Book Title: Vanaspati Vigyan
Author(s): Hanumanprasad Sharma
Publisher: Mahashakti Sahitya Mandir
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान लेखकहनूमानप्रसाद शर्मा, वैद्यशास्त्री Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाशक्ति-साहित्य-मन्दिर-ग्रंथमाला-संख्या-१३ - वनस्पति-विज्ञान लेखकहनुमानप्रसाद शर्मा, वैद्यशास्त्री . -ser संवत् 1960 वि० प्रथम संस्करण] [ मूल्य // Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक नागेश्वरप्रसाद मिश्र 'भारती' महाशक्ति-साहित्य-मन्दिर बुलानाला, बनारस सिटी मुद्रक विजयबहादुरसिंह, बी० ए० महाशक्ति-प्रेस बुलानाला, बनारस सिटी Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन आयुर्वेद वेद का एक महत्त्वपूर्ण अंग है, बल्कि यों कहना चाहिए कि यह पञ्चम वेद ही है / इसी अति प्राचीन शास्त्र का एक महत्त्वपूर्ण अंग चिकित्सा है। आजकल वह चिकित्सा कई भागों में विभाजित है-वनस्पति, रस, शल्य आदि। पर एक तो आयुर्वेद यों ही जटिल है, दूसरे हमारी अज्ञानता ने बनस्पतिचिकित्सा का बहुत बड़ा ह्रास किया है / वनस्पति के विषय में हम उतना ही ज्ञान रखते हैं, जितना अतीत काल की गाथा का / हम शास्त्रों को पढ़कर भी कुछ नहीं समझ सकते / उनको आकृति का तो हमें एकदम ही ज्ञान नहीं है। यहाँ तक कि प्रत्यक्ष देखते हुए भी यह नहीं समझ सकते कि यह क्या वस्तु है। इतनी अन. भिज्ञता होते हुए भी अपने को शिखर पर पहुँचा हुआ समझते हैं। यह कितनी बड़ी मूर्खता है। यदि यह कहा जाय कि यह केवल हमारी मूर्खता का फल है, तो नितान्त अन्याय होगा। जिस समय हमारे आयुर्वेद-शास्त्र की रचना हुई है, उस समय आजकल-जैसे मुद्रणालय न थे; उस समय तो हम भोजपत्रों और ताडपत्रों पर ही कुछ लिख-लिखाकर रखते थे। अन्यथा विशेष भाग तो कण्ठस्थ हो रहा करता था / यही कारण है कि धीरे-धीरे उसका अंग लुम होता गया / इसी कण्ठस्थ के झगड़े ने Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्हें वाध्य किया कि वे लोग इसकी रचना श्लोक और कारिकाओं में करें। गत पन्द्रह वर्षों की बात होगी-जिस समय मैं अपने मातामह स्वर्गीय पूज्य भिषप्रत्न पण्डित छन्नूलालजी महाराज से आयुर्वेदशास्त्र की शिक्षा पारहा था, उस समय यदि किसी अवसरविशेष पर मैं किसी बात को नोट कर लेने की इच्छा प्रकट करता तो वे कहते-"लिखकर पढ़ना मूखों का काम है।" वास्तव में उनके इस कथन में बड़ी सत्यता है। उस समय के लोग अत्यन्त मेधावी होते थे / उन्हें किसी पुस्तक की टीका या भाष्य से सम्बन्ध न था। उस प्राचीन काल में जो पूर्ण संस्कृतज्ञ होता था वही आयुर्वेदशास्त्र का अध्ययन और अध्यापन कर सकता था। आजकल-जैसी धाँधली न थी। अस्तु / ___ वनस्पति हमारे लिए क्यों उपयोगी है-उसका व्यवहार क्यों करना चाहिए-आदि विषयों पर मैं इस पुस्तक के प्रारम्भिक अंश में प्रकाश डाल चुका हूँ। किन्तु अब यह भी बतला देना आवश्यक प्रतीत होता है कि मैंने प्रस्तुत पुस्तक की रचना क्यों की। __ यह निर्विवाद सिद्ध है कि आधुनिक वैज्ञानिकों ने वनस्पतियों के विषय में जो गवेषणा की है, वह बहुत अंशतक सफल हुई है। वे प्रत्येक वनस्पति के विषय में पूर्ण दत्तचित्त होकर खोज कर रहे हैं / बल्कि इसे उत्तेजन देने के लिए "बोटामी" की शिक्षा का भी पूरा प्रबन्ध है; किन्तु वे जिस बात का अन्वेषण कर रहे हैं, Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 5 ) उसका सर्व-साधारण की बुद्धि में आना कठिन ही नहीं, असम्भव भी है। साथ ही उसे समझकर हम कोई लाभ भी नहीं उठा सकते। वह इसलिए कि उनका हमारे शरीर के लिए क्या उपयोग है, इसे अभी वे विशेष रूप से नहीं समझा सके हैं / आज से पचास वर्ष बाद वह समय आएगा, जब हिन्दी-पाठकों को उसकी आवश्यकता प्रतीत होगी। किन्तु इन शब्दों के माने यह न समझना चाहिए कि मैं उनका विरोधी हूँ, बल्कि उसका दृढ़ समर्थक हूँ। यदि एक काम मैं आज कर जाऊँ और उसका आनन्द हमारी भावी संतान ले, तो इससे बढ़कर हमारे लिए गौरव की बात और क्या हो सकती है ? किन्तु ऐसे लोगों की भी आवश्यकता है, जो कम-सेकम वर्तमान समय का भी ध्यान रखें / __ अब मैं पुस्तक के नाम के विषय में भी थोड़ा निवेदन करना आवश्यक समझता हूँ; क्योंकि जिस समय स्वलिखित "आहारविज्ञान" प्रकाशित किया था, उस समय कुछ सहयोगियों को यह शिकायत हुई थी कि 'विज्ञान' शब्द तो केवल 'साइन्स' के अर्थ में प्रयुक्त होता है / किन्तु नहीं, यह उनका भ्रममात्र है / 'विज्ञान' शब्द की रचना उस समय हुई थी जिस समय 'साइन्स' के पर. दादा का भी पता न था। किन्तु आधुनिक समय में 'साइन्स' के लिए कोई उपयुक्त अर्थवाची शब्द हिन्दी में न मिलने से साइन्स. वालों ने विज्ञान शब्द को अपना लिया। विज्ञान का अर्थ है Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसी विषय का विशिष्ट ज्ञान होना / प्रस्तुत पुस्तक में वनस्पतियों के विषय की ज्ञातव्य बातों का विशिष्ट ज्ञान प्राप्त कराने की चेष्टा की गई है। अस्तु / इस पुस्तक का नाम कहाँ तक सार्थक है, इसे अनुभवी पाठक एवं विद्वजन ही समझ सकते हैं। . अंग्रेजी भाषा में वनस्पति-सम्बन्धी अनेक पुस्तकें हैं; किन्तु उनसे हमारे पाठकों का क्या लाभ ? प्रस्तुत पुस्तक में उन्हीं वनस्पतियों का समावेश किया गया है, जो साधारण रीति से सर्वसाधारण एवं सभी प्रान्तों के निवासियों के लिए सुगम एवं सुलभ हैं / साथ ही उनके सुगम उपयोग द्वारा बड़े एवं भयंकर रोगों से छुटकारा पाने का भी उपाय बतलाने की चेष्टा की गई है। प्रायः दो वर्ष का समय हुआ, जब.लोगों ने "आहार-विज्ञान' को अपनाकर मुझे उत्साहित किया, तब मेरी इच्छा हुई कि एक पुस्तक इस ढंग की क्यों न लिखी जाय / किन्तु अनेक पारिवारिक मंझटों एवं अपनी आकस्मिक अस्वस्थता तथा चिकित्सा-व्यवसाय में संलम होने के कारण समयाभाव ने भी विघ्न का साथ दिया और मैं अपने विचारों को कार्यरूप में परिणत न कर सका। इधर अस्वस्थता की दशा में ही एक दिन बातों के सिलसिले में मेरे परम प्रिय मित्र ठाकुर विजयबहादुरसिंहजी बी० ए० महोदय ने इस पुस्तक को शीघ्र लिख डालने का अनुरोध किया। समय सब कुछ करा सकता है। मैंने उसी दिन सब मसाला निकाला और पुस्तक का लिखना दूसरे दिन से प्रारम्भ कर दिया। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 7 ) प्रस्तुत पुस्तक के लिखने में मुझे आयुर्वेद के प्रायः अधिकांश निघंटुओं एवं चरक आदि से साहाय्य प्राप्त हुआ है। साथ ही आयुर्वेदोद्धारक स्वर्गीय शंकर दाजी शास्त्री पदे महोदय के "आर्यभिषक" नामक मराठी ग्रंथ के गुजराती अनुवाद से भी कुछ सहायता ली गई है। अतएव मैं उन लोगों का सादर आभार अंगीकार करता हूँ। अन्त में मैं उन कृपालु समालोचकों एवं विज्ञ पाठकों से निवेदन कर देना चाहता हूँ कि प्रस्तुत पुस्तक में जो त्रुटियाँ मिलें, उनसे मुझे अवगत करा दें, ताकि अगले संस्करण में वे दूर की जा सकें; क्योंकि यह सम्भव नहीं कि इस पुस्तक में त्रुटियों का अभाव न हो / साथ ही, मनुष्य सर्वज्ञ नहीं कहा जा सकता। किं बहुना। 0 महाशक्ति-भवन ) बुलानाला, काशी 1-12-1633 ) निवेदकहनूमानप्रसाद शर्मा Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय सूची [प्रारम्भिक] १-विषय-प्रवेश ... २-पंचतत्त्व ... ३-मानव-शरीर के तत्व ४-आयुर्वेद ... ५-रस-चिकित्सा का विकास . ६-चिकित्सा शास्त्र की पूर्णता ७-मनुष्य की आयु ८-प्राकृतिक चिकित्सा ९-आयुर्वेद की चिकित्सा पद्धतियाँ १०-वनौषधियाँ ... ११-रसायन और वनस्पति १२-रसायन Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची 197 180 183 127 अडूसा अनन्तमूल अमिलतास अरणी अशोक असगंध आँवला प्राक आकाशबौर इन्द्रायण एरंड कंघी कचनार [अकारादि क्रम से] 55 कनेर 212 कपास 251 करंज 222 करंजा 254 कलियारी 162 कुकरौंदा 119 कुश . 85 कोरैया 100 कौंच 166 कौपाठोडी 61 खंभारी 226 गंगेरन 74 गदहपूर्णा 116 गिलोय ... 220 गुंजा 58 गूमा 200 191 188 161 209 226 101 . .. कटाई कटेरी Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गूलर गोखुरू घीकुवार छिरेटा जलपीपर जवासा जीवन्ती 211 218 228 140 झाऊ 234 247 तुलसी थूहर दुधिया ( 10 ) 94 पाठा 202 पान . 204 प्रसारिणी 160 पिठिवन 149 पित्तपापड़ा 170 फरहद 239 बंदाल 263 बकाइन 255 बट 89 बरियरा 124 बहेड़ा 71 बाँस 92 ब्राह्मी 169 भैगरैया 113 भाँग 146 भुई आँवला 112 भूतण 172 मकोय 229 मषवन 248 मुंडी 207 मुगवन दूब धतूरा धमासा नकछिकनी नागदौन नागरमोथा निसोथ नीम 154 219 107 242 पलाश पाटला 241 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलेठी 66 144 मुसली मूसाकानी मेउड़ी मेदाशिंगी मेहदी ( 11 ) 257 सतावर 178 सनाय 151 सरफोंका 194 सरिवन 157 सहदेई 139 सहिजन 150 सातला 193 सेमल 109. सोनापाठा 214 सोमलता 132 हड़जोड़ 174 हर 155 हुरहुज मोरशिखा रोहिणी लज्जावती लटजीरा वायविडंग विदारीकंद शंखाहुली 134 141 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयोग-सूची [अकारादि क्रम से] अग्निमांद्य और पाण्डुरोग में-४३ अजीर्ण में-११८,२०६ अजीर्णातिसार में-२४६ अडूसा का पुटपाक-५७ अडूसा का स्वरस-५७ अडूसा की चटनी-५७ अण्डकोश की सूजन में-१३८ अण्डवृद्धि पर-८८,१६८, 182 अण्डवृद्धि में-१३०, 227 अतीसार-७६ अतीसार में-११८, 145, 151, 183, 27, 219, 246, 248, 250, 262 अर्धागवायु में-९३ अन्तर्विद्रधि पर-१७० अन्तर्विद्रधि में-८०, 104 अपस्मार में-६९, 113, 130, 152, 157 अफीम का नशा उतारने के लिए-२०० अफीम के विष पर-१०० अम्लपित्त पर-२०९, 226 अम्लपित्त में-७०, 104, 137 भरुचि-५२, 76 अरुचि में-८८, 21. अरुचि और ज्वर में-३३ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (13) वर्शको-१५९ . मर्श में-२०० अर्श रोग पर-२१०, 262 अशुद्ध अभ्रक के विष पर-१२१ आँख आने पर-८०, 138, 150, 159, 194, 206, 221 आँख की फूली पर-१३०, 124, 219 आँख की फूली और रतौंधी पर-११३ आँख की सन्धि के नासूर में-१५३ आँखों की गर्मी पर-२३५ भआँखों की जलन पर-१२१ आँखों के आने पर-९७, 166, 215 आँखों के जाला पर 103, 104, 182 आँत उतरने पर-११० . आग से जल जाने पर-९०,२०६, 246 आग से जले घाव के सफेद दागों पर-८२ भागन्तुक ज्वर में-२०० भागन्तुक व्रण पर-२५८० आतशक की गर्मी पर-२२७ आधाशीशी-८२, 164 . मामवात पर-२५० आमवात में-५१, 183, 185, 204 आमवात और उदररोग में-५२ मामातिसार में-९८,२१० भामातिसार और रक्तातिसार में-२५६ इन्द्रलुप्त पर-१८७, 204 इन्द्रिय-शैथिल्य पर-१५४ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 14 ) उदरशूल में-८८, 169, 206 उदरशूल, गुल्म और प्लीहरोग में-१०५ उन्माद-१३. उन्माद में-७०, 93, 157 उपदंश के घाव की शुद्धि के लिए-८२ उपदंश के घावों पर-१३८ उपदंश के रोगी को दस्त लाने के लिए-११ उपदंश में-१११, 185, 187, 216, 241, 245 उरक्षत पर-२५९ उरुस्तम्भ में-१६१, 183 उष्णवात में-८५ ऊर्ध्ववात पर-1८८ ऊर्द्धश्वास पर-२२१ ऊर्द्धश्वास में-१६७, 206, 259 कर्णदाह में-२०६ कर्णमूल पर-९९ कर्णरोग में-२२९, 233 कर्णशूल पर-८७, 256 कफ में-२६० कफ, न्यूमोनियाँ और दमा में-६० कफ-प्रमेह में-९३, 208 कफरोग में-५१, 293 . कफ-विकार में-२०६ कफ से दूध दूषित होने पर-२६.. कफ सूख जाने पर-२५९ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 15 ) कफज गण्डमाला पर-७६ कफजन्य शूल एवं उदर-शूल पर-६४ कफजन्य सिरदर्द पर-८० कमर की पीड़ा-८० कृमि पर-११७, 185 कृमि में-१३३, 199 कृमिरोग में-१५३, 170, 189, 193, 217, 248, 250 काँच निकलने पर-६५ काँटा या शीशा गड़ जाने पर-१५३ कान का कृमि-५९ कान की खुजली में-१४५ कान बहने पर-१५२ कान में कोई जानवर चला गया हो, तो-१०८ कान में फोड़ा हो, तो-१५२ . कोनों का बहना-७९ कानों में कृमि जाने पर-१२९ कामला पर-८७ . . कामला में-१२९, 148, 228 कामलारोग में-८४, 101, 103, 200, 206, 233 कामला और यकृत विकार पर-१०७ कामला, पाण्डु, हलीमक, श्वास, उदर, जीर्णज्वर और मलरोगादिकों पर 105 काश-श्वास पर-१३८ कुचला का विष-५५ कुत्ता का विष-२१५ कुत्ते का विष-६०, 105 कुत्ता के विष पर-२३५ कुत्ता का विष और पथरी में-६९ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 16 ) कुष्ठरोग में-६६, 170, 213, 233 कूकर-खाँसी पर-१२४ कौंच के विष पर-१४९ खाँसी में-९२, 94, 161, 197, 260 खाँसी और श्वास में-२१६ खुजली पर-२२६, 241, 250, 253 खुजली में-१५९ खुजली और दाद पर-१८२ खूनी बवासीर में-१०३ गण्डमाल के लिए-६६ गण्डमाला पर-७५, 79, 87, 99, 128, 182, 253 गण्डमाला में-८४, 110, 149, 168, 199 गण्डमाला फोड़ने के लिए-७६ गर्भधारण के लिए-१६३, 189, 240 गर्भपात के लिए-२६२ गर्भपुष्टि के लिए-१६२ गर्भाधान के लिए-६०, 115 गर्भिणी के अतिसार पर-९९ गर्मी की सूजन पर-१५२ गरमी में-९८ गरमी से जीभ के काँटों पर-९८ गुमसीवात पर-२३४ गलगंड और कामला पर-१०९ गलसुजा पर-९७ गुल्म और जलोदर पर-१०४ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 17 ) गुल्म और प्लीहा में-१०३ गुल्म और रूक्षवात में-११४ घाव पर-१७०, 191, 194, 197, 262 घाव बड़ा करने के लिए-८८ घाव में कीड़ा पड़ जाने पर-१९७, 206, 233 घाव में कीड़े पड़े हों, तो-२२५ ... चकत्तों पर-२५५ चर्मरोग पर-१६३, 233, 253 . चेचक की शान्ति के लिए-६७ चेचक पर-२३२, 247 . चेचक में-७०, 130 चेचक से आँख में फूली पड़ जाने पर-१८७ चोट पर-२१२ चौथिया ज्वर में-१०४, 132 जलोदर-१७८ ज्वर-६९ ज्वर में-६६, 73, 107, 131, 153, 166, 185, 199, 227, 232, 240 ज्वर में दाह हो, तो-२४८ . ज्वर में यदि मुखपाक हो, तो-११७ ज्वर से मुख की विरसता पर-१२१ जुकाम में-२५७ जीर्णज्वर-५२ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (18) तृषा, मूर्छा, श्वास और सन्ताप में-७० तृषा-शमन के लिए-२५८ स्वचारोग में-१४६ थकान दूर करने के लिए-१९७ थकान मिटाने के लिए-११८ दन्तरोग में-१०४ दमा और हिचकी में-१३७ दस्त के लिए-६४,८४, 91 दाँत-दर्द पर-११४ दाँतों के दर्द पर-२१५ दाँतों के कृमि में-१५२ दाँतों के कीड़े-६० दाँतों के कीड़ों पर-२३३ दाँतों में कृमि हो, तो-१६७, 168 दाद पर-१४५ दाद तथा खुजली पर-२५७ दाह-५२ दाह पर-६४, 75,99, 116, 124, 151, 155, 157, 210, 213, 219, 223, 226, 241, 242, 246, 250, 263 दाह, कुष्ठ और खुजली पर-२५२ दाह, पित्त और शूल-६८ दुष्ट व्रण पर-२३२ दूध कम करने के लिए-२३२ दूध बढ़ाने के लिए-६८, 180, 199 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 1 ) दूध-वृद्धि के लिए-५, 164,176 धतूरे का विष-६३ धातुपुष्टि के लिए-१२२, 189, 246, 248 धातुवृद्धि के लिए-१८०, 242 धातुपुष्टि और वृद्धि के लिए-६९ धातुविकार पर-२१९ धातु-स्तम्भन के लिए-१३ धातुस्नाव में-२४६ धातुक्षय में-१६४ नकसीर में-७३ नख और दाँत के विष पर-२४८ . नल फूलने पर-५५ नवजात बच्चों के शरीर पर छाले हों, तो-२५३ नशा उतारने के लिए-१७.. नहरुआ-७५, 79 . नाक से रक्त गिरने पर-१२१ . नाडीव्रण में-९१ नासूर में-२३३ / निद्रा के लिए-६६, 262 नेत्ररोग-७८ नेत्ररोग में-५३, 130 नेत्र-विकार पर-१९३ नेत्रों की खुजली पर-१०३ नेत्रों की ज्योति बढ़ाने के लिए-१९३ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 20 ) पक्षाघात में-२२३ पथरी पर--९८, 204, 237, 263 पथरी में-८०, 151, 170, 173 पशुओं के विष पर-१६४ पशु की योनि बाहर निकले तो-१२८ पसीना के अधिक आने पर-१४५ . पसीना लाने के लिए-६५, 88 पाण्डुरोग में-५२, 138, 145, 149, 174, 203 पाँव की जलन पर-१४० पाचनशक्ति के लिए-११८ . पारा का विष-५५, 187 पारा के विष पर-२२५ पारी के ज्वर पर-२३२ पित्त की अधिकता में विरेचन के लिए-१७४ पित्तज गुल्म में-१७४ पित्तज प्रदर-५७ पित्तज प्रमेह और मूत्राघात में-२०४ पित्तज प्रमेह में-१४०, 253, 255 पित्तज वातरक्त पर-२३३ पित्तज शिरःशूल पर-२३७ पित्तज शूल में-१२२ पित्तज्वर में-९९, 237 पित्त निकालने के लिए-१८२ पित्त पर-१०८, 120 पित्त-प्रदर-६९, 269 पित्त-विकार पर-२३७ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (21) पित्त-विकार में-१५५, 209 पित्त-शान्ति के लिए-२५३ / पित्त से दुर्बलता होने पर-१३७ पुष्टि के लिए-१९१, 203 पेट की गर्मी, कृमि और मूर्छा पर-१५२ पेट के कीड़ों पर-२३२ पेट फूलने पर-१५३ प्रदर में-१५५, 164, 180, 201, 213, 245 प्रमेह-६१, 70, 81, 235 प्रमेह और धातु-विकार में-१९॥ प्रमेह में-१२१, 122, 131, 138, 140, 195, 160, 164, 176, 187, 203, 240, 242, 248 प्रसव के बाद का शूल-२०४ प्रसव पीड़ा में-२५७ प्लीह पर-१७८ प्लीह में-८८ प्लीहा में-८० फुन्सियों पर-२३२ फूली पर-२५० फोड़ा पर-१६० फोड़े पर-६३, 116, 233, 246 फोड़ों पर-८०, 118 फोड़ा पकाने के लिए-१९१ फोड़ा फोड़ने के लिए-९१ फोड़े की शोथ पर-१३ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (29) बच्चों का कफ निकालने के लिए-१४७ बच्चों का पेट भारी होने पर-१४३ बच्चों के उदर-विकार पर-१२७ बद पर-९७, 189 बद में-१४० बद या फोड़े पर 91 बल और पुष्टि के लिए-१७६ बल-वृद्धि के लिए-२४६, 259 बवासीर पर-९९, 149, 193 बवासीर में-८१ बहिरेपन पर-२१५ बहुमूत्र में-६६, 130, 177, 226 बाल काला करने के लिए-५३, 83 बालरोग में-१२६ . बालक का पेट फूलने पर-८२ बालकों का पेट बढ़ जाने पर-७९ बालकों की खाँसी में-२५१ बालकों की श्वास में-९१ बालकों की सर्दी में-८२ बालकों के ऊर्द्ध-श्वास पर-२२५ बालकों के चर्मरोग पर-२५९ बालकों के मुखपाक पर-११५ बालकों को शक्ति-बर्द्धन के लिए-१६३ बालकों को शीतला की गरमी में-९८ बिगड़े हुए फोड़े पर-२३२ बिच्छू का विष-६३, 87, 93, 104, 227, 246 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिच्छू के विष पर-५७, 99, 101, 143, 199,215, 229, 248 भस्मक रोग में-९९, 174, 176 भ्रम और मूर्छा में-१७० भ्रम, दाह और पित्त में-११३ भ्रमरोग में-१७१ भ्रमर-विष-९१ भिलावा के विष पर-२५३ भूतज्वर में-१४३, 227 म मन्दाग्नि में-५९, 105, 262 . मृगी में-२६० मलमूत्र की कमी-७९. मलशुद्धि में-१३३ मस्तक के कीड़ों पर-२३३ मस्तक-शूल और नाक से खून गिरने पर-१०० मस्तिष्क की शान्ति के लिए-१५३ मासिक धर्म के लिए-७३, 114, 168, 200, 201, 206 मुह के छाले-७९ मुँह के छालों पर-८२, 147, 290, 259 मुख की विरसता पर-२२०, 257 मुखरोग-६५ मूर्छा में-१२२, 130, 189 मूत्र और वीर्य-दोष पर-२२७ मूत्रकृच्छू-५१ मूत्रकृच्छ्र में-५३, 121, 155, 170, 171, 187, 204, 208,245, 260 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 24 ) मूत्रकृच्छू और उष्णवात में-२०३ मूत्रकृच्छू और मूत्रावरोध पर-६० मूत्रशुद्धि के लिए-२०१ मूत्राघात पर-२२५ मूत्राघात में-१७० मेदरोग में-८२ यकृत में-१७८, 263 योनि की दाह पर-१२२ योनिशूल और पुष्पावरोध में-१२९ योनिशूल पर-१६८ रक्तगुल्म में-८८, 168 रक्तजन्य दाह पर-२२५ रक्तज वमन में-२६० रक्तपिच पर-१२१ रक्तपित्त में-९७, 248, 253 रक्तप्रदर में-७३, 255 रक्त-विकार पर-२१७ रक्त-विकार में-८५, 160, 178, 193 रक्त-शुद्धि के लिए-६९, 210, 213, 243 रक्तस्त्राव और चक्कर में-२५६ रक्तस्राव पर-१९९ रक्तस्राव में-१३९ रक्तातीसार-६६, 116, 122, 140, 219 रक्तातीसार पर-१२७ रक्तातीसार में-९८ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 25 ) रक्तार्श में-२१६ रतौंधी पर-२५० रतौंधी में-१०३, 188, 216 राजयक्ष्मा-५३ रात में आनेवाला ज्वर-१४९ लँगड़ेपन पर-८० . वच्छनाग के विष पर -97 बद्धकोष्ठता पर-६४, 163 बद्धकोष्ठता में-१२१ वन्ध्यात्व-७० . वमन और कुष्ठ पर-२३२ वमन और श्वास पर-१२१ वमन के लिए-१६१, 143, 254, 259 वमन में-७३, 110, 157, 237 वमम रोकने के लिए-२२० वसा-प्रमेह में-२२३ वातगुल्म में-८१, 185 . वातजन्य सन्धिग्रह पर-६३ वातज शरीर-पीड़ा पर-८७ वातज्वर में-६९, 201 . वातपित्त और रक्तपित्त में-७० वात-रक्त में-२१३, 229 वातरोग में-२३९, 257 चातविकार में-१६४, 21 // Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (26) वातव्याधि में-५२ वातार्श में-१६१, 210, 262 वायु की गाँठ पर-८८ वायु में-७९, 164 वायुरोग में-८४, 132, 171 बायु से अंग जकड़ जाने पर-९७ विद्रधि और व्रण पर-२२७ / विरेचन के लिए-८८, 144, 168, 172, 174, 183, 253 : विष-८७ विष पर-२०० विषमज्वर -69 विषमज्वर पर-१२७ विषमज्वर में-८०, 93, 111, 132, 205, 218 विषचिका में-९९, 118, 199, 216, 233, 260 वीर्यवृद्धि के लिए-१२२, 163, 164, 179, 187, 197, 204, 212, 213, 251 वीर्यस्राव और पथरी पर-१५३ वीर्यस्त्राव पर-२५७ शक्तिवर्द्धन के लिए-५२ शरीर की गर्मी पर-१५३ शरीर-पुष्टि के लिए-१७२ शिरा कट जाने पर-२३९ शिरा के कट जाने पर यदि रक्त अधिक निकले, तो--११६ शिरोरोग और ज्वर में-१०१, 103 शिरोरोग में-७३, 112 शीघ्र प्रसव के लिए-७९, 87, 128, 143, 216, 254 "61 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीतज्वर में-१९७, 223, 232, 956 शीतपित्त-१७० शीतपित्त पर-२३२ शीतपित्त में-२२३, 235 शीतला की गर्मी दूर करने के लिए-९९ शूल में-११८, 145, 168 शोथ-१०४ . शोथ और गाँठ पर-९१ शोथ और व्रण पर-१६४ शोथ पर-६३, 14, 105, 132, 193, 16, 184, 210, 223, 240, 203 शोथ में-२३७ शोफोदर पर-१०३, 108 शोफोदर में–२०८ श्रीपद पर-१५० वास-१० श्वास और कास पर-१२४ . श्वास पर-२२० श्वास में-१८९, 197, 225, 260 श्वासरोग में-२३३ श्वेत प्रदर-५७ संखिया का विष-८० संग्रहणी में-१९४, 211, 262 सन्धिवात पर-९१, 221, 223, 233, 254 सन्धिवात में--८४, 154, 168, 171, 243 समिपातोदर में-१५७ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सब प्रकार के उपदंश और प्रमेह पर-९४ सब प्रकार के ज्वरों पर--१२०, 257 सब प्रकार के नेत्ररोग-५१ सब प्रकार के प्रदर पर-२५५ सब प्रकार के प्रमेह पर-५०, 70 सब प्रकार के योनिशूल पर-९३ सब प्रकार के वायु पर-.. सब प्रकार के विषों पर-१४७ सब रोगों पर-१६३ सरदी की खाँसी पर-५५ सर्प और विच्छ के विष पर-१" सर्प के काटने पर-१२९ सर्पदंश पर-१६७ सर्पदंश में-१४५ सर्प-विष-५१, 87 सर्प-विष पर-६३, 78, 199, 211 सर्प-विष में-१४८, 152, 182, 232 सर्वज्वर-६६ सर्वाङ्गशोथ, उदर, पाण्डु, स्थूलता और कफ पर -104 सर्वाङ्गशोथ में--१०५ सिकतामेह पर-२३३ सियार का विष-५५ सिर का बाल उड़ जाने पर-५९ सिर की गरमी पर-१५२, 237 सिर की जूं मारने के लिए-१३, 232 सिर-दर्द--११४ सिर दर्द पर-७८,८०, 122, 124, 177, 208 . Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 26 ) सिर-दर्द में-४७ . सुख से प्रसव होने के लिए--५६ सुरामेह पर-२४६ सूखारोग में--८९ सूजन और गाँठ पर--१२९ सूजाक में-१२७ सोमल का विष--९७ सौन्दर्य वृद्धि के लिए--१२२ स्तम्भन के लिए-१८७, 191, 246, 262 स्तनरोग पर-१९९ स्तनरोग में-१४५, 168, 206 . स्तनशोथ पर-६३ स्मरण-शक्ति के लिए-१३०. स्वरभंग में-८३, 120, 187, 260 सियों की कमर टेढ़ी हो जाने पर-१४७ बी का गुप्तांग बाहर निकल आने पर-६५, 110 हड्डी टूट जाने पर-२३९ हरताल के विष पर-१७० हाथ-पैर एवं सिर की दाह-७४ हिचकी में-७३, 79, 113, 118, 170, 208, 259 हिस्टीरिया रोग में-७० हृद्रोग में-३३, 247, 260 हृद्रशूल में-६३ हैजा और उदरशूल में-२०९ हैजा में-८२, 177 होने वाले फोड़े पर-७३ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (30) क्षय एवं कास-पास-५८ क्षय, प्रसूत और उदरशूल में-१८४ त्रिदोषज गुल्म में-८५ त्रिदोषज मूत्रकृच्छू पर-७० त्रिदोष में-२६० Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान Page #33 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-प्रवेश www अपने आस-पास की वस्तुओं को देखकर हमारे हृदय में यह धारणा स्वाभाविक उत्पन्न हो जाती है कि ये पदार्थ कौन हैं, इनसे हमारा क्या सम्बन्ध है तथा हमारे शरीर से इनका क्या सम्बन्ध है एवं हमारा शरीर किस प्रकार बना हुआ है और इन पदार्थों में तथा हममें कौन-सी शक्ति संचरण करती है। यदि हम अपने शरीर और अपने पासवर्ती पदार्थों की रचना के कार्य-कारण को भली-भाँति न जानें, तो यह हमारे लिए परम लज्जास्पद विषय है / संसार में अपने शरीर की अनभिज्ञता महान दुःख की जननी है। अन्य सब विषयों के अज्ञानता की अपेक्षा अपने शरीर-रचना की अनभिज्ञता तो महान क्लेशदायक ही है / सूक्ष्म दृष्टि से अवलोकन करने पर शरीर के बाहर की अन्य वस्तुओं में भी एक अलौकिक; किन्तु सूक्ष्म शक्ति संचरण करती हुई दीख पड़ती है। यदि हम अपने शरीर-रचना का पूर्ण-ज्ञान उपलब्ध कर लें, तो संसार के अन्य पदार्थों की सम्पूर्ण ज्ञातव्य बातें सरलतापूर्वक हमारी समझ में आ सकती हैं। मानव शरीर-रचना प्रकृति की एक अद्भुत और अलौकिक कृति है / इस कृति का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने में अभी मानव जाति सफल नहीं हो सकी है / क्यापि Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान अन्वेषक और सूक्ष्म बुद्धि विशारद आर्य महर्षियों ने जिन ज्ञातव्य बातों का ज्ञान हमें सुलभ कर दिया है, उसकी सहायता से हम अपने शरीर की रचना करने वाली प्रकृति नटी की अपार शक्ति का कुछ-कुछ अनुमान कर सकते हैं / - आयुर्वेद-शास्त्र-निर्माता महर्षियों ने शरीर-शास्त्र के विषय में अनुसन्धान करके, जो कुछ प्रकाश डाला है; उसी के साहाय्य से आज विश्व के रासायनिक और वैज्ञानिक अपने नूतन आविष्कार का विजय डंका बजा रहे हैं। , __immmmmmm पंचतत्त्व हम कौन हैं, हमारा शरीर क्या है और इसका धर्म क्या हैं ? आदि प्रश्न प्रत्येक मनुष्य के हृदय में उठते और विलीन होते रहते हैं , विचारवान और विवेकशील व्यक्ति इन प्रश्नों का उत्तर पा सकते हैं। और उस उत्तर के सहारे अपने जीवन को भी सफल बना सकते हैं / सृष्टि के अन्य जीवधारी इन गूढ़ प्रश्नों पर न तो विचार ही कर सकते हैं, और न उत्तर ही पा सकते हैं / परन्तु मनुष्य को इस शरीर-रचना पर अवश्य विचार करना चाहिए, क्योंकि मनुष्य अन्य जीवों की अपेक्षा अधिक तर्कशील तवा ज्ञानवान है / प्रकृति ने अन्य प्राणियों की अपेक्षा मनुष्य में यह तर्क और विवेचन शक्ति अधिक मात्रा में सन्निहित की है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचतत्व ____ हमें अपने शारीरिक तथा चेतना शक्ति पर अवश्य विचार करना पड़ेगा। वास्तव में विचार करने पर जो परमाणु पदार्थ और शक्ति इस सृष्टि-रचना में दृष्टि-गोचर होती है, उसी परमाणु पदार्थ और शक्ति से हमारा शरीर बना हुआ है। इसलिए हमें सृष्टि-सम्बन्धी कुछ आवश्यक बातों का ज्ञान होना अनिवार्य है। क्योंकि उस ज्ञान के बिना हम अपनी संसार-यात्रा को कदापि सफल नहीं बना सकते। किसी भी पदार्थ की उत्पत्ति में कार्य और कारण का सम्बन्ध अवश्य रहता है। उसी प्रकार सृष्टि-रचना को देखने से भी कार्य और कारण का विकास प्रतीत होता है। संसार में हम प्रत्यक्षरूप से तीन प्रकार के पदार्थ देखते हैं / १-खनिज, २-उद्भिज (वनस्पति ) और ३-प्राणी / इन तीनों में अन्तिम दो में तो हम चेतना शक्ति पाते हैं। किन्तु प्रथम खनिज में भी अप्रत्यक्षरूप से चेतना-शक्ति का वास है। वह इस प्रकार कि प्राणी-वर्ग वनस्पति खाकर जीवन रक्षा करते हैं और वनस्पति की उत्पत्ति खनिज पदार्थ से है; क्योंकि वनस्पतियाँ अपनी जड़-द्वारा खनिज पदार्थों का तत्त्व ग्रहण कर उत्पत्ति और विकास को प्राप्त होती हैं / अर्थात् खनिज पदार्थ ही वनस्पति के जीवन हैं, और वनस्पतियाँ ही हमारे जीवन की सर्वस्व हैं / इस प्रकार निर्जीव पदार्थ भी सजीव बन जाते हैं और वही निर्जीव पदार्थ सजीव पदार्थों की भाँति उत्पत्ति और विकास को प्राप्त होते हैं। