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वर्धमान जीवन कोश आठवें मैत्रेय जो महातप से शोभायमान इन्द्रियजित व शुक्लध्यानी तथा चित्त से पवित्र थे। नवमें अकम्पन जो मदैव तपस्या में अकम्प रहते थे। दशवें अचल और ग्यारहवें प्रभास- जो देह के अनुराग़ से रहित तथा कामदेव के विनाशक थे।
जिनेन्द्र भगवान् के ये ग्यारह गणधर मुनि हुए जो शल्यसहित और महान थे। .२ अथेन्द्रभूतिरेवाद्यो वायुभूत्यग्निभूतिको। सुधर्ममौर्यमौण्ड्याख्यपुत्रमैत्रेयसंज्ञका ॥ ___अकम्पनोऽन्धवेलाख्यः प्रभासोऽमी सुगचिताः। - वीरवर्धमानच० अधि १६/श्लो २०६
वीर निनेन्द्र के ग्यारह गणधरों में इन्द्रभूति गौतम प्रथम गणधर थे। ___ दूसरे वायुभूति. तीसरे अग्निभूति. चौथे सुधर्मा, पांचवें मौर्य. छठे मौण्ड्य (मंडिक), सातवें पुत्न (?) आठवें मैत्रेय, नववे अकम्पन, दशवें अन्धोल और ग्यारहवें प्रभास गणधर हुए ।
.५५ श्रमणी संघ की प्रवर्तिनी (अग्रणी)-आर्यचंदना (साध्वी प्रमुखा)-चंदनबाला
.१ भगवान महावीर का अभिग्रह-आर्यचंदना के द्वारा फलिन (क) x x x ततो सामी कोसंविंगतो. तत्थ मयाणिनो गया मियादेवी तरचावादी धम्मपाढगो
सुगुतो अमच्चो नन्दा से भारिया, सा य समणोवासिया, ततो सड्ढित्ति मियावतीए वयंसिया, 'तत्थेव नगरे धण्णावहो सेट्ठी, तरस मूला भारिया, एवं तेम् कम्मसंपत्ता अन्छति, सामीय पोसबहुल पाडिवए इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगेण्हइ चउम्विहं, तंजहा- दवतो वेत्ततो कालतो भावतो, दव्वतो कुम्मासे सुप्पकोणेणं, खेत्ततो एलुगं विक्खंभइत्ता कालतो नियत्तेसु भिक्खायरेसु भावतो जइ रायधूया दासत्तणं पत्ता नियतबद्धा मुंडियमिग, अट्ठमभत्तिया एवं कप्पइ, सेसं न कप्पइ एवं अभिग्गहं घेत्तूण कोसंबीए अच्छइ, दि वसे-दि-वसे भिक वायरियं फुसह, किं निमित्तं ? बावीसं परिसहा भिक्खा यरियाए उदिज्जति, एवं चत्तारिमासे कोसंवीएहिंडइ ।
- आव० निगा ५१८-टीका में उद्धत (ख) प्रामऽथ मेण्ढकग्रामे भगवान् विहरन ययौ ॥४७॥ पूर्वार्ध
ततो निष्क्रम्य भगवान कौशाम्बी नगरी ययौ। राजा तस्यां शतानीकः पगनीकभयंकरः ॥१७४।। चेटकोवीं शदुहिता तद्राज्ञी च मृगावती। श्राविका तीर्थकृत्पादपूजानिष्ठा सदेवहि ॥४५५।। गज्ञस्तस्य च सचिवः मुगुप्तो नाम तत्प्रिया । नन्दा नाम श्राविकेति मृगावत्याः परा सखी ॥४७६।। श्रेष्ठी धनावहो नाम्ना तत्र चाऽऽसीत्महाधनः। मूलाऽभिधाना तस्यापि गृहिणी गृहकर्मणः ॥४७७ ॥ तत्र स्वामी पोपमासबहुलप्रतिपदिने । दुराचरं दुग्रहंच जग्राहैवमिमग्रहम् ।।४७८॥ अयोनिगडबद्धांघ्रिर्मुण्डिताऽनशिता सती। रुदती मन्युना राजकन्यापि प्रेष्यतांगता ॥४७॥
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