छम बिन्द्वाभमाप्य जलनिधिसमदुःखं चान्वभूत् सत्रिदंडी+ +
-वीरच० अधि २ श्लो १२६ से १३१, १३६ पूर्वार्ध (ख) इह पलाव विरयंतु पढुक्कउ मरणावस्थाहिं पाहिं मुक्कउ ।
तत्थहो ओवरेवि पावासउ मिच्छत्ताणल-जाल हुवासउ । थावरजोणि-मज्झ णिवसेविण सोचिरु भूरि-दुक्खु विसहेविणु । दुक्खें कहव तसत्तु लहेविणु विविह-जीव संघाउ वहेविणु । पावेप्पिणु मणु वत्तणु वल्लहु जूअसविला संजोएँ दुल्लहु । जीउ पयंड पुराइय-कम्में किं किं णकरइ मुटु अगम्में ।
-वड्ढमाणच० संधि २ । कड २२ (ग) भूत्वा ततोऽवतीर्यात्र दुर्मार्गप्रकटीकृतेः॥ ८० ॥ फलेनाधोगतीः सर्वाः प्रविश्य गुरुदुःखभाक् ॥ त्रसस्थावरवर्गेषु संख्यातीतसमाश्चिरम् ॥ ८१ ।। परिभ्रम्य परिश्रान्तस्तदन्ते मगधाहये ।।
-उत्तपु० पर्व ७४
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