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान अति सूक्ष्म रज-कणों से मिट्टी का पिंड बनता है / उस पिंड से वनस्पति उत्पन्न होती है और उस वनस्पति के आहार से हमारे प्राण की रक्षा होती है। इसी वनस्पति के आहार के प्रभाव से हमारा जीवात्मा-परमात्मा तक बन सकता है / अर्थात् वनस्पति का सात्विक आहार ही हमारे मन-मस्तिष्क को शान्त कर हमें उस महाप्रभु के चरणों तक पहुँचने की शक्ति प्रदान करता है। रज ही मिट्टी है, मिट्टी ही वनस्पति रूप है और वनस्पति हो प्राणी रूप है। इसी प्रकार सष्टि का क्रम चलता है। सृष्टि में जितने पदार्थ दीख पड़ते हैं, उन सबों का मूलतत्त्व एक आदि महातत्त्व है / जिसमें से वे उत्पन्न हुए हैं। यह आदि महातत्त्व भी अनादि काल से चलता आया हुआ एक सर्वव्यापी; किन्तु अनादि-तत्त्व ही समझना चाहिए। आधुनिक रसायनाचार्य सब पदार्थों की उत्पत्ति कुछ मूलतत्त्वों में से निकली हुई बतलाते हैं / इन मूल तत्त्वों को वे अस्सी से भी अधिक संख्या में बतलाते हैं / भारतीय महर्षियों ने केवल पाँच ही तत्त्व माने हैं-पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश। आधुनिक रसायनाचार्यों के अस्सी मूलतत्त्वों को आर्य मनीषियों ने केवल पाँच ही तत्त्व के अन्तर्गत माना है / आजकल इन अरसी तत्त्वों में से नवीन-नवीन तत्त्व अनुसन्धान किए जा रहे हैं। अभी कुछ ही वर्ष पूर्व किसी पाश्चात्य विद्वान ने 'रेडियम' का श्राविकार किया है। किन्तु इस पदार्थ में भी उन अस्सी परमा Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचतत्त्व णुओं का मूल तत्त्व नहीं है / उन लोगों का कथन है कि प्राणियों और वनस्पतियों के सूक्ष्म अणुओं में जो जीवन शक्ति है उन अणुओं में ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बन, हाइट्रोजन, फॉस्फरस और सल्फर आदि तत्त्व अमुक परिमाण में होते हैं; और इन तत्त्वों के रसायनधर्म से वनस्पति तथा प्राणीवर्ग की उत्पत्ति होती है। परन्तु आजतक वे विज्ञानशास्त्री स्वयं अपने कृत्रिम उपायोंद्वारा उसी परिमाण और मात्रा में उन ऑक्सीजन आदि पदार्थों को मिलाकर अबतक कोई भी जीवन तत्त्व उत्पन्न नहीं कर सके / इससे यह सिद्ध होता है कि इस रसायनधर्म के संयोग अथवा वियोग का सृष्टि के. संचालन में कोई हाथ नहीं है, बल्कि एक तीसरी ही शक्ति इसका संचालन करती है। उस महान शक्ति के बिना एक भी रासायनिक क्रिया नहीं बन सकती। इस सष्टि की अनेक बार उत्पत्ति, विकास और संहार हो चुका है। इन सब कारणों पर विचार करके ही आधुनिक रसायनशास्त्री आर्य सिद्धान्तों की ओर मुके हैं, और वे अब मानने लगे हैं कि एक अनादि तत्त्व में से क्रमशः पंच महातत्त्व निकले हैं। आजकल के रसायनशास्त्रियों का यह सृष्टि-क्रम भारतीय आर्य मनीषियों के पंच महातत्त्वों से मिलता है / इस प्रकार भिन्न-भिन्न स्थिति में इस विश्व में जितने पदार्थ दीख पड़ते हैं, वे इस ब्रह्मांड के प्रकृति द्रव्य है। ब्रह्मांड के ये प्रकृति द्रव्य भिन्न-भिन्न शक्तियों के भिन्न-भिन्न योग तथा धर्म से काम करते हैं, जिसे रासायनिक-रसायन धर्म Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान मानते हैं, और कहते हैं-सृष्टि स्वतः रसायनधर्म से विकसित होती है। किन्तु प्रकृति द्रव्य की ये शक्तियाँ अथवा रसायनधर्म दोनों ही एक व्यापक आदि तत्त्व के आश्रय पर निर्भर करते हैं, यह स्वीकार किए बिना काम चल ही नहीं सकता। आत्मवादी अथवा आस्तिक लोग कहते हैं कि इस सृष्टि की रचना का मूल कारण एक अचिन्त्य शक्ति है / उसी को परमात्मा, ब्रह्म अथवा ईश्वर या पुरुष कहा जाता है। पदार्थवादी अथवा नास्तिक लोग कहते हैं-इस सृष्टि के सब प्राणी और पदार्थ; पदार्थों के रसायनधर्म से स्वतः उत्त्पत्ति, विकास और संहार को प्राप्त होते हैं। प्रकृतिवादियों का कथन भी पदार्थवादियों से मिलता-जुलता है। वे कहते हैं--सृष्टि स्वतः स्वाभाविक रुप से उत्पन्न होती है। किन्तु ये तीनों मतान्तर केवल वाग्युद्ध हैं / आन्तरिक शक्ति, रसायनधर्म और स्वभाव-ये तीनों एक ही अर्थ के द्योतक और विष्णु सहस्रनाम की भाँति हैं। यह निर्विवाद सिद्ध है कि इन तीनों को प्रेरित करने वाली तथा इस सृष्टि-क्रम का संचालन करने वाली एक अनादि महान शक्ति अदृश्य रुप से कार्य करती है।। ___एक बीज से असंख्य बीजों की उत्पति होती है। एक गति में से अनेक गति उत्पन्न होती हैं। एक सूर्य के असंख्य किरणें प्रादुर्भूत होती हैं। इससे सिद्ध होता है कि बहु संख्यकों की उत्पत्ति करने वाला एक संख्यक ही है / इस सृष्टि में जितने प्राणी Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव शरीर के तत्व और पदार्थ हमें दीख पड़ते हैं, उनका मूल केवल एक ही शक्ति है, और ये सब विनष्ट होकर उसी एक में मिल जाते हैं। इससे यह सिद्ध है कि जो वस्तु जिस मूल पदार्थ से उत्पन्न होती है, अन्त में उसी में लीन हो जाती है। उसका नाश नहीं होता। प्रकृति की इस सृष्टि के किसी भी प्राणी का समूलनाश नहीं होता। अर्थात् जिन-जिन तत्त्वों से यह शरीर बना हुआ है, अन्त में वे-वे तत्त्व उसी-उसी तत्त्व में लय हो जाते हैं / जैसे एक वृक्ष को जला देने पर उसके भीतर के पंचतत्त्व अलग-अलग अपने तत्त्व में मिल जाते हैं। ___ मानव शरीर के तत्त्व सृष्टि-रचना में जो द्रव्य काम में लाए जाते हैं, वे ही द्रव्य मनुष्य शरीर-रचना में भी काम आते हैं। सृष्टि दो प्रकार की होती है-१-स्थूल और २-सूक्ष्म / पंच महाभूतों में से जो द्रव्य शरीर में प्रत्यक्ष दीख पड़ते हैं, वे स्थूल हैं और शेष सूक्ष्म हैं। शरीर में पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश के तत्त्व और उन प्रत्येक के धर्म समाविष्ट हैं; और उन्हीं से पाँचो ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ अपना-अपना कार्य सुचारु रूप से सम्पादित करती रहती हैं। इन पंच महाभूतों से बने हुए शरीर में कोई एक चेतना Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान शक्ति अदृष्ट रूप से निवास करती है। वही शक्ति जीवात्मा है। जीवात्मा के विषय में भी अनेक मत-मतान्तर हैं। कुछ लोगों का कथन है कि जीवात्मा शरीर के उन तत्वों से भिन्न पदार्थ है / दूसरे लोगों का कथन है कि शरीर में परिचालित रासायनिक क्रिया से ही यह चेतना शक्ति उत्पन्न होती रहती है। पदार्थवादियों के मत से शरीर में जो चेतना शक्ति है, वह रासायनिक क्रिया से उत्पन्न हुई एक प्रकार की शक्ति विशेष है / अर्थात् जब तक रासायनिक क्रिया चलती रहती है, तब तक शरीर की चेतना शक्ति बनी रहती है, और जब यह रासायनिक क्रिया बंद हो जाती है, तब चेतना शक्ति भी बंद हो जाती है। यह चेतना या जीव, शरीर से भिन्न पदार्थ नहीं है / शरीर का रक्त ही जीवन है / जब तक रक्त नियमित रूप से परिभ्रमण किया करता है, तब तक जीवन का अन्त नहीं होता। किन्तु रक्त का संचालन किसी दूसरे चेतना तत्त्व के आधार पर होता है। इसी तत्व को प्राणवायु कहते हैं, और इसे ही ऑक्सीजन भी कहते हैं। यही वायु रक्त को शुद्ध करता है; और शरीर प्राण को धारण किए रहता है / शारीर-क्रियासंचालन के लिए इस प्राणवायु की जितनी मात्रा में आवश्यकता है, उतनी मात्रा में यदि वह न मिले तो शरीर की चेतना शक्ति निश्चय ही कम होने लग जाती है / अन्त में वही मृत्यु का कारण बन जाती है। यह कहा जाता है कि जिन मनुष्यों में जीवन का तत्त्व कम हो जाता है, उनमें रक्ताल्पता भी हो जाती है / इससे Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव शरीर के तत्व यह सिद्ध होता है कि यथार्थ मात्रा में रक्त के न मिलने से मनुष्य की चेतना शक्ति क्षीण हो जाती है तथा वह कृशकाय दृष्टिगोचर होता है। अंशतः उसका जीवात्मा भी क्षीण हो जाता है / कम और अधिक बल तथा दीर्घ और अल्प आयु होने का भी यही कारण है। कुछ लोगों का जीवात्मा एकाएक नष्ट हो जाता है और कुछ लोगों का व्याधि से जर्जर होने पर क्रमशः चेतना शक्ति के क्षीणातिक्षीण होने पर विनष्ट होता है / ___ आत्मवादी भी शरीर के इस क्रम को स्वीकार करते हैं / तथापि वे यह मानते हैं कि शरीर का भोग करने वाला आत्मा ही है / वही परमात्मा रूप है। पुरुष के वीर्य और स्त्री के आर्तव में निवासकरने वाली चेतना शक्ति भी गर्भ में प्रवेश करती है / गर्भ में कोई नवीन जीव नहीं प्रकट होता / वीर्य और रज का जो जीव होता है, वही गर्भाशय में रहकर परिपुष्ट होता और एक नवीन जीव में परिणत हो जाता है। आत्मा शरीर का राजा है और न्यायाधीश की भाँति निवास करता है। बुद्धि तथा चित्त उसके मंत्री के रूप में रहते हैं / जब तक बुद्धि और चित्त-वृत्ति अवाधित गति से शान्तिपूर्वक रहती हैं, तभी तक जीवात्मा अधिक समय तक सुखोपभोग कर सकता है / किन्तु जब उनकी शान्ति नष्ट हो जाती है, तब आत्मा कष्ट का अनुभव करता है। उसी समय शरीर में अनेक लक्षण रोग के दीख पड़ने लगते हैं, और आत्मा राज्यभ्रष्ट नृपति की भाँति दूसरे शरीर-राज्य में शरण लेने की चेष्टा Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान करने लगता है। जीवात्मा शरीर का भोक्ता है / शरीर के. सुखी रहने पर वह सुखी और दुखी होने पर दुखी रहता है / शरीर ही आत्मा के लिए बन्दी-गृह है और वही उसका स्वर्गीय भवन भी है। शरीर ही आत्मा का उत्थान और पतन कर सकता है। जिसे लोग मोक्ष कहते हैं, उसका प्राप्त-द्वार शरीर ही है। अतएव स्वस्थ शरीर के द्वारा ही संसार की अतीव दुरूह वस्तु भी प्राप्त हो सकती है। __जिसे हम लोग मोक्ष कहते हैं, उसका भोक्ता जीवात्मा ही है। किन्तु वह मोक्ष शरीर निवासी जीवात्मा को ही प्राप्त हो सकता है। इस दुर्लभ मानव शरीर के सम्बन्ध बिना किसी भी आत्मा को मोक्ष नहीं मिल सकता / मोक्ष का अर्थ है-संसार के सम्पूर्ण उपद्रवों से त्राण पाना। यह छुटकारा आत्म को शरीर की उन्नति से ही प्राप्त हो सकता है / जब स्वस्थ शरीर रहता है तभी आत्मा मोक्ष के लिए निश्चित होकर प्रयत्न करता है / अतएव हमें पहले अपनी शारीरिक उन्नति के लिए प्रयत्न करना चाहिए। उसके बाद आत्मोन्नति तो स्वल्प प्रयास से ही हो सकती है। किन्तु जब शरीर के विकास, पवित्रता और रक्षण पर ध्यान नहीं दिया जाता तब आत्मा उस शरीर का परित्याग कर अन्यत्र चला जाता है। इस प्रकार आत्मा और शरीर के योग को आयुष्य कहते हैं। आत्मा शरीर में जितने काल तक रहता है, उतने ही काल को Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव शरीर के तत्त्व आयुष्य अथवा जीवन कहते हैं / शरीर से जब आत्मा का वियोग हो जाता है तब उसे मृत्यु कहते हैं। यह योग और वियोग आयुष्य और मृत्यु के सम्बन्ध का ज्ञान वैद्यक शास्त्र से पूर्ण रूप से मिल सकता है / आयुष्य का विचार केवल दीर्घ जीवन सम्बन्धी ही नहीं करना चाहिए। प्रायः आत्मा और शरीर का योग लम्बी अवधि तक रहता है। परन्तु इस योग में भी जब किसी मनुष्य को शारीरिक या मानसिक दुःख होता है, तब वह लम्बी आयु भी अधिक दुखदायक हो जाती है। अतः यह समझना चाहिए कि जीवात्मा और शरीर का सुखकारक वियोग ही मोक्ष है; और दुखदायक वियोग ही नरकवास है / स्वर्ग और नरक का दृश्य यहीं दीख पड़ता है। . आयुष्य की जो सीमा शास्त्रकारों ने निर्धारित की है उसका उल्लंघन भी आजकल हो रहा है / प्रायः रोज ही पढ़ने को मिलता है कि अमुक स्थान पर एक स्त्री या पुरुष है, जिसकी आयु प्रायः एक सौ पैंसठ वर्ष की है, और वह अमुक घटना का वर्णन आँखों देखा-जैसा करता है / इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि आत्मा और शरीर का सुखद संयोग अधिक काल तक रहता है; किन्तु उस सुखद संयोग में दुःखद वियोग झट उपस्थित हो जाता है, जिसे अकाल मृत्यु कहना चाहिए / आजकल संसार में अधिक व्यक्ति अकालकाल-कवलित होते हैं / चिन्ता, शोक और व्याधि आदि के कारण जितनी मृत्युएँ होती हैं, वे अकाल मृत्यु कही जाती हैं। किन्तु Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 14 संसार में चिन्ता, शोक और व्याधियों से मुक्त विरले ही मिलते हैं / अतएव हमारा कर्तव्य है कि शरीर और आत्मा को अधिक कालतक सुखद संयोग में रहने का अवसर दें। ऐसा करने से ही अन्त में हमें प्रकृति देवी के चरणों में शान्तिपूर्वक लय हो जाने का समय मिल सकेगा। आयुर्वेद , आयुर्हिताहितं ध्याधेर्निदानं शमनं तथा। विद्यते यत्र विद्वद्भिः स आयुर्वेद उच्यते // आयु का हित और अहित तथा व्याधि के निदान एवं शमन का उपाय जिससे विद्वान लोग समझ सकें, उसे आयुर्वेद कहते हैं। . आयुका मतलब है मन, जीवात्मा और शरीर का संयोग / ये तीनों भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं। इन तीनों की उत्पत्ति ही पुरुष की उत्पत्ति का कारण है / पुरुष ही आयुर्वेद का अधिकरण है। जो गुण पुरुष का अनुवर्ती है, वही मन है / इन्द्रियाँ मन के वशवी होकर ही विषय-प्रहण करने में समर्थ होती हैं / मन की साम्यता ही सुख, स्वास्थ्य और शान्ति की जननी है। जब हमारी इन्द्रियाँ और मन हमारे वश में नहीं रह जाते तभी हम रोग के शिकार होते हैं / यही रोग हमारे जप-तप, संयम और.आयु में विन्न उप स्थित करता है। हमारी इन्द्रियाँ पंच-महाभूतों के विकार मात्र Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयुर्वेद हैं। पृथ्वी घ्राण में, जल रसना में, तेज नेत्रों में, वायु स्पर्श में, आकाश कणों में विशेष रूप से विद्यमान है। जो इन्द्रिय जिस पंचमहाभूत के द्वारा निर्मित हुई है, वह उसी भूत के भाव को प्राप्त होकर, उसी भूत-विषय का अनुसरण करती है। जब तक वह अपने भूत-विषयक कार्य में साम्यावस्था पर रहती है, तभी तक कोई विकार नहीं होता / परन्तु जब वह अति तर्पण, अयोग और मिथ्या योग में पड़ जाती है, तब हमारी इन्द्रियाँ और मन विकृत हो जाते हैं / इसी विकार का नाम रोग है। चरकाचार्य का कथन हैं कि अहितकर विषयों को छोड़कर हितकर विषयों का अनुसरण करना चाहिए। विवेक-पूर्वक देश, काल और आत्मा के अनुकूल व्यवहार करना चाहिए / सदैव मन को स्थिर करके दुष्कर्मों का परित्याग और सत्कर्मों का परिग्रहण करना ही श्रेयस्कर है। सत्कर्मों के द्वारा ही हम नीरोगता प्राप्त कर सकते हैं, और नीरोगता के द्वारा ही हम अपनी इन्द्रियों पर संयम और निग्रह रख सकते हैं। आयुर्वेद की शिक्षा का केवल यही अभिप्राय है। व्याधि के प्रादुर्भूत होने पर सभी चिकित्साशास्त्रों ने प्रतिकार का उपाय निर्दिष्ट किया है। तथापि हमारे आयुर्वेद में ऐसे उपायों पर विशेष प्रतिबन्ध किया गया है, जिनका पालन करने से रोग का आक्रमण हो ही नहीं सकता। यही आयुर्वेद की एक महती विशेषता है। हमारे पूर्व-पुरुष इन्हीं नियमों का पालन करके एक सौ बीस Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान वर्ष की परमायु का डंका बजा गये हैं। हमारे आयुर्वेद निर्माताओं ने स्वास्थ्य-रक्षा के उपायों का निर्देश करते समय जिन सदाचारों को विशेष महत्व दिया है, यदि हम उनका पालन अक्षरशः करें, तो यह निश्चित है कि हम नाना प्रकार की औषधियों की यन्त्रणाओं से छुटकारा पा जायें एवं नीरोग और स्वस्थ रहकर दीर्घजीवन प्राप्त करें। ये सदाचार भी हमें शान्त-मस्तिष्क के द्वारा ही प्राप्त हो सकते हैं; किन्तु वह शान्ति हमें वानस्पतिक आहार से ही प्राप्त हो सकती है। ' हमारे आयुर्वेद में तीन प्रकार की एषणाएँ मानी गई हैं। यदि हम मन, बुद्धि, पराक्रम और पौरुष का रक्षण यत्नपूर्वक करें, तभी हम तीनों एषणाओं का सुखोपभोग कर सकते हैं। प्राण, धन और परलोक की इच्छा मनुष्य का स्वाभाविक धर्म है / प्राण की रक्षा सबसे अधिक आवश्यक है / स्वस्थ मनुष्य को यथोचित स्वास्थ्य की रक्षा, और पीड़ित व्यक्ति को अपने व्याधि-शमन का उचित उपाय करना चाहिए। प्राणैषणा के बाद धनैषणा का स्थान है। सुन्दर स्वास्थ्य के बाद हमें धनार्जन की चिन्ता करनी चाहिए, क्योंकि दरिद्रता अनेकानेक अपकों की जननी है। इससे हम पापी बन जाते हैं तथा अपनी दीर्घायु को भी खो बैठते हैं / तीसरी परलोकैषणा-मोक्ष-सुख की प्राप्ति की चेष्टा है / इस सुख से ही हम अनन्त महाप्रभु के चरणों में ध्यान लगा सकते हैं। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयुर्वेद यद्यपि लोग शंका करते हैं कि इस देह से च्युत होकर हम किसी-न-किसी रूप में पुनः इस मृत्यु लोक में आएँगे या नहीं। तथापि विद्वानों ने युक्तियों द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि पंच महाभूत और आत्मा की समष्टि होने से गर्भ की उत्पत्ति होती है, और आत्मा का परलोक के साथ सम्बन्ध है / अतएव पुनजन्म को माने बिना काम नहीं चल सकता / पुनर्जन्म को स्वीकार कर लेने पर धर्म-बुद्धि का अवलम्ब करना चाहिए; क्योंकि पारलौकिक एषणा का अनुसरण उसी के लिए आवश्यक है / जो व्यक्ति इन तीनों के अनुकूल चल सकता है, वही इस मृत्यु-लोक में नीरोग, सबल और स्वस्थ शरीर से दीर्घायु प्राप्त करके परलोक में स्वर्ग-सुख का आनन्दानुभव कर सकता है। आहार, उत्तम निद्रा और इन्द्रिय-संयम ये तीनों शरीर को धारण करने वाले तीन स्तम्भ हैं। इन तीनों का युक्तिपूर्वक अनुसरण करने से जीवन पर्यन्त शरीर नीरोग और बलवान रहता है। किन्तु जिस प्रकार इनका उचित व्यवहार करके हम नीरोग और सुखी रहते हैं, उसी प्रकार अनुचित उपयोग करके दुख, रोग और कष्ट का भी अनुभव करते हैं। इस प्रकार के रोग तीन भागों में विभक्त किए जा सकते हैं। कहा हैस्वाभाविकागन्तुककायिकान्तरा रोगा भवेयुः किल कर्मदोषजाः। . तच्छेदनाथं दुरितापहारिणः श्रेयोमयान्योगवरान्नियोजयेत् // स्वाभाविक, आगन्तुक और कायिक ये तीन प्रकार के रोग Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान निश्चय करके कर्म-दोष से होते हैं / उनके नाश के लिए पापनाशक एवं कल्याणकारक योग में नियुक्त करता हूँ। शाङ्गधर के इस कथन में तनिक भी सन्देह करने की आवश्यकता नहीं है। वास्तव में हम, रोग अपने कर्म से ही उत्पन्न करते हैं / जो रोग वात-पित्त और कफ के कुपित होने से उत्पन्न होते हैं, वे स्वाभाविक कहे जाते हैं / जो प्रेत-बाधा, अग्नि और शस्त्र प्रहार आदि से उत्पन्न होते हैं वे आगन्तुक कहे जाते हैं; और जो प्रियवस्तु के अप्राप्य तथा अप्रिय के प्राप्त होने से उत्पन्न होते हैं, वे मानसिक, अर्थात् कायिक कहे जाते हैं। हमारी आयुर्वेदिकचिकित्सा अपूर्व है। उसमें भी. वनस्पति-चिकित्सा की तो तुलना किसी भी चिकित्सा से नहीं की जा सकती। संसार का कोई भी चिकित्सा-शास्त्र इसकी समता नहीं कर सकता। किन्तु अपनी क्लिष्टता के कारण आज यह महती-चिकित्सा लुप्तप्राय हो रही है। भारतवासियों की दुर्वलेन्द्रियता, असमय की वृद्धावस्था और अकाल मृत्यु आदि दुःखद अवस्थाएँ आयुर्वेद की चिकित्सा लुप्त होने से ही हुई हैं। हम लोगों ने केवल चमक-दमक के फेर में फंसकर अपने बहुमूल्य हीरे को खो दिया है, और स्वयं अपने हाथों अपनी कळ खोद डाली हैं। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि आज वैज्ञानिक उन्नति के शिखर पर पहुँचे हुए विदेशी विद्वान भी इसका लोहा मानते हैं। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रंस-चिकित्सा का विकास आसुरी मानवी दैवी चिकित्सा त्रिविधा मता / शस्त्रैः कषायोंमायैः क्रमेणान्त्या सुपूजिता // आसुरी, मानवी और दैवी-तीन प्रकार की चिकित्सा मानी गई है। वह क्रम से शस्त्र, कषाय और होमादिक से पूर्ण होती है। अर्थात् शल्य-शास्त्र की गणना आसुरी चिकित्सा में की गई है / मानवी चिकित्सा कषाय-द्वारा मानी गई है तथा दैवी-चिकित्सा जप-होमादि से सुसम्पन्न होती है / ___ किन्तु वह मानवी चिकित्सा जो उस समय कषाय-द्वारा की जाती थी, वही अब रस द्वारा भी सुसम्पन्न होतो है / अब हमारी आर्य-चिकित्सा पद्धति दो धाराओं में प्रवाहित होकर कुछ ही दूर जाने पर एक हो जाती है। इसी सङ्गम को वनौषधि और रसचिकित्सा पद्धति कहते हैं। कुछ लोग इन धाराओं पर शङ्का भी कर सकते हैं। किन्तु यह किसी विज्ञ पाठक से छिपा नहीं है कि हमारा आधुनिक रस-चिकित्सा-शास्त्र वनस्पति-चिकित्सा-शास्त्र से एकदम भिन्न नहीं है / जिन पारद, गन्धक आदि द्रव्यों का उल्लेख हमारे इन रस-प्रन्थों में मिलता है, उनका उल्लेख हमारे प्राचीन वनस्पति-शास्त्रों में नहीं है। अन्तर केवल इतना है कि हमारी 'आर्ष चिकित्सा पद्धति दोष के विपरीत पद्धति है, और यह रस-पद्धति व्याधि विपरोत चिकित्सा पद्धति है। अनेक रसों में Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान कहीं हेतु या दोष का नामोल्लेख तक नहीं किया गया है। रोगों की ही प्रधानता मानकर रसों के गुणों का वर्णन किया गया है / यद्यपि अनेक रसों में दोषों का भी वर्णन किया गया है। किन्तु वहाँ पर भी उनका अभिप्राय दोष के क्रमानुसार चिकित्सा नहीं; प्रत्युत वह रोगों की अवस्थाओं के द्योतक हैं तथा औषध के शीत एवं उष्णवीर्य होने का भाव प्रकट करते हैं। जिसके द्वारा चिकित्सक-रोगी और औषधि की प्रकृति का ज्ञान करके शीघ्र लाभकारी चिकित्सा-विधि की योजना कर सकता है / रस-चिकित्सा का आरम्भ चरक-काल माना जाता है / इसके पूर्व आत्रेय और हारीत आदि के समय में इसका नाम तक न था / दूसरे इसकी उत्पत्ति भी मानव-कल्याण के लिए नहीं हुई थी / आरम्भ में केवल इसका रसायनवाद विषय था। उस समय इसका कार्य केवल हीन धातुओं को उच्च-धातु बनाना था। किन्तु वे धातुएँ औषधार्थ नहीं बनाई जाती थीं। उस समय जो धातुएँ स्वर्ण बनाने में असफल पाई गई, उनका उपयोग व्याधियों पर किया जाने लगा और जब वे उपयोगी सिद्ध हुई तब उनका प्रयोग बढ़ने लगा। वास्तव में आर्ष-चिकित्सा से रस-चिकित्सा का कोई सम्बन्ध नहीं है। एक तीसरा कारण भी है, जो रसायन को अनार्ष ही नहीं; - प्रत्युत विदेशी चिकित्सा सिद्ध करता है / वह हैं रस-शास्त्र में उपयोगित विदेशी द्रव्य / इन विदेशी द्रव्यों के ही कारण हम इसे Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 रस चिकित्सा का विकास विदेश से सम्बन्धित मानते हैं। परन्तु इस चिकित्सा में जो विकास हुआ है, वह विदेशी नहीं, बल्कि एतद्देशीय ही है / इसलिए हम इसे अपने देश में आविष्कृत अपनी ही चिकित्सा-पद्धति मानते हैं। इसका और विदेश का सम्बन्ध केवल रसायनवाद तक ही रहा है, जिसके अनेक प्रमाण मिलते हैं। ___नागार्जुन नामक बौद्ध भिक्षु का विदेश में जाकर रसायन विद्या को सीख कर लौट कर आने के अनेक प्रमाण बौद्ध-धर्म के ग्रन्थों में मिलते हैं। साथ ही अनेक ऐतिहासिक प्रमाण भी प्रस्तुत हैं। आधुनिक रसायन शास्त्रियों ने यह स्पष्टतया सिद्ध कर दिया है कि 'पोरालसिट' आदि द्वारा ही आधुनिक रसायनवाद का जन्म हुआ है। आज से दो हजार वर्ष पूर्व भी हमारा प्राचीन रसायनवाद केवल भारत में ही नहीं; वरन् मिश्र, ईरान, एशिया, रोम आदि समस्त देशों में एक रूप से व्यापक था; और इसकी पुस्तकें भी हर एक देशों में मिलती हैं। इन प्रत्यक्ष प्रमाणों से सिद्ध होता है कि हमारी प्राचीन रसायन-विद्या का सम्बन्ध विदेश की रसायन-विद्या से था। यही नहीं, आज भी रसायनोपयोगी द्रव्यों की विदेशों में ही उपलब्धि होना भी इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है। वैद्यक-शास्त्र-शरीर-विज्ञान और चिकित्सा-विज्ञान भेद से दो भागों में विभक्त है। इनमें शारीरिक को ही प्रधानता दी गई है। चरक का कथन है Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान आतुरस्यान्तरात्मानं यो नाविशति रोगवित् / ज्ञानबुद्धि प्रदीपेन न स रोगान् चिकित्सति // - जो चिकित्सक रोगी के शरीर का हाल-ज्ञान और बुद्धि के प्रकाश से नहीं जान सकता, वह चिकित्सा नहीं कर सकता। ___ शास्त्र में शरीर का ज्ञान रखने की प्रधानता दी गई है। सुश्रुत में वैद्य को शारीरिक शास्त्र में चतुर होना आवश्यक बतलाया गया है / प्रत्यक्ष और अनुमान आदि से सन्देह को दूर कर चिकित्सा करनी चाहिए। प्रत्यक्ष से अनुमान किया हुआ और शास्त्र द्वारा निश्चय किया हुआ-यह दोनों विषय सोने में सुगन्ध के समान हैं। कुछ अल्पज्ञ वैद्य कहते हैं कि शरीर-शास्त्र का ज्ञान उन्हीं के लिए आवश्यक है, जो शल्य-चिकित्सक हैं / परन्तु यह नितान्त भ्रमात्मक और हास्यास्पद है / अनेक रोगों के निदान में आशय, अग्नि और हृदय आदि के ज्ञान की चिकित्सक को परमावश्यकता है। इनके ज्ञान बिना चिकित्सा का ज्ञान अपूर्ण ही रहता है / चरकाचार्य का कथन है शरीरं सर्वथा सर्व सर्वदा वेद यो भिषक् / आयुर्वेदं समासेन वेदलोक सुखप्रदम् // जो वैद्य सब प्रमाणों-द्वारा शरीर-शास्त्र का ज्ञान प्राप्त कर चुका है, वही लोक में सुखदायक आयुर्वेद का ज्ञाता है। __ बहुत लोगों का कथन है कि प्राचीन समय में वैद्य केवल नाड़ी देखकर ही रोग का पूर्ण परिज्ञान कर लेते थे। यह कथन Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिकित्सा शास्त्र की पूर्णता केवल प्रलाप मात्र ही कहा जा सकता है। प्राचीन आचार्य एवं चिकित्सक लोग शरीर-शास्त्र को चिकित्सा का एक विशेष अंग मानते थे। इसके अनेक प्रमाण हमारे वेद, शास्त्र, पुराण और तांत्रिक ग्रंथों में विद्यमान हैं। जिससे यह प्रमाणित है कि प्राचीन काल में आचार्यगण शरीर-विज्ञान को आयुर्वेद का परमोपयोगी और सर्वोत्कृष्ट अंग समझकर अपने-अपने ग्रंथों में उसका उल्लेख कर गए हैं। इसलिए प्रत्येक चिकित्सक का कर्तव्य है कि वह शरीर-विज्ञान का यथा विधि आदरपूर्वक ज्ञान प्राप्त कर इस आयुर्वेदिक चिकित्सा का पुनरुद्धार करे। चिकित्साशास्त्र की पूर्णता कुछ लोगों का कथन है कि हमारे चिकित्सा शास्त्र में शरीर विषय है ही नहीं। यदि है तो वह अपूर्ण है। कुछेक की धारणा है कि हमारे आयुर्वेद का निदान तक अपूर्ण है / कुछ ऐसे भी पाए जाते हैं, जिनका कथन है कि निदान तो पूर्ण है; किन्तु चिकित्सा अपूर्ण है / परन्तु मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि जितना पूर्ण हमारा आयुर्वेद है उतना पूर्ण अन्य चिकित्सा शास्त्र नहीं है / जो लोग इसे अपूर्ण कहते हैं, वे केवल अपनी अनभिज्ञता ही प्रदर्शित करते हैं। इससे आयुर्वेद की त्रुटि अथवा अपूर्णता नहीं सिद्ध हो सकती। