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वर्धमान जीवन-कोश सुदंसणस्सेस जसो गिरिस्स, पच्चती महतो पव्वतस्स । एतोवमे समणे णातपुत्ते, जाती-जसो-दसण-णाण-सीले ॥ १४ ।।
-सूय० श्रु १ / अ ६/गा १० से १४ पृ० ३०३ मेरुपर्वत सब मिलाकर एक लाख योजन का है। उसके तीन काण्ड है-~१. भूमिमय, २ सुवर्णमय और ३. पैडूर्य मणि । उसमें पंडगवन ध्वजा के समान शोभित होता है । वह मेरुपवंत निनानवें हजार योजन ऊंचा है और नीचे एक सहस्त्र योजन है ।। १० ।।
मेरुपर्वत पृथ्वी से लगाकर आकाश को अड़ककर रहा हुआ है। उसके चारों ओर ११२१ योजन के अंतर पर सूर्य प्रमुख ज्योतिषी देव परिभ्रमण कर रहे हैं। वह मेरुपर्वत सुवर्णमय है और उसमें चार घन स्थित हैं अर्थात् भ मितल में भद्रशाल वन है-उससे पांच सो योजन ऊपर नन्दनधन है । उससे ६२५०० योजन ऊपर सोमनसवन है और उससे ३६००० योजन ऊपर शिखर पर पंडगवन है। वहां पर देवेन्द्र क्रीड़ा करने के लिए आते हैं और रतिसुख भोगते हैं।
और भी वह पर्वत मन्दर, मेरु, सुदर्शन, सुरगिरि इत्यादि नामों से प्रसिद्ध होता हुआ शोभायमान है तथा सुषणं के समान देदीप्ययान सुकुमाल है- उसमें प्रधान मेखला रही हुई हैं जिससे सामान्य जीवको चढ़ने में बड़ा विषम है और अच्छी मणि और औषधियों से देदीप्यमान भूमी के समान है ॥ १२ ॥
यह नगेन्द्र [ मेरु पर्वत ] पृथ्वी के मध्यभाग में स्थित है और सूर्य के समान कांतिवान् है। वैसे ही लक्ष्मी से सुमेरू पर्वत अनेक वर्णवाला और मन को आनन्द देने वाला है तथा जैसे सूर्य सब दिशा में प्रकाश करता है वेसे ही वह पर्वत दशों दिशाओं को प्रकाशमान करता है ॥ १३ ॥
सुदर्शन, सुमेरु आदि नामों ये प्रसिद्ध महान् मेरु पर्वत का यश जैसे कहते है वैसे ही ज्ञातपुत्र श्री वोरप्रभु जाति, यश, दर्शन, ज्ञान और शील करके समस्त धर्ममार्ग के प्रकाशकों में प्रधान थे ॥ १४॥ ब) गिरिवरे वा णिसढायताणं, रुयगे व से? वलयायताणं । ततोवमे से जगभूतिपण्णे, मुणीण 'मज्झे तमुदाहु' पण ॥
--सूय० श्रु १ / अ६ / गा १५ । पृ० ३०२ टोका-xxx। यथा तावाय तवृतताभ्यां श्रष्टौ एवं भगवानपि जगति-संसारे भूतिप्रज्ञःप्रभूतज्ञानः प्रज्ञया श्रेष्ठ इत्यर्थः तथा अपर मुनीना मध्ये प्रकर्षण जानातीति प्रज्ञः एवं तत्स्वरूपविदः 'उदाहुः' उदाहृतवंत उक्तवंत इत्यर्थः ।
जैसे समस्त पर्वतों की लम्बाई में निषेध पर्वत श्रेष्ठ है और वतु'लाकार में हचक नामक पर्वत श्रेष्ठ है वैसे ही सर्व जगत में महावीर प्रभु प्रज्ञा से श्रेष्ठ है और समस्त मुनियों में तत्व स्वरूप जानने में अत्यन्त ज्ञानवान् जानना । (ट) अणुत्तरं धम्ममुदीरइत्ता, अणुत्तरं झाणवरंझियाई । सुसुक्कसुक्कं अपगंडसुक्कं, संखेंदुवेगंतवदातसुक्कं ।।
-सूय० श्रु१/ अ६ / गा १६ / पृ० ३०३
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