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वर्धमान जीवन-कोश ३० सहस्रार स्वर्ग का देव-अथवामहाशुक्र का देव क) समणे भगवं महावीरे तिस्थगरभवग्गणाओ छ? पोट्टिलभवग्गहणे एगं वासको डि साम पाउणित्ता सहस्सारे कप्पे सव्व? विमाणे देवत्ताए उववण्णे।
-- सम०/पइसम/सू ८६/१० १११ ११२ श्रमण भगवान महावीर का जीव-प्रोष्टिलकेभव ( प्रियमित्र चक्रवर्ती ) में एक कोटि वर्ष का प्रभाव
का पालन कर सहस्त्रार नामके देवलोक में सर्वार्थ नाम के विमान में देवं रूप में उत्पन्न हुआ।
(ख! मलयटीका -xxx मृत्वा प्रिय मित्र चक्रवर्ती ) महाशुक्र कल्पे सर्वार्थविमाने सप्तदशम स्थितिर्देवोऽभवत्।
-आव० निगा ४४६ मलयटीका भगवान महावीर का जीव प्रियमित्र चक्रवर्ती के भव से मरकर महाशुक्र कल्प के सर्वार्थ विमान सागरोपम मायुष के देषरूप में उत्पन्न हुआ। (देखो क्रमांक २३) (ग) पूर्वलक्षचतुरशीत्यायुः संन्यासपूर्व कम्। मृत्वा शुक्र स सर्वार्थविमाने त्रिदशोऽभवत् ।। २६
-त्रिशलाका० पर्व १० सर्ग १ (घ) प्रिय मित्रमुनीन्द्रोऽसौ तदर्जितशुभोदयात् । सहस्रारेऽभवदेवो महासूर्यप्रभाभिधः ॥ ११५
-वीरच. अधि ५
(च) वे पढम-झाण मणि परिहरेवि तउ चरइ घोरु उवसमु धरेवि ।
दसह तवेण सोसिवि सरीरु अवसाणकाले मणुकरवि धीरु। करि पाणचाउ सण्णासणेण पव्वजिय पाव सण्णासणेण ' सहसार • कप्पे सहसत्ति जाउ सहजाहरणालंकरिय-काउ । दिवट्ठ - गुणामल - सिरि समेउ णामेण सूरपहु सूरदेउ ।
-वड्डमाणच संधि ८/कड ११
मनमें प्रथम दो - आतं और रौद्र ध्यानों का त्याग कर तथा उपशमभावों को धारण कर वह पानी करने लगा और दुस्सह तप से शरीर का शोषण कर अवसान के समय मन को धीर बनाकर पूर्वोपावित विधिपूर्वक नाशकर, संन्यासमरण पूर्वक प्राण-त्याग करके वह सहसा ही सहस्त्राय स्वर्ग में सहज प्राप्त की अलंकृत कामयुक्त तथा दिव्या अणिमा, महिमा आदि आठ गुणों को निर्मल श्री से समृद्ध सूर्यप्रभ नामक ए (छ) प्रान्ते प्राप्य सहस्रारमभूत् सूर्यप्रभोऽमरः। सुखाष्टादशवाायुद्धदिभुक्तभोगकः ॥
-उत्तपु० पर्व ७४
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