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ वनस्पति-विज्ञान : 24 आयुर्वेद के वात, पित्त, कफ को न मानकर डाक्टर लोग अनेक प्रकार की कल्पनाएँ करते हैं; किन्तु हमारे आयुर्वेद में परमाणुओं से स्थूल पंच महाभूतों का बनना सिद्ध होता है। यह विविध प्रकार की जो सृष्टि देखने में आती है, उसके अत्यन्त छोटे भाग का नाम परमाणु है / कहा है जालान्तरगते भानौ यत्सूक्ष्मं दृश्यते रजः / तस्य त्रिंशत्तमो भागः परमाणुः स कथ्यते। किसी सन्धि से जो सूर्य की किरणें प्रवेश करती हैं उनकी छाया में देखने से जो छोटे-छोटे कण उड़ा करते हैं; उसका जो तीसवाँ हिस्सा है, उसे परमाणु कहते हैं / इतनी सूक्ष्म माप श्राज कल के वैज्ञानिक तो नहीं कर सकते, जो अपने को इस समय संसार का बड़ा भारी आविष्कारक मानते हैं / संसार के प्रत्येक पदार्थ में विकास-शक्ति रखनेवाला गुणसत्वगुण; क्रिया-शक्ति रखनेवाला रजोगुण और संकोच-शक्ति रखनेवाला तमोगुण पाया जाता है / सत्त्र और तमोगुण में रजोगुण के मिलने ही से विकास और संकोच-क्रिया उत्पन्न होती है। अधिक सत्वगुण वाले परमाणु से शरीर की उत्पत्ति होती है; और अधिक तमोगुण वाले परमाणुओं से पत्थर आदि जड़ पदार्थों की उत्पत्ति होती है। पृथ्वी, जल, तेज और वायु-इन चारों पदार्थों से शरीर बनता है। आकाश तो केवल आधार मात्र है / इससे शरीर नहीं बनता / ये चार तत्त्व हमारे शरीर में माता के Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 चिकित्सा-शास्त्र की पूर्णता रुधिर, पिता के वीर्य और आहार-द्वारा पहुंचते हैं। जैसा कि आयुर्वेद में लिखा है-मनुष्य का शरीर आत्मज, मातृज, पितृज और रसज है तथा चारों भूतों के चार प्रकार से शरीर में आने के कारण, शरीर षोड़श कला पूर्ण माना गया है / ये चारों महाभूत तीनों गुणों के भेद से तीन प्रकार के होते हैं। १-क्रियाशक्ति, २-विकास-शक्ति और ३-संकोच-शक्ति / क्रिया-शक्ति रखने वाला रजोगुण वायु कहलाता है। विकास-शक्ति रखने वाला अग्नि-पित्त कहलाता है। संकोच-शक्ति रखने वाला तमो. गुण पृथ्वी और जल रूप-कफ कहलाता है। सुश्रुत का कथन है विसर्गादामविक्षेपैः सोमसूर्यानिला यथा / धारयन्ति जगहेहं कफपित्तानिलास्तथा // ___वात, पित्त, कफ शरीर उत्पन्न होने से पहले ही शुक्राणु और रजाणु में तथा इनसे बने हुए कल्क रूप गर्भाणु में भी पाये जाते हैं / अणु कफ से घिरे रहते हैं / इसके मध्य में रङ्गीन विन्दु रूप पित्त होता है। इस मध्य विन्दु को अलग करनेवाला वायु है / वायु के विभक्त करने से अनेक अणु की वृद्धि होती है / इसी से शरीर की वृद्धि एवं सम्पूर्ण धातुओं की उत्पत्ति और वृद्धि होती है। इसी प्रकार सम्पूर्ण शरीरस्थ धातुओं के अणुओं में बाहर से कफ, बीच में पित्त और क्रिया करनेवाला वायु रहता है / परन्तु रुधिर पित्त का धातु है। इससे इसके अणु में कफ बाहर नहीं रहता / वाग्भट का कथन है Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान शुक्रात॑वस्थैर्जन्मादौ विषेणैव विषक्रमे / तैश्च तिस्रः प्रकृतयः x x x // वात, पित्त, कफ-ये तीनों शुक्राणु और आर्तव में रहते हैं। इसीसे तीन प्रकार की प्रकृति बनती है / ये ही शुक्र और आर्तव के अणु जब गर्भाशय में मिश्रित होकर एक अणु के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं, तब यह गर्भ कहलाता है / सुश्रुत में लिखा है गर्भस्य नाभिमध्ये तु ज्योतिस्स्थानं ध्रुवं मतम् / तदा धमन्ति वातस्तु देहस्तेनास्य वर्द्धते // गर्भ रूप के मध्य में ज्योति अर्थात् पित्त का स्थान है / वायु के विभक्त करने से गर्भ वृद्धि को प्राप्त होता है। यद्यपि डाक्टर लोग वात, पित्त, कफ को नहीं मानते; तथापि उस गर्भाणु को वे सेल ( Cell ) कहते हैं। उस सेल के ऊपर रहनेवाले कफ को 'प्लोज्मा' कहते हैं और उसके मध्य में रहनेवाले पित्त को 'न्यूकलाई' कहते हैं, और उस अणु के विभाजक वायु को 'फोर्स' कहते हैं। इस प्रकार वात, पित्त और कफ-गर्भ के अणु में उस समय भी स्थित थे, जिस समय शरीर का कोई आकार नहीं था; और शरीर तैयार हो जाने पर भी वे प्रत्येक धातु के अणु में शरीर के वाह्य और मध्य में स्थित रहते हैं / इसी लिए वात, पित्त और कफ-धातु रूप कहलाते हैं। जब तक शरीर में ये साम्यावस्था में रहते हैं तब तक शरीर स्वस्थ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 मनुष्य की आयु रहता है। परन्तु प्रत्येक शरीर में जब प्रकृति के विरुद्ध ये कार्य करते हैं, तब इन्हीं के न्यूनाधिक होने से रोग उत्पन्न होता है। तब ये ही वात, पित्त और कफ रोगोत्पादक दोष कहलाते हैं। जिन वात, पित्त, कफ को प्रकृति बाहर निकालती है, अर्थात् जो कफ मुँह से निकलता है और पित्त कड़वा, पीला वमन में दीख पड़ता है अथवा मल के साथ निकलता है एवं वायु निरसरण होता है, वे ही मलरूप कहलाते हैं। जब तक मनुष्य जीवित रहता है, तब तक शरीर का प्रत्येक अणु चेतनावस्था में रहता है। किन्तु मृतक शरीर में यह वायु निकलकर वायुमंडल में मिल जाता है। इसी वायु को यम कहते हैं। ... मनुष्य की आयु सरकारी लेखा से प्रकट होता है कि भारत में मृत्यु-संख्या दिनोदिन भयानक रूप धारण करती जा रही है। पूर्वकाल में किसी का मरना सुनकर लोग आश्चर्य चकित हो जाते थे और अपने देश तथा जाति का अमंगल समझते थे। परन्तु मृत्यु की अधिकता के कारण आज देश के बड़े-से-बड़े व्यक्ति की भी मृत्यु की सूचना मिलने पर तनिक आश्चर्य नहीं होता / आधुनिक मृत्युलेखों से यह भी पता चलता है कि कितने बालक और युवती बियाँ प्रतिदिन काल-कवलित हो रही हैं। वृद्धों और प्रौढों की Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 28 उतनी मृत्यु नहीं होती। अभी कुछ ही वर्ष पूर्व सौ-सौ, सवा-सवा सौ वर्ष के बूढ़े अधिक संख्या में पाए जाते थे; वहीं आज अस्सी और नब्बे वर्ष के बूढ़े को भी देखकर आश्चर्य होता है। यदि हमारे देश में मृत्यु का यही भयावह क्रम रहा तो शीघ्र ही वह दिन आने वाला है, जब वृद्धों का नाम भी न रहेगा / आज जिन्हें हम प्रौढ़ कहते हैं, वे ही उस समय जर्जर वृद्धों की संख्या में रखे जायेंगे और आजकल के युवक प्रौढ़ माने जायेंगे / अब विचार करने का विषय यह है कि हमारे देश में ही इतनी मृत्युएँ होती हैं या अन्य देशों में भी / विदेशी देश स्थित रिपोर्टों से पता चलता है कि वहाँ पर इतनी अल्प आयु में इतनी बहुसंख्यक मृत्युएँ नहीं होती / इनके कारण का खोजना असाध्य नहीं है / जो व्यक्ति विवेकशील हैं, देश की दशा का पूरा ज्ञान रखते हैं, वे सहज ही इनके कारण को खोज सकते हैं। किन्तु देश में ऐसे लोगों की संख्या अत्यल्प है। अधिकांश में वे लोग निवास करते हैं, जो प्रत्यक्ष वस्तु के भी कार्य-कारण को सहज ही समझ जाने की बुद्धि रखते हुए, उसे उपेक्षा की दृष्टि से वहिष्कृत कर देते हैं; और ऐसा भाव प्रकट करते हैं कि मानों उनसे किसी प्रकार का सम्बन्ध ही नहीं है / _____ वास्तव में किसी भी कार्य में विशृंखलता उस कार्य के दोष से नहीं आती; बल्कि उसके बिगाड़ने वाले उसके निजी कर्म होते हैं। हिन्दू विश्वास के अनुसार परमात्मा ने मानव-सृष्टि अपने Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य की आयु खभावानुसार इसलिए की है कि वे निश्चित परमायु तक स्वाभाविक जीवन व्यतीत करते हुए मोक्ष-गति को प्राप्त हों। वैज्ञानिकों का मत है कि प्रकृति अपने स्वभावानुकूल मनुष्य को इसलिए उत्पन्न करती है कि उसके रचना कार्य में आए हुए रासायनिक संयोगों से उत्पन्न चेतना निश्चित समय तक स्वाभाविक रूप में वर्तमान रहे / इस मत में ईश्वर और जीव कोई शक्ति नहीं है / एक मात्र रासायनिक संयोग ही ईश्वर है, और उस संयोग से स्वतः उत्पन्न हुआ चैतन्य जीव है। इस चैतन्य को उसी तरह रहने का एक निश्चित समय है; और उसी समय को परमायु कहते हैं / मानव सृष्टि के समय पहला मनुष्य जितने समय तक जिया था, वही मानव-जाति की परमायु मानी गई। उससे कम समय में जो मरा उसपर कोई-न-कोई संघात हुआ समझा जाने लगा। हम लोग जीवन और मरण का कारण-विधि अथवा कर्म मानते हैं। यदि हम संघात और उसके उपस्थित करने वाले कारणों को उत्पन्न न होने दें तथा अपने को सर्वथा प्रकृति की स्वाभाविक प्रिय गोद में छोड़ दें, तो कोई कारण नहीं कि हमें हमारी जन्मसिद्ध प्राप्त परमायु न मिल सके। परन्तु मनुष्य समाज-बुद्धि-जैसी सम्पत्ति पाकर इतना बड़ा धनी और मदान्ध हो गया है कि परमात्मा के विधानों पर भी पानी फेरने का दावा रखता है और प्रकृति को अपनी दासी समझकर प्राणी-जगत् का स्वामी अपने ही को मान बैठा है / उसने स्वाभाविक जीवन को घृणित जीवन तथा Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 वनस्पति-विज्ञान अपनी बुद्धि के अनुसार संगठित जोवन को ही वास्तविक जोवन बना रखा है। फलतः इस विषय में जहाँ तक उसकी शक्ति थी, वहाँ तक उसने प्रकृति पर शासन किया / परन्तु जहाँ मनुष्य की शक्ति विवश हो जाती है, वहाँ पर प्रकृति ही उस अत्याचारी पर शासन कर समाज को आक्रान्त कर देती है / यही मनुष्य की मृत्यु का प्रमुख कारण है / प्राचीन काल में मनुष्य किसी अज्ञात शक्ति की प्रेरणा से अपने स्वभाव के अनुसार जीवन व्यतीत करता था। किन्तु जब उसने अपनी बुद्धि के बल से जीवन-पद्धति को और भी सुगम एवं सरस बनाने की कल्पना की तब उसने नवीन सभ्यता की सृष्टि की / उस समय उसे अपने शारीरिक तत्व, उसके रसायन योग तथा चेतना शक्ति को चिरस्थायी रखने की विद्या का ज्ञान न था। ___ बाद में मनुष्य ने तरह-तरह की खोज और गवेषणाएँ करके अपने शारीरिक तत्त्वों का अमूल्य परिज्ञान प्राप्त किया। अनेक असफलताओं के बाद इन तत्त्वों के प्रत्यक्ष रासायनिक संयोग करके उन लोगों ने देखा। जब उन्हें रासायनिक तत्वों का परिज्ञान भली-भाँति हो गया तब उन्हीं तत्त्वों के विविध रस तैयार किए गए; और उनका भी प्रत्यक्ष प्रयोग करके देखा गया। परिणाम यह हुआ कि वे पहले से अधिक काल तक जीवित रहने लगे। इस अकल्पित लाभ को प्राप्त कर उन्हें बड़ा उत्साह मिला; और इस अनुसन्धान को चिरस्थायी बनाने के लिए भाषा और लिपि-द्वारा Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतिक चिकित्सा अपने-अपने अनुभवों को उन लोगों ने लिखना आरम्भ कर दिया / ये ही ग्रंथ दीर्घजीवी बनने में सहायक हुए / इनके मूल सिद्धान्तों का क्रमवद्ध वर्णन वेद के चतुर्थ भाग 'अथवण' में सूत्र रूप में था। इन्हीं वैदिक सिद्धान्तों की सहायता से उन्होंने रसायन विद्या की गवेषणा की थी। अब तो सभी पठित लोग इस रसायन विद्या की सहायता से वृद्धता और मृत्यु को टालने लगे हैं एवं अजर-अमर बनकर दीर्घजीवी होने लगे हैं। रासायनिक वस्तुओं में मुख्य पारा है / रसायन शास्त्री लोग पारा एवं अन्य धातुओं का मारण-जारण करके लोगों को खिलाते हैं, जिनसे रोगोत्पादक कृमि नष्ट होकर शरीर को नव यौवन प्राप्त कराने में समर्थ होते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा :: प्राकृतिक चिकित्सा के पक्षपाती लोग उसकी बड़ी प्रशंसा करते हैं और कहते हैं कि प्राकृतिक नियमों का पालन करने से चिकित्सा शास्त्र संसार की अनावश्यक वस्तु हो जायगी। किन्तु उन्हें समझ लेना चाहिए कि वैद्यक शास्त्र की आवश्यकता उस समय हुई थी जब भारत में चारो ओर जितेन्द्रिय ऋषि, मुनि और देवता ही निवास करते थे। हम लोग अपने पूर्व पुरुषों के शतांश भी प्रकृति-सेवक नहीं है और न सदियों तक हो सकते Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान हैं। भारत-ऋषियों ने प्रकृति का जैसा अनुभव किया था और उसके साथ जैसा गम्भीर सहयोग किया था, उसका निदर्शन केवल इसी बात से हो सकता है कि उन्होंने प्रकृति की जड़ी-बूटियों से ऐसे-ऐसे उपचार निर्मित किए हैं, जिन पर विश्व आश्चर्य प्रकट करता है / फलतः प्राकृतिक नियमों के कारण वैद्यक-विद्या का आदर कम नहीं हो सकता / वैद्यक प्रन्थों के प्रारम्भ में रोगियों के लिए जो उपदेश दिए गए हैं, प्राकृतिक-चिकित्सा उन्हीं उपदेशों का विश्लेषण मात्र है / इससे यह सिद्ध होता है कि औषध. विज्ञान के अन्तर्गत उपदेशात्मक चिकित्सा-प्रणाली भी सुरक्षित है। ___ प्राकृतिक चिकित्सा से वैद्यक शास्त्र का कोई विरोध नहीं है / वैद्यक-शास्त्र ही प्राकृतिक चिकित्सा का जनक है / स्वास्थ्य सम्बन्धी सम्पूर्ण ज्ञान वैद्यक-शास्त्र के अन्तर्गत है। प्राकृतिक चिकित्सा का बड़ा-से-बड़ा पक्षपाती भी प्रत्येक रोग को प्राकृतिक चिकित्सा से दूर नहीं कर सकता। इस चिकित्सा से वे ही रोग दूर होते हैं, जिनका कारण सामान्य होता है। प्राकृतिक नियमों के पालन से बड़ी व्याधियाँ भयंकर रूप नहीं धारण कर सकतीं / इसके अतिरिक्त प्रकृति-सेवक सहसा किसी भयंकर व्याधि के चंगुल में नहीं फंस सकता। आयुर्वेद केवल अनुमान सिद्ध निर्जीव विद्या नहीं है, तथा उसमें कोई दोष भी नहीं है / यदि अनुसन्धान करने से चिकित्सा प्रणाली में तथा समय के कारण किसी अन्य आवश्यक अंग में Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतिक चिकित्सा दोष आ गया है तो उसे दूर करने की चेष्टा करनी चाहिए / हाँ, यह आवश्यक है कि जड़ी-बूटियों के गुण-दोषों पर फिर से विचार किया जाय; क्योंकि देश-काल और ऋतु-विपर्यय से उनके गुणों में अनेक परिवर्तन हो गए होंगे। आयुर्वेदिक चिकित्सा में इतनी सजीवता है कि वह एक घंटे के लिए मृत्यु को भी हटा सकती है, और रोगी के अवरुद्ध कंठ से चार शब्द निकलवा सकती है। जिन लोगों को आयुर्वेद का चमत्कार देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ होगा वे हमारे इन शब्दों को समझ सकेंगे। हम भारतीयों में इस समय एक महान दुर्गुण सन्निविष्ट हो गया है / वह यह कि हमारा जीवन-निर्वाह और संगठन के प्रकार अनुकरण जनित हो गए हैं / आज अँग्रेजों का शासन है, और हम उनका सहवास पाकर उनके ही जीवन-निर्वाह के ढंगों का अनुसरण कर रहे हैं / पर याद रखना चाहिए कि देश-काल के अनुसार ही प्रकृति की रचना होती है / अंग्रेजों की जीवन-निर्वाह पद्धति उनके देशानुकूल ही हुई है / इस देश में रहने पर भी यहाँ की जीवन निर्वाह पद्धति को वे नहीं ग्रहण कर रहे हैं। पर हम भारतीय उन्हीं के जीवन-निर्वाह प्रकार का अनुसरण करते जा रहे हैं। उनकी ही सभ्यता और शिष्टता को हम आदर्श समझते हैं। इसीसे हमारी प्रकृति उसे स्वीकार नहीं करती / फलतः हम भन्न स्वास्थ्य होकर अकाल ही काल कवलित हो रहे हैं। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयुर्वेद की चिकित्सा पद्धतियाँ आयुर्वेद के प्रधानतः दो अंग है। १-धन्वन्तरि सम्प्रदाय और २-भरद्वाज सम्प्रदाय / धन्वन्तरि सन्प्रदाय उसे कहते हैं, जिससे शल्यतंत्र की शिक्षा मिलती है, और भरद्वाज सम्प्रदाय उसे कहते हैं, जिससे काय चिकित्सा का प्रादुर्भाव हुआ है। हमारी आर्य जाति के पास सबसे श्रेष्ठ और अत्यन्त प्राचीन रत्न आयुर्वेद शास्त्र है। जब संसार के अन्य देश अज्ञानान्धकार में पड़े हुए थे; रोगों की कठोर यातनाओं से एवं महामारियों के लोकक्षयकारी प्रभावों से पीड़ित थे, मिश्र आदि प्राचीन देशों के निवासी रोगों से निस्सहाय और निरुपाय होकर मृत्यु का आतिथ्य स्वीकार करने के लिए वाध्य हो रहे थे, उस समय भारतभूमि में आयुर्वेदशास्त्र अपनी उन्नति के शिखर पर था / तात्पर्य यह है कि हमारे देश में जितनी भी विद्याएँ मिलती हैं उनको ऋषियों ने समाधिस्थ होकर ही जाना था / साधारतः आजकल दो प्रकार की विद्याएँ मानी जाती हैं / एक तो वह है, जो सिद्धान्त परीक्षा से सिद्ध हो / दूसरी वह है, जो स्वयं सिद्ध है और अपरिवर्तनशील है / यूरोप की विद्याएँ सिद्धान्त की परीक्षा में परखी जाती हैं। किन्तु इस प्रकार के सिद्धान्तों और विद्याओं में एक त्रुटि होती है, वह यह कि ज्यों-ज्यों अनुभव बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों उन सिद्धान्तों में अशुद्धि और मिथ्यात्व प्रकट होने लगता है, और अन्त में उस सिद्धान्त को बदलना Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयुर्वेद को चिकित्सा पद्धतियाँ पड़ता है / इससे इस प्रकार के सिद्धान्तों और विद्याओं को हमारे देश में महत्व नहीं दिया जाता, और उन्हें पौरुषेय या पुरुषकृत माना जाता है; क्योंकि यह निर्धान्त नहीं हो सकतीं। ___ दूसरे समाधिस्थ दशा में ऋषियों ने त्रिकालदर्शी तथा सत्या. सत्य प्रेक्षक होकर जिन सत्य सिद्धान्तों की रचना की है और जिन विद्याओं का विकास किया है, वे निर्धान्त हैं; क्योंकि इनमें सिद्धान्त पहले बन जाते हैं, और उनका अनुभव मनुष्य के लिए छोड़ दिया गया है, और वे सिद्धान्त सर्वथा सत्य होते हैं / यरोप में निर्धान्त सिद्धान्त कोई हो ही नहीं सकता / हमारा आयुर्वेद आर्ष है / इसकी औषधियाँ घटाई-बढ़ाई जा सकती हैं। किन्तु चिकित्सा के सिद्धान्तों या अन्य सिद्धान्तों में कोई अन्तर नहीं आ सकता / इसके सत्य सिद्धान्तों में कोई परिवर्तन हो ही नहीं सकता / जिस आयुर्वेदीय चिकित्सा-द्वारा किसी समय समस्त मानव जाति आरोग्य और स्वस्थ शरीर से दोपजीवन प्राप्त कर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त करती थी; आज उसी के विषय में हमारे देशवासियों का अनुराग कितना कम हो गया है। इस विषय में अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है। जिस प्रकार स्वस्थ दशा में कोई भी देवी-देवता को पूजना या अर्चना नहीं चाहता, उसी प्रकार आयुर्वेदीय चिकित्सा को अपनाने में भी प्रायः अधिकांश मनुष्यों की ऐसी ही प्रवृत्ति देखी जाती है / Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनौषधियाँ प्रकृति ने भारत की पवित्र बसुन्धरा पर संसार के उपकारार्थ अनन्त दिव्य वनौषधियाँ उत्पन्न कर दी हैं / यदि भारतवासी उनके दिव्य गुणों को जान जायँ तो निस्सन्देह वे अनेक जटिल रोगों के चंगुल से बच कर उत्तम स्वास्थ्य और सुख का अनुभव कर सकते हैं / हमारे पूर्व महर्षि लोग अनेक दिव्य औषधियों के गुणों का पूर्ण ज्ञान रखते थे और उनको कल्प तथा रसायन की विधि से सेवन कर दीर्घायु, बल और मेधा आदि को प्राप्त कर चिरकाल तक नवयौवन संयुक्त रहते थे। .. दिव्यौषधीनां बहवः प्रभेदा वृन्दारकाणामिव विस्फुरन्ति / ज्ञात्वेति सन्देहमपास्य धीरैः संभावनीया विवधः प्रभावाः // दिव्यौषधियों के अनेकानेक भेद हैं और वे तारकाओं की भाँति उदित हैं; ऐसी धारणा बनाकर और सन्देह को दूर करके विज्ञ नाना प्रकार के प्रभावों वाली दिव्यौषधियों का प्रयोग करे। ___ प्रकृति ने हम भारतीयों को स्वस्थ, सबल एवं दीर्घजीवी बनने के लिए उन अमूल्य वनस्पतियों की रचना की है तथा धनधान्य से भी इस प्रकार पूरित किया था कि हमें किसी देशवासी के समक्ष किसी भी वस्तु के लिए हाथ पसारने की आवश्यकता एकदम नहीं थी; किन्तु प्रकृति की परिवर्तनशीलता ने हमें इतनी अज्ञानता, निर्लज्जता और स्वार्थान्धता प्रदान कर दी है कि हम Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37 वनौषधियाँ उसके उस परमोपयोगी उपकार को तुच्छ समझने लगे हैं। तथा विदेशियों के साहचर्य से अपने उन विशाल नन्दन भवनजैसे स्वास्थ्य वर्द्धक स्थानों को छोड़कर एवं ह्नाददायक वायु को छोड़कर सुदूरवर्ती पाश्चात्य देशों में स्वास्थ्य सुधारने तथा शुद्ध वायु का सेवन करने एवं अपनी दिव्य वनौषधियों का परित्याग कर अपना भयंकर रोग उनके “सोडा वाई कार्व" से छुड़ाने जाते हैं। इससे बढ़कर लज्जा और दुःख का विषय और हो ही क्या सकता है / प्राचीन महर्षि धन्वन्तरि, आत्रेय, हारीत, अश्विनीकुमार, भेड़, पाराशर, अमिवेश, चरक, सुश्रुत और वाग्भट आदि ने भयंकर रोगनाशक और सर्व सुलभ जिन असंख्य वनस्पतियों के गुणावगुण का वर्णन किया है, उनपर हम विश्वास नहीं करते तथा कृत्रिम एवं अर्थ नाशकारी विदेशी औषधियों का हर्ष के साथ स्वागत कर मुँह बना-बनाकर पीते हैं / यही कारण है कि आजकल दिन-प्रति-दिन रोगों की संख्या बढ़ती ही जा रही है / * वनस्पतियों में अनेक बड़े-बड़े गुण हैं; परन्तु उनकी खोज करने वालों की बड़ी कमी है। प्राचीन ऋषियों ने जंगलों में रह कर अपने बुद्धि-कौशल से अनेक वनस्पतियों के गुणावगुण की खोज करके भावी सन्तान के हितार्थ सम्पूर्ण विवेचना की थी। जो वनस्पतियाँ उन्हें विशेष गुणकारी प्रतीत हुई, उनपर लोगों की सदैव भक्ति-भावना रखने के लिए उन्होंने उनका उपयोग देवपूजन के लिए कर दिया था, और उसका सम्बन्ध धर्म से लगा Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 38 दिया था। वह इसलिए कि इसका धार्मिक रूप समझ कर. लोग भूलेंगे नहीं / इस विषय में उन लोगों ने बड़ी दूरदर्शिता से काम लिया था। परन्तु हम लोग चिरकाल से दासत्व की शृंखला में आवद्ध रहने के कारण, अपनी सम्पूर्ण अच्छी वस्तुओं को भूल गए हैं तथा भूलते जा रहे हैं। हमें अपने देश की अच्छी वस्तुएँ नीरस और गुणहीन मालूम होती हैं। विदेशों की निर्गुण तथा बुरी वस्तुएँ भी सरस और गुणवती प्रतीत होती हैं। यह हमारे देश का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है। आयुर्वेद शास्त्र की महिमा अपार है / इसके द्वारा संसार का बड़ा उपकार होता है। हमारे आर्य महर्षियों ने आयुर्वेद शास्त्र पर जो ग्रन्थ निर्मित किए हैं, वह आज किसी-न-किसी रूप में संसार भर के चिकित्सकों के आदर के पात्र हैं। आयुर्वेद में औषध और शल्य-दोनों का विषद वर्णन है। प्रत्येक बातें बड़ी सरलता से समझाई गई हैं। पर समय की अपूर्व गति है / आज उसके पतन के दिन दृष्टिगोचर हो रहे हैं। न तो इस चिकित्सा को राज्य की ओर से ही उन्नति करने का सहारा मिलता है और न जनता ही उसपर प्रयत्नशील दीख पड़ती है। कुछ कर्त्तव्यपारायण चिकित्सक अवश्य ही इस ओर आकृष्ट हुए हैं। हमारी औषधियों का सस्तापन और उनका गुण इस बात के लिए प्रेरित करता है कि इसका उद्धार किया जाय / यही हम गरीबों के लिए अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकती है / Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसायन और वनस्पति ___ जो लोग जिस देश में जन्म लेते हैं, उन्हें उसी देश की औषधियाँ अधिक लाभदायक होती हैं। हमारे देश में औषधियों की कमी नहीं है / काष्ठादिक और रसादिक औषधियों के इतने अधिक विधान और प्रयोग हैं; जितने अन्य देशों में कदाचित ही होंगे। हम प्रतिदिन देखते हैं कि हमारे यहाँ की वनस्पतियाँ यूरोप जाती हैं और वहाँ से सुसंस्कृत होकर हमारे ही हाथों सौगुने दामों पर बिकती हैं और कभी-कभी तो लाभ के स्थान पर भयंकर हानि करती हैं। इस प्रकार हमारे करोड़ों रुपए विदेश चले जाते हैं। यह कितने आश्चर्य और लज्जा की बात है ! रसायन और वनस्पति अब रसायन और वनस्पतियों के गुणावगुण पर भी विचार करना होगा। वनस्पति चिकित्सा तो अति प्राचीन है ही, इसमें सन्देह करने की आवश्यकता नहीं। किन्तु चिकित्सकों की अज्ञानता से आज वह लुप्त प्राय हो रही है, और रस चिकित्सा का दौर-दौरा दीख पड़ता है / इस चिकित्सा का प्रभुत्व स्थापित होने के मुख्य तीन कारण हैं। १-वनस्पतियों की अनभिज्ञता, २-वनस्पतियों की निर्वीयता तथा ३-भारतीयों की शक्तिहीनता / इन्हीं कारणों से रस चिकित्सा का विकास हुआ। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान . 40 वनौषिधियाँ कड़वी, चरपरी और अनेक गंधवाली होने के कारण तथा अधिक मात्रा में सेवन करने के कारण; अरुचि, घृणा आदि विकार उत्पन्न होते हैं, और कुछ लोगों को तो घृणा से क्षुधा भी मन्द हो जाती है / इसलिए रोगी दुर्बल एवं क्षीण काय हो जाता है / अधिकांश वनस्पतियाँ शोधित होकर भी रोगी के शरीर में पहुँचकर वमन, विरेचन आदिक उपद्रव उत्पन्न कर देती हैं / अतीसार, संग्रहणी और राजयक्ष्मादिक रोगों में काष्ठ औषधियों का उपयोग किए बिना काम भी नहीं चलता तथा प्रयोग करते समय अत्यन्त सावधानी की आवश्यकता भी है / ज्वरनाशक औषधियाँ अनुलोमक होती हैं और अतीसारन ग्राही होती हैं। अतः दोनों ही परस्पर विरोधी हैं / शोथ में अतीसार और अतीसार में शोथ होना अरिष्टकारक कहा गया है। कारण शोथ की सम्पूर्ण औषधियाँ विरेचक हैं इसलिए उनके प्रयोग से शोथ तो कम हो जायगा; किन्तु अतीसार बढ़ जायगा / अतीसारघ्न औषधियों का सेवन करने पर अतीसार तो कम हो जायगा; किन्तु शोथ बढ़ जायगा / इस परिस्थिति में काष्ठादिक औषधियों के द्वारा चिकित्सा करने से अधिक समय और श्रम से काम लेना पड़ता है / किन्तु रसादिक औषधियाँ अति शीघ्र लाभकारी होती हैं / यह निर्विवाद सिद्ध है। जिस समय रोगी रोग के प्रबल आक्रमण से बेहोश और विकल हो जाता है, उस समय काष्ठादिक औषधियाँ अधिक मात्रा Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसायन और वनस्पति में सेवन नहीं की जा सकतीं; और अधिक मात्रा में सेवन कराए बिना लाभ की आशा भी व्यर्थ ही है / इसी प्रकार घृत-तैलादिक स्निग्ध पदार्थ भी सब जगह नहीं प्रयुक्त किए जा सकते; क्योंकि अनेक रोगियों को इनके सेवन से बड़ी आत्मिक ग्लानि होती है। वनस्पति चिकित्सा में अन्य कई असुविधाएँ और हैं। वनौषधियों के दो भेद हैं / १–शोधन और २-शमनकारक / शोधक औषधियाँ-विरेचक, संस्रावक, अनुलोमक, भेदक और वमनकारक होती हैं; और शोधक औषधियों के द्वारा वमन, विरेचन, नस्य, अनुवासन, निरूहण आदि पंचकर्म किए जाते हैं। किन्तु ये पंचकर्म अत्यन्त कष्ट साध्य हैं। आजकल अधिकांश रोगी शोधन के योग्य नहीं पाए जाते / अतएव शमनकारक औषधियाँ बहुत कम होती हैं। साथ ही वनस्पतियों से रोग की शान्ति बहुत अधिक समय में होती है। इन्हीं कारणों से रोग का सहज ही निराकरण करने के लिए चिकित्सक लोग अति दीर्घकाल से विविध प्रकार के सरल उपायों का अनुसन्धान करते आते थे। लोगों ने समझा कि यदि काष्ठादि औषधियाँ हीनवीर्य हो गई तो पृथ्वी के गर्भ में स्थित सुवर्णादि धातुएँ, पारदादिक रस, मणि-मुक्तादि रत्न रोग का प्रतिकार करने के लिए उपयोगी होंगे। उन्होंने प्रत्येक रोग में उक्त द्रव्यों का प्रयोग आरम्भ किया। इससे रोगों के शीघ्र दूर करने और शारीरिक एवं मानसिक शक्ति प्रात करने में विशेष सफलता प्राप्त हुई। इसका परि Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 वनस्पति-विज्ञान णाम यह हुआ कि आज सृष्टि में रासायनिक औषधियों का प्रचार अधिकाधिक बढ़ता जा रहा है। . ___ धातुओं और रसों को शरीरोपयोगी बनाने के पूर्व उनके दोषों को दूर करने के लिए उनका शोधन आवश्यक है। वे दोष दो प्रकार के होते हैं / १-स्वाभाविक और २–संसर्गज / दोनों दोषों से शरीर को हानि पहुँचती हैं। इन दोषों को दूर करने के लिए उनका शोधन और मारण किया जाता है। इनसे अनिष्ट की आशंका नहीं रहती, और संस्कार होने से उनकी शक्ति अधिक बढ़ जाती है / किन्तु कुछ पदार्थ ऐसे हैं, जो संशोधन करने पर भी शरीर का अनिष्ट करते हैं, इसीलिए जारण संस्कार के पूर्व उनका उपयोग नहीं किया जाता। इससे धातुएँ भस्म होकर जल में तैरने योग्य हो जाती हैं, और भिन्न-भिन्न गुणों को प्रकट करती हैं। इन दोनों संस्कारों के हो जाने पर धातुएँ उत्तम प्रकार से जीर्ण होकर शारीरिक कार्य करने योग्य हो जाती हैं; परन्तु इतने पर भी उनमें शरीर को हानि पहुँचानेवाला दोष विद्यमान रहता है। इसके दूर करने लिए अमृतीकरण नामक एक तृतीय संस्कार भी होता है। प्रायः देखा जाता है कि आजकल शोधित, जारित और अमृ. तीकरण की हुई धातुएँ औषध-रूप से देने में रोगी के शरीर में पहुँचते ही काष्ठादिक औषधियों की अपेक्षा विशेष कार्य करती हैं। इसकी मात्रा भी अति स्वल्प और कार्य उप्रवीर्य-सा होता है / Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसायन और वनस्पति मात्रा स्वल्प होने और जारित द्रव्य होने से किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता, और ये सभी अवस्थाओं में व्यवहार की जा सकती हैं। रोगी को असह्य पीड़ा या संज्ञाहीन अवस्था में रसादिक औषधियाँ प्रवृष्ट कर देने से तत्काल अलौकिक लाभ पहुंचता है। साथ ही ये कटु, कषाय, तिक्त आदि भी नहीं होते। इससे रोगी को इनके सेवन में अरुचि नहीं होती और लाभ भी यथेष्ठ होता है। उग्रवीर्य होने के कारण वनस्पतियों से ये अधिक शक्तिशालिनी होती हैं / सन्निपात-ज्वर में जब रोगी की नाड़ी तक का पता नहीं चलता और वह मरणासन्न हो जाता है, उस समय किसी भी काथ, आसव, अरिष्ट और अवलेह से काम नहीं चलता। उस समय तो मकरध्वज और कस्तूरी भैरव को स्मरण करना ही पड़ेगा। यह सभी लोग जानते हैं कि यक्ष्मा आदि रोगों में जिस समय शरीरस्थ धातुओं का क्षय प्रारम्भ हो जाता है, उस समय वनस्पतियों की अपेक्षा रसादिक औषधियाँ अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हुई हैं; क्योंकि रसादि शमनकारक होते हैं; वे शोधन का कार्य न करके दोषों को साम्यावस्था पर लाने का प्रयत्न करते हैं / रसौधियाँ रसायन होने से क्षय के निवारण में सर्वथा उपयोगी सिद्ध हुई हैं। किन्तु उस समय भी वानस्पतिक आहार शरीर के पोषण में विशेष सहायता करता है / कहा है न दोषाणां न रोगाणां न पुंसाञ्च परीक्षणम् / न देशस्य न कालस्य कार्य रसचिकित्सके // Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 44 रसचिकित्सक को दोष, रोग, पुरुषत्व, देश और काल के परीक्षा की आवश्यकता नहीं है। . वास्तव में यह उक्ति अक्षरशः सत्य है / मकरध्वज, हिरण्यगर्भ, स्वर्ण और रत्नादिक तथा अन्य रसादिक औषधियाँ तत्काल अपना फल दिखाती हैं। वनस्पतियों में भी ये गुण विद्यमान हैं ; किन्तु . उनकी मात्रा और प्रकार देखकर एवं उनके विषय में अपनी अज्ञानता का स्मरण करके तबीयत सिहर जाती है। रसादिक औषधियों का फल देखकर बहुतेरे डाक्टर भी, याने अमेरिका और जर्मन तक मकरध्वज का प्रचार हो गया है तथा अब तो वहाँ से बनकर भारत में भी बिकने आने लगा है ; बल्कि यों कहना चाहिए कि प्रचुर मात्रा में उसका प्रचार भी हो गया है / रस औषधियाँ अन्य औषधियों की अपेक्षा शीघ्र गुणकारी होती हैं / आयुवेदज्ञ महर्षियों ने साध्य रोगों के लिए सब प्रकार की काष्ठादि औषधियों का विधान किया है; किन्तु असाध्य रोगों के लिए किसी भी औषध का उल्लेख नहीं किया है, बल्कि रस विज्ञानाचार्यों ने साध्य-असाध्य सभी रोगों के लिए रस चिकित्सा का विधान किया है। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसायन आयुर्वेद शास्त्र में रसायन का बहुत बड़ा महत्व है / आयुर्वेद शास्त्र में ऐसी बहुतेरी सुलभ और सर्वत्र सहज ही में प्राप्त होने वाली औषधियाँ भी हैं, जिनका उपयोग कर साधारण-से-साधारण व्यक्ति भी संयमपूर्वक रहने से उत्तम स्वास्थ्य और अतुल बल-वीर्य से युक्त होकर चिर-यौवन प्राप्त कर सकता है / रसायन औषधियाँ दो प्रकार की होती हैं। उनमें एक तो ऐसी होती हैं, जो स्वस्थ शरीर में बल, वीर्य और ओज धातु की वृद्धि करती हैं; और कितनी ही दूसरे प्रकार की औषधियाँ ऐसी भी हैं जो रोग मात्र को ही नष्ट करने की शक्ति रखती हैं / जो औषधियाँ स्वस्थ शरीर में बल, वीर्य और ओज की वृद्धि करती हैं, वे ही रसायन के नाम से प्रसिद्ध हैं / रसायन औषधियाँ विशेष कर नीरोग मनुष्य के ही लिए कही गई हैं / एवं अनेक व्याधिग्रस्त मनुष्यों को भी विधिपूर्वक सेवन कराने पर उनके समस्त रोगों को शमन करके वे अपूर्व आरोग्यता प्रदान करती हैं / चरकाचार्य का कथन है / प्रायः प्रायेण रोगाणां द्वितीयं प्रशमे मतम् / प्रायः शब्दो विशेषार्थे ह्यत्ययं हुयभयार्थकृत् // रसायन प्रायः सब प्रकार के रोगों को नष्ट करता है / 'प्रायः' नोरोग मनुष्य के बल और ओज को भी बढ़ाता है / रोगी मनुष्य के रोग को भी नष्ट करता है। रसायन दोनों ही अर्थ करता है। प्राम Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान यज्जराव्याधि विध्वंसी भेषजं तद्धि रसायनम् / जो औषधि वृद्धता और व्याधि को अथवा जरारूपी व्याधि को नष्ट करने की शक्ति रखती है, उसे रसायन कहते हैं / यद्यपि प्रस्तुत समय में रसायन वृद्धता को सर्वथा नहीं रोक सकता, तथापि रसायन का यथाविधि दीर्घकाल तक सेवन करने से वृद्धता से रक्षाकर वह आरोग्य रख सकता है। उसके बाद स्वास्थ्यरक्षा के नियमों का पालन करके मनुष्य उसके बाद बहुत दिनों तक वृद्धता के पुनराक्रमण से अपनी रक्षा कर सकता है / रसायन सेवन का फल महर्षियों ने कहा हैं दीर्घमायुस्मृतिः मेधामारोग्यं तरुणं वयः / प्रभावर्णसुरौदायं देहि इन्द्रियबलं परम् // वाक्सिद्धिं प्रणितिं कान्ति लभते ना रसायनात् / लाभोपायोहि शस्तानां रसादीनां रसायनम् // रसायन के सेवन से मनुष्य की दीर्घायु, स्मरणशक्ति, मेधाशक्ति, नीरोगता, तरुणता; तथा कान्ति, वर्ण और स्वर की मधुरता बढ़ती है। यह देह और इन्द्रिय को अत्यन्त बल प्रदान करता है। वाक्सिद्धि, नम्रता एवं शारीरिक कान्ति बढ़ती है / यह उत्कृष्ट रसादि धातुओं के प्राप्ति के उपाय-स्वरूप होने के कारण इसे रसायन कहते हैं / रसायन का विधि पूर्वक अधिक समय तक सेवन करने से प्रचुर लाभ होता है। किन्तु सेवन करते समय शरीर-रक्षा तथा पथ्य के नियमों पर भी विशेष रूप से ध्यान रखना अत्यावश्यक Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसायन 47 है / जो शारीरिक और मानसिक दोषों से रहित हैं; जिनका शरीर और मन सर्वथा शुद्ध है और जो जितेन्द्रिय हैं; वे ही मनुष्य इन आयुवर्द्धक और जरा-व्याधि-नाशक रसायन के फल को प्राप्त कर सकते हैं / रसायन से उत्तम फल प्राप्त करने के लिए अनेक उत्तम गुणों की आवश्यकता है। रसायन औषधियाँ युवावस्था अथवा प्रौढ़ावस्था में ही सेवन करनी चाहिएँ। जो अधार्मिक, कृतघ्न और औषधद्वेषी मनुष्य हैं, उनको रसायन औषधियाँ कभी नहीं सेवन करनी चाहिएँ / दिव्यौषधियों का प्रभाव सुकृतात्मा मनुष्य ही सहन कर सकते हैं / किन्तु अकृतात्मा तो कदापि सहन नहीं कर सकते। ___ भारत में लता-वृक्षादि महोपकारी वनस्पतियाँ अधिकता से पाई जाती हैं। वे बड़ी गुणकारी देखी जाती हैं। एलोपैथिक औषधियों से कभी-कभी हानि भी हो जाती है / किन्तु आयुवैर्दिक औषधियों से किसी प्रकार की हानि की सम्भावना नहीं रहती। खासकर वनस्पतियों से तो किसी प्रकार की हानि हो ही नहीं सकती / जिस प्रकार भारत में होने वाले पदार्थ तीक्ष्ण नहीं हैं, उसी प्रकार भारतभूमि में उत्पन्न होनेवाली औषधियाँ भी तीक्ष्ण नहीं हैं। इसलिए वे भारतवासियों के स्वभाव के अनुकून पड़ती हैं। ये सब औषधियाँ बहुत थोड़े मूल्य में सर्वत्र मिल जाती हैं। और कितनी ही औषधियाँ तो इस देश में इतनी अधिकता से उत्पन्न होती हैं कि केवल उनके संग्रह कराने मात्र का व्यय Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 48 उठाना पड़ता है। पर औषधियों के इन गुणों से क्या लाभ ? क्योंकि अब तो हमारा विश्वास उन पर नहीं है। हमें तो अंब रंगदार पैकिंग चाहिए, लाल-पीली शीशियाँ चाहिएँ और केवल कार्क खोलकर मुँह में शीशी लगा लेनी की सुविधा चाहिए। आज इसी सुविधा ने हमें एकदम पंगु और अपाहिज बना दिया है, और मूर्खतावश हम रत्न को खोकर काँच को ग्रहण कर रहे हैं तथा जान-बूझकर काल के गाल में चले जा रहे हैं। हमारा शरीर जिन पंच महाभूतों से निर्मित हुआ है, उन्हीं पंच महाभूतों से उद्भिज-वनस्पतियों एवं खनिज द्रव्यों का भी निर्माण हुआ है। तीनों की स्थूल और मौलिक धातुओं में समा. नता है। अतः जब मानव शरीर को रसादि धातुएँ जरा-व्याधिचिन्ता आदि कारणों से विकृत, कुपित, क्षीण एवं विनष्ट करने लगती हैं, उस समय चिकित्सक लोग वनस्पतियों और खनिज पदार्थों को शुद्ध करके रासायनिक प्रयोग करते हैं / जिससे उनका विकार और ह्रास मिट जाता है, और शरीर शुद्ध एवं स्वस्थ होकर मनुष्य दीर्घजीवन प्राप्त करता है / खनिज पदार्थों की शुद्धि और औषधि-निर्माण में बहुत कठिनाई श्रम और व्यय पड़ता है / उसका निर्माण विद्वान और क्रियाशील चिकित्सक के लिए ही हो सकता है / बहुत-सी वनस्पतियाँ भी रासायनिक योग से अनेक व्याधियों पर रसादि की तरह ही लाभ पहुँचाती हैं। वास्तव में यदि सच पूछा जाय, तो रोग विशेष में रसादिक Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसायन औषधियाँ अवश्य विशेष लाभ पहुँचाती है। किन्तु हमारे दैनिक भोजन में वनस्पतियों को हो विशेष स्थान मिला है। हम नित्य जितना अन्न खाते हैं, उससे कहीं अधिक वनस्पतियों का भोजन करते हैं / अन्न में भी वे ही वनस्पतियों के तत्व विशेष रूप से पाए जाते हैं तथा छोटे-छोटे और कभी-कभी बड़े-बड़े रोग भी इन वनस्पतियों की सहायता से सहज ही दूर किए जाते हैं। चरकजैसे महत्वपूर्ण एवं अत्युपयोगी ग्रंथ का निर्माण, तो केवल इन्हीं वनस्पतियों के आधार पर हुआ है / अस्तु / अब मैं यहाँ पर कुछ प्रचलित; किन्तु नित्य उपयोगी वनस्पतियों, वृक्षों और लवाओं का विवरण दूंगा / यह विवरण उन्हीं वनस्पतियों का होगा, जो सरलतापूर्वक सभी जगह, सभी लोगों को प्राप्त हो सकती हैं। Has Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिलोय सं० गुडूची, हि० गिलोय, ब० गुलंच, म० गुलवेल, गु० गुलो, क० अमरदवल्ली, तै० गोधूचि, ता. सिन्दीलफोदि, प० गलाह्व, फा० गिलाई, अ० गिलोई, अँ० गुलंचा-Gulancha, और लै० टिनोजपोरा कार्डिफोलिया-Tinospora Cardi Folia. विशेष विवरण-गिलोय की बेल भारत के प्रायः सभी प्रान्तों में होती है। यह वृक्षों पर स्वतः फैला करती है। प्रत्येक गाँठों से दो-दो भाग निकलते हैं। किन्तु धीरे-धीरे वे भी जड़ पकड़ लेते हैं / पत्ते, पान के पत्ते से मिलते-जुलते और कुछ नीले रङ्ग के होते हैं / फूल गुच्छों में और छोटा-छोटा होता है। फल मटर के समान होते हैं; और पकने पर लाल रंग के मनोहर दीख पड़ते हैं / बेल, पत्ते और जड़ सभी व्यवहार में लाए जाते हैं। गुण-ज्ञेया गुडूची गुरुरुष्णवीर्या तिक्ता कषाया ज्वरनाशिनी च / दाहार्तितृष्णावमिरक्तवात प्रमेहपाण्डुभ्रमहारिणी च ॥-रा० नि० गिलोय-भारी, उष्णवीर्य, तिक्त, कषाय; तथा ज्वर, दाह, पीड़ा, तृष्णा, वमन, वातरक्त, प्रमेह, पाण्डु और भ्रमनाशक है / विशेष उपयोग (1) सब प्रकार के प्रमेह पर एक Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिलोय तोला गुरिच के रस में एक माशा हल्दी का चूर्ण और दो माशे शहद मिलाकर पीना चाहिए / (2) आमवात में-एक तोला गुरिच और छः माशे सोंठ एक पाव जल के साथ पकाकर चतुर्थाश शेष रहने पर पीना चाहिए; अथवा केवल गुरिच के काढ़े में ऐरंड-तैल मिलाकर पीएँ। (3) कफ-रोग में-गुरिच के काढ़े में शहद मिलाकर पीएँ। (4) सब प्रकार के नेत्र-रोग-गुरिच, त्रिफला और पीपल के काथ में शहद मिलाकर पीने से नष्ट होते हैं। (5) मूत्रकृच्छ-गुरिच के रस में शहद मिलाकर पीने से नष्ट होता है। (6) दूध वृद्धि के लिए-गुरिच के काढ़े में दूध मिलाकर पीना चाहिए। (7) सर्प-विष-गुरिच का एक पाव रस पिलाएँ। : (8) प्रमेह-दो माशे गुरिच का सत्त x, चार माशे त्रिफला का चूर्ण, छः माशे शहद और एक तोला घी के साथ मिलाकर चाटना तथा ऊपर से धारोष्ण दूध अथवा गाय का गरम किया हुआ दूध पीना चाहिए. ____x गुरिच का सत्त-श्राम या नीम पर चढ़ी हुई उत्तम और मोटी एवं पुरानी गुरिच को टुकड़े-टुकड़े करके धो लेना चाहिए। बाद उसे महीन पीसकर कलईदार बर्तन में पानी देकर मलना चाहिए, और चार पहर उसी तरह छोड़कर रहने देना चाहिए। उसके बाद उसे खूब मलना चाहिए, और धीरे-धीरे मलकर Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 52 ___(8) जीर्णज्वर-दो माशे गुरिच का सत्त, चार रत्ती पीपर और एक माशा मिश्री, शहद के साथ मिलाकर चाटने से नष्ट हो जाता है। - (10) पांडुरोग में-दो माशे गुरिच का सत्त शहद के साथ मिलाकर चाटें तथा ऊपर से गाय का गरम दूध पीएँ / (11) दाह-गुरिच का सत्त दो माशे और जीरा तथा मिश्री, सबको शहद के साथ मिलाकर चाटना तथा ऊपर से धारोष्ण दूध पीना चाहिए। (12) वातव्याधि में-गुरिच का सत्त दो माशे एक तोला घी के साथ मिलाकर चाटने से लाभ होता है। (13) आमवात और उदर रोग में-गुरिच का सत्त तथा सोंठ दो-दो माशे शहद के साथ मिलाकर चाटना चाहिए / (14) शक्ति-वर्द्धन के लिए-दो माशे गुरिच का सत्त और मिश्री एक साथ फॉक कर ऊपर से गाय का दूध पीएँ / (15) अरुचि-आधी छटाँक अनार के रस के साथ एक माशा गुरिच का सत्त सेवन करने से नष्ट होती है। हाथ से गार-गारकर उसके बड़े-बड़े हिस्से को निकाल दिया जाय / फिर उसे एकदम झोने कपड़े से छान दिया जाय, और उसी तरह बर्तन में छोड़ दिया जाय। जब नीचे सत्त जम जाय, तब पानी को धीरे-धीरे निकाल दिया जाय / बाद उसे किसी कपड़े पर फैलाकर सुखा लिया जाय। सूख जाने पर उसे बूककर रख लिया जाय और आवश्यकतानुसार काम में लाएँ / Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पान (16) राजयक्ष्मा-एक माशा गुरिच का सत्त, छः माशे शहद, एक तोला घी और छः माशे मिश्री एक साथ मिलाकर सेवन करना चाहिए। (17) मूत्रकृच्छ में-एक माशा गुरिच का सत्त, एक पाव दूध, एक पाव पानी के साथ सेवन करना चाहिए / (18) नेत्र रोग में-एक माशा गुरिच का सत्त, एक तोला भैंस के घी के साथ सेवन करना चाहिए / / 16) बाल काला करने के लिए-गुरिच, का सत्त मॅगरैया के रस में मिलाकर लगाना चाहिए। (20) धातु-स्तम्भन के लिए-गुरिच के पंचांग का चूर्ण एक तोला; शहद के साथ सेवन करना चाहिए / पान - सं० ताम्बूल, हि० ब० गु० पान, म० नागवेल, क० नागरबल्ली, तै० तामल पाकु, ता० बेट्टिली, फा० वर्गतबोल, अ० फान, अँ विटल्लीफ-Betelleaf और लै० पिपेर विटले-Piper Betle. विशेष विवरस-पान सर्वत्र प्रसिद्ध है। भारतवर्ष के प्रायः छोटे-बड़े सभी स्थानों में इसका व्यवहार होता है / पान की लता सीमा प्रान्त और पंजाब प्रान्त को छोड़ कर जावा, स्याम Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 54 और सिंहल आदि देशों में भी होती है / पान का व्यवहार भारत में बहुत अधिक है। आजकल तो पान से ही आदर-सत्कार किया जाता है / इसका व्यवहार पूजन, खाने और औषधि में होता है / यह बँगला, मगही, साँची, कपूरी, महोबी, मद्रासी, कलकतिया, बनारसी और गयावाली आदि अनेक नामों से सम्बोधित किया जाता है। गया का मगही पान सबसे अच्छा समझा जाता है। इसकी नसें बहुत पतली और मुलायम होती हैं / यह मुँह में रखते ही गल जाता है / गया के पान से बढ़कर अन्य दूसरा पान नहीं होता / कच्चा पान हरा और पक्का पान सफेद होता है / आजकल जिस प्रकार पान खाया जाता है, उससे स्वास्थ्य नाश के अतिरिक्त और कोई लाभ नहीं होता। हाँ, थोड़ा खाने से लाभ अवश्य होता है। गुण-ताम्बूलं विशदं रुच्यं तीक्ष्णोष्णं तुवरं मतम् / वश्यं तिक्तं कटु क्षारं रक्तपित्तकरं लघु // बल्यं श्लेष्मास्यदौर्गन्ध्यमलवातश्रमापहम् / —भा० प्र० पान-विशद, रुचिकारक, तीक्ष्ण, उष्ण, कषैला, सारक, वशीकरण, चरपरा, क्षार, रक्तपित्तकारक, हलका, बलकारक तथा कफ, मुख की दुर्गन्धि, मल, वात और श्रम नाशक है / . विशेष उपयोग (1) सर्पदंश पर-पान की जड़, पान के बीड़ा में रखकर खाना चाहिए। इससे क्मन होकर विष नष्ट हो जायगा। दो-तीन बार खाने से वमन अवश्य होने लगता है। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अडूसा (2) नल फूलने पर-सफेद पान और सहिजन का रस पीना चाहिए। (3) कुचला का विष-काले पान के डण्ठल का रस एक पाव तक पीने से नष्ट होता है। (4) पारा का विष-पान की लता, भौगरा और तुलसी का रस बकरी के दूध में मिलाकर तीन दिनों तक सुबह से दोपहर तक शरीर में लेप करना चाहिए। दोपहर के बाद ठंढे जल से स्नान करना चाहिए। (5) सरदी की खाँसी, पर-नागर वेल की फली का चूर्ण शहद के साथ सेवन करना चाहिए / (6) सियार का विष-नागर वेल की जड़ पानी में पीसकर पीना चाहिए / इससे वमन होकर विष नष्ट हो जाता है / अडूसा ___ सं० वासक, हि० अडूसा, ब० वाकस, म० अडुलसा, गु० अरडुशो, क० आडसोगे, तै० अडासारं, ता० अधडोडे,अ० मोभर नट-Mobhar Nat, और लै० अधाटोडा वासिकाAdhatoda Vasika. * विशेष विवरण-अडूसा का पेड़ सर्वत्र होता है / प्राचीन समय से इसका उपयोग हमारे यहाँ होता आया है, किन्तु अब Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 56 तो इसका उपयोग एलोपैथी में भी होने लगा है। इसका वृक्ष आदमी की ऊँचाई का होता है / उसके तने के पास से ही छोटीछोटी टहनियाँ निकलती हैं / इसके फल तीन-चार इंच लम्बे और डेढ़-दो इंच चौड़े चिपटे-से होते हैं। यह फल कच्चा हरा और पक्का पीला होता है / इसका फूल सफेद; किन्तु घोड़े के दाँत-जैसा होता है / फूलों का गुच्छा तुलसी की मंजरी की भाँति होता है / औषध में विशेषकर इसका पत्ता काम में आता है। यह सफेद और काला दो प्रकार का होता है / सफेंद अडूसे में कुछ सफेदी और काले में कालिमा होती है / काले अडूसा का पेड़ मुलायम होता है और उसमें गाँठ होती है। यह सफेद अडूसा से उष्ण और कफ-नाशक होता है / सफेद अडूसा की लकड़ी हल्की तथा कोमल होती है। इसका कोयला मदिरा में छोड़ने के काम आता है। एक प्रकार का अडूसा और होता है, जिसमें लाल रंग के फूल लगते हैं / चैत्र मास में इसमें फूल लगता है / गुण-वासा तिक्ता कटुः शीता कासनी रक्तपित्तजित् / कामलाकफ वै क्लव्यज्वरश्वासक्षयापहा ॥-रा० नि० अडूसा-तिक्त, कटु, शीतल, कासनाशक, रक्त-पित्तनाशक एवं कामला, कफ, विकलता, ज्वर, श्वास और क्षय नाशक है / विशेष उपयोग (1) सुख से प्रसव होने के लिएअडूसा के जड़ की छाल पकाकर नाभि और गुप्त स्थान में लगानी चाहिए। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अडूसा (2) पित्तज प्रदर-अडूसा के रस में शहद मिलाकर पीने से नष्ट होता है। (3) श्वेत प्रदर-अडूसा को जड़ के रस में शहद मिलाकर पीने से नष्ट होता है। (4) बिच्छू के विष पर-काले अडूसा को पीसकर लगाना चाहिए। (5) चेचक की शान्ति के लिए--अडूसा के रस में मुलेठी घिसकर पिलाना चाहिए / . (6) अडूसा का खरस-अडूसा के पत्तों को पानी का छींटा देकर पीस लेना चाहिए और बाद उसका रस निकालकर और शहद मिलाकर पीने से रक्त-पित्त, ज्वर, खाँसी, क्षय, कामला और कफ-पित्त नाशक है। (7) अडूसा का पुटपाक-अडूसा के पत्तों को कुचिल कर पकाना चाहिए; और बाद उसका रस निकालकर तथा शहद मिलाकर दो तोले से चार तोले तक पीने से रक्त-पित्त, खाँसी, क्षय और कफ-वर नाशक है। (8) अडूसा की चटनी-अडूसा की पत्ती सेंककर उसका रस निकालकर उसमें हल्दी का चूर्ण और शहद एवं त्रिफला का चूर्ण मिलाकर चाटने से कफ, खाँसी श्वास, क्षय और रक्तपित्त नष्ट होता है। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 58 . ___(8) आय एवं कास-श्वास-अडूसा की पत्ती के रस में शहद मिलाकर पीने से नष्ट होता है / कटेरी सं० कंटकारी, हि० कटेरी, भटकटैया, ब० कंटकारी, म० रिंगिणी, गु० बेठी भोरिंगणी, क० नेल्लगुल्लू , तै० रेवटी मुलंगा, और लै० सोलनम् इन्थोकार्प-Solnum Xanthocarpum. विशेष विवरण-यह भूमि पर फैलती है / इसके वृक्ष के प्रत्येक अंग में छोटे-छोटे काँटे होते हैं। इसका फल सुपारी की भाँति गोल-गोल होता है। उसके भीतर बहुत-से बीज होते हैं / इसका फल कच्चा हरा और पक्का पीला होता है। यह दो प्रकार के फूलोंवाली होती है। एक के फूल आसमानी या नीले रङ्ग के होते हैं और दूसरे के फूल सफेद होते हैं / किन्तु सफेद फूलोंवाली कम दीख पड़ती है; और विशेष प्रयत्न करने के बाद कहींकहीं ही मिलती है। सफेद फूलोंवाली को "लक्ष्मणा" कहते हैं / गुण-कण्टकारी कटूष्णा च दीपनी श्वासकासजित् / प्रतिश्यायाति दोषनी कफवातज्वरातिनुत् ॥-रा० नि० कटेरी-कटु, उष्ण, दीपक, श्वास, कास, प्रतिश्याय, कफ, वात और ज्वर नाशक है। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____ कटेरी गुण-लक्ष्मणा कटुका चोष्णा चक्षुष्या चाग्निदीपनी / गर्भस्थापनकी च पारदस्य नियामिका // रुचि कृत्कफवातानां नाशिनी परमा मता। शेषाश्चास्या गुणाःप्रोक्ताः फलस्यापिच पूर्ववत् ॥–शा० नि० श्वेत कटेरी-कटु, उष्ण, नेत्रों को हितकारक अग्नि दीपक, गर्भस्थापन करने वाली, पारद को बाँधने वाली, रुचिकारक तथा कफवात नाशक कही गई है। इसके फल का गुण-कटेरी के समान ही सममना चाहिए। गुण-कंटकारी फलं तिक्तं कटुकं भेदि पित्तलम् / हृद्यं चाग्नेर्दीप्तिकरं लघु वातकफापहम् // कंडूश्वासज्वरकृमिमेहशुक्रविनाशनम् / - शा० नि० कटेरी का फल-तिक्त, कटु, भेदी, पित्तल, हृदय को हितकारी, अग्निप्रदीपक, हलका, वात-कफ नाशक एवं खुजली, श्वास, ज्वर, कृमि, प्रमेह और वीर्य विनाशक है। विशेष उपयोग (1) सिर का बाल उड़ जाने परकटेरी के रस में शहद मिलाकर लगाना चाहिए। (2) मन्दाग्नि में-कटेरी का पचांग, लौंग और जायफल एक-एक तोला शहद के साथ खरल करके सुपारी बराबर गोली बनाकर प्रति दिन एक-एक गोली गरम पानी के साथ पाँच दिनों तक सेवन करना चाहिए। (3) कान का कृमि-कटेरी के फल का बीज आग में छोड़कर उसका धुवाँ नली-द्वारा कान में पहुँचाने से नष्ट होता है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति विज्ञान (4) जीर्णज्वर-कटेरी और पित्त पापड़ा का अष्टमांश काथ पीने से नष्ट होता है। . (5) मूत्रकृच्छ और मूत्रावरोध पर-कटेरी के रस में शहद मिलाकर पीना चाहिए। (6) श्वास-कटेरी, जीरा और आमला का चूर्ण शहद के साथ चाटने से नष्ट होता है। (7) कुत्ता का विष-कटेरी के रस में घी मिलाकर पीने से नष्ट होता है। (8) गर्भाधान के लिए-श्वेत कंटकारी का पुष्प, पुष्य नक्षत्र रविवार के दिन लाकर गर्भवती को स्नान कराकर चौथे दिन उसके रस का नस्य देना चाहिए। अथवा पुष्प को दूध के साथ पीसकर पिलाने के बाद गर्भाधान करने से अवश्य गर्भ रहता है / (8) दाँत के कीड़े-कटेरी के फल को आग में जलाकर उसका धुआँ लेने से निकल जाते हैं और दाँत का दर्द बन्द हो जाता है। (10) कफ, न्यूमोनियाँ और दमा में नीले फूलवाली कटेरी का काथ, पुटपाक और पंचांग का चूर्ण, पीपर का चूर्ण और शहद मिलाकर सेवन करना चाहिए। (11) बालकों की खाँसी-कटेरी का फूल दूध के साथ पीसकर पिलाने से नष्ट होती है / Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं० एरंड, हि० रेंड रेड़ी, ब० भेरंडा, म० एरंड, गु० एरंडो, क० एरंडु आडलके, तै० आमुडामु, अ० खिरवा, फा० बेदंजीर, अॅ० कास्टर आइल प्लाट-Castor oil Plant, और लै० रिसिन्स काम्युनिस-Ricinus Communis. विशेष विवरण-यह सभी जगह सरलता से पहचाना जा सकता है। इसका पत्ता हाथ के पंजा के समान पाँच अंग वाला होता है / इसीसे इसे पंचागुल भी कहते हैं / यह दो प्रकार का होता है; लाल और सफेद / या बड़ा और छोटा / बड़ा दस पन्द्रह हाथ ऊँचा होता है, और छोटा सात-आठ हाथ ऊँचा होता है / बड़े का बीज छोटे की अपेक्षा बड़ा होता है / इसके पेड़ की लकड़ी पोली होती है। इसके बीज से तेल निकलता है। एरंड का सम्पूर्ण पदार्थ औषध के लिए उपयोगी है। इसकी लकड़ी औषध फॅकने, जड़ काथ आदि के काम आने, पत्ता अनेक प्रकार के काम आने, बीज की गुही और उसका तेल भी अनेको उपयोगी कामों में आने का उल्लेख है। गुण-एरंडयुग्मं मधुरमुष्णं गुरुविनाशयेत् / ___ शूलशोथकटीवस्तिशिरः पीड़ोदरज्वरान् // वम श्वासकफानाहकासकुष्ठाममारुतान् ।-शा० नि० दोनों प्रकार के एरंड-मधुर, उष्ण, भारी तथा शूल, Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62. वनस्पति-विज्ञान शोथ, कटी, वस्ति और सिर की पीड़ा तथा ज्वर, वद, श्वास, कफ आनाहा, खाँसी, कुष्ठ, आम और वात नाशक हैं। गुण-एरंडपत्रं वातनं कफकृमि विनाशनम् / मूत्रकृच्छ्रहरं चापि पित्तरक्तप्रकोपनम् // वातार्यप्रदलं .गुल्मवस्तिशूलहरं परम् / __ कफवातकृमीन्हन्ति वृद्धि सप्तविधामपि ॥–शा० नि० एरंड पत्र-वात, कफ, कृमि और मूत्रकृच्छ् नाशक एवं रक्तपित्त प्रकोपक है / इसके कोमल पत्ते-गुल्म, वस्तिशूल, कफ, वात, कृमि, और सातों प्रकार की वृद्धि विनाशक हैं। गुण-एतन्मजा च विभेदी वातश्लेमोदरापहा / -भा० प्र० ___ एरंड बीज की गुद्दी-मल-भेदक. तथा वात, कफ और उदर रोग नाशक है। गुण-एरंडमूलं शूलप्नं वृष्यं वातकफापहम् / -शा० नि० एरंड की जड़-वृष्य एवं शूल, वात और कफ नाशक है। गुण -पुष्यं हन्त्यस्य वानिलकफगुदजान् गुल्मशूलोलवातान्–शा० नि० एरंड का फूल-बद, वात, कफ, गुद-रोग, गुल्म, शूल और उर्ध्ववात नाशक है। गुण-एरंडतैलं मधुरं गुरु श्लेष्माभिवर्द्धनम् / वातासृग्गुल्महृद्रोगजीर्णज्वरहरं परम् ॥-रा० व० एरंड तैल-मधुर, भारी, कफवर्द्धक तथा-वातरक्त, गुल्म, हृद्रोग और जीर्णज्वर नाशक है। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एरंड. विशेष उपयोग (1) बिच्छू का विष-जिस ओर बिच्छू ने काटा हो, विपरीत दूसरे कान में तीन-चार बार एरंडमूल का रस छोड़ने से उतर जाता है। (2) सर्प विष पर-एरंडमूल का चार तोला रस एक तोला पानी मिलाकर पिलाना और उसी को पीसकर दंश-स्थान पर लगाना चाहिए / इससे वमन होकर विष नष्ट हो जाता है / (3) धतूरा का विष-लाल एरंड के जड़ की छाल पान के साथ पीसकर पीने से नष्ट हो जाता है। (4) शोथ पर-एरंड पत्र पर तेल लगा तथा सेंककर बाँधे। (5) स्तन शोथ पर-एरंड पत्र पर तेल लगाकर तथा सेंककर बाँधना चाहिए। . / (6) फोड़े की शोथ पर-एरंड पत्र पर तेल लगाकर तथा सेंककर बाँधना चाहिए। ... (7) फोड़े पर-एरंड की गुद्दी पीसकर और गरम करके बाँधने से फोड़ा फूट जाता है, तथा विकृत हुआ एकत्रित रक्त यथागति प्रवाहित होने लगता है। (8) वातजन्य सन्धिग्रह पर-एरंड तेल गरम करके मालिश करना चहिए। . . (8) हृदशूल में-एरंड मूल एक तोला, सोलह तोले पानी के साथ पकाकर अष्टमांश शेष रहने पर शहद मिलाकर पीएँ। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 वनस्पति-विज्ञान (10) कफजन्य शूल एवं उदर शूल पर-उपर्युक्त विधि से काथ बनाकर उसमें एक माशा जवाखार मिलाकर पीएँ / (11) बद्धकोष्ठता पर-रेंड की गुद्दी, बादाम और गुलकन्द एक साथ पीस कर और घी के साथ भूनकर खाना चाहिए। (12) दस्त के लिए-एरंड तैल एक तोला से एक छटॉक तक शक्ति के अनुसार दूध के साथ पीना चाहिए / (13) दाह पर-यदि पित्तज दाह हो, तो एरंड पत्र साफ करके उस दाह वाले स्थान पर रखना चाहिए / . सहदेई _____ सं० सह देवी, हि० सहदेई, ब० पीतपुष्प, म० भांबुर्डी, गु० सहदेवी, क० वेल्लदुरुबे, ता० ने चिट्टी, और लै० सिडेहोफिफो. लिया--Siderhomfifolia. विशेष विवरण-यह प्रायः सभी जगह वर्षाऋतु में लता के समान प्रसारित होती है / इसके वृक्ष छोटे और बढ़े दो प्रकार के होते हैं। इसके पत्ते पतले, खरखरे, हरे रंग के और प्रायः दो अंगुल लम्बे होते हैं / इसके फूल और फल छोटे छोटे और पीले रंग के होते हैं। फल छोटे, गोल और कॉटेदार होते हैं / इसका उपयोग औषध के लिए होता है। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहदेई गुण-मह्मवला तु मधुरा धातुवृद्धिकारी मता। बल्या वृष्यादिदोषघ्नी ज्वरहृद्रोगदानुत् // वाताशः शोफविषमज्वरान्मेहगणं तथा / बहुमूत्रं नाशयतीत्येवमाचार्य भाषितम् ॥–शा० नि० सहदेई–मधुर, धातुवर्द्धक, बलकारक, वीर्यवर्द्धक, त्रिदोषनाशक तथा ज्वर, हृद्रोग, वातार्श, शोथ, विषमज्वर, बीस प्रकार के प्रमेह और बहुमूत्र नाशक है / विशेष उपयोग (1) विषम ज्वर-रविवार को प्रातः काल स्नानकर पूर्वाभिमुख होकर अपनी छाया पड़ने देने बिना ही युक्ति पूर्वक जमीन खोदकर सहदेई की जड़ निकाल कर और उसे काले डोरे में बाँधकर हाथ में बाँधने से नष्ट होता है। (2) काँच निकलने पर सहदेई का रस डालकर दबाना चाहिए। .. (3) स्त्री का गुप्तांग निकलने पर-सहदेई का रस छोड़कर दबाना चाहिए। अथवा हाथ में रस मसलकर दबाना चाहिए। (4) मुख-रोग-सहदेई के जड़ के काथ का कुल्ला करने से नष्ट होता है। . (5) पसीना लाने के लिए-सहदेई का गरम-गरम काढ़ा पीना चाहिए। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति विज्ञान (6) गण्डमाल के लिए-सहदेई की जड़ पुष्य नक्षत्र में लाकर बाँधना चाहिए। (7) ज्वर में सहदेई की जड़ शिखा में बाँधना और उसका रस पीना चाहिए। (8) कुष्ठ रोग में-सहदेई का रस लेप करना चाहिए / (8) निद्रा के लिए-सहदेई की जड़ पीसकर लेप करना चाहिए। (10) सर्वज्वर-सहदेई और काली मिर्च पीसकर पीने से नष्ट होते हैं। ____ (11) बहुमूत्र में सहदेई और मिश्री समभाग दूध के साथ . सेवन करना चाहिए। सतावर सं० शतावरी, हि० सतावर, ब० शतमूली, म० शतमूली, गु० शतावरी, क० किरिप आसुडी, तै० चल्लगुडुलु, अ० शकाकुल मिश्री, फा० गुर्जदस्ति, अँ० एसपेरेगस रेसिमोसस-Asparagus Racemosus, और लै० ए. सतवर A. Satavar. विशेष विवरण-सतावर का वृक्ष दो-तीन फिट ऊँचा होता है, और यह भारतवर्ष के प्रत्येक स्थान में प्राप्त होती है / इसका उपयोग प्रायः शक्तिवर्द्धक औषधों के लिए होता है। इसका पत्ता Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतावर सोत्रा के पत्ता-जैसा होता है। वह पत्ता टहनियों के प्रारम्भ से ही निकलता है, और अन्त तक निकलता है तथा टहनियों के दोनों ओर होता है। इन पत्तियों से समुद्र के रेत-जैसी बास आती है / इसके छोटे; किन्तु सुगन्धित पुष्प होते हैं। इसके वृक्ष के ऊपर छोटे-छोटे काँटे होते हैं। बौर की तरह इसमें भी छोटेछोटे फल के गुच्छे निकलते हैं, और पकने पर इसका रंग लाल होता है। औषध में इसकी जड़ का प्रयोग होता है। एक-एक वृक्ष की सौ-सौ जड़ें होती हैं / इसी से इसका नाम शतमूली और शतपदी भी है / इसके पत्ते झीने और अधिक होते हैं। मालूम होता है कि ताँत, जैसे.इकट्टी बाँधकर रखी गई हो-ऐसे ही वह बँधी रहती है। शतावर की जड़ के ऊपर पतली; किन्तु पीले रंग की छाल होती है। उसे निकाल देने पर भीतर का सफेद गूदा निकल जाता है। उस गूदे के बीच में एक कड़ी डंठी होती है / जड़ खाने पर मीठी मालूम होती है। इसकी जड़ नीले रंग की होती है / उसे छीलकर सुखाते हैं / इसे शतावर कहते हैं / यह छोटी और बड़ी दो प्रकार की होती है। किन्तु दोनों में कोई भेद नहीं होता / वर्षा के आरम्भ में यह हरी होती है और फूल आते हैं। गुण-शतावरी गुरुः शीता तिक्ता स्वाद्वी रसायनी / ___ मेधाग्निपुष्टिदा स्निग्धा नेत्र्या गुल्मातिसारजित् // शुक्रस्तन्यकरी बल्या वातपितास्त्रशोथजित् / -भा० प्र० सतावर-भारी, शीतल, तीती, स्वादिष्ट, रसायन, मेधा Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान कारक, अग्निवर्द्धक, चिकनी, नेत्रों को हितकारक तथा गुल्म और अतीसार नाशक; शुक्र, दुग्ध और बलकारक एवं वात, रक्तपित्त और शोथ नाशक है। .. गुण-महाशतावरी हृद्या मेध्या चाग्निप्रदीपनी / शुक्रला शीतवीर्या च बल्या वृष्या रसायनी // अस्सिंग्रहणीरोग नेत्ररोग विनाशिनी / गुणा ह्यस्यास्तु विज्ञेयाः पूर्वायाः सदृशागुणैः ॥–नि० र० बड़ी सतावर-हृदय को हितकारी, मेधाकारक, अग्निदीपक, शुक्रकारक, शीतवीर्य, बलकारक, वृष्य, रसायन तथा अर्श, संग्रहणी और नेत्ररोग नाशक है / शेष गुण उसके समान समझना चाहिए। गुण-शतावर्या ह्यंकुरस्तु तिक्तो वृष्यो लघुः स्मृतः / हृद्यस्त्रिदोषपित्तघ्नो वातरक्तार्शसां हरः // क्षयसंग्रहणीरोग नाशनस्तिक्तको लघुः।-नि० र० सतावर का अंकुर-तीता, वृष्य, हलका, हृद्य, त्रिदोषनाशक; वातरक्त, अर्श, क्षय और संग्रहणी रोग नाशक है। .. विशेष उपयोग (1) दूध बढ़ाने के लिए-सतावर को दूध के साथ पीसकर पीना चाहिए / गाय और भैंस को खिलाने से उनका भी दूध बढ़ता है। (2) दाह, पित्त और शूल-सतावर के काढ़े में दूध और शहद मिला कर पीने से नष्ट होते हैं। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतावर (3) शूल में सतावर के रस में शहद मिलाकर पीएँ / (4) कुत्ता का विष और पथरी में-सतावर का रस और गाय का दूध मिलाकर पीना चाहिए। (5) ज्वर-सतावर के रस में गाय का दूध और जीरा का चूर्ण मिलाकर पीने से नष्ट होता है। (6) पित्त प्रदर-सतावर के रस में शहद मिलाकर पीने से नष्ट होता है। (7) धातु-पुष्टि और वृद्धि के लिए दूध में एक तोला सतावर का चूर्ण और मिश्री मिलाकर पीना चाहिए। (8) अपस्मार में-एकतोला सतावर दूध के साथ पीएँ। (8) वातज्वर में-सतावर और गुरिच का रस पीएँ। (10) रक्तशुद्धि के लिए-सतावर के नीले भाग को लेकर उसका रेशा निकालकर और पीसकर बीस तोले में आठ सेर पानी डालकर पकाना चाहिए। एक सेर बाकी रहने पर केसर, जायफल, जावित्री, छोटी इलायची और लौंग छोड़कर रख लेना चाहिए। एक तोला से दो तोले तक दूध के साथ मिलाकर प्रतिदिन दो बार बयालिसं दिनों तक सेवन करना चाहिए। (11) रक्तातीसार-सतावर के रस में चीनी मिलाकर पीना चाहिए। अथवा सतावर का रस और घी एक साथ पकाकर पीना चाहिए। अथवा सतावर दूध के साथ पीसकर पीएँ। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनस्पति-विज्ञान (12) त्रिदोषज मूत्रकृच्छ पर-सतावर का काढ़ा, मिश्री और शहद मिलाकर पीना चाहिए। . (13) अम्लपित्त में-सतावर का घृत सेवन करें। .. (14) वातपित्त और रक्तपित्त में-सतावर पीसकर और पकाकर चौंसठ तोले दूध और घी मिलाकर सेवन करना चाहिए। (15) तृषा, मूर्छा, श्वास और संताप में-सतावर का घृत और सतावर का कल्क सेवन करना चाहिए। (16) प्रमेह-सतावर के रस में दूध मिलाकर पीएँ। . (17) चेचक में सतावर का काढ़ा पीना चाहिए / (18) सब प्रकार के प्रमेहों पर-सतावर और आँवला के रस में हल्दी का चूर्ण मिलाकर पीना चाहिए। (16) उन्माद में-संतावर का घृत सेवन करना चाहिए। (20) हिस्टीरिया रोग में सतावर का घृत दूध में मिलाकर पीना चाहिए। (21) वन्ध्यात्व-अधिक दिनों तक सतावर का घृत सेवन करने से दूर हो जाता है / Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं० दूर्वा, हि० दूब, ब० दूर्वा, म० दूर्वा, गु० थ्रो, क. हसुगरुके, ता० अरुमगम पुल्लु, तै० दूर्वालु , अँ० क्रीपिंग साइनोडन-Creeping Cynodon, और लै० साइनोडन डेकटिलन्-Cynodon Dactylon, ___ विशेष विवरण-दूब एक तृण-जाति का है। यह हरे रंग की अत्यन्त मनोहर होती है / इसमें यह एक विचित्र शक्ति है कि जब सब वनस्पतियाँ सूख जाती हैं, उस समय भी यह हरी रहती है / अकाल में पशुओं को यह जीवन दान देती है; क्योंकि उस समय सम्पूर्ण वृक्ष सूख जाते हैं; किन्तु इसकी जड़ हरी-ही रहती है। अकाल के समय इसकी जड़ पशुओं के खाने के काम आती है। गणपति पूजन के लिए तो इसकी नितान्त आवश्यकता है / यह कई प्रकार की होती है। हरी दूब मैदानों और जंगलों में बहुतायत से पाई जाती है। यों तो जमीन पर लता-जैसी सब जगह फैली दीख पड़ती है / इसकी गाँठ जमीन में पड़ जाने मात्र से पुनः उसकी जड़ जमने लगती है / इसे दूब का नाल कहते हैं। यह ऊपर नहीं उठती; बल्कि जमीन ही पर छत्ते-सी फैलती है / पत्ते नालों पर छोटे-छोटे और लम्बे-लम्बे होते हैं। इसकी नाल सब जगह फैलती चली जाती है। यह सब जगह सरलता से पाई जाती है। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान हरी दूब की तरह सफेद दूब का भी छत्ता पाया जाता है / यह प्रायः एकदम सफेद होती है / परन्तु सम्पूर्ण आकृति और ढंग हरी की तरह ही होता है। गाडर एक प्रकार की घास होती है। इसके क्षुप दो-तीन फिट ऊँचे होते हैं / जलाशय के समीपवर्ती स्थानों में यह बहुतायत से होती है / इसके तृण काँस के समान लम्बे-लम्बे होते हैं। यह छप्पर आदि के काम में आती है / इसी की जड़ को खस कहते हैं। गुण-दूर्वा कषाया मधुरा च शीता पित्तं तृषारोचक वान्ति हन्त्री / सदाहमूर्छाग्रहभूतशान्ति श्लेष्मश्रमध्वंसन तृप्तिदाच॥ रा०नि० दब-कषैली, मधुर तथा शीतपित्त, तृषा, अरुचि, वमन, दाह, मूर्छा, ग्रहवाधा, भूतवाधा, कफ और श्रम नाशक; एवं तृप्तिदायक है। गुण-दूर्वा तु रक्तपित्तनी कण्डूत्त्वग्दोषनाशिनी-रा० व० नीली दूब-रक्तपित्त, खुजली और त्वचा दोष नाशक है / गुण-श्वेता तु दूर्वा मधुरा रुच्या न तुवरा मता / तिक्तातिशीतला वान्तिविसर्पतृट्कफापहा // पित्तदाहामातिसृतिरक्तपित्तहरी मता / कासं च नाशयत्येवं पूर्ववैद्यैर्निरूपिता // - रा० नि० सफेद दूब-मधुर, रुचिकारक, कषैली, तीती, शीतल तथा वमन, विसर्प, तृषा, कफ, पित्त, दाह, आमातीसार रक्तपित्त और कास नाशक है। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुण-गंडदूर्वा तु मधुरा वातपित्तज्वरापहा / शिशिरा द्वन्द्वदोषघ्नी भ्रमतृष्णाश्रमापहा ॥-रा० नि० गंडदा-मधुर, शीतल तथा वात, पित्त, ज्वर, द्वन्द्वदोष, भ्रम, तृष्णा और श्रमनाशक है। विशेष उपयोग (1) नकसीर में-दूब के रस की नास लेना चाहिए। (2) हिचकी में-एक तोला दूब की जड़ का रस और एक माशा शहद मिलाकर पीना चाहिए। (3) मासिकधर्म के लिए-सफेद दूब के रस में अनार की कली पीसकर और छानकर कॉजी में मिलाकर सात दिनों तक पीना चाहिए। . . (4) शिरोरोग में-दूब के रस में चावल पीसकर लेप करना चाहिए। (5) वमन में-दूब के रस में चावल पीस-छानकर और मिश्री मिलाकर पीना चाहिए। ___(6) ज्वर में-दूब की जड़ कच्चे सूत में बाँधकर हाथ में बाँधना चाहिए। . (7) होनेवाले फोड़े पर-दूब का रस और दारुहल्दी की छाल का रस तेल के साथ पकाकर धीरे-धीरे मलना चाहिए / (8) रक्तप्रदर में-सफेद दूब, अनार की कली, खून खराबा और मिश्री दूध के साथ पीस-छानकर पीना चाहिए। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 74. (8) हाथ, पैर एवं सिर की दाह---सफेद दूब पीस कर लगाने से शान्त होती है। कचनार स० काञ्चनार, हि० कचनार, ब० कांचन, म० कोरल, गु० चम्पाकाटी, क० कोचाले कचनार, तै० देवकाञ्चन, और लै० qeliz afegitei---Banheria Vasiagata. विशेष विवरण-इसका पेड़ भारतवर्ष में प्रायः सर्वत्र होता है / यह लता के रूप में भी होता है / यह वृक्ष अपनी कली के लिए प्रसिद्ध है / इसके कली की तरकारी तथा आचार बनाया जाता है / इसके फूलों में मीठी गन्ध होती है / फूलों के गिर जाने पर लम्बी-लम्बी फलियाँ लगती हैं। लाल, सफेद तथा पीले रंगभेद से यह तीन प्रकार की होती हैं / इसकी लकड़ी का रंग लाल होता है, और इससे रंग बनाने का काम लिया जाता है। लाल फूल वाले को ही कांचनार कहते हैं। कचनार की जाति के बहुत पेड़ होते हैं / एक प्रकार का कचनार कुराल या कंदला कहा जाता है। इसकी कोंद 'सेम की गोंद' या 'सेमलागोंद' के नाम से प्राप्त होती है / यह कतीरे के भाँति होती है। परन्तु पानी में नहीं घुलती। एक प्रकार का कचनार वनराज कहा जाता है / इसके छाल के रेशों की रस्सी बनती है। सफेद फूलवाला कचनार Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M जंगलों और पहाड़ों में अधिकता से पाया जाता है। पीले कचनार में जेठ-आषाढ़ के महीने में पत्ते पाते हैं। यह पीले फूलवाली शाक-भाजी के काम आती है। गुण-काञ्चनारो हिमो ग्राही तुवरः श्लेष्मपित्तनुत् / कृमिकुष्ठगुदभ्रंश गंडमालावणापहः ॥-भा० प्र० कचनार--शीतल, ग्राही, कषैला तथा कफ, पित्त, कृमि, कुष्ठ, गुदभ्रंश, गंडमाला और व्रणनाशक है / गुण-श्वेतस्तु काञ्चनो ग्राही तुवरो मधुरः स्मृतः / रुच्यो रूक्षः श्वासकासपित्तरक्तविकारहा // क्षतप्रदरनुत्प्रोक्तो गुणाश्चान्ये तु रक्तवत् / -शा० नि० सफेद कचनार-ग्राही, कषैला, मधुर, रुचिकारक, रुखा तथा श्वास, कास, पित्त, रक्तविकार, क्षत और प्रदरनाशक है / अन्य गुण लाल कचनार के समान ही कहे गए हैं / गुण-पीतस्तु काञ्चनो ग्राही दीपनो व्रणरोपणः / ____ तुवरो मूत्रकृच्छ्रस्य कफवाय्वोश्च नाशनः ॥–शा० नि० विशेष उपयोग (1) गण्डमाला पर--कचनार की छाल चावल के धोअन के साथ पीसकर दो से चार तोले तक सेवन करनी चाहिए / अथवा कचनार के काढ़े में सोंठ का चूर्ण मिलाकर बयालिस दिनों तक सेवन करना चाहिए। (2) नहरुआ पर-कचनार की छाल पीसकर लेप करें। (3) दाह पर-कचनार की छाल के रस में जीरा का चूर्ण और कपूर मिलाकर पीना चाहिए / Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान (4) गण्डमाला फोड़ने के लिए-कचनार की जड़, चित्रक तथा अडूसा--पानी के साथ पीसकर सात दिनों तक लेप करना चाहिए। (5) अरुचि--कचनार की कली घी में भूनकर खाने से नष्ट होती है। (6) अतीसार-कचनार की कली और कच्चा केला का शाक एक साथ बनाकर खाना चाहिए। . (7) कफज गण्डमाला पर-कचनार की छाल का लेप करना चाहिए। सहिजन सं० शोभाजन, हि० सहिजन, ब० सजिने, म० शेवगा, गु० शरगवो, क० विलिपतुग्गि, ता. मोरंग, तै० मुलंगा, अँ० होर्स रेडिश-Horse Redish, और लै० मोरिंगा टेरिगोस्परमाMoringa Pterygosperma. विशेष विवरण--सहिजन का पेड़ बहुत बड़ा होता है / किन्तु इसकी लकड़ी मकान बनाने के काम नहीं आती। इसका पत्ता पतला और गुलतुर्रा के पत्ते के समान होता है / इसका फूल गोल, सफेद रंग का और गुच्छेदार होता है / इसका फल, लम्बा और तीन धारवाला होता है। इसका बीज सफेद और तिकोना Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 77 सहिजन होता है / इसके पेड़ वाग, वन और जंगलों में होते हैं / फूलों के भेद से यह तीन प्रकार का होता है। फूल के सफेद, लाल और नीले रंग भेद से यह तीन प्रकार का होता है / सबों में सफेद फूल वाला अधिकता से पाया जाता है / इसके कोमल पत्ते, फल और फल का शाक बनाया जाता है / यह औषध के काम आता है। इसका तेल भी होता है। गुण - शोभाञ्जस्तीक्ष्णनकटुः स्वादूष्णः पिच्छिलस्तथा / जन्तुवतार्तिशूलनश्चक्षुष्णो रोचनः परः॥-रा० नि० सहिजन-तीक्ष्ण, कटु, स्वादिष्ट, उष्ण, चिकना, नेत्रों को हितकारी, रुचिकारक एवं कृमि, वात की पीड़ा और शूल नाशक है। गुण-श्वेतः प्रोक्तगुणो ज्ञेयो विशेषाद्दाहकृद्भवेत् / प्लीहानं विद्रधिं हन्ति व्रणनो पित्तरक्तकृत् ॥-भा० प्र० सफेद सहिजन-के गुण भी कहे हुए सहिजन के समान ही हैं; किन्तु यह विशेष करके दाह कारक, रक्तपित्त कारक और प्लीह, विद्रधि और व्रण नाशक है। गुण-रक्तशिग्रुर्महावीर्यो मधुरश्च रसायनः / - शोथं वातं च पिवं च आध्मानं च कर्फ जयेत् ॥–शा० नि० लाल सहिजन-महावीर्य वाला, मधुर, रसायन तथा शोथ, वात, पित्त, आध्मान और कफनाशक है / - गुण-चक्षुष्यं शिग्रुवीजं च तीक्ष्णोष्णं विषनाशनम् / अवृष्यं कफवातनं तन्नस्येन शिरोतिनुत् ॥–शा० नि० Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति विज्ञान सहिजन का बीज-नेत्रों को हितकारक, तीक्ष्ण, उष्ण और विषनाशक एवं अवृष्य तथा कफ-वात नाशक है। इसके नस्य से सिर-दर्द भी नष्ट होता है। गुण-शिग्रोः पुष्यं तु कटुकं तीक्ष्णोष्णं सायुशोथनुत् / कृमिकृत्कफवातन्त्र विद्रधिप्लीहगुल्मजित् ॥–शा० नि० सहिजन का फूल-कड़वा, तीक्ष्ण, उष्ण, कृमिकारक तथा स्नायुशोथ, कफ, वात, विद्रधि, प्लीह और गुल्म नाशक है / गुण-शोभाजनफलं स्वादु कषायं कर्फपित्तनुत् / शूलकुष्टक्षयश्वासगुल्महृद्दीपनं परम् ॥-शा० नि० सहिजन का फल-स्वादिष्ट, कषैला, परमदीपक तथा कफ पित्त, शूल, कुष्ठ, क्षय, श्वास और गुल्म नाशक है / गुण-शिग्रुशाकं हिमं स्वादु चक्षुष्यं वातपित्तहृत् / वृंहणं शुक्रकृस्निग्धं रुच्यं मदकृमिप्रणुत् ॥–शा. नि. सहिजन का शाक-शीतल, स्वादिष्ट, नेत्रों को हितकारी, बृंहण, शुक्रकारक, रुचिकारक, स्निग्ध तथा वात, पित्त, मद और कृमिनाशक है। विशेष उपोग (1) सिर-दर्द पर-सहिजन का बीज पानी के साथ घिसकर नास लेना चाहिए। (2) नेत्ररोग-सहिजन के पत्ते के रस में शहद मिलाकर अंजन करने से तिमिरादिक सभी रोग नष्ट होते हैं। (3) सर्पविष पर-सहिजन की छाल, कड़वी तरोई Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहिजन और रीठा पीसकर रस निकालकर कालीजीरी का चूर्ण मिलाकर पीना चाहिए। (4) हिचकी में—सहिजन की छाल का काढ़ा पीएँ। (5) कानों का बहना—सहिजन के सूखे फूलों का चूर्ण छोड़ने से बन्द होता है। (6) मल-मूत्र की कमी-सहिजन के पत्तों के एक पाव रस में एक तोला सेंधा नमक मिलाकर पीने से दूर होती है। (7) गण्डमाला पर-सहिजन का दूध, सफेद गुलबाँस की जड़ और कालीमिर्च पानी में पीसकर लेप करना चाहिए। (8) नहरुया पर-सहिजन की छाल अथवा जड़ पीसकर लेप करना चाहिए। (8) वायु में-सहिजन की छाल का रस दो तोले, आदी का रस एक तोला, शहद छः माशे एक में मिलाकर सात दिनों तक सेवन करना चाहिए। (10) मुंह के छाले-सहिजन की पत्ती चबाकर रस चूसने से नष्ट होते हैं। (11) शीघ्र प्रसव के लिए-सहिजन की जड़ का रस और पानी एक में पकाकर पैर के तलुओं पर मलना चाहिए। (12) बालकों का पेट बढ़ जाने पर-जंगली सहिजन की छाल का रस और घी समभाग चम्मच भर तीन दिनों तक पिलाना चाहिए। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान (13) संखिया का विष—दो तोले सहिजन की छाल का रस आध सेर दूध के साथ मिलाकर पीना चाहिए / (14) प्लीहा में—सहिजन की छाल के काढ़े में छोटी पीपर या काली मिर्च का चूर्ण मिलाकर पीना चाहिए। - (15) कमर की पीड़ा पर-सहिजन की छाल पीस और गरम करके बाँधना चाहिए। (16) सब प्रकार के वायु पर-जंगली सहिजन का रस पीना और छाल की पट्टी बाँधनी चाहिए / (17) आँख आने पर-सहिजन की पत्ती के रस में / शहद मिलाकर पीना चाहिए। (18) अन्तर्विद्रधि में-सहिजन के काढ़े में भूनी हुई हींग का चूर्ण मिलाकर पीना चाहिए / (16) लँगड़ेपन पर-सहिजन की पत्ती का रस लेप करें। (20) विषमज्वर में-काले सहिजन का चूर्ण जल के साथ सेवन करना चाहिए। (21) पथरी में-सहिजन की जड़ का काढ़ा पीएँ। (22 ) सिर-दर्द पर-सहिजन की पत्ती और काली मिर्च पीस कर लेप करना चाहिए। (23) फोड़ों पर-सहिजन की छाल पीसकर लेप करें। ( 24 ) कफजन्य सिर-दर्द पर-सहिजन का बीज पानी के साथ घिसकर नास लेना चाहिए। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भंगरैया (25) असेह में-सहिजन का फल और मूंग की दाल एक में पकाकर खाना चाहिए। (26) बवासीर में-सहिजन की पत्ती का रस पीएँ। (27 ) वातगुल्म में सहिजन की पत्ती के रस में एक तोला मिश्री मिलाकर पीना चाहिए / भंगरैया सं० गराज, हि० भंगरैया, ब० भीमराज, म० माका, गु० भांगरो, क० गरुगमुरु, तै० मुंगराजपुचेटु, अ० हजीज, फा० जमर्दर, अॅ० ट्रेलिंगइक्लिप्टा-Traling Eclipta, और लै० इक्लिप्टा प्रोस्ट्रेटा-Eclipta Prostrata. विशेष विवरण-इसका क्षुप प्रायः गीली भूमि में होता है। पत्ते खरखरे, लम्बे; किन्तु पतले होते हैं। इसकी पत्ती का रस काला होता है / सफेद, पीले और काले फूलों के रंग-भेद से से यह तीन प्रकार की होती है / यह प्रायः खेतों और सीड़ वाली जमीनों पर एक या दो वित्ता लम्बी होती है / कोंकण देश में श्राद्ध पक्ष में इसका रायता बनाते हैं / काले फूलों वाली भंगरैया बहुत कम दीख पड़ती है / यह औषध के काम में विशेष रूप से आती है। 'गुण-शृंगराजस्तु चक्षुष्यस्तिक्तोष्णः केशरंजनः / ___ कफशोफविषनश्च तत्रनीलो रसायनः ॥-रा०नि० Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान भंगरैया नेत्रों को हितकारी, तिक्त, उष्ण, केशरंजक तथा कफ, शोथ और विषनाशक है / नीली भंगरैया रसायन है। विशेष उपयोग (1) उपदंश के घाव की शुद्धि के लिए-भंगरैया के रस से घाव धोना चाहिए। आधाशीशी (२)-भंगरैया का रस और बकरी के दूध को समान भाग मिलाकर नास लेने से नष्ट होती है। (3) बालकों की सरदी में-किसी-किसी बालक को पैदा होते ही कंठ में कफ का विशेष आक्रमण होने से घर-घर स्वर निकलता है। ऐसे समय में दो बूंद भंगरैया का रस और आठ बूंद शहद एक साथ मिलाकर उसके तलुओं में लगाना चाहिए। इससे कफ बाहर निकल जाता है, और बालक में चेतनता आ जाती है / (4) बालक का पेट फूलने पर-भंगरैया का रस और घी मिलाकर तीन दिनों तक पिलाना चाहिए। (5) हैजा में-भंगरैया के रस में सेंधानमक मिलाकर पिलाना चाहिए। (6) आग से जले घाव के सफेद दागों पर-भंगरैया और काली तुलसी का रस मिलाकर लगाना चाहिए। ऐसा करने से वह चमड़ा भी शरीर के रंग का हो जाता है / अन्यथा उस जगह सफेद दाग पड़ जाते हैं। (7) मेदरोग में प्रति दिन रात या दिन में सोते समय Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुंडी भंगरैया का रस शरीर में लेप कर लेना चाहिए / नियमित रूप से छःमास तक ऐसा करने से अतिशय बढ़ा हुआ मेद नष्ट हो जाता है। (8) मुंह के छालों पर-भंगरैया का पत्ता सुरती की भाँति मुँह में रखकर कूचना और थूकना चाहिए। (8) अग्निमांद्य और पाण्डुरोग में मंगरैया का पंचांग छाया में सुखाकर तब उसका चूर्ण बनाया जाय और समभाग मिश्री मिलाकर चार तोला प्रति दिन सेवन किया जाय / (10) स्वरभंग में-भंगरैया का रस और घीगरम कर पीएँ। (11) बालों को काला करने के लिए-महाशृंगराज तैल लगाना चाहिए। मुंडी सं० मुंडी, हि० मुंडी, ब० मुंडिरी, म० बरसवोडी, गु० मुंडी, क० बोडतर, ता० कोट्टक, तै० वोडसर पुचेटु, अ० कमादरयुस, और लै० स्फिरेंथस इंडिकस-Sphoeranthus Indicus. विशेष विवरण-यह तृण के समान फूस - जाति की एक वनस्पति है। फल गोल-गोल धुंडी के सदृश होते हैं / यह छोटी और बड़ी-दो जाति की होती है। छोटी जाति वाली का पेड़ प्रायः एक वित्ता लम्बा होता है, और बड़ी का पेड़ लगभग एक हाथ ऊँचा होता है। यह लता के समान घना फैलता है। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान इसके पत्ते पतले; किन्तु लम्बे होते हैं / इसके पेड़ की गन्ध बड़ी उप होती है। यह मटियारी भूमि में विशेष होती है। गुण-मुंडी तिक्ता कटुम्पाके वीर्योष्णा मधुरा लघुः। मेध्या गंडापचीकृच्छ्कृमिपित्तार्तिपांडुनुत् // श्लीपदारुच्यपस्मारप्लीहमेदोगुदातिनुत् ।-शा० नि० मुंडी-तीती, कड़वी, उष्णवीर्य, मधुर, हलकी, मेधाकारक तथागंडमाला, अपची, मूत्रकृच्छ, कृमि, पांडुरोग, पित्तविकार, श्लीपद,अरुचि, अपस्मार, प्लीह, मेद और गुदा की पीड़ा का नाश करती है। गुण-महामुंडी तु मधुरा तिक्ता चोष्णा रसायनी / रुच्या स्वर्या प्रमेहती वातनाशकरी मता // अन्ये गुणास्तु मुंडीवज्ज्ञेया वैद्यश्च सूरिभिः।-नि० र० बड़ी मुंडी-मधुर, तीती, उष्ण, रसायन, रुच्य, स्वर्य, प्रमेहनाशक और वातनाशक है; तथा अन्य गुण छोटी मुंडी के समान ही समझना चाहिए। विशेष उपयोग (1) कामल रोग में-मुंडी का रस निकाल कर पीना चाहिए। (2) गंडमाला में-गोरखमुंडी के रस में उसकी जड़ घिसकर लेप करना चाहिए। (3) वायु रोग में-मुंडी का रसगरम करके तथा मिश्री मिलाकर पीना चाहिए। (4) सन्धिवात में-मुंडी का फूल पीसकर लगाएँ। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आक (5) त्रिदोषज गुल्म में-मुंडी का रस पीना चाहिए। (6) रक्तविकार में गोरखमुंडी के अर्क अथवा रस में शहद मिलाकर पीना चाहिए। (7) उष्णवात में-गोरखमुंडी के रस में मिश्री मिलाकर पीना चाहिए। प्राक सं० मंदार, हि० आक, ब० श्राकंद, म० पांढरी रुई, गु० आकडो, क० मंदार पक्के, तै० नीलजिल्ले डेघोली, अ० उषर, फा० खुर्क, अँ० जाइजैटिक स्वैलो. वर्ट-Gigantic Swallow wort, और लै० कैलोट्रोपिस जाइअँटिका-Calotropis Gigantica. विशेष विवरण-इसका वृक्ष सर्वत्र पाया जाता है ; किन्तु जंगलों में यह विशेष होता है / इसके पत्ते बड़ के पत्ते के समान बड़े और मोटे होते हैं। फल के पक जाने पर भीतर से कोमल रेशा निकलता है। यह रेशा काम में आता है / इसकी लकड़ी का कोयला हल्का होता है; और शराब बनाने के काम आता है / इसकी लकड़ी रुखी और निस्सत्व होती है इसका फल तोता की टोंट के समान होता है / इसके पत्ते कोमल होते हैं। कुछ समय पहले लोग कागज के अभाव में इस पर लिखा करते थे। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान मदार यकृत और फेफड़े के लिए हानिकारक है; और इसके विकार को शान्त करने वाला घी है। इसका दूध एक प्रकार का उपविष माना जाता है। गुण-अर्कः कृमिहरस्तीक्ष्णः सरोशः ककनाशनः। .. तत्पुष्पं कृमिदोषनं हन्ति शूलोदराणि च // -0 नि० आक-कृमिनाशक, तीक्ष्ण, सारक तथा अर्श और कफ नाशक है। आक का फूल-कृमिदोष तथाशूल और उदररोग हारक है। गुण-रक्तार्कपुष्पं मधुरं सतिक्तं कुष्ठकृमिघ्नं कफनाशनं च / आखोर्विषं हन्ति च रक्तपित्तं संग्राहि गुल्मे श्वयथौ हितं तत् ॥–शा० नि० लाल आक का फूल-मीठा, किंचित् तीता तथा कुष्ठ, कृमि, कफ, मूषक का विष, रक्तपित्त, गुल्म और शोथ नाशक है / गुण-अर्कमूलत्वचा स्वेदकरी श्वासनिबर्हणी। ___ उष्णा च वामिका चैव ह्युपदंश विनाशिनी ॥–शा० नि० आक के जड़ की छाल-पसीना लाने वाली तथा श्वास नाशक ; गरम; वमन कारक एवं उपदंश नाशक है / गुण-क्षीरमर्कस्य तिक्तोष्णं स्निग्धं सलवणं लघु / ___ कुष्ठगुल्मोदरहरं श्रेष्ठमेतद्विरेचनम् ॥-भा० प्र० आक का दूध-तीता, उष्ण, चिकना, नमकीन, हलका तथा कुष्ठ, गुल्म और उदर रोग नाशक है। इसका विरेचन श्रेष्ठवम कहा गया है। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाक विशेष उपयोग (1) वातज शरीर पीड़ा पर-आक के पते से सेंक करनी चाहिए। (2) कामला पर-आक की जड़ पानी में घिसकर नाक में डालना चाहिए। (3) सिर-दर्द में-आक का सूखा पत्ता सिर पर बाँधे / (4) आधाशीशी में-आक की जड़ का धुंवा सूंघे / (5) विष-आक की जड़ ठण्डे पानी के साथ पीसकर पिलाने से नष्ट होता है। अथवा आक के छः या सात कोमल पत्तों का रस घी मिलाकर पिलाना चाहिए। (6) कर्णशूल में-आक के कड़े पत्तों में घी लगाकर सेंक लिया जाय ; बाद उसका रस निकाल कर छोड़ा जाय / ___(7) गण्डमाला पर-आक के दूध में कुलिंजन घिसकर लगाना चाहिए। (8) बिच्छू का विष-आक की जड़ पानी में घिसकर लगाने से नष्ट होता है। ___(8) सर्प-विष-आक का पत्ता आक के दूध के साथ पीसकर उसकी गोली छोटीसुपारी बराबर एक-एक घंटे में खिलाई जाय; अथवा पाक की जड़ पीसकर पिलाने से नष्ट हो जाता है। (10) शीघ्र प्रसव के लिए-आक की जड़ आक के दूध के साथ पीसकर योनिद्वार पर लगाना चाहिए। किन्तु प्रसव हो जाने पर तुरत साफ कर देना चाहिए / Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * वनस्पति-विज्ञान (11) रक्तगुल्म में-आक का फूल तेल में तलकर खिलाना चाहिए इससे रक्तस्राव होकर वह नष्ट हो जाता है / (12) वायु की गांठ पर-आक का दूध लेप करके उस पर सरसों का पुल्टिस बाँधा जाय और उसपर आक का पत्ता सेंक कर रख के कपड़े से बाँध दिया जाय / (13) प्लीह में--आक का पत्ता और सेंधा नमक एक साथ समान भाग फूंक दिया जाय, और दो माशे प्रति दिन मठू के साथ सेवन किया जाय। .. (14) पसीना लाने के लिए-आक की छाल गरम पानी के साथ पीसकर पीना चाहिए। (15) दस्त के लिए-पाक का दूध पीना चाहिए। (16) उदर शूल में-पाक का फूल, काली मिर्च, सोंठ, सेंधानमक, कालानमक समान भाग पीस कर गोली बनाकर प्रति दिन एक-एक गोली दोनों समय खाने से बड़ा लाभ होता है। (17) अंडवृद्धि पर-आक की छाल-छाछ के साथ घिसकर लेप करना चाहिए। (18) घाव बड़ा करने के लिए-आक के दूध से रुई तर करके रखना चाहिए। (16) विरेचन के लिए-पाक का दूध सुखा कर गरम पानी के साथ लेना चाहिए। (20) अरुचि में-आक का फूल घी में भून कर खाएँ। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थूहर (21) सूखा रोग में-आक के कोमल पत्तों को सेंककर और रस निकाल कर समूचे शरीर में लेप करना तथा सुंघाना चाहिए। रविवार और मंगलवार को इसके प्रयोग से बालकों का सूखा रोग नष्ट हो जाता है / थूहर ___ सं० स्नुही, हि० थूहर, सेंहुड़, ब० मनसागाछ, म० निव. डुंग, तै० चेमुडु, अ० जकुम, फा० लादनाम् , अँ० मिल्कहेज प्रिक्ली पीयर-Milkhedge Prickiy Pear, और लै० यूफोर्बिया ट्रिकला-Suphorbia Tircall. विशेष विवरण-यह प्रायः सर्वत्र मिलता है। इसकी डंठी काँटेदार और मोटी होती है / इसमें चावल की भाँति लम्बेलम्बे कॉटे होते हैं / इसका पत्ता प्रायः दो अँगुल चौड़ा होता है। यह पाँच फिट से लेकर दस फिट तक लम्बा होता है / इसकी प्रत्येक शाखा और पत्ते में से प्रचुर दूध निकलता है। इस दूध में अनेक रासायनिक पदार्थ होते हैं। यह कई जाति का होता है / जैसे–काँटेवाला, त्रिधारा, चौधारा, नागफनी, खुरासानी और विलायती आदि / खुरासानी थूहर का दूध विषाक्त होता है / इससे दस्त-कै होती एवं दाह बढ़कर मृत्यु तक हो जाती है। किन्तु सन्धिवात में इसका लेप करने से सद्यः फल होता है। थूहर यकृत के लिए लाभदायक है। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान नागफनी का पत्ता हाथ की हथेली से बड़ा और एक-पर-एक निकलता है; और प्रत्येक अंग में इसके कॉटा होता है। इसका काँटा दो अँगुल लम्बा और अधिक तेज होता है। इसके काँटे से बड़ा घाव हो जाता है। इसके ऊपर लाल रंग का फल निकलता है। इसे लोग मीठा होने के कारण खाते हैं / इसके फल का रस गारकर लिखने से लाल स्याही के लिखे-जैसा मालूम पड़ता है। इसका पत्ता जहाँ कहीं गाँड़ दिया जाय, वही यह जड़ पकड़ कर फैलने लग जाता है। इसके आस-पास सर्प विशेष रूप से निवास करते हैं। गुण-स्नुहिरुष्णः पित्तदाहकुष्ठवातप्रमेहनुन् / क्षीरं वातविषाध्मानगुल्मोदरहरं परम् ॥-रा० नि० थूहर-उष्ण एवं पित्त, दाह, कुष्ठ, वात और प्रमेह नाशक है। थूहर का दूध-वात, विष, आध्मान, गुल्म और उदर रोग नाशक है। गुण-सेहुण्डस्य दलं तीक्ष्णं दीपनं रोचनं भवेत् / ___आध्मानाष्ठीलिकागुल्ममूलशोथोदराणि च ॥-शा० नि० थूहर का पत्ता-तीक्ष्ण, दीपक, रोचक तथा आध्मान, अष्ठीला, गुल्म, शोथ और उदर रोग नाशक है। विशेष उपयोग (1) आग से जलने पर-थूहर का दूध जले हुए स्थान पर लगाने से आवले नहीं पड़ते / Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थूहर (2) भ्रमर-विष-थूहर और छोटी पीपर पीसकर लेप करने से नष्ट होता है। (3) नाडीव्रण में थूहर का दूध और सेंधानमक घोटकर छोड़ना चाहिए। (4) संधिवात पर-त्रिधारा का दूध नीम के तेल के साथ मिलाकर लेप करना चाहिए। (5) शोथ और गाँठ पर-त्रिधारा थूहर के दूध का लेप करना चहिए। (6) दस्त के लिए-त्रिधारा थूहर के दूध से बाजरे के आटा को सानकर सुखा लिया जाय और एक माशा गरम पानी के साथ खाया जाय।। . (7) उपदंश के रोगी को दस्त लाने के लिए-थूहर के दूध से भुने हुए चने की दाल पीसकर झरबैरी प्रमाण गोली गरम पानी के साथ खानी चाहिए। . (8) फोड़ा फोड़ने के लिए-चौधारा थूहर का पत्ता सेंक कर बाँधना चाहिए। (8) बालकों की श्वास में-चौधारा थूहर का पत्ता सेंक कर और उसका रस निकाल कर पिलाना चाहिए। (10) बद. या फोड़े पर-नागफनी छीलकर उसमें हल्दी लगाकर तथा पकाकर बाँधना चाहिए। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान ___92 (11) खाँसी में-थूहर जलाकर उसकी राख पान के वीड़े में रखकर खानी चाहिए / धतूरा सं० कनक, हि० धतूरा, ब० धुतुरा, म० धोतरा, गु० धंतुरो, क० मदकुणिके, ता० उमतताई, तै० उम्मेतचेटु, अ० जोजमासील जोजनसी तातूरा, अँ. थोर्न एप्पल स्ट्रामोनियं-Thorm Apple Stramonium,और लै० डी० फेस्टुओसा-D. Fastuosa. विशेष विवरण-इसकी झाड़ दो हाथ के लगभग ऊँची होती है / फूलों के भेद से काला, नीला, पीला, सफेद और लाल पाँच प्रकार का होता है। यह प्रायः जंगलों में पाया जाता है / काले और सुनहले फूलों का धतूरा बगीचों में होता है / पत्ते मझोले और फूल घंटी के आकार के होते हैं / फूल का रंग बीच में सफेद तथा ऊपर जो जिस जाति का होता है, उसका वही रंग पाया जाता है / फल गोल काँटेदार और हरे रंग का होता है। इसके भीतर बहुत बीज होते हैं। जिस धतूरे का सर्वाग अत्यधिक काला होता है / वह अधिक विषाक्त होता है / किन्तु उसका गुण अधिक है / फल सूखने पर कड़ा हो जाता है / इसके बीज में विष अधिक होता है / इन बीजों के खाने से मृत्यु तक हो सकती है। स्तम्भन आदि की औषधियों में यह विशेष काम आता है। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धतूरा गुण-धत्तरः कटुरुष्णश्च कांतिकारी व्रणार्तिनुत् / / त्वक दोषखर्जूकण्डूतिज्वरहारी भ्रमप्रदः ॥-रा०नि० धतूरा-कड़वा, गरम, कान्तिकारक तथा व्रण, त्वचादोष, खुजली, कण्डू और ज्वर नाशक एवं भ्रम कारक है / गुण-सितनी लकृष्णलोहितपीतप्रसवाश्च सन्ति धत्तूराः / ___सामान्यगुणोपेतास्तेषु गुणाढ्यस्तु कृष्णकुसुमः स्यात् ॥-शा०नि० धतूरा-सफेद, नीला, काला, लाल और पीला-सभी प्रकार का सामान्य गुणों वाला होता है; किन्तु काले फलवाला अधिक गुणदायक होता है। . विशेष उपयोग (1) विच्छू का विष-धतूरा के पत्ते का रस काटे हुए स्थान पर लगाना चाहिए। (2) उन्माद में-धरे का चार बीज घी के साथ पीस कर पिलाना चाहिए। (3) सब प्रकार के योनि शुल पर-काले धतूरे का पत्ता पीसकर सेंधानमक और घी मिला कर उसकी पोटली योनि में रखनी चाहिए। (4) अर्धागवायु में-धतूरा के बीज का तेल लगाएँ / (5) विषमज्वर में-धतूरा का रस तीन माशे से चार वोले तक दही के साथ ज्वर आने से एक घण्टा पूर्व पीएँ / . (6) कफ प्रमेह में-धतूरा का चार बीज धारोष्ण दूध के साथ सेवन करना चाहिए। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान (7) खाँसी में काले धतूरा के पंचाग का धुवाँ सूघना चाहिए। गूलर स० उदुम्बर, हि० गूलर, ब० यज्ञडमु, म० उम्बरो, क० / अत्ति, तै० वाडु चेटु, फा० अंजीरे आदम, अ० जमीझ, अँ. कुष्टर फिग-Cluster Fig, और लै० फाइकस ग्लोमिरेटा --Ficus Glomerata. विशेष विवरण-इसका पेड़ बड़-पीपर की भाँति बड़ा होता है / इसकी डाल और पेड़ी से एक प्रकार का दूध निकलता है। इसके पत्ते महुआ के पत्ते-जैसे होते हैं। पेड़ी और जड़ की छाल ऊपर सफेदी और भीतर ललाई लिए होती है / अश्वत्थ वर्ग के और वृक्षों के समान इसके सूक्ष्म फूल भी अन्तर्मुख, अर्थात् एक कोश के भीतर बन्द रहते हैं। पुरुष-पुष्प और स्त्री-पुष्प के कोश अलग-अलग होते हैं / गर्भाधान कीड़ों की सहायता से होता है। पुरुष-केसर की वृद्धि के साथ-साथ एक प्रकार के कीड़ों की उत्पत्ति होती है। जो पुरुष-पराग को गर्भ-केसर में ले जाते हैं। यह नहीं जाना जाता कि ये कीड़े किस प्रकार पराग ले जाते हैं। परन्तु यह निश्चय है कि वे ले अवश्य जाते हैं / उसी से गर्भाधान होता है, तथा कोश बढ़कर फल के रूप में हो जाता है / यह एक Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दम कोमल होता है / इसके ऊपर कड़ा छिलका नहीं होता। किंतु एक पतली झिल्ली होती है / गूलर का फल तोड़ने से उसके भीतर परिपक्क गर्भ-केसर और सूक्ष्म बीज दीख पड़ते हैं, तथा भुनगे या कीड़े भी मिलते हैं। गूलर का फूल कभी दीख नहीं पड़ता। यह गोल-गोल अंजीर की आकृति का होता है / गूलर पकने पर खाई जाती है। कच्चे का शाक बनाकर खाया जाता है। फिर भी यह कम ही खाया जाता है। अधिक तर यह औषध के काम आता है। इसके पेड़ की छाया शीतल और सुखद होती है / ____जहाँ पर गूलर का पेड़ होता है, उसके दाहिने अथवा पेड़ के नीचे पानी का झरना अथवा स्रोत होता है / प्रायः लोग गूलर के पेड़ के नीचे या उसके पास कुआँ खोदवाते हैं। गूलर के पेड़ के नीचे का जल अत्यन्त स्वास्थ्यप्रद होता है / गूलर आमाशय के लिए हानिप्रद एवं ज्वर कारक है / इसके फलों में असंख्य कीड़े रहते हैं। इसलिए उन जानवरों को निकाल कर खाना चाहिए / किन्तु अपने को बुद्धिमान समझने वाले लोग कीड़े समेत ही समूचा गूलर खा जाते हैं / इससे स्वास्थ्य की बड़ी हानि होती है / गुण-उदुम्बरः शीतलः स्याद्गर्भसन्धानकारकः / व्रणरोपणकृदूक्षो मधुरस्तुवरो गुरुः // अस्थिसन्धानकृद्वर्ण्यः कफपित्तातिसारकान् / योनिरोगं नाशयति वल्कं चैवास्य शीतलम् // दुग्धदं तुवरं गभ्यं व्रणनाशकरं स्मृतम् / Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान कोमलं चास्य च फलं स्तम्भकृत्तुवरं मतम् // .. हितकारि तृषापित्तकफरक्तरुजापहम् / मध्यमं कोमलं स्वादु शीतलं तुवरं मतम् // पित्रं तृषामोदकरं रक्कनुतिवमीहरम् / प्रहारघ्नं समुद्दिष्टमपक्कं तुवरं मतम् // रुच्यं चाम्लं दीपनं स्यान्मांसवृद्धिकरं मतम् / रक्तरुक्कारकं चैव दोषलं च जडं मतम् // तत्पक्कं च कषायं स्यान्मधुरं, कृमिकारकम् / जडं रुचिप्रदं चातिशीतलं कफकारकम् // रक्तरुक्पित्तदाहक्षुत्तृषाश्रमप्रमेहहम् / शोथमूर्छाहरं प्रोक्तं पूर्वैः स्वे स्वे निघंटके ॥-नि० र० गूलर-शीतल, गर्भसन्धानकारक, व्रण को भरने वाला, रूखा, मधुर, कषैला, भारी, अस्थि को जोड़ने वाला, व्रण को उज्ज्वल करने वाला तथा कफ, पित्त, अतीसार और योनिरोग नाशक है। गूलर की छाल-अत्यन्त शीतल, दुग्धवर्द्धक, कषैली, गर्भ को हितकारी और व्रण विनाशक है। गूलर का कोमल फल-स्तम्भक, कषैला, हितकारी तथा तृषा, पित्त, कफ और रक्तजन्य रोगों का नाश करता है / गूलर का कुछ कड़ा फल-स्वादिष्ट, शीतल, कषैला तथा पित्त, तृषा और मोहक एवं रक्तस्राव, वमन और प्रदर नाशक है / Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गूलर गूलर का तरुण फल-कषैला, रुचिकारक, अम्ल,दीपक, मांसवर्द्धक, रक्त को दूषित करने वाला, दोषजनक और जड़ है। गूलर का पक्का फल-कषैला, मधुर, कृमिकारक, जड़, रुचिकारक, अत्यन्त शीतल, कफकारक, तथा रक्तविकार, पित्त, दाह, क्षुधा, तृषा, श्रम, प्रमेह, शोष और मूर्छा को नष्ट करता है। विशेष उपयोग (1) वायु से अंग जकड़ जाने परगूलर का दूध लगाकर रुई चिपकाना चाहिए। (2) रक्तपित्त में-पका गूलर-गुड़ अथवा शहद के साथ खाना चाहिए / अथवा गूलर को जड़ पानी में घिसकर और चीनी मिलाकर पीना चाहिए / (3) वच्छनाग के विष पर-गूलर की छाल का रस और घी गरम करके पीना चाहिए / (4) सोमल का विष-गूलर की छाल या पत्तों का रस आध सेर तक पीने से नष्ट होता है। यह औषध ढोरों को भी दी जाती है। (5) आँखों के आने पर-गूलर का दूध पलकों पर लगाना चाहिए। (6) गलसुज्जा पर--गूलर का दूध लगाना चाहिए / (7) बद पर-गूलर का दूध लगाकर पतला कागज उस पर चिपकाना चाहिए। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति विज्ञान (8) शोथ पर-गूलर, बड़, पीपल, पाकर और तुन की छाल घिसकर और घी छोड़कर लेप करना चाहिए। __(8) आमातीसार में गूलर का दूध चार-पाँच बूंद बताशे में छोड़ कर खाना चाहिए। इससे आम और रक्त गिरना बन्द हो जाता है। (10) रक्तातीसार में गूलर की जड़ का पानी पीएँ / (11) पथरी पर-गूलर की जड़ का रस पाँच तोले, चीनी मिलाकर पीना चाहिए तथा गूलर की जड़ गाय के दूध में घिसकर लिंगेंद्रिय पर लेप करना चाहिए / (12) गरमी में-पका गूलर जिसमें कीड़ा न पड़ा हो, मिश्री भरकर प्रति दिन प्रातः काल खाना चाहिए / (13) सब प्रकार के उपदंश और प्रमेह पर-गूलर के पेड़ की जड़ मिट्टी से निकाल और साफ करके उसमें थोड़ा छेद कर दें और उसके नीचे बर्तन रख दें। चार पहर तक उसका जल एकत्र कर बोतल में भरकर रख दें। शक्ति के अनुसार जीरा का चूर्ण और मिश्री मिलाकर पीना चाहिए / (14) बालकों को शीतला की गरमी में -गूलर का रस मिश्री मिलाकर पिलाना चाहिए। (15) गरमी से जीभ के काँटों पर-गूनर की गोंद और मिश्री पीना चाहिए। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गूलर (16.) गर्भिणी के अतीसार पर-गूलर शहद के साथ खाना चाहिए। (17) भस्मक रोग में--गूलर की छाल स्त्री के दूध में पीसकर पीना चाहिए / अथवा गूलर की जड़ का पानी ताड़ी की तरह पीना चाहिए। सात दिनों तक कुआँ-गंगा आदि किसी प्रकार का अन्य जल न पीना चाहिए / (18) शीतला की गरमी दूर करने के लिए-गूलर की लाह दूध में पीस और शहद मिलाकर शक्ति के अनुसार पीना चाहिए / यह औषधि शीतला का जर नहीं आने देती। (16) पित्तज्वर में-गूनर की जड़ का रस, चीनी मिला कर पीना चाहिए। (20) विच्छू के विष पर-गूनर की पत्ती पीसकर दंश स्थान पर लेप करना चाहिए। ( 21 ) विचिका में गूलर का रस पीना चाहिए। ( 22 ) बवासीर पर-गूनर की जड़ घिसकर लगाएँ। ( 23 ) कर्णमूल पर-गूनर और कपास का दूध मिलाकर लगाना चाहिए / (24) गण्डमाला पर-गूलर की लाह का चूर्ण और चीनी दही के साथ मिलाकर प्रति दिन प्रातः काल खाना चाहिए / ( 25 ) दाह पर-गूलर का दूध चीनी मिलाकर चाटें / Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 100 ___ (26 ) मस्तक-शूल और नाक से खून गिरने पर-पके गूलर में चीनी भरकर घी में तलें। बाद काली मिर्च और इलायची का चूर्ण चार-चार रत्ती मिलाकर प्रति दिन प्रातःकाल खाना चाहिए और मुख पर बैंगन का रस लगाना चाहिए। . आकाशवीर सं० आकाशबल्ली, हि० आकाशबेंल, ब० आकाशवेल, म० आकाशवेल, गु० अमरबल, क० नेदमुवल्ली, तै० इन्द्रजाल, अ० अफतिमून, और लै० कसकुटेराफ्लेक्स-Cuscutareflex. विशेष विवरण-यह डोरे के समान वृक्षों पर फैलती है। रंग पीला होता है / फूल सफेद आते हैं / इसके जड़ नहीं होती। इसका सम्पूर्ण अंग औषधि में व्यवहृत होता है। इसे कहीं-कहीं सोना बेल भी कहते हैं ; क्योंकि इसका रंग स्वर्ण की भाँति होता है / यह अधिकतर दुधारे वृक्षों पर फैलती है। कभी-कभी श्राम की शाखा पर भी देखी जाती है ! यह दो-तीन जाति की होती है। जिस वृक्ष पर यह लग जाती है, एक प्रकार से उसका नाश हो जाता है। गुण-आकाशवल्ली कटुका मधुरा पित्तनाशिनी / वृष्या रसायनी बल्या दिव्यौषधिपरा स्मृता॥-रा० नि० आकाशबौर-कड़वी, मधुर, पित्तनाशक, वृष्य, रसायन, बलकारक और दिव्यौषधि कही गई है। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 101 गदहपूर्णा विशेष उपयोग (1) कामला रोग में-आकाशबौर के पंचांग का चूर्ण शहद और मिश्री मिलाकर चाटना चाहिए / अथवा इसका काढ़ा या रस निकालकर मिश्री मिलाकर पीना चाहिए / (2) शिरोरोग और ज्वर में-आका राबौर के पंचांग का चूर्ण घी और शहद की विषम मात्रा के साथ मिलाकर चाटें। (3) विच्छू के विष पर-आकाशबौर पीसकर लगाएँ। गदहपूर्णा सं० पुनर्नवा, हि० गदहपूर्णा, व० गादापुण्या, म० घेटुली, गु० साटोडी, क० विलीय दुवेल्ल डूकिलु, ता० मुकिराटे, तै. तेल्ला अटा तामामिड़ी, अ० हंद कूफी, अँ० स्फ्रेंडिंग होगबीड -Spreading Rogweed, और लै० बौरहाविया डिफ्युजा -Boerhavia Diffusa. : विशेष विवरण-यह सभी जगह प्रायः रेतीली जगहों में होता है / यह गदहपूर्ण-गुलावाँसी जाति का बतलाया जाता है / इसकी पत्तियाँ छोटी, गोल, मोटी और झुण्ड की-झुण्ड चौलाई की भाँति होती है / पत्ती के ऊपर घंटी के आकार का गुलाबी, सफेद, नीला अथवा हरे रंग का फूल लगता है / इसकी सफेद, लाल, नीली या काली तीन जातियाँ होती हैं। किन्तु काली जाति का बहुत कम मिलता है / किन्तु लाल रंग का सर्वत्र मिलता है / यह Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 102 वर्षा ऋतु में विशेष मिलता है। अतएव इसे वर्षाभू, वर्षाभव और प्रावृपायणी आदि भी कहते हैं। शरीर के भीतरी और बाहरी शोथ को नष्ट करने के कारण इसे शोथन्नी भी कहते हैं। इसकी जड़ जमीन के भीतर बहुत फैलती है / यह मूत्रल है ; किन्तु इसमें विशेष गुण यह है कि मूत्र विरेचन में यह किसी प्रकार का कष्ट नहीं पहुँचाता / उदररोग में विशेष लाभदायक है / गुण - कटुः कषायारुच्यशः पाण्डुहृद्दीपनीपरा / शोफानिलगररलेप्महरी ब्रनोदरप्रणुत् ॥-भा० प्र० सफेद गदह पूर्णा-चरपरा, कपैला, रुचिकारक, अग्निदीपक तथा पारडु, बवासीर, शोथ, वात, विष, कफ, बध्न और उदररोग नाशक है। गुण-पुनर्नवारुणा तिक्ता कटुपाका हिमा लघुः / वातला ग्राहिणी श्लेष्मपित्तरक्तविनाशिनी // लाल गदहपूर्णा-तीता, पाक में कड़वा, शीतल, हलका, वातकारक, ग्राही तथा कफ, पित्त और रक्त-विकार नाशक है / गुण-नीला पुनर्नवा तिक्का कटूष्णा च रसायनी / हृद्रोगपाण्डुश्वयथुश्वासवातकफापहा ॥-रा० नि० नीला गदहपूर्णा-तीता, कड़वा, गरम, रसायन तथा हृद्रोग, पाण्डु, शोथ, श्वास, वात और कफ नाशक है / गुण-पौनर्नवी पर्णशाका चातिरूक्षा कफापहा / वाताग्निमांद्यगुल्मन्त्री प्लीहाशूलविनाशिका ॥-नि० र० Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 103 गदहपूर्णा ___ गदहपूर्णा का पत्रशाक-अत्यन्त रूखा तथा कफ, वात, अग्निमांद्य, गुल्म, प्लीहा, और शूल नाशक है। विशेष उपयोग (1) आँखों के जाला में सफेद गदहपूर्णा की जड़, पानी अथवा शहद में घिसकर लगाना चाहिए / (2) नेत्र की खुजली में सफेद गदहपूर्णा की जड़शहद, दूध अथवा भाँगरा के रस में घिसकर लगाना चाहिए / (3) रतौंधी में-सफेद गदहपूर्णा की जड़ काँजी में घिसकर लगाना चाहिए। .. (4) शोफोदर पर-सफेद गदहपूर्णा की जड़ का काढ़ा करके पीना तथा उसे पीसकर शोथ पर लेप करना चाहिए। अथवा गदहपूर्ण और सोंठ पीसकर पीना चाहिए / ( 5 ) खूनी बवासीर में-सफेद गदहपूर्ण की जड़ और हल्दी का काढ़ा करके पीना चाहिए। (6) गुल्म और प्लीहा में-सफेद गदहपूर्ण का पञ्चांग और सेंधानमक पीसकर गोमूत्र के साथ सेवन करना चाहिए / (7) कामला रोग में-सफेद गदहपूर्णा के पञ्चांग का चूर्ण, शहद और चीनी के साथ सेवन करना चाहिए। अथवा काढ़ा करके या हरे का ही रस निकालकर पीना चाहिए / (8) शिरोरोग और ज्वर में सफेद गदहपूर्ण के पंचांग का चूर्ण घी और शहद के साथ सेवन करना चाहिए / Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 104 ... (8) विच्छू का विष-सफेद गदहपूर्णा की जड़ रविवार के दिन लाकर रखें। आवश्यकतानुसार उसे खूब चबाकर खाने से अथवा घिसकर लगाने से नष्ट हो जाता है / (10) दन्तरोग में-गदहपूर्णा की जड़, पठानी लोध की छाल और फिटकिरी का काढ़ा करके कुल्ला करना चाहिए / (11) अन्तर्विद्रधि में-गदहपूर्ण की जड़ और वरुना की छाल का काढ़ा करके पीना चाहिए। . (12) अम्लपित्त में-सफेद गदहपूर्णा की जड़ को खूब चबाकर प्रतिदिन प्रातःकाल खाना चाहिए। उसके बाद चौदहदिन तक दोपहर के समय कुछ न खाना चाहिए / (13) चौथिया ज्वर में-सफेद गदहपूर्णा की जड़, दूध में पीसकर पीना; अथवा पान में रखकर खाना चाहिए / (14) शोथ-गदहपूर्ण, देवदारु, सोंठ और खस का काढ़ा बनाकर और गोमूत्र मिलाकर पीने के नष्ट होता है / (15) गुल्म और जलोदर पर-सफेद गदहपूर्णा की जड़ और सेंधानमक का चूर्ण घी में मिलाकर गुल्म पर और शहद में मिलाकर जलोदर पर देना चाहिए। (16) आँखों के जाला पर-सफेद गदहपूर्णा की जड़ रविवार को लाकर धूप देकर कानों में बाँधना चाहिए / (17) सर्वांगशोथ, उदर, पाण्डु, स्थूलता और Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 105 गदहपूर्णा कफ पर-गदहपूर्णा, नीम, कड़वा परवल, सोंठ, कुटकी, दारुहल्दी, गुरिच और छोटी हर्र का काढ़ा बनाकर पीना चाहिए। (18 ) कुत्ते का विष-सफेद गदहपूर्ण का रस पीने से नष्ट होता है। (16) सर्वांगशोथ में-गदहपूर्णा, कुटकी, चिरायता और सोंठ का काढ़ा बनाकर पीना चाहिए / (20) शोथ पर-पुनर्नवादिघृत देना चाहिए / (21) कामला, पाण्डु, हलीमक, श्वास, उदर, जीर्णज्वर और मलरोगादिकों पर-पुनर्नवादि तेल लगाएँ / (22) मन्दाग्नि में-दहपूर्णा का शाक खाना चाहिए / ( 23 ) उदर-शूल, गुल्म और प्लीह रोग में-गदहपर्ण का शाक, मूंग की दाल में पकाकर खाना; अथवा पत्तों के रस में सेंधानमक मिलाकर पीना चाहिए। (24) शोथ पर-गदहपूर्णा का शाक उबालकर खाएँ तथा उसके पत्तों के रस में लोहे का मुर्चा घिसकर लेप करें। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमलता सं० सोमवल्ली, हि० सोमलता, ब० सोमलता, म० सोमवल्ली, क० सोमबल्ली, तै० पुल्लतोगे, और लै० सार्कोस्टैम्मा ब्रेवीस्टिग्माSarcostemma Brevistigma. विशेष विवरण-यह एक प्रकार की लता है। इसमें शुक्ल पक्ष में क्रमशः प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक एक-एक पत्ता प्रति दिन निकलता है / पन्द्रह दिनों में पन्द्रह पत्ते निकलते हैं / पुनः कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से लेकर अमावास्या तक एक-एक पत्ता प्रति दिन गिरता है / इस प्रकार फिर उसमें पत्ते एक भी नहीं रह जाते, और फिर वही क्रम चलता है / इस लता का सोम से बहुत बड़ा सम्बन्ध है / इसलिए इसका नाम सोमलता पड़ा। ____ यह दो प्रकार की होती है। छोटी और बड़ी। इसका रंग नीला होता है / ऋग्वेद में सोमलता का बहुत बड़ा महत्व वर्णित है / सोमलता के रस में मेधावर्द्धक एक अद्भुत शक्ति है। किन्तु केवल मात्र इसमें ही मद उत्पन्न करने की शक्ति नहीं है / प्राचीन काल में इसके योग से एक प्रकार मद्य तैयार किया जाता था / कुछ लोगों का कथन है कि ब्राह्मण के अतिरिक्त यदि अन्य कोई वर्ण इसे पी लेता था, तो उसे वमन हो जाता था और उस उलटी का जो छीटा शरीर पर पड़ जाता था, वहाँ-वहाँ सफेद दाग पड़ जाते थे, और शरीर का वर्ण बिगड़ जाता था। इसलिए जला Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 107 मकोय शय में गर्दन तक डूबकर इसका रस और रस मिश्रित औषधि का सेवन किया जाता था। जिससे वमन का छींटा शरीर पर नहीं पढ़ने पाता था। गुण-सोमवल्ली कटुः शीता मधुरा पित्तदाहनुत् / तृष्णाविशोषशमनी पावनी यज्ञसाधनी ॥–रा० नि० सोमलता-कड़वी, शीतल, मधुर तथा पित्त, दाह, तृष्णा और विशोष को शमन करने वाली; पवित्र एवं यज्ञसाधिका है / विशेष उपयोग (1) कामला और यकृत विकार पर-सोमलता को सुखा कर उसका चूर्ण देना चाहिए / (2) ज्वर में- कोमल पत्तों का रस पीएँ / मकोय __ सं० काकमाची, हि० मकोय, ब० मदन, म० लघुकावली, गु० पीलुडी, क० कावइकाक, तै० बलुस, ता० कारे, फा० रोबातरीख, अ० एनबुससाल, और लै० सालनम् नाइग्रम्Solanum Nigrum. विशेष विवरण- मकोय का पेड़ सीधा ऊपर की ओर होता है / इसमें काँटे भी होते हैं। छोटे और सफेद फूल लगते हैं। इसका फल गुच्छों में होता है। फल के ऊपर सफेद रंग का आवरण होता है / उस आवरण को निकाल कर मकोय खाई Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 108 जाती है / यह दो प्रकार की होती है। एक लाली लिए. पीली और दूसरी काले रंग की छोटी होती है। बड़ी मकोय खाने के काम में आती है / इसी छोटी मकोय को ही काली मकोय कहते हैं / यह औषध के काम में आती है / इस छोटी मकोय की पत्ती कई रोग विशेष में आश्चर्यजनक लाभ करती है। मकोय-खटमिट्टी और पाचक होती है / इसकी पत्ती के रस से लिखा हुआ हरी स्याही से लिखा-जैसा मालूम होता है। गुण-काकमाची त्रिदोषनी स्निग्धोष्णा स्वरशुक्रदा / तिक्ता रसायनी शोथकुष्ठाझेज्वरमेहजित् // कटुर्नेत्रहिता हिक्काछर्दिहृद्रोगनाशिनी / -भा० प्र० मकोय-त्रिदोष नाशक, स्निग्ध, गरम, स्वरजनक, शुक्रकारक, कड़वी, रसायन, चरपरी, नेत्रों को हितकारी तथा सूजन, कुष्ठ, बवासीर, ज्वर, प्रमेह, हिचकी, वमन और हृद्रोग नाशक है / विशेष उपयोग (1) शोफोदर पर-मकोय की पत्ती का रस लगाना चाहिए। (2) पित्त पर-मकोय की पत्ती का शाक खाएँ। (3) अफीम के विष पर-मकोय की पत्ती का रस पीएँ। (4) कान में कोई जानवर चला गया हो तोमकोय की पत्ती का रस गरम करके छोड़ना चाहिए / विरार Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लज्जावती सं० लज्जालु, हि० छुईमुई, लज्जावती, ब० लाजुक, म० लजाल, गु० रिशामणी, क० मुदीदरेमुरूटव, और, लै० एम० पुडिका-M. Pudica. विशेष विवरण-लज्जावती का वृक्ष लता के समान होता है। इसके पत्ते इमिली अथवा खैर के पत्ते के समान होते हैं। फूल-गुलाबी, नीले तथा कई मिश्रित रंग के अनेक होते हैं / इसकी जड़ लाल होती है। स्पर्श करने से वह लज्जा के कारण मुरझा जाती है / थोड़े समय बाद फिर फैल जाती है / यह दो प्रकार की होती है / एक काँटे की और दूसरी बिना काँटे की। हाथ लगते ही यह सिकुड़ जाती है और मालूम पड़ता है कि एकदम मुरझा गई है, इसलिए इसका नाम छुईमुई रखा गया है / गुण-लज्जालुः शीतला तिक्ता कषाया कफपित्तजित् / रक्तपित्तमतीसारं योनिरोगान्विनाशयेत् ॥–भा० प्र० लज्जावती-शीतल, तीती, कषैली तथा कफ, पित्त, रक्तपित्त, अतीसार और योनिरोग नाशक है। विशेष उपयोग (1) गलगंड और कामला परलज्जावती और गोरखमुंडी का रस मिलाकर दो तोले से आठ तोले तक पीना चाहिए। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान . 110 (2) आँत उतरने पर-लज्जावती की पत्तियाँ पीसकर और गरम करके बाँधना चाहिए। (3) स्त्री का गुप्तांग बाहर निकल आने परलज्जावती की पत्ती पीसकर अथवा जड़ घिसकर हाथ में लगाकर * उसे भीतर कर देना चाहिए। (4) आँख की फूली पर-लज्जावती का रस और अश्वमूत्र एक में मिलाकर अंजन देना चाहिए। (5) वमन में लज्जावती के जड़ का चूर्ण शहद के साथ चाटना चाहिए। कनेर . सं० करवीर, हि० कनेर, ब० करवी, म० कराहेर, गु० कणेर, क० वाकणलिंगे, तै० कानेरचेटु, अ० सुमुल, फा० खरजेहरा, अँ० स्वीटसेन्टेड ओलियन्डर-Sweet Scented Oleonder, और लै० नीरीयं प्राडोरन्-Nirium odorum. विशेष विवरण-यह सफेद, लाल, गुलाबी, पीला और काला रंग-भेद से पाँच प्रकार का होता है / इसका वृक्ष सर्वत्र प्रसिद्ध है / यह पाँच फिट से लेकर दस फिट तक ऊँचा होता है। सफेद फूलवाला कनेर औषध के काम में विशेष रूप से आता है। इसकी जड़ विषाक्त होती है। इसका पत्ता लम्बा होता है / कहा जाता है कि इसके पास सर्प नहीं जाते। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 111 कनेर गुण-हयारिः पंचधा प्रोक्तः श्वेतो रक्तश्च पाटलः / पीतः कृष्णः समुद्दिष्टः श्वेतस्यैतान्गुणान्छृणु // कटुस्तिक्तश्च तुवरस्तीक्ष्णो वीर्येण चोष्णदः / ग्राही मेहकृमीन्कुष्ठव्रणा वातनुत्परः // भक्षितो विषवज्ज्ञेयो नेत्र्यो लघुविषापहः। विस्फोटकुष्ठकृमिनुत्कण्डूव्रणकफापहः // ज्वरं नेत्ररुजं चैव हयप्राणांश्च नाशयेत् / -शा० नि० कनेर-सफेद, लाल, गुलाबी, पीला और काला; फूल के रंग-भेद से पाँच प्रकार का होता है / इनमें सफेद कनेर-कड़वा, तीता, कषैला, तीक्ष्ण, उष्णवीर्य, ग्राही तथा प्रमेह, कृमि, कुष्ठ, व्रण, अर्श एवं वात नाशक है / यह खाने से विष के समान गुण करता है। नेत्रों को हितकारी, हलका तथा विष, विस्फोट, कुष्ठ, कृमि, कंडू, व्रण, कफ, ज्वर, नेत्ररोग और घोड़ों का प्राणनाशक है। विशेष उपयोग (1) सर्प और बिच्छू के विष परसफेद कनेर की जड़ पीसकर दंश-स्थान पर लगाएँ / यदि इसके पीने से किसी प्रकार का विकार मालूम पड़े, तो घी पीएँ / (2) उपदंश में घाव पर कनेर की जड़ पीसकर लेप करनी चाहिए। . _.. (3) विषमज्वर में-कनेर की जड़ रविवार को लाकर कमर में बाँधनी चाहिए। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 112 (4) शिरोरोग में-सफेद कनेर की सूखी जड़ पत्थर पर घिसकर मस्तक के वेदनावाले भाग पर लगानी चाहिए / नागरमोथा सं० नागरमुस्ता, हि० नागरमोथा, ब० मुताथा, म० मोथे, गु० मोथ, क० मुस्ता, ता० कारप, तै० तुंगमुस्त, अ० मुष्कजमीन, फा० शादकफी, और लै० साइपरस रोदंडस-Cyprusrotondous. विशेष विवरण-मोथे की अनेक जातियाँ होती हैं। नागरमोथा वर्षाऋतु में प्रायः सभी समान्य तालाबों में पैदा होता है / भद्रमोथा सजलभूमि में होता है / एक प्रकार का मोथा मोटी डंठी वाला होता है / किन्तु सब प्रकार के मोथों में नागरमोथा ही उत्तम होता है / औषधि के लिए इसकी जड़ काम में आती है / मोथा का पेड़ अधिक-से-अधिक अँगुली-जैसा मोटा होता है / मोथा का प्रयोग सुगंधित पदार्थों में भी किया जाता है / गुण-तिक्ता नागरमुस्ता कटुः कषाया च शीतला कफनुत् / पित्तज्वरातिसारारुचितृष्णादाहनाशिनी श्रमहृत् ॥-रा० नि० नागरमोथा-तिक्त, कटु, कषैला, शीतल, हलका तथा पित्त, ज्वर, अतीसार, अरुचि, तृष्णा, दाह और श्रम नाशक है / गुण-भद्रमुस्ता तु तुवरा शीता तिक्ता च पाचका / कट्वग्निदीपनी ग्राही चाम्लपित्तकफापहा // Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नकछिकनी अतिसारं रक्तदोषं ज्वरं चैव विनाशयेत् / .. अरुचिं च तृषां चैव कृमीनपि विनाशयेत् ॥-नि० र० भद्रमुस्ता-कषैला, शीतल, तीता, पाचक, कड़वा, अग्निदीपक, ग्राही तथा अम्लपित्त, कफ, अतीसार, रक्तदोष, ज्वर, अरुचि, तृषा और कृमिनाशक है / विशेष उपयोग (1) आधाशीशी पर-नागरमोथा के पत्ते का रस जहाँ पर दर्द हो मलना चाहिए / (2) हिचकी में-नागरमोथा का बीज भिगोकर कपड़े में रखकर गार लिया जाय और उस जल को थोड़ा-थोड़ा पिलाएँ। . (3 ) आँख की फूली और रतौंधी पर-भद्रमोथा को बकरे के मत्र में घिसकर अंजन करना चाहिए। ___(4) अपस्मार में-नागरमोथा का चूर्ण एकवर्णवाली गाय के दूध के साथ सेवन करना चाहिए। . (5) भ्रम, दाह और पित्त में-नागरमोथा, पित्तपापड़ा तथा मुनक्का का अष्टमांश काथ शहद मिलाकर पीना चाहिए। नकछिकनी सं० छिक्कनी, हि० नकछिकनी, ब० छिक्नी, म० नाकशिकणी, गु० नाकछीकणी, अ० उफरककुदुश, फा० बेरगाउजवां, और लै० सेटिपीडा अर्बिक्युलरीस्-Sentipeda Orbiculeris. Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 114 विशेष विवरण-इसका वृक्ष होता है / पत्ते छोटे-छोटे होते हैं / इसके नीचे कंद होता है / इसके पत्तों और डंठों को सूंघने से छींक आती है। इसका पेड़ बहुत छोटा होता है। कोंकण में यह अधिक होती है। यों तो इसके पेड़ सभी जगह पाए जाते हैं / गुण-छिक्कनी कटुका रुक्षा तीक्ष्णोष्णा वह्निपित्तकृत् / ____वातरक्तहरी कुष्ठकृमिवातकफापहा ॥--भा० प्र० नकछिकनी-कड़वी, रूखी, तीक्ष्ण, उष्ण, अमिवद्धक, पित्तकारक तथा वातरक्त, कुष्ठ, कृमि, वात और कफ नाशक है / विशेष उपयोग (1) सिर-दर्द-नकछिकनी के पत्ते या बीज का रस नाक में छोड़ने अथवा बीज को सूंघने से छींक आती है और सिर का भारीपन तथा दर्द नष्ट हो जाता है / किन्तु थोड़ी देर बाद घी का नस्य लेना चाहिए। (2) मासिकधर्म के लिए-नकछिकनी के पत्ते के चूर्ण में मिश्री मिलाकर सात दिनों तक पीना तथा इसके पत्ते को तेल के साथ बारीक पीसकर मासिकधर्म के समय तीन दिनों तक गोली बनाकर गुप्तांग में रखना चाहिए। (3) गुल्म और रूतवात में-नकछिकनी के पत्ते का काढ़ा बनाकर पीना चाहिए। (4) दाँत दर्द पर-नकछिकनी के पत्ते का चूर्ण मलें। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुकरौंदा सं० कुकुन्दर, हि० कुकरौंदा, ब० कुकुरशांका, म० कुकुरबंदा, गु० कोकरुंदा, अ० सनौबरुल अर्द, फा० कमाकिसुस, और लै० ब्ल्युमिया ओडोरेटा-Blumea Odorat. विशेष विवरण-कुकरौंदा का पेड़ प्रायः सर्वत्र पाया जाता है / यह खेतों के अगल-बगल, ऊसर एवं खंडहरों पर बहुतायत से होता है / यह वर्षा के आरम्भ से लेकर शीतकाल तक बराबर मिलता है। तर जगह में तो यह ज्येष्ठ-बैखाख के महीने में भी मिलता है। पत्ते लम्बे, हरे, खरखरे और बीच में मोटे डठे वाले होते हैं / पुराना होने पर इसका पत्ता तम्बाकू के पत्ते के समान हो जाता है। इसमें बड़ी तीव्र गन्ध होती है / यह बड़ा उपयोगी है। ___ गुण -कुकुन्दरः कटुस्तिक्तो ज्वरनश्चोष्णकृन्मतः / रक्तरुक्कफदाहानां तृषायाश्चैवनाशनः // __ अस्यामूलं च मुखे धारितं मुखदोषनुत् / -नि० र० कुकरौंदा-कड़वा, तीता, ज्वरनाशक, उष्ण तथा रक्तविकार, कफ, दाह और तृषा नाशक है। इसकी कच्ची जड़ मुख में रखने से मुख-दोष नष्ट हो जाता है / विशेष उपयोग (1) बालकों के मुख पाक पर-- कुकरौंदा का रस पिलाना चाहिए / Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - वनस्पति-विज्ञान 116 (2) शिरा के कटजाने पर यदि रक्त अधिक निकले तो-कुकरौंदा को मसलकर बाँधना चाहिए / (3) दाह पर-कुकरौंदा का रस लेप करना चाहिए / (4) रक्तातीसार में कुकरौंदा के रस में नागरमोथा पीसकर पीना चाहिए। (5) फोड़े पर-कुकरौंदा का पत्ता रखना चाहिए। कचूर udaeusarla. सं० कर्चुर, हि० कचूर, ब० एकांगी, म० कचोरा, गु० कचूरी, क० कचोरा, तै० काचोरालु, अ० एरकुल काफूर, फा० जरंबाद, अँ० लॉगजेडीआरो-Long Zedearo, और लै० करक्यूमांजेडोरीआ-Curcumazedoaria. विशेष विवरण-कचूर का पेड़ होता है। इसके पत्ते हल्दी के पत्ते के समान होते हैं। इसकी जड़ में हल्दी-जैसी गाँठ होती है / हल्दी के खेतों में यह स्वयं उत्पन्न होता है। यह सफेद होता है, और हल्दी पीली होती है / इसकी गाँठ को सुखाकर रख लेते हैं, और उसे ही कचूर कहते हैं। इसके पत्ते की लम्बाई दो हाथ तक होती है। कोंकण देश में यह बहुतायत से होता है / सुगन्धित पदार्थों में भी इसका उपयोग होता है। इसकी सुगन्ध अच्छी होती है। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 117 कचूर कपूरकचरी भी कचूर की ही एक जाति विशेष की है / कचूर की अपेक्षा इसमें सुगन्ध अधिक होती है / सुगन्धित पदार्थों में इसका सम्मिश्रण किया जाता है / इसका उपयोग भी अनेक औषधियों में होता है। गुण-कर्चुरः कटुतिक्तोष्णः कफकासविनाशनः / मुखवैशद्यजननो गलगण्डादिदोषनुत् ॥-रा० नि० कचूर--कड़वा, तीता, उष्ण तथा कफ और कास एवं मुख की विरसता को दूर करनेवाला तथा गल-गण्डादि दोष नाशक है / गुण-भवेद्गन्धपलाशी तु कषाया प्राहिणी लघुः / तिक्ता तीक्ष्णा च कटुकानुष्णास्यमलनाशिनी // शोथकासव्रणश्वासशूलहिध्मग्रहापहा ।-भा० प्र० - कपूरकचरी—कषैली, प्राही, हलकी, तीती, तीक्ष्ण, कटु, अनुष्ण तथा मल, शोथ, कास, व्रण, श्वास, शूल, हिचकी और ग्रहनाशक है। विशेष उपयोग (1) ज्वर में यदि मुखपाक हो तोकचूर का कन्द चबाकर थूक देना चाहिए और उसके बाद कुल्ला कर लेना चाहिए / इससे नोंद के समय मुँह से निकलनेवाली लार भी बन्द हो जाती है। ... (4) कृमि पर-कचूर का कन्द और प्याज का रस पीना चाहिए। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 118 (5) थकान मिटाने के लिए-कचूर और अरणी के पत्तों से सिद्ध किए जल से स्नान करना चाहिए। (6) विचिका में कचूर के कन्द का रस और प्याज का रस मिलाकर पीना चाहिए। (7) गण्डमाला में-कचूर की माला पहननी चाहिए / (8) फोड़ों पर-कचूर घिस कर लगाना चाहिए। : (8) हिचकी में-कचूर का धुवाँ तम्बाकू की भाँति पीना चाहिए। (10) पाचनशक्ति के लिए-कपूरकचरी और कालानमक पीसकर पीना चाहिए। . (11) अतीसार में कपूरकचरी, बेल की गुद्दी और सोंठ पीसकर पीना चाहिए। (12) हिचकी में--कपूरकचरी और हल्दी जलाकर शहद के साथ देना चाहिए। (13) शूल में-कपूरकचरी और जवाखार गरम पानी के साथ पीसकर देना चाहिए। (14) विचिका में कपूरकचरी और कलमीसोरा पीसकर देना चाहिए। (15) अजीर्ण में-कपूरकचरी और सेंधानमक चबाकर खाना चाहिए। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आँवला सं० आमलकी, हि० आँवला, ब० आम्ला, म० आँवला, गु० आँवला, क० नेल्लि, तै० उसरकाय, अ० अम्लजू, फा० आम्लजं, अँ० एंब्लि कमिरोवेलन्-Embli Camyrobalan, और लै० फाइलेन्थस एंवेलिका-Phyllanthus Ambelica. विशेष विवरण-भारतवर्ष में आँवला का वृक्ष प्रायः अनेक स्थानों में होता है। इसका वृक्ष साधारणतः पन्द्रह-बीस फिट ऊँचा होता है। इसके पत्ते इमली के पत्ते के समान होते हैं। कार्तिक मास में इसमें फल आते हैं / इसका फल छोटा और बड़ा भी होता है / यह दो जाति का होता है / सफेद और लाल / आँवला का मुरब्बा, चटनी और अचार बनता है / इसकी लकड़ी में से सफेद कत्था निकलता है। इससे सिर मलने, शरीर पर घिसकर लगाने का भी काम लिया जाता है। आयुर्वेद की रीति से यह विशेष उपयोगी है। गुण-आमलं च कषायाम्लं मधुरं शिशिरं लघु / दाहपित्तवमीमेहशोषन्नं च रसायनम् ॥-रा० नि० .' आँवला-कषैला, खट्टा, मधुर, शीतल, हलका तथा दाह, पित्त, वमन, प्रमेह और शोथनाशक एवं रसायन है / Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 120 गुण-आमलस्य फलं शुष्कं तिक्तमम् कटु स्मृतम् / मधुरं तुवर केश्यं भन्मसन्धानकारकम् // धातुवृद्धिकरं नत्र्यं लेपनात्कान्तिकारकम् / पित्तं कर्फ तृषां धर्म मेदोरोगं विषं तथा // त्रिदोषं नाशयत्येवं पूर्वाचायनिरूपितम् / -नि० र० - सूखा आँवला-तीता, खट्टा, मधुर, कषैला, बालों को हितकर, टूटे को जोड़ने वाला, धातुवर्द्धक, नेत्रों को हितकारी, लेप करने से कान्ति को बढ़ाने वाला तथा पित्त, कफ, तृषा, स्वेद, मेदरोग, विष और त्रिदोषनाशक है / गुण-तन्मजा प्रदरच्छर्दिवातपित्तज्वरापहा / कषाया मधुरा वृष्या श्वासकासनिवर्हणा ॥–शा० नि० आँवला की गिरी-कषैली, मधुर, वृष्य तथा प्रदर, छर्दैि, वात, पित्त, ज्वर, श्वास और कास नाशक है। विशेष उपयोग (1) सब प्रकार के ज्वरों परआँवला की गुद्दी, चित्रक की जड़, छोटी हरं, पीपर और सेंधानमक का समान भाग चूर्ण बनाकर; अथवा काढ़ा बनाकर सेवन करना चाहिए। (2) पित्त पर-आँवला का मुरब्बा सेवन करना चाहिए। (3) स्वरभंग में-आँवला का चूर्ण गाय के दूध के साथ सेवन करना चाहिए। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 121 आँवला (4) अशुद्ध अभ्रक के विष पर-आँवला का रस पीना चाहिए। (5) वमन और श्वास पर-आँवला का रस, शहद और छोटी पीपर सेवन करना चाहिए / (6) रक्तपित्त पर-आँवला की गुद्दी, रेडी के तेल में भूनकर तथा मिश्री मिलाकर गरम पानी के साथ खाना चाहिए / (7) प्रमेह में-आँवला का रस अथवा उसके काढ़े में दो माशे हल्दी का चूर्ण और शहद मिलाकर सेवन करना चाहिए। (8) बद्धकोष्ठता में-आँवला की गिरी पीसकर शरीर पर लगाना चाहिए / प्रतिदिन ऐसा करने से कोष्ठबद्धता दूर हो जाती है / इससे बाल भी काले हो जाते हैं। (8) आँख की जलन पर-आँवला को गुद्दी और काला तिल रात के समय पानी में भिगो दिया जाय, और प्रातःकाल पीसकर सिर और आँख पर लगाया जाय / एक घंटा बाद धोकर स्नान करना चाहिए। (10.) ज्वर से मुख की विरसता होने पर-आँवला की गुद्दी, मुनक्का और मिश्री को पीसकर उसकी गोली मुख में रखकर चूसनी चाहिए। (11) मूत्रकृच्छ में आँवला और ईख का रस पीएँ। ...(12) नाक से रक्त गिरने पर-आँवला, घी में भूनकर और कॉजी के साथ पीसकर मस्तक पर लेप करना चाहिए / Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 212 (13) योनि की दाह पर-आँवला. के रस में मिश्री मिलाकर पीना चाहिए। (14) प्रमेह में-आँवला के पत्ते का रस और मट्ठा एक साथ मिलाकर पीना चाहिए / (15) वीर्यवृद्धि के लिए-आँवला का रस और घी मिलाकर पीना चाहिए। (16) सौन्दर्यवृद्धि के लिए-आँवला और असगंध का चूर्ण समभाग, विषमभाग घी और शहद के साथ जाड़े में सेवन करना चाहिए। ___ (17) सिर-दर्द पर-आँवला का चूर्ण, घी और मिश्री मिलाकर प्रतिदिन प्रातःकाल सेवन करना चाहिए / (18) पित्तज-शूल में-आँवला का चूर्ण शहद के साथ सेवन करना चाहिए। (16) मूर्छा में-आँवला के रस में घी मिलाकर सेवन करना चाहिए। (20) रक्तातीसार में-आँवला के रस में शहद, घी और दूध मिलाकर सेवन करना चाहिए। (21) धातुपुष्टि के लिए-आँवला और गोखरू का चूर्ण दो-दो माशे, गिलोय का सत एक माशा, घी और मिश्री मिलाकर प्रतिदिन प्रातःकाल सेवन करना चाहिए / Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहेड़ा सं० विभीतक, हि० बहेड़ा, ब० वयड़ा, म० बेहड़ा, गु० बेडां, क० तोरे, ता० तनि, तै० वल्ला, अ० बेलेलज, फा० बेलेले, अँ मेरोवेलन बेलिरिक-Myrovallan Bellirica, और लै० टरमिनेलिया बेलेरिका-Terumalia Bellerica. विशेष विवरण--बहेड़ा का वृक्ष बड़ा और छायादार होता है / यह प्रायः जंगल और पर्वतों में पाया जाता है / इसका पत्ता बड़ के पत्ते के समान होता है। इसका फूल अत्यन्त सूक्ष्म होता है / इसका फल सुपारी के फल के समान थोड़ा लम्बा और ढेपीदार होता है। औषध के लिए इसके फल का छिलका और गुद्दी का व्यवहार होता है। गुण-विभीतक स्वादुपाकं कषायं कफपित्तनुत् / उष्णवीर्य हिमस्पर्श भेदनं कासनाशनम् // रूक्षं नेत्रहितं केश्यं कृमिवैस्वर्यनाशनम् / विभीतमज्जा तट्छर्दिकफवातहरो लघुः // कषायो मदकृञ्चाथ धात्रीमज्जापि तद्गुणः।-भा० प्र० बहेड़ा-पाक में स्वादिष्ट, कषैला, कफ-पित्त नाशक, उष्णवीर्य, स्पर्श में शीतल, भेदक, कासनाशक, रूखा, नेत्रों को हितकारी, केशों को सुन्दरता प्रदान करनेवाला तथा कृमि और स्वरभंग नाशक है / इसकी गिरी-तृषा, वमन, कफ और वात Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 124 नाशक; हलकी, कषैली और मदकारक है / शेष गुण आँवला की गिरी के समान समझना चाहिए। विशेष उपयोग (१)श्वास और कास पर- बहेड़ा की छाल बकरी के मूत्र के साथ पीसकर गोली बनाना चाहिए / एक-एक गोली प्रतिदिन सेवन करनी चाहिए। . (2) दाह पर-बहेड़ा की गुही पीसकर सिर पर लेप करना चाहिए। (3) आँख की फूली पर-बहेड़ा की गिरी घिसकर अंजन करना चाहिए / (4) सिर दर्द पर-बहेड़ा की गिरी का तेल लगाएँ / (5) कूकर खाँसी पर बहेड़ा के छिलके का रस चूसना चाहिए। दुधिया सं० दुग्धिका, हि० दुधिया, ब० दुधि, म दुधी, गु० दुधेली, क० मरिजवणीगे, तै० पिलपालचेटु, फा० निशाशत, और लै० quellenfeet-Euphorbiahirta. ... विशेष विवरण-दुधिया का पेड़ छत्ता-सा होता है। यह ऊपर कम उठता है / जमीन पर लता के समान फैलता है। यह Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 125 दुधिया तीन प्रकार की होती है / १–नोकदार लाल पत्तों की, २-गोल पत्तों की और ३-मूंग के दाने के समान छोटे-छोटे पत्तोंवाली होती है / किन्तु तीनों में से दूध निकलता है / ___ नोकदार पत्तों वाली दुधिया का पेड़ एक हाथ ऊँचा होकर फिर लता के समान फैलता है। इसका पत्ता भंगरैया के पत्ते के समान होता है। किन्तु रंग में उससे कुछ फीका और नीले रंग का होता है / इसके डंठल कारंगकुछ लाली लिए होता है। भंगरैयाजैसा ही इसमें फूल भी लगता है। देहातों में घर के आस-पास यह पौधा उगता और फैलता है। इसी के दो भेद होते हैं / यही तो ऊपर वाली एक दुधिया है। इसका लोग शाक बनाकर खाते हैं / इसके पत्ते चने के पत्ते-जैसे छोटे-छोटे होते हैं / इसमें बहुत छोटा और लाल रंग का फूल निकलता है। यह दुधिया स्त्री रोग में विशेष उपयोगी है। ___ तीसरी का पौधा बहुत दिनों तक रहता है / यह टट्टी या पेड़ के ऊपर चढ़ती है। इसकी डाल काटकर जमीन में गाड़ देने से जड़ जमने लगती है और नया पौधा तैयार हो जाता है। इसकी लता प्रसिद्ध है / यदि इसका डंठल ऊँचा होकर दाहिनी ओर को घूम जाय, तो समझना चाहिए कि यह साल भर तक रहेगी / यदि कई ओर घूमकर चढ़ता है, तो कई वर्ष तक रहता है / इसके फल गुच्छेदार होते हैं। इसका आकार पोपट की तरह होता है / इसके फल में रेशम की तरह रेशे निकलते हैं। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 126 गुण-दुग्धिकोष्णा गुरू रूक्षा वातला गर्भकारिणी। स्वादुक्षीरा कटुस्तिका सृष्टमूत्रमलापहा // स्वादुर्विष्टम्भिनी वृष्या कफकुष्ठकृमिप्रणुत् / -भा० प्र० दुधिया-उष्ण, भारी, रूखी, वातकारक, गर्भकारक, स्वादिष्ट, दुग्धयुक्त, कड़वी, तोती, मल-मूत्र को निकालने वाली, उदर को फुलानेवाली, वृष्य तथा कफ, कुष्ठ और कृमि नाशक है। . गुण-दुग्धफेनी कटुस्तिक्ता शिशिरा विषनाशिनी / व्रणायसारणी रुच्या युक्त्या चैव स्सायनी ॥-रा०नि० दुग्धफेनी-कड़वी, तीती, शीतल, विषनाशक, व्रणनिवारक, रुचिकारक एवं युक्ति से रसायन है / गुण-नागार्जुनी तु मधुरा वृष्या रूक्षा च ग्राहिणी / तिक्ता च वातला गर्भस्थापनी कटुका पटुः // धातुवृद्धिकरी हृद्या चोष्णा पारदबन्धिनी। मलस्तम्भकरी मेहकफकुष्ठकृमीन्हरेत् ॥–शा० नि० नागार्जुनी (तीसरी दुधिया )--मधुर, वृष्य, रूखी, माही, तीती, वातकारक, गर्भस्थापक, कटु, खारी, धातुवर्द्धक, हृद्य, उष्ण, पारद को बाँधनेवाली, मल को रोकने वाली तथा यह कफ, कुष्ठ और कृमिनाशक भी है। विशेष उपयोग (1) बालरोग पर दूध पीने वाले बालकों के पेट में चिकनाई से गाँठ जम जाती है, उसे निकालने के लिए दुधिया की जड़ गाय के ताजे दूध में घिसकर पिलानी चाहिए। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 127 कलियारी (2) रक्तातीसार पर--दुधिया के पत्ते का रस, मिश्री और घी एक-एक तोला मिलाकर चार-पाँच दिनों तक पिलाएँ। (3) विषमज्वर पर-दुधिया की जड़ कान में रखें। (4) बच्चों के उदर-विकार पर-दुधिया की जड़ ढंढ़े पानी में घिसकर एक तोला तक प्रतिदिन पिलाना चाहिए / (5) सूजाक में-दुधिया को पीसकर पीना चाहिए / कलियारी सं० कलिकारी, हि० कलियारी, ब० लांगला, म० कललावी, गु० कलगारी, क० राडागारी, अँ बुल्फसबेन-Wolfsbane, और लै० ग्लोरीओजा सुपर्वा-Gloriasa Superba. विशेष विवरण-कलियारी लांगलीकन्द को कहते हैं / इसकी जड़ में हल्दी की भाँति मोटी-मोटी गाँठे निकलती हैं। ऊपर लँगूर की पूँछ के समान एकही लगर-सी निकलती है / उसमें कचूर-जैसे पत्र निकलते हैं। ऊपर लाल और पीला अग्नि की लपट के समान फल होता है / इसी को लांगलीकन्द या कलियारो कहते हैं / सुखपूर्वक प्रसव होने के लिए इसका कंद स्त्री के हाथों में बाँध देते हैं / पहाड़ी प्रान्तों में यह विशेष पाया जाता है। इसका पौधा घास के रूप में निकलकर लता के रूप में फैलता है। यह बहुधा बड़ के आश्रय में फैलता है। इसके पुराने पौधों Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 128 की जड़ केले की जड़ की तरह होती है / यह गर्मी में बहुधा सूख जाता है / इसके फूल बहुत सुन्दर दीख पड़ते हैं, तथा रंग-बिरंगे होते हैं / इसकी कन्द विषैली होती है। गुण-कलिकारी सरा तिक्ता कटी पटी च पिचला / तीक्ष्णोष्णा तुवरा लवी कफवातकृमिप्रणुत् // वस्तिशूलं विषं चाशः कुष्टं कण्डूं व्रणं तथा / शोथं शोषं च शूलं च नाशयेदिति कीर्तिता // शुष्कगर्भ च गर्भ च पातयेदिति कीर्तिता ।-नि० र० कलियारी-सारक, तीती, कड़वी, खारी, पित्तल, तीक्ष्ण, उष्ण, कषैली, हलकी तथा कफ, वात, कृमि, वस्तिशूल, विष, अर्श, कुष्ठ, खुजली, व्रण, शोथ, शोष और शल नाशक है / एवं शुष्कगर्भ और गर्भ का पात कराती है। विशेष उपयोग (1) गण्डमाला पर-कलियारी का कंद घिसकर लेप करना चाहिए। (2) शीघ्रप्रसव के लिए-कलियारी के कंद को पानी में घिसकर अपने हाथ में लगाकर प्रसव होने वाली स्त्री के हाथ को पकड़ना चाहिए। इससे शीघ्र प्रसव हो जाता है। अथवा उस स्त्री के हाथ-पैर में इस कंद को बाँधना चाहिए। (3) पशु की योनि बाहर निकले तो-कलियारी का कंद हाथ से मसलकर उसके पास ले जाय / यदि किसी समय वह भीतर न जाय तो दोनों हाथों से भीतर को दबा दे। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 129 ब्राह्मा ब्रायो (4) कामला में कलियारी के पत्ते का चूर्ण, मट्ठा के साथ सेवन करना चाहिए। (5) योनिशूल और पुष्पावरोध में कलियारी का कंद योनि में रखना चाहिए। (6) कानों में कृमि जाने पर-कलियारी के कंद, का रस छोड़ना चाहिए। (7) सर्प के काटने पर-कलियारी का कंद पानी में घिसकर नस्य लेना चाहिए। (8) सूजन और गाँठ पर-कलियारी का कंद पीसकर बाँधना चाहिए। . ब्राह्मी सं० हि० म० गु० ब्राह्मी, ब० ब्रह्मीशाक, क० औदेलग, ता० वीमी, तै शम्बनी चेटु, फा० जरनव, अॅ० इंडियन पेनी वर्टIndian Penny Wort, और लै० हाइड्रोकोटाइल एश्याटिकाHydro Cotyle Assiatica. विशेष विवरण-इसका वृक्ष छत्ता-सा प्रायः सजलभूमि, जलाशय अथवा पार्वत्य प्रदेश में होता है। इसके पत्ते छोटे-छोटे, गोल-गोल, खिले हुए तथा चारों ओर कटे रहते हैं / इसकी दूसरी जाति ब्रह्ममण्डूकी कही जाती है / इसके पत्ते उससे छोटे होते हैं। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 130 वनस्पति-विज्ञान गुण-ब्राह्मी हिमा सरा तिक्ता लध्वी मेध्या च शीतला / काया मधुरा स्वादुपाकायुष्या रसायनी // स्वर्या स्मृतिप्रदा कुष्ठपाण्डुमेहास्नकासजित् / विषशोथज्वरहरी तद्वन्मंडूकपर्णिनी ॥–भा० प्र० ब्राह्मी--शीतल, सारक, तीती, हलकी, मेधाकारक, शीतल, कषैली, मधुर, पाक में स्वादिष्ट, आयुवर्द्धक, रसायन, स्वयं, स्मृतिदायक तथा कुष्ठ, पांडु, प्रमेह, रक्तविकार, कास, विष, शोथ और ज्वरनाशक है। मण्डूकपर्णी भी इसीके समान गुणवाली है। गुण-मण्डूकपर्णिका लध्वी स्वादुपाका सरा हिमा-शा० नि० मण्डूकपर्णी-हलकी, पाक में स्वादु, सारक और शीतल है / विशेष उपयोग (1) उन्माद-ब्राह्मी के रस में कुलिंजन का चूर्ण और शहद मिलाकर पीने से नष्ट होता है। (2) बहुमूत्र में ब्राह्मी का रस नौ छटॉक, आँवला का रस दो तोले, जीरा का चूर्ण एक तोला और मिश्री छः माशे एक पाव गाय के दूध में मिलाकर पीना चाहिए। (3) चेचक में ब्राह्मी का रस, शहद मिलाकर पीएँ। (4) स्मरणशक्ति के लिए-ब्राह्मी-घृत का सेवन करना चाहिए। (5) अपस्मार में ब्राह्मी और कालीमिर्च एक साथ पीसकर पीना चाहिए। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 131 गूमा (6) ज्वर में ब्राह्मी का रस और शहद मिलाकर पीना चाहिए। (7) प्रमेह में ब्राह्मी के रस में हल्दी का चूर्ण मिलाकर पीना चाहिए। गूमा सं० द्रोणपुष्पी, हि० गूमा, ब० द्रोणपुष्पी, म० कुम्भा, गु० कुबो, क० तुम्ब, तै० लतुगतुम्मि, और लै० ल्युकास सिफेलोटस्Leucas Cephalotus. विशेष विवरण-इसका पेड़ होता है / इसकी प्रत्येक गाँठ में सफेद फूलों के गुच्छे होते हैं। प्रत्येक फूल के ऊपर दो-दो पत्ते होते हैं। इसके भीतर बीज होते हैं / इसके पत्ते-लम्बे और पतले होते हैं / इसका पेड़ प्रायः ऊसरों और खंडहरों में पाया जाता है। वात के लिए यह विशेष लाभदायक है। गुण-द्रोणपुष्पी गुरुः स्वाद्वी रूक्षोष्णा वातपित्तकृत् / सतीक्ष्णा लवणा स्वादुपाका कट्वी च भेदिनी // ___कफामकामलाशोथतमकश्वासजन्तुजित् ।-भा० प्र० गूमा-भारी, स्वादिष्ट, रूखी, उष्ण, वात-पित्त कारक, तीक्ष्ण, नमकीन, पाक में स्वादिष्ट, कड़वी, भेदक तथा कफ, आम, कामला, शोथ, तमकश्वास और कृमि नाशक है / Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वस्पति-विज्ञान 132 गुण-द्रोणपुष्पीदलं स्वादु रुक्षं गुरु च पित्तकृत् / भेदनं कामलाशोथमेहज्वरहरं कटु ॥-भा० प्र० . गूमा की पत्ती-स्वादिष्ट, रूखी, भारी, पित्तकारक, भेदक, कड़वी तथा कामला, शोथ, प्रमेह और ज्वर नाशक है। ... विशेष उपयोग ( 1 ) विषमज्वर में-गूमा के पत्ते के रस में कालीमिर्च का चूर्ण मिलाकर पीना चाहिए / (2) वायुरोग में-गूमा के रस में शहद मिलाकर पीएँ। (3) चौथिया ज्वर में-गूमा के रस का अंजन करें। (4) शोथ पर-गूमा और नीम की पत्ती उबालकर भाप लेना चाहिए। (5) आधाशीशी में- गूमा का रस नाक में डालें। वायविडंग सं० कृमिघ्न, हि० वायविडंग, ब० विडंग, म० वावडिंग, गु० वावढींग, क० वायुविडंग, ता० वायबिलं, तै० वायुविडवमु, फा० वरंगकावली, अ० बरंजकावली, ॲ० बेळग-Babreng, और लै० ऍब्रेलिया रिबीस-Emdrela Ribes. विशेष विवरण-वायविडंग का पेड़ पाँच से आठ फिट तक ऊँचा होता है / इसका पत्ता पाँच अंगुल लम्बा तथा तीन Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 133 वायविडंग अंगुल चौड़ा होता है / इसके वृक्ष के ऊपर फल के गुच्छे लगते हैं। इसीको वायविडंग कहते हैं। यह विशेष करके कृमिनाशक है। गुण-बिडगं कटुकं तिक्तमुष्णं रुच्यं लघु स्मृतम् / दीपनं वातकफहृदग्निमांद्यारुचीर्जयेत् // भ्रान्ति कृमि च शूलं च आध्मानमुदरं तथा / प्लीहाजीणे श्वासकासौ हृद्रोगं विषदोषकम् // आमं मलावष्टम्भं च मेदो मेहं च नाशयेत् ।-नि० र० वायविडंग-कड़वी, तीती, उष्ण, रुचिकारक, हलकी, दीपक तथा वात, कफ, हृद्रोग, अग्निमांद्य, अरुचि, भ्रान्ति, कृमि, शूल, आध्मान, उदररोग, प्लीह, अजीर्ण, श्वास, कास, हृद्रोग, विषदोष, आम, मलस्तम्भ, मेदरोग और प्रमेह नाशक है / विशेष उपयोग (1) कृमि में वायविडंग का चूर्ण शहद के साथ सेवन करना चाहिए। (2) अरुचि और ज्वर में-शहद के साथ वायविडंग को गोली बनाकर मुख में रखना चाहिए। (3) हृद्रोग में वायविडंग और कुलिंजन का चूर्ण गोमुत्र के साथ सेवन करना चाहिए / (4) मल-शुद्धि में-वायविडंग और अजवाइन का चूर्ण गरम पानी से साथ सेवन करना चाहिए / Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं० हरीतकी, हि० हर्र, ब० हरीतकी, म० हरडा, गु० हरडे, क० अणिलेय, ता० कडकै, तै० करकायि, अ० अहलीज, फा० हलैले, अँ मेरोबेलेन्स -Myrobalans, और लै० ब्लैकमाइरोनेलन्स-Black Myronelans. विशेष विवरण--हर्र का पेड़ बड़ा होता है। यह पञ्जाब और काबुल आदि में विशेष होती है। इसके पत्ते अडूसे के पत्ते के समान होते हैं / इसका फूल महीन आम की बौर के समान होता है। इसकी अनेक जातियाँ होती हैं। इसके फल की छाल छः माशे की मात्रा में व्यवहार की जाती है। एक जाति का कोंकण और गुजरात में होता है। यह रंग के काम में लाया जाता है। कच्ची अवस्था में तोड़ी हुई को बालहरै कहते हैं। दूसरी लम्बी वजनदार और जल में डूबनेवाली होती है / इसका वजन दो तोले तक होता है / यह अधिक उत्तम गुणवाली होती है। किन्तु यह सात प्रकार की होती है / हर अनेक रोगों के लिए हितकारी है। विजया अनेक रोगों पर उपयोगी है। रोहिणी व्रणरोपक है। पूतना लेप के लिए उत्तम है / अमृता विरेचन के लिए अत्युत्तम है। अभया नेत्र रोग के लिए और चेतकी चूर्ण बनाने के लिए उत्तम है। चेतकी सफेद और काली दो प्रकार की होती है। सफेद छः अंगुल तक लम्बी होती है। कोई खाने से, कोई सूंघने से, कोई Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 135 . स्पर्श करने से, और कोई दृष्टिगोचर होने मात्र से विरेचक होती है। आयुर्वेद में हर्र से उपयोगी वस्तु संसार में दूसरी नहीं है। __माता यस्य गृहे नास्ति तस्य माता हरीतकी। जिसके घर में माता नहीं है, उसकी माता हर्र है। केवल इतने ही मात्र से नहीं, बल्कि हर वास्तव में बड़ी उपयोगी वस्तु है। यदि इसे सर्वगुण सम्पन्न कहा जाय, तो कोई अत्युक्ति न होगी। कुछ लोग मेरे इस कथन में सन्देह कर सकते हैं। किन्तु उन्हें सन्देह करने से पूर्व यह सोच लेना चाहिए कि जिस प्रकार अन्य वनस्पतियाँ गुणहीन हो गई हैं, उसी प्रकार यह भी हो गई है। जहाँ पर छः मास के पश्चात् हरै गुणहीन हो जाती है, वहाँ पर दो-दो, चार-चार वर्ष की पुरानी हर काम में लाई जाती है / अब यदि वह अपने कथित गुण को न कर सके तो इसमें हरै बेचारी का क्या दोष ? नाम-विजया रोहिणी चैव पूतना चामृताभया / जीवन्ती चेतकी चैति विज्ञेयाः सप्तजातयः // हरे-विजया, रोहिणी, पूतना, अमृता, अभया, जीवनी और चेतकी नाम से सात प्रकार की होती है / गुण-कषायाम्ला च मधुरा तिक्ता कटुरसान्विता / इति पंचरसा पथ्या लवणेन विवर्जिता ॥–शा० नि० .हरे--कषैली, खट्टी, मधुर, तिक्त और कटु; इस प्रकार पाँचों रसों से युक्त है / किन्तु लवण से विहीन है। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 136 रसों के गुण-आम्लभावाजयेद्वातं पित्तं मधुरतिक्तकः / / कफरूक्षकषायत्वात् त्रिदोषनी ततोभया ॥-शा नि० हरै-अम्लरस होने से वातनाशक, मधुर और तिक्त रस होने से पित्तनाशक तथा रूखी और कषैली होने से कफ नाशक है / इस प्रकार यह त्रिदोष नाशक है / गुण-पथ्याया मजनि स्वादुः नावामम्लो व्यवस्थितः / वृन्ते तिक्तस्त्वचि कटुरस्थिस्थस्तुवरो रसः ॥–शा० नि० हर की गुठली में मधुर रस / नसों में-अम्लरस / डंठल में-तिक्तरस / छाल में-कटुरस; और अस्थि मेंकषैला रस निवास करता है। . गुण-चर्विता वर्द्धयत्यग्नि पेषिता मलशोधिनी / स्विना संग्राहिणी पथ्या भृष्टा प्रोक्ता त्रिदोषनुत् ॥–शा० नि० हरी-दाँतों से चबाकर खाने से अग्नि को बढ़ाती है / पीसकर खाने से मल को शुद्ध करती है। सेंककर खाने से मल को रोकती है ; और भूनकर खाने से तीनों दोषों को नष्ट करती है। गुण-लवणेन कर्फ हन्ति पित्तं हन्ति सशर्करा / ___ घृतेन वातजारोगान्सर्वरोगान्गुदान्विता // -0 नि० हर्र-लवण के साथ कफ को, शर्करा के साथ पित्त को, घृत के साथ वायु को और गुड़ के साथ सबरोगों को नष्ट करती है। गुण-सिन्धूत्थशर्कराशुंठीकणामधुगुडै क्रमात् / वर्षादिष्वभया प्राश्या रसायनगुणैषिणा ॥-भा० प्र० Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 137 ___ हर-वर्षा ऋतु में लवण के साथ, शरद ऋतु मेंशर्करा के साथ, हेमन्त में-सोंठ के साथ, शिशिर ऋतु में-पीपल के साथ, वसन्त ऋतु में-शहद के साथ और ग्रीष्म ऋतु में-गुड़ के साथ सेवन करना चाहिए / रसायन गुणाभिलाषी व्यक्ति को प्रत्येक ऋतु में उपर्युक्त नियम से हरीतकी का सेवन करना चाहिए / विशेषता-शुक्त पथ्याऽभुक्ते पथ्या भुक्ताभुक्के पथ्यापथ्या / / ___ जीणे पथ्याऽजीणे पथ्या जीर्णाजीणे पथ्यापथ्या ॥–शा०नि० हरे-भोजन के उपरान्त और भोजन से पूर्व, दोनों समय में पथ्य है / जीर्ण और अजीर्ण में भी पथ्य है / नाम-रहस्य - हरस्य भवने जाता हरिता च स्वभावतः / हरेन्तु सर्वरोगांश्च तेन प्रोक्ता हरीतकी ॥--म० पा० नि० हर- महादेव के घर में उत्पन्न हुई, स्वभाव से हरी एवं सम्पूर्ण रोगों को हरने वाली है, इसलिए इसका नाम हरीतकी पड़ा। विशेष उपयोग (1) दमा और हिचकी में-हर्र और सोंठ का चूर्ण गरम पानी के साथ सेवन करना चाहिए / (2) पित्त से दुर्बलता होने पर--हर्र का छिलका दो माशे, शाम के समय गाय के दूध में भिगो दिया जाय, तथा सबेरे उसे पीसकर पी जाना चाहिए। इस प्रकार तीन-चार सप्ताह तक नियमित रूप से सेवन करने से लाभ होता है। दस्त अधिक होने पर घी-भात खाना चाहिए। (3) अम्लपित्त में हर्र और मुनक्का एक-एक तोला, Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 138 मिनी दो तोले सबको पीसकर एक तोले की गोली बना ली जाय / दोनों समय जल के साथ एक-एक गोली खाई जाय / (4) आँख आने पर-हर और फिटकिरी पानी में घिसकर अंजन करना चाहिए। (5) पाण्डुरोग में-हर्र दो माशे, शहद चार माशे और घी आठ माशे, एक साथ मिलाकर सेवन करना चाहिए / अथवा हर्र को इक्कीस दिन तक गोमत्र में भिगोकर सुखाले और प्रतिदिन एक हर्र खाय। (6) मूर्छा में बालहरीतकी के काढ़े में घी मिलाकर पीना चाहिए। (7) उपदंश के घावों पर-त्रिफला को लोहे की कढ़ाई में भून तथा पीसकर एवं शहद के साथ मिलाकर लगाएँ। (8) प्रमेह में-त्रिफला और हल्दी का वर्ण मिश्री मिला कर सेवन करना चाहिए। ___(8) अण्डवृद्धि में बालहरीतकी गोमूत्र या एरंड तैल के साथ देनी चाहिए / अथवा त्रिफला, दूध के साथ देना चाहिए / (10) कास-श्वास पर-हर और बहेड़ा का चूर्ण, शहद के साथ देना चाहिए। (11) नेत्ररोग में-त्रिफला शाम के समय पानी में भिगो दिया जाय और प्रातःकाल छानकर उसीसे आँख धोई Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 139 मेहदी जाय तथा रात में सोते समय शहद और घी के साथ नियमितरूप से सेवन किया जाय / / (12) अंडकोशी की सूजन में-त्रिफला का काढ़ा, गोमूत्र मिलाकर सेवन करना चाहिए। (13) रक्तस्राव में-हर्र के काढ़े से स्त्रियों का गुप्तांग धोना चाहिए। मेहदी सं० नखरंजक, हि० मेहदी, ब. मेदी, म० मेंदी, गु० मेदी, तै० गोरंटम् , अ० हिन्नाअकान, फा० हिना, अँ० हेना-Henna, और लै० लोंजानियाँ आल्वा-Lansonia Alba. विशेष विवरण-मेहदी के वृक्ष बागों में लगाए जाते हैं / इसके पत्ते छोटे-छोटे होते हैं। इसके फूल आम की मौर के समान होते हैं / इनमें एक मधुर गंध होती है / इसकी पत्ती पीसकर हाथ-पाँव में लगाने से लाल हो जाते हैं। इसके लगाने से हाथ-पाँव की गर्मी दूर हो जाती है। अनेक लोग इसके बीज को रेणुका मानते हैं / इसका वृक्ष पाँच से सात फिट तक ऊँचा होता है / यह शीतल होती है / इसके फूल का इत्र और तेल बनता है / यह दाह, कुष्ठ और कफ नष्ट करती है / इसका बीज शोधक और ग्राहक है / यह प्रहदोष, भूतवाधा तथा ज्वर नाशक है / Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान गुण-रकरंगा दाहहंत्री वान्तिकृत्श्लेष्मकुष्ठहा। .. बीजमस्या ग्राहकं तु शोषकं च प्रकीर्तितम् // भूतग्रहानां दोषं च ज्वरं चैव विनाशयेत् / -शा० नि० मेहदी-दाहनाशक, वमनकारक तथा कफ और कुष्ठ नाशक है / इसका बीज-पाही, शोषक तथा भूतबाधा, ग्रहदोष और ज्वरनाशक है। विशेष उपयोग (1) पाँव की जलन पर-मेहदी की पत्ती पीसकर और नीबू का रस मिलाकर लगाना चाहिए। (2) पित्तज प्रमेह में-मेहदी की पत्ती ठण्ढे पानी में पीसकर नारियल का पानी और मिश्री मिलाकर सात दिनों तक दिन में दो बार पीना चाहिए। अथवा इसकी पत्ती का रस और गाय का दूध मिलाकर पीना चाहिए। (3) बद में-मेहदी की पत्ती पीसकर तथा गरम करके लगाना चाहिए। (4) रक्ताविसार में-मेहदी का बीज पीसकर और घी में भूनकर सुपारी बराबर गोली बनाकर दोनों समय सेवन करें। (5) प्रमेह में-मेहदी की पत्ती का रस और गाय का दूध मिलाकर पीना चाहिए। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुरहुज सं० आदित्यभक्ता, हि० हुरहुज, ब० हुरहुडे, म० सूर्यफूल, गु० सूरजमुखी, क० हुरहुर, तै० सूर्यकान्तिमु, अ० अरदमून, फा० गुलेआफताव परस्त, अँ० सन्फ्लावर-Sunflower, और लै० हेलिऐंथेस् एन्युस-Helianthusannus. विशेष विवरण--हुरहुर का पेड़ तथा लता होती है / यह विशेषकर बागों में लगाई जाती है। इसके फूल प्रायः सूर्योदय होने पर खिलते हैं / लतावाले में जो पुष्प आते हैं, वह नीले रङ्ग के होते हैं। पेड़ में जो फूल आते हैं, वह सफेद होते हैं। यह देखने में बड़े सुन्दर और सूर्याकार होते हैं। परन्तु बहुत छोटेछोटे होते हैं / किन्तु यह स्वयं अपने से नहीं उगता / इसका बीज बोना पड़ता है / बोने के चार महीने बाद यह होता है / यह तीन से लेकर पाँच हाथ तक ऊँचा होता है। इसके पत्ते की लम्बाई बारह से पन्द्रह अंगुल तक होती है / इसके पत्ते की डण्ठल लंबी होती है। इसके अनेक गुण होने के कारण अनेक वर्षों से अनुसन्धान करने पर बड़े परिश्रम के बाद नवीन बातें मालूम हुई हैं। यह अश्लेषा और मघा नक्षत्र में बोया जाता है / इस नक्षत्र में बोया हुआ विशेष गुणद एवं उत्तम होता है / इसका तना पाँचछः अंगुल के घेरे में होता है। उस पर लम्बे-लम्बे सफेद रङ्ग के डण्ठल निकलते हैं। प्रत्येक पत्ते के बगल से फूल निकलता है। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 142 सबसे ऊपरवाले डण्ठल में भी फूल निकलता है; किन्तु वह अन्य फूलों की अपेक्षा अधिक बड़ा होता है। उसके पुष्पकोश में चार पत्ते होते हैं। इस फूल का रङ्ग पोले कनेर की भाँति होता है / इसके बीच में किंजल्क कोश होता है, और उसके बीच में बीज होता है। उत्तम और बड़े वृक्षों में चालीस फूल तक अभी पाये गये हैं। आरोग्यशास्त्र की दृष्टि से यह झाड़ बड़े महत्व का है / जहाँ पर इसका वृक्ष रहता है, उसके आस-पास की वायु अत्यन्त शुद्ध होती है। अफ्रिका और यूरोप के अनेक स्थानों में जहाँ की वायु दूषित थी, इस वृक्ष के लगाने से विशुद्ध हो गई। इसके बीज का तेल विशेष उपयोगी है। इसका तेल घास के रङ्ग का होता है / खाने में स्वादिष्ट और पथ्यकारक होता है। इससे पूड़ी बनाई जाती है। इसमें किसी प्रकार की तीव्र गन्ध अथवा दुर्गन्ध नहीं होती / इसके साथ तला हुआ पदार्थ विशेष दिनों तक रह जाने से भी उसमें खराबी नहीं आती। इसका उपयोग रङ्ग बनाने तथा चित्रकारी के लिए अच्छा है / रूस में इसकी खेती विशेष रूप से होती है / रूसी लोग इसके तेल का व्यापार भी करते हैं। गुण-आदित्यभक्ता कटुका शीता तिक्तातिपित्तला / रूक्षा स्वाद्वी च की च कफवातव्रणापहा // शीतज्वरं भूतवाधां ग्रहपीडां विनाशयेत् / मेहं कृमींश्च कुष्ठं च त्वग्दोषं च विनाशयेत् ।।-नि र० Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 143 हुरहुज हुरहुज-कटु, शीतल, तीती, अत्यन्त पित्तकारक, रूखी, म्वादिष्ट, कड़वी तथा कफ, वात, व्रण, शीतज्वर, भूतवाधा, ग्रहपीड़ा, प्रमेह, कृमि रोग, कुष्ट और त्वचा दोष नाशक है / गुण-आदित्यपत्रा वीर्योष्णा कटी संदीपनी मता / स्वर्या रसायनी तिक्ता तुवरा च सरा मता // रूक्षा लघ्वी च संप्रोक्ता कफवातविनाशिनी। रक्तदोपं ज्वरं श्वासं कासं विस्फोटकं तथा // कष्टं मेहं चारुचिं च योनिशूलं तथाश्मरीम् / मूत्रकृच्छू पाडुरोग गुल्मं चैव विनाशयेत् ॥-नि० र० हुरहुज का पत्ता-उष्णवीर्य, कड़वा, संदीपन, स्वर्य, रसायन, नीला, कपैला, सारस, रूखा, हलका तथा कफ, वात, रक्तदोष, कार, थाल, कास, विस्फोट, कुष्ठ, प्रमेह, अरुधि, योनिशूल, पथरी, जून माहुरोग एवं गुम नाशक है / विशेष उपयोग ( 1) भूतज्वर में --हुरहुज का फूल कान में रखना चाहिए / (2) शीघ्र प्रसव के लिए-हुरहुज का फूल बालों में बाँधना चाहिए। (3) बच्चों का पेट भारी होने पर --हरहुज के फूल का रस दूध में मिलाकर शक्ति के अनुसार दस बूंद तक दें। (4) बिच्छू के विष पर-हुरहुज के पत्ते के रस की नास लेनी चाहिए। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनाय सं० मार्कण्डिका, हि० सनाय, ब० कांकरोलभेद, म० सोनामुखी, गु० मीठी आवल्य, क० तलाडवल्ली, तै० नेलतंघडी, अ० फा० सना, अँ० अलेग्जेंड्रियन सेना-Alexandrian Sena, और लै० सेनाफोलिया-Sennafolia. विशेष विवरण-सनाय की लता होती है। इसके पत्ते परवल के पत्ते के समान ; किन्तु छोटे होते हैं / फूल पीले रंग का होता है / पत्ते के भेद से यह दो-तीन प्रकार की होती है। लम्बे पत्ते वाली को सोनामुखी कहते हैं / यह जमीन पर लता की तरह फैलती है। यह रेचक है। इसकी जड़ कषैली, अग्निदीपक और पाक में स्वादिष्ट होती है / एक दूसरे प्रकार की भी होती है / इसके पत्ते और फूल, सफेद होते हैं / यह कषैली, खट्टी, शीतल, सारक, कड़वी तथा भेदक है / एवं पित्त, गुल्म, अतिसार आदि का नाश करती है / इसका फूल कान्तिकारक तथा मोहनाशक है। इसका फूल भी अनेक गुणों वाला होता है। गुण-मार्कण्डिका कुष्ठहरी उर्ध्वाधः कायशोधिनी / विषदुर्गन्धकासनी गुल्मोदरविनाशिनी ॥-भा० प्र० सनाय-कुष्ठनाशक; शरीर के नीचे और ऊपर को शुद्धकरने वाली तथा विष, दुर्गन्ध, कास, गुल्म और उदररोग नाशक है। विशेष उपयोग(१)विरेचन के लिए-सनाय की पत्ती Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 145 सनाय पानी में भिगोकर रात भर रहने देना चाहिए और प्रातःकाल उसे मलकर तथा छानकर उसमें शहद मिलाकर पीना चाहिए / (2) कान की खुजली में-सनाय का चूर्ण एक माशा गरम पानी के साथ देना चाहिए / (3) दाद पर-सनाय का बीज दही के साथ पीसकर लेप करना चाहिए। ___(4) पसोना के अधिक आने पर-सनाय का चूर्ण गाय के छाछ के साथ सेवन करना चाहिए / (5) शूल में-सनाय की जड़ पानी के साथ पीसकर पीनी चाहिए। (6) गर्भधारण के लिए-सनाय की पत्ती का चूर्ण, गोखुरू के पत्ते के रस में मिलाकर अथवा मिश्री में मिलाकर इक्कीस दिनों तक सेवन करना चाहिए। (7) पाण्डुरोग में-सनाय का दो माशे चूर्ण, पके आम के रस; अथवा पके केले में मिलाकर सेवन करना चाहिए / ___(8) सर्पदंश में-सनाय का चूर्ण छः माशे, बर्र के तेल के साथ पीने से वमन होकर विष नष्ट हो जाता है। (8) अतीसार में सनाय का चूर्ण मट्ठा के साथ सेवन करना चाहिए। (10) स्तनरोग में सनाय की जड़ पानी के साथ घिसकर पीनी चाहिए। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनस्पति-विज्ञान 146 (11) त्वचारोग में-सनाय को रात के समय गोमूत्र में भिगोकर सुबह सुखाकर पुनः दस दिनों तक गोमूत्र की भावना देकर चर्ण बनाकर छः माशे से एक तोला तक, गरम पानी के साथ सेवन करना चाहिए। GHORI नागदौन सं० नागदमनी, हि० नागदौन, ब० नागदमना, म० नागदवणी, गु० नागडमण, क० नागदमनी, ता. माचिपत्री, तै० इश्वरिचेटुदरणमु, और लै० साइन ए० इण्डिया-Syn A. Indian. विशेष विवरण-नागदमन को ही कुछ लोग दौना भी कहते हैं। कुछ लोग इसे सुदर्शन भी कहते हैं। इसका वृक्ष अनन्नासजैसा होता है / इसका पत्ता बड़ा और सफेद रंग का होता है। इसके बीच में तीन हाथ लम्बा एक डण्ठल निकलता है / उस डंठल के ऊपर सफेद फूल निकलता है। इसमें एक प्रकार की विचित्र गंध भी होती है / कुछ लोगों का कथन है कि इसके पास सर्प नहीं जाता। गुण-बला मोटा कटुस्तिक्ता लघुः पित्तकफापहा / मूत्रकृच्छ्रव्रणान्रक्षो नाशयेज्जालगर्दभम् // सर्वग्रह प्रशमनी विशेष विषमाशिनी / जयं सर्वत्र कुरुते धनदा सुमतिप्रदा ॥-भा० प्र० Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 147 बंदाल ___ नागदौन.-चरपरा, कड़वा, तीता, हलका तथा पित्त, कफ, मूत्रकृच्छ, व्रण, राक्षसवाधा और जालगर्दभरोग नाशक है / सर्वग्रह प्रशामक एवं विशेष करके विष नाशक है / सब जगह विजय प्राप्त करनेवाली एवं धन और सुमति दायक है। . विशेष उपयोग (1) सब प्रकार के विषों परनागदौन की जड़, शीतल जल के साथ घिसकर पिलाने से वमन होकर विष नष्ट हो जाता है। (2) स्त्रियों की कमर टेढ़ी हो जाने पर-नागदौन का पत्ता पीसकर लगाना तथा कमर पर बाँधना चाहिए। (2) बच्चों का कफ निकालने के लिए -नागदौन का पत्ता गरम करके तथा रस निकालकर पिलाने से वमन-द्वारा कफ निकल जाता है। बंदाल सं० देवदाली, हि० बंदाल, ब० देयाताड़ा, म० देवदाली, गु० कुकड़वेल्य, क० देवडंगर, तै० डातरगण्डि, अँ० ब्रिस्टली लुफाBristly Luffa, और लै० लुफा एकिनेटा-Luffa Echi nata. विशेष विवरण-इसकी एक लता होती है। किसान लोग इसे खेत के चारों ओर लगा देते हैं। फूल-सफेद, पीले Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 148 और लाल रंग के होते हैं। फलों के ऊपर बहुत छोटे-छोटे कॉटे होते हैं / इसका फल तुरई के समान होता है। जमीन में इसकी पुरानी लता के भीतर गाँठ-सी पड़ जाती हैं। फल के सूख जाने पर बीज निकालते समय उसके भीतर से रेशा और खुज्जा निकलता है। यह फल अत्यन्त कड़वा होता है / घोड़े के शरीर में कीड़े पड़ जाने पर इसे पीसकर पिलाया जाता है। यह दो-तीन प्रकार की होती है / इसके फल में पानी भरकर पीने से दस्त होते हैं। इसका रस ऊर्द्धश्वास में विशेष लाभदायक है / गुण -देवदाली रसे पाके तिक्ता तीक्ष्णा विषापहा / वामनी हन्ति गुदजकफशोफामकामलाः // ज्वरकासारुचिश्वासहिध्मापाण्डुक्षयकृमीन् / -रा० नि० बंदाल- रस और पाक के तिक्त; तीक्ष्ण; वमन कारक तथा विष, अर्श, कफ, शोथ, आम, कामला, ज्वर, कास, अरुचि, श्वास, हिचकी, पाण्डुरोग, क्षय और कृमिनाशक है। विशेष उपयोग (1) सर्प-विष में बंदाल-जल के साथ पीसकर तथा उस पानी को उससे अलग करके पिलाना चाहिए। विष की तीव्रता और शक्ति का विचार करके देना चाहिए / अधिक वमन होने पर घी पिलाना चाहिए / (2) कमला में-बंदाल की लता का रस नाकामें छोड़ना; अथवा इसके पंचांग का चूर्ण सुँघनी की तरह सुँघाना चाहिए। इससे पीले रङ्ग का स्राव होता है और रोग नष्ट हो जाता है। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जलपीपर 149 (3) गंडमाला में-बंदाल का बीज पीसकर उसका रस एक बूंद, और नर-मूत्र चार बूंद मिलाकर कानों में छोड़ना चाहिए / (4) रात में आनेवाला ज्वर-बंदाल की जड़ कान में बाँधनी चाहिए। . (5) पाण्डुरोग में-बंदाल के पंचांग का चूर्ण चार माशे, दूध अथवा जल के साथ एक मास तक सेवन करना चाहिए। (6) बवासीर पर-बंदाल की जड़ और सेंधानमक छाछ के साथ पीसकर लेप करना चाहिए। अथवा बंदाल के काढ़े से उसे धोना चाहिए। जलपीपर सं० जलपिप्पली, हि० जलपीपर, ब० काँचड़ाघास, म० जलपिंपली, गु० रतवेलियो, क० होमुगुलु, अ० फिलिफिलमाय, फा० पीपलावी, अँ० परपल लिपिया-Purple Lippia, और लै० लिपिया नेडिफ्लोरा-Lippia Nodifloro. - विशेष विवरण-जलपीपर का वृक्ष प्रायः सजलभूमि में पाया जाता है। इसका पत्ता कुल्फा के पत्ता के समान नोकदार होता है। इसमें भी पीपल के समान ही एक बाल निकलती है / गुण-जलपिप्पलिका हृद्या चक्षुष्या शुक्रला लघुः / संग्राहिणी हिमा रूझा रक्तदाहव्रणापहा // कटुपाकरसा रुच्या कषाया बहिवर्द्धिनी।-मा० प्र० Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 150 जलपीपर-हृद्य, चक्षुष्य, शुक्रल, हलकी, ग्राही, शीतल, रूखी तथा रक्तविकार, दाह और बणनाशक एवं पाक और रस में कटु, रुचिकारक, कषैली और अग्निवर्द्धक है। विशेष उपयोग (1) आँख आने पर-जलपीपर और पुरानी इमिली पीस और गरम करके लेप करना चाहिए। (2) श्लीपद पर-जलपीपर पीस और गरम करके लगाना चाहिए। (3) दाह में जलपीपर की पत्ती पीसकर लगाएँ। मोरशिखा. सं० मयूरशिखा, हि० मोरशिखा, ब० मयूरशिखा, म० मयूरशिखा, गु० मोरशिखा, क० होरेयसू सुव, तै० मयूरशिखियने, फा० असनाने, और लै० सिलोसिया क्रिस्टाटा-Celosia Cristata विशेष विवरण-मोरशिखा का वृक्ष छोटा-छोटा होता है। यह प्रायः सूखी भूमि में उत्पन्न होता है। इसके पत्ते कंटीले होते हैं / पत्तों पर मोर की चोटी के समान चोटी होती है। इसीलिए / इसे मोरशिखा कहते हैं। कुछ लोग इसे लाजवती का ही भेद गानते हैं / इसका पेड़ प्रायः दो-तीन फिट लम्बा होता है / "गुण-नीलकंठशिखा लघ्वी पित्तश्लेष्मातिसारजित् / -भा० प्र० Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 151 मूसाकानी मोरशिखा-हलको तथा पित्त, कफ और अतिसार नाशक है। विशेष उपयोग (1) पथरी में—मोरशिखा की जड़, चावल की धोअन के साथ पीसकर पीना चाहिए। (2) दाह पर-मोरशिखा की पत्ती पीसकर लेप करें। (3) अतीसार में मोरशिखा की जड़ का चूर्ण, शहद के साथ देना चाहिए। ____ मूसाकानी ___ सं० मूषाकर्णी, हि० मूसाकानी, ब० उन्दुरकानीपाना, म० उन्दिरकानीभोपनी, गु० उन्दरकनी, क० वल्लिहहे, तै० एलुकचोवचटु, अ० अजानुलफार, फा० गोरोमुष, और लै० इपोमिया रेनीफोर्मिस-Ipomoea Renniformis. विशेष विवरण-मूसाकानी का छत्ता जमीन पर फैलता है / इसके पत्ते मूसा के कान के समान होते हैं। हरेक पत्ते के नीचे जड़ होती है / डाल पतली और लाली लिए होती है। इसमें फल विशेष लगते हैं। इसका पेड़ बहुत छोटा होता है / यह प्रायः सभी प्रान्तों में पाया जाता है / इसके फूल गुलाबी रंग के होते हैं / यह दो प्रकार की होती है। एक तो बगीचों में पाई जाती है, और दूसरी किसी बड़े पेड़ की छाया अथवा खंडहरों में मिलती Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 वनस्पति-विज्ञान है / इसकी डाल तीन धारवाली होती है / इसका पत्ता मसलकर संघने से ककड़ी-जैसी गंध मालूम पड़ती है। . गुण-आखुकर्णी कटुस्तिक्ता कषाया शीतला लघुः / विपाके कटुका मूत्रकफामयकृमिप्रणुत् ॥-भा० प्र० मूसाकानी-कड़वी, तीती, कषैली, शीतल, हलकी, पाक में कटु तथा मूत्रविकार, कफरोग और कृमिनाशक है। . गुण-आखुकर्णी वृहत्युक्ता शीतला मधुरा स्मृता / __ रसबन्धकरी नेत्र्या रसायन्यथ शूलनुत् ॥-नि० र० बड़ी मुसाकानी-शीतल, मधुर, पारद को बाँधने वाली, नेत्रों को हितकारी, रसायन और शूलनाशक है / विशेष उपयोग (1) सिर की गर्मी पर-मूसाकानी का चूर्ण सूंघना चाहिए। - (2) गर्मी की सूजन पर-मूसाकानी का चूर्ण और जौ का आटा पानी में घोलकर लेप करना चाहिए। (3) कान बहने पर-मूसाकानी का रस छोड़ें। (4) कान में फोड़ा हो तो-मूसाकानी का रस छोड़ें। . (5) पेट की गर्मी, कृमि और मूर्छा पर-मूसाकानी का रस पीना चाहिए। (6) अपस्मार में मूसाकानी का रस गरम करके पीएँ। (7) सर्पविष में-मूसाकानी का रस पीना चाहिए / (8) दाँतों के कृमि में-मूसाकानी के चूर्ण से दाँतों Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 153 मूसाकानी को मलकर तथा मूसाकानी का रस गरम पानी में मिलाकर कुल्ला करना चाहिए। (8) मस्तिष्क की शान्ति के लिए-मसाकानी पीसकर मलना चाहिए। ___ (10 ) आँख की सन्धि के नासूर में मूसाकानी की जड़ पानी में घिसकर छोड़ना चाहिए। (11) शोथ पर-मूसाकानी का चूर्ण और आटा मिलाकर मलना चाहिए। (12) शरीर की गर्मी पर-मूसाकानी के बीज का शर्बत पीना चाहिए। (13) पेट फुलने पर-मूसाकानी की जड़ पीसकर पीनी चाहिए। (14 ) काँटा या शीशा गड़ जाने पर-मूसाकानी पीसकर लेप करना चाहिए। (15) कृमि रोग में-मूसाकानी और पुदीना का रस दस-दस माशे बीस तोले जल के साथ मिलाकर पीना चाहिए / (16) ज्वर में मूसाकानी के पत्ते का रस चार माशे, शहद मिलाकर पीना चाहिए। (17) वीर्यस्राव और पथरी पर-मूसाकानी के पत्ते का शाक खाना चाहिए। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान (18) सन्धिवात में-मूसाकानी का चूर्ण सूंघना और मलना चाहिए। (16) इन्द्रिय-शैथिल्य पर-मूसाकानी का रस वस्तिस्थान पर लेप करना चाहिए। अथवा इसकी सूखी पत्ती और आटा घी में भूनकर इक्कीस दिनों तक खाना तथा पर्दे में बैठना चाहिए / दूध और गेहूँ की चीजें खानी चाहिएँ। मुँइ आँवला' सं० भूम्यामलकी, हि० मुँइ आँवला, ब० भुईआमला, म० भुईआंवली, गु० भोंआंवली, क० आरुनेल्लि, तै० नेलाउसीरीके, और लै० पी० युरिनेरिया-P. Urinaria. विशेष विवरण-इसका क्षुप छोटा-छोटा होता है / पत्तों के नीचे राई के दाने के समान फलों की शाखा होती है। इसका कोई-कोई पेड़ दो फिट तक ऊँचा होता है / बरसात में इसके पेड़ उत्पन्न होते हैं / इसकी डाल धान के डण्ठल के समान होती है / इसका रङ्ग हरा होता है / इसके फल का स्वाद-खट्टा और कड़वा होता है। यह गर्मी में सूख जाता है। इसीसे कार्तिक मास के अन्तर्गत ही इसका संग्रह कर लिया जाता है; क्योंकि उस समय यह पूर्ण यौवनावस्था में रहता है। गुण-भूधात्री च कषायाम्ला पित्तमेहविनाशिनी / शिशिरा मूत्ररोधार्तिशमनी दाहनाशिनी ॥-रा० नि० Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 155 शंखाहुली भुंइ आँवला-कषैला, खट्टा, शीवल तथा पित्त, प्रमेह, मूत्रावरोध और दाह विनाशक है / विशेष उपयोग (1) प्रदर में-मुँइ आँवला की जड़ चावल के धोवन के साथ पीस छानकर तथा घी मिलाकर तीन दिनों तक सेवन करनी चाहिए। (2) प्रमेह में-मुँइ आँवला, तज, छोटी इलायची, तमालपत्र और कालीमिर्च समभाग पीसकर सात दिनों तक पीना चाहिए / (3) मूत्रकृच्छ में-मुँइ आँवला और जवाखार पानी के साथ पीस-छानकर पीना चाहिए। (4) दाह पर-मुँइ आँवला पीसकर लगाएँ / (5) पित्तविकार में-मुँइ आँवला का रस, शहद मिलाकर पीना चाहिए। शंखाहुली सं० शंखपुष्पी, हि० शंखाहुली, ब० डानकुनी, म० शंखावली, गु० शंखावली, क. शंखपुष्पी, और लै० ई० हर्सटस्E. Hirsutus, विशेष विवरण-शंखाहुली का छत्ता प्रायः ऊसर भूमि में विशेष होता है / इसके पत्ते प्रायः धूसर रंग के होते हैं / पत्ते Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 156 छोटे-छोटे होते हैं / फूल दुपहरिया के फूल से मिलता-जुलता होता है / सफेद फूलवाली को श्वेत शंखपुष्पी और नीले फूलवाली को विष्णुकान्ता कहते हैं / इसका पेड़ एक हाथ तक ऊँचा होता है / इसके फूल का आकार शंख के समान होता है / फूलों के भेद से यह तीन प्रकार की होती है / इसमें सफेद, नीले और भरे रंग के फल आते हैं। गुण-शंखपुष्पी कषायोष्णा कफकुष्ठविनाशिनी / रसायनी सरा दिव्या लालाहृल्लासजूर्तिहा // लक्ष्मीमेधाबलाग्नीनां वर्द्धिनी कथिता बुधैः / -शा. नि० शंखाहुली-कषैली, गरम; कफ और कुष्टनाशक, रसायन, सारक, दिव्य; लार, उबकाई और ज्वरनाशक; लक्ष्मी, बुद्धि और अग्निवर्द्धक कही गई है। गुण-शुभ्रा च शंखिनी मेध्या शीतला वश्यसिद्धिदा / रसायनी सरा स्वर्या किञ्चिदूष्णां च तूवरा // स्मृतिकान्तिबलाग्नीनां वर्द्धिनी कटुका मता / पाचकायुः स्थिरकरी मागल्या पित्तनाशिनी // विषदोषमपस्मारं कर्फ कृमिविषं हरेत् / कुष्ठलूतात्रिदोषनी ग्रहदोषस्य नाशिनी // सर्वोपद्रवहा प्रोक्ता रक्ता नीला गुणैः समा।-नि० र० सफेद शंखाहुली-बुद्धिदायक, शीतल, वश्य, सिद्धिदायक, रसायन, सारक, स्वर्य, किंचित् उष्ण, कषैलो; स्मृति, Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 157 मेदाशिंगी कान्ति, बल और अग्निवर्द्धक; कड़वी, पाचक, आयु को स्थिर करनेवाली, मङ्गलकारक, पित्तनाशक तथा विषदोष, अपस्मार, कफ, कृमि, विष, कुष्ठ, लूता, त्रिदोष, ग्रहवाधा और सम्पूर्ण उपद्रवों को शान्त करने वाली है। लाल और नीली का भी इसी के समान गुण है। विशेष उपयोग (1) उन्माद में-शंखाहुली के रस में शहद मिलाकर पीना चाहिए। (2) अपस्मार में-शंखाहुली के रस में काली मिर्च का चूर्ण और शहद मिलाकर पीना चाहिए। (3) वमन में-शंखाहुली के दो तोले रस में मिर्च का चूर्ण और शहद मिलाकर पीना चाहिए। (4) सन्निपातोदर में-शंखाहुली के पंचांग का रस और घी, एक साथ पकाया जाय, केवल घी शेष रहने पर छानकर पिलाया जाय। (5) दाह पर-शंखाहुली की पत्ती पीसकर लगाएँ। मेदाशिंगी ... सं० अजशृंगी, हि० मेढाशिंगी, ब० मेडाशिंगे, म० मेंडफली, गु० मडाशींगी, क० डरियमर, अ० बर्किस्त, अँ० स्क्रेवटी Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 158 Screwtree, और लै० हेलिकट्रिस इसोरा-Helicteris Isora. विशेष विवरण-इसका वृक्ष बड़ा होता है। इसके पत्ते फालसे के पत्ते के समान होते हैं। फूल लाल रंग का होता है / इसकी फली गोल और लाल होती है। इसके वृक्ष पार्वत्य-प्रदेशों में विशेष पाए जाते हैं / इसको खरशिंगी भी कहते हैं / किन्तु जिसे लोग खरशिंगी कहते हैं, वह लता के समान होता है, उसका वृक्ष बड़ा नहीं होता / इसका पत्ता तोड़ने पर दूध निकलता है / इसका फल तथा मेढाशिंगी का फल मेढ़ा की सींग के समान होता है। फल पर कॉटे होते हैं। नेत्र रोग में इसका प्रयोग किया जाता है / इसकी छाल बड़ी उपयोगी है / इसके खाने से उल्टी होकर कफ निकल जाता है। मेढाशिंगी की एक दूसरी जाति है / इस जाति का पेड़ कोंकण प्रान्त में बहुतायत से होता है / यह अधिक गुणद एवं उपयोगी है / इसके पत्ते नीम की पत्ती के समान होते हैं / किन्तु उससे कुछ लम्बे होते हैं। इसका फल चपटा, एक अंगुल मोटा और एक फिट तक लम्बा होता है / इसका पंचांग और फल कड़वा होता है / इसकी लकड़ी प्रायः लोग जला डालते हैं / इसकी लकड़ी का मृदंग बहुत सुन्दर और अच्छा बनता है / गुण-अजश्टंगी रसे तिक्ता रुक्षा पाके कटुः स्मृता। चक्षुष्या शीतला स्वाद्वी बल्या भेदकरी मता // Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 159 मेदाशिंगी रसायनी तु तुवरा दाहपित्तकफापहा / रक्तरुक्कासतिमिरश्वासवणविषापहा // कृम्यर्शः शूलहृद्रोगनाशिनी शोथहा स्मृता। कुष्ठ वातं नाशयन्ति फलमस्यास्तु तिक्तकम् // कटूष्णं दीपनं हृद्यं रुच्यं चाम्लं पटु स्मृतम् / स्रंसनं कुष्ठमेहन्नं कासकृमिकफप्रणुत् // विषदोष व्रणं वातं नाशयेदिति कीर्तितम् / —शा० नि० मेढाशिंगी-रस में तीती; पाक में रूखी ; कड़वी, चक्षुष्य, शीतल, स्वादिष्ट, बल्य, भेदक, रसायन, कषैली तथा दाह, पित्त, कफ, रक्तविकार, खाँसी, तिमिर रोग, श्वास, व्रण, विष, कृमि, अर्श, शूल, हृद्रोग, शोथ, कुष्ठ और वात नाशक है / मेढाशिंगी का फल-तीता, कड़वा, उष्ण, दीपक, हृद्य, रुचिकारक, खट्टा, कषैला, संस्रक तथा कुष्ठ, प्रमेह, कास, कृमि, कफ, विषदोष, व्रण, और वातनाशक कहा गया है। विशेष उपयोग (1) उदर शूल में-मेढाशिंगी के पत्ते अथवा छाल का रस पीना चाहिए / (2) कृमि में- मेढाशिंगी के पत्ते या छाल का रस पीएँ। (3) खुजली में-मेढाशिंगी की लकड़ी का तेल लगाएँ। (4) आँख आने पर-मेढाशिंगी पीस-गरम कर लगाएँ। (5) अर्श को-मेढाशिंगी के काढ़े या रस से धोएँ / Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छिरेटा सं० पातालगरुड़ी, हि० छिरेटा, ब० शिलिन्द्रा, म० तानीचा बेल, गु० बेबडीअोलप, तै. दूसरतोगे, और लै० कोक्युलस विलोसस्-Cocculus Villosus. . _ विशेष विवरण-इसकी वेल होती है। यह बहुत मोटी और मजबूत होती है। इसके तन्तु भी बहुत चिमड़े होते हैं। इसके फल छोटे-छोटे किन्तु गुच्छेदार होते हैं। यह कञ्चे हरे, और पक्के काले हो जाते हैं। इसके पत्ते सीसम के पत्ते के समान होते हैं। इसका रस निकालकर पानी में छोड़ने से वह जम जाता है / इसकी सूखी पत्ती पानी में मलने से भी वहं जम जाता है। गुण-वत्सादनी तु मधुरा पित्तदाहास्त्रदोषनुत् / पुष्या सन्तर्पणी रुच्या विषदोषविनाशिनी ॥–रा०नि० छिरेटा-मधुर, वृष्य, तृप्तिकारक, रुचिदायक तथा पित्त, दाह, रक्तविकार और विषदोष नाशक है। विशेष उपयोग (1) प्रमेह में-छिरेटा की पत्ती और मिश्री का समभाग चूर्ण, दूध के साथ सेवन करना चाहिए / (2) दाह में-छिरेटा पीसकर पीएँ और लगाएँ। (3) रक्तविकार में-छिरेटा की छाल घिसकर लगाएँ / Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौपाठोडी सं० काकनासा, हि० कौआठोडी, ब० केउयाठण्टी, म० श्वेतकावली, क० कद्गुरली, तै० काकिदोंड चेटु, और लै० जिम्ब्रिमा सिल्वेस्ट्रा-Gyambrima. Sylvestre विशेष विवरण-कौआठोडी विशेषकर जंगल एवं कठोर भूमि में बहुतायत से पैदा होती है / इसके पत्ते गुलाब के पत्ते से छोटे होते हैं, और फूल नीला तथा सफेद रङ्ग का कौआ की नासिका के समान होता है / फूल पर फली आती है। उस फली में से सेम-जैसे बीज निकलते हैं। कौआ की नासिका के समान होने ही से इसका नाम काकनासिका है / गुण-काकनासा कषायोष्णा कटुका रसपाकयोः / कफनी वामनी तिक्ता शोफार्शः श्वित्रकुष्ठनुत् ॥-भा० प्र० कौआठोडी--कषैली, गरम, पाक और रस में कड़वी, वमनकारक, तीती तथा शोथ, अर्श और श्वित्रकुष्ठ नाशक है / _ विशेष उपयोग (1) वमन के लिए-कौआठोडी के बीज का चूर्ण करके गरम पानी के साथ देना चाहिए / (2) वातार्श में-कौआठोडी की पत्ती पीसकर लगाएँ। (3) खाँसी में-कौआठोडी जलाकर उसकी राख पान के साथ खानी चाहिए। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असगंध सं० अश्वगंधा, हि० असगंध, ब० अश्वगंधा, म० आसकंद, गु० आखसंध, क० आसादु अंगुर, तै० पिल्लिांगा, फा० मेहेमन वररी, अँ० विंटरचेरी, और लै० फाइसेलिस सोम्निफेरा-Physals Somnifera. विशेष विवरण-असगंध का वृक्ष होता है / इसके फल पनसोखा के समान होते हैं। इस पेड़ के नीचे छोटी मूली के समान सफेद कन्द होता है। उसे निकाल कर सुखा लेते हैं। उसे असगंध कहते हैं। इसका वृक्ष खानदेश, नासिक और बरार आदि में विशेष होता है। इसकी ऊँचाई अधिक-से-अधिक दो हाथ तक होती है। यह चार-पाँच वर्ष तक हरा रहता है / इसके ऊपर चने के समान फल लगते हैं। उस फल के भीतर छोटे-छोटे बीज निकलते हैं / असगंध बड़ी उपयोगी वस्तु है / इसका प्रयोग वीर्यवर्द्धक और शक्तिवर्द्धक औषध के लिए होताहै। गुण-अश्वगन्धो जराव्याधिनाशकस्तुवरः स्मृतः / धातुवृद्धिकरः किञ्चित्कटुको बलदः स्मृतः // कान्तिप्रदश्च संप्रोक्तस्तथा च मधुगन्धिकः / शरीरपुष्टिकरी च वृष्यश्चोष्णो लघुः स्मृतः // वातं क्षयं श्वासकासौवणं श्वेतं च कुष्ठकम् / कफविषकृमीन्शोथं तथा चैव क्षतक्षयम् // कण्डूं नाशयतीत्येवं पूर्वाचायनिरूपितम् / -नि० 20 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 163 असगंध असगंधः-जरा-व्याधिनाशक, धातुवर्द्धक, किञ्चित कड़वा, बलदायक, कान्तिप्रद, मधुगन्धि युक्त, शरीर को पुष्ट करनेवाला, वृष्य, हलका तथा वात, क्षय, श्वास, कास, व्रण, श्वेत कुष्ठ, कफ, विष, कृमि, शोथ, क्षतक्षय और कण्डू नाशक है / विशेष उपयोग (1) वीर्यवृद्धि के लिए-असगंध का चूर्ण-घी और शहद की विषममात्रा के साथ मिलाकर चाटना तथा ऊपर से दूध पीना चाहिए / (2) गर्भपुष्टि के लिए असगन्ध का काढ़ा पिलाएँ। (3) बद्धकोष्ठता पर-असगंध का चूर्ण दूध के साथलें। (4) बालकों को शक्तिवर्द्धन के लिए-असगंध का चूर्ण, दूध के साथ देना चाहिए। अथवा असगंध एक तोला, दूध आठ तोला, थोड़ा घी मिलाकर पकाया जाय / बाद थोड़ा-थोड़ा पिलाया जाय / (5) नेत्रों की ज्योति बढ़ाने के लिए-असगंध और मुलेठी का चूर्ण आँवला के रस के साथ मिलाकर पिलाना चाहिए। (6) सब रोगों पर-असगंध का चूर्ण एक तोला, गुरिच का सत एक माशा, शहद के साथ मिलाकर चाटना चाहिए / (7) चर्मरोग पर-असगंध का चूर्ण तेल के साथ मिलाकर लगाना चाहिए। __(8) गर्भधारण के लिए-असगंध और घी, दूध के साथ पकाकर मासिकधर्म के चौथे दिन पिलाना चाहिए / Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 164 (8) प्रदर में-असगंध का चूर्ण और मिश्री एक तोला प्रातःकाल दूध के साथ सेवन करना चाहिए। (10) वीर्यवृद्धि के लिए-असगंध का चूर्ण और मिश्री मिलाकर प्रतिदिन दोनों समय दूध के साथ सेवन करना चाहिए। (11) प्रमेह में-असगंध का चूर्ण, आँवला का रस और शहद मिलाकर सेवन करना चाहिए। (12) धातुक्षय में-असगंध, मिश्री, घी, शहद और छोटी पीपर एक साथ पीसकर चाटना चाहिए / दूध और चावल खाना चाहिए। (13) दूध की वृद्धि के लिए-असगंध, विदारीकंद और मुलेठी का काढ़ा बनाकर, गाय का दूध मिलाकर पीएँ / (14) शोथ और व्रण पर-असगंध की ताजी जड़ गोमूत्र के साथ पीसकर तथा गरम करके लेप करना चाहिए। (15) वायु में-असगंध का चूर्ण, गुरिच के रस में पीएँ। (16) पशुओं के विष पर-असगंध की ताजी जड़ पानी के साथ पीसकर पीना चाहिए। (17) उरुस्तम्भ में-असगंध पीस, गरम कर लेप करें। (18) वातविकार में असगंध और सतावर का चूर्ण, घी और शहद की विषममात्रा के साथ मिलाकर सेवन करें। (16) आधाशीशी में-असगंध पीसकर लेप करें। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठा सं० हि० क० पाठा, ब० आक्नादी, म० पहाड़मूल, गु० कालीपाट, तै० पाठचेटटु, 10 परेरारूट-Pararot, और लै० सिसांपिलोस परिरा-Cissampelos Pareira. विशेष विवरण-पाठा की लता होती है। इसके पत्ते कुछ गोल होते हैं / पत्तों के कोने में से सफेद; किन्तु सूक्ष्म मौर के समान फूल निकलते हैं। फल मकोय के समान लाल रंग के होते हैं / एक प्रकार का लघुपाठा भी होता है। उसकी भी लता होती है / इसके पत्ते कंजी के समान होते हैं / किन्तु कंजी के पत्ते ऊपर नीले और नीचे सफेद रंग के होते हैं। लेकिन लघुपाठा के पत्ते कुछ पीलापन लिए होते हैं। इसके फल छोटे ; किन्तु सफेद होते हैं / उनका आकार-प्रकार पीलू के समान होता है / लघुपाठा कोंकण में विशेष होता है / औषधि में इसकी जड़ का उपयोग होता है / इसका और भाग काथ बनाने के काम में आता है। गुण-पाठा तिक्ता कटूष्णा च भग्नसन्धानकारका / तीक्ष्णा लध्वी पित्तदाहशूलातीसारनाशिनी // वातपित्तज्वरच्छर्दिविषाजीर्णत्रिदोषकान् / दोगरक्तकुष्ठातिकंडूश्वासकृमीञ्जयेत् // गुल्मोदरव्रणकफवातनाशकरी मता ।-नि० र० पाठा-तीता, कड़वा, टूटे को जोड़ने वाला, तीक्ष्ण, हलका Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 166 तथा पित्त, दाह, शूल, अतीसार, वात-पित्तज्वर, वमन, विष, अजीर्ण, त्रिदोष, हृद्रोग, रक्तविकार, कुष्ठ, खुजली, श्वास, कृमि, गुल्म, उदररोग, व्रण, कफ और वातनाशक कहा गया है / गुण-लघुपाठा तिक्तरसा विषघ्नी कुष्ठकण्डनुत् / छर्दिहृद्रोगगरजित् त्रिदोषशमनी मता ॥-रा० नि० लघुपाठा-रस में तीता; विष, कुष्ठ, खुजली, वमन, हृद्रोग, सर्पविष और त्रिदोषनाशक है। विशेष उपयोग (1) शोथ पर-पाठा की जड़ घिसकर लगाना चाहिए। (2) ज्वर में-पाठा के पंचांग का काढ़ा पीएँ। (3) आँख आने पर-पाठा पीसकर और गरम करके लगाना चाहिए। इन्द्रायण __सं० इन्द्रवारुणी, हि० इन्द्रायण, ब. राखालशशा, म० कांवडल, गु० इन्दरवाणी यूँ , क० हामेक्के, तै० एतिपुच्छा, अ० हंजल, फा० खुर्यजा तल्ख, अँ० कोलोसिंथ-Colo Cynth, और लै० सिटलस कोलोसिंथिस-CitrullusiColocynthis. विशेष विवरण- इसका वृक्ष प्रायः खारी भूमि में होता है / इसके फल छोटे, काँटेदार और लाल रंग के होते हैं / इसका फूल पीले रंग का होता है / पत्ते लम्बे; किन्तु बीच-बीच में कटे Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 167 इन्द्रायण हुए होते हैं / यह. दो प्रकार की होती है। दूसरी महेन्द्रवारुणी रेतीली जमीन में होती है। उसका फल पीले रंग का होता है। दोनों प्रकार की इन्द्रायण की जड़ और फल विरेचन के काम आते हैं। गुण-इन्द्रवारुणी तिक्ता कटुः शीता च रेचनी / गुल्मपित्तोदरश्लेष्मकृमिकुष्ठज्वरापहा ॥-रा० नि० इन्द्रायण-तीती, कड़वी, शीतल, रेचक तथा गुल्म, पित्त, उदररोग, कफ, कृमि, कुष्ठ और ज्वरनाशक है। गुण-अन्येन्द्रवारुणी कंठरुजं न श्लीपदं तथा / नाशयेदिति संप्रोक्ता गुणाश्चान्ये तु पूर्ववत् // रसे वीर्ये च पाके चाधिका चोक्ता गुणैरियम् ।-नि० र० महेन्द्रवारुणी-कंठ की पीड़ा और श्लीपद नाशक कही गई है / अन्य गुण इन्द्रायण के समान ही समझना चाहिए / किन्तु रस और वीर्य में इन्द्रायण से यह अधिक गुणशालिनी है। : विशेष उपयोग (1) सर्प-दंश पर-इन्द्रायण की जड़ पान में खिलानी चाहिए। (2) ऊर्द्धश्वास में-इन्द्रायण के फल में कालीमिर्च भरकर सुखा लिया जाय और बाद उसमें से सात मिर्च प्रतिदिन शहद और पीपर के साथ सेवन की जायें / (3) दाँतों में कृमि हो तो-इन्द्रायण का फल तवा पर जलाकर उसका धुवाँ लेना चाहिए / Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 168 (4 ) मासिकधर्म के लिए-इन्द्रायण के जड़ की पोटली योनि में रखनी चाहिए। (5) स्तनरोग में-बड़ी इन्द्रायण की जड़, पीसकर लेप करनी चाहिए। (6) शूल में इन्द्रायण की जड़ पानी के साथ घिसकर एक माशा सोंठ, मिर्च, पीपर का चूर्ण मिलाकर पीना चाहिए। (7) सन्धिवात में-इन्द्रायण की जड़ और पीपर समभाग तथा गुरिच पाठ भाग पानी के साथ पीसकर पीना चाहिए। (8) अण्डवृद्धि पर-इन्द्रायण की जड़, रेड़ी के तेल के साथ पीसकर लगाना तथा दो माशे चूर्ण गरम दूध के साथ सेवन करना चाहिए। (8) योनिशूल पर-इन्द्रायण की जड़, बकरी के दूध अथवा घी के साथ घिसकर लेप करना चाहिए / (10) गण्डमाला में-इन्द्रायण के जड़ की छाल पीसकर लगानी चाहिए। (11) फोड़ा पर-इन्द्रायण की जड़ घिसकर लेप करें। (12 ) रक्तगुल्म में इन्द्रायण की जड़, रीठा के पानी के साथ घिसकर पीएँ / अथवा उसकी पोटली योनि में रखें। (13) विरेचन के लिए-इन्द्रायण की जड़ का चूर्ण मिश्री मिलाकर गरम पानी के साथ रात के सोते समय खाएँ। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धमासा सं० दुरालभा, हि० धमासा, ब० दुरालभा, म० धमासा, गु० धमासो, क० वल्लिदुरुवे, तै० दुलगोडि, अ० शुकाई, फा० बादावर्द, और लै० फगोनियाऐर विका-Fogonia arabice. विशेष विवरण-धमासा रेतीली भूमि में छत्ता की तरह फैलता है / इसके कॉटे बारीक होते हैं / पत्ते और फल-दोनों सूक्ष्म होते हैं / इसकी दो जातियाँ हैं / इसके पेड़ पर काँटे होते हैं / इसकी ऊँचाई लगभग एक हाथ होती है / इसके पत्ते चिमड़े तथा टेढ़े होते हैं। यह पत्ता जितने दिनों में पकता है, उतने ही समय तक इसका वृक्ष जीवित रहता है। कार्तिक में इसके पत्ते गिर जाते हैं तथा पेड़ का रंग पीला पड़ जाता है / गुण-दुरालभा कटुस्तिक्ता मधुरा रक्तशुद्विकृत् / शीता चोष्णा विसर्पघ्नी विषमज्वरनाशिनी // तृट्च्छर्दिमेहगुल्मनी मोहरक्तरुजापहा / वातं पित्तं कर्फ कुष्ठं ज्वरं चैव विनाशयेत् ॥-नि० र० धमासा-कड़वा, तीता, मधुर, रक्तशोधक, शीतल, उष्ण तथा विसर्प, विषमज्वर, तृपा, वमन, प्रमेह, गुल्म, मोह, रक्तविकार, वात, पित्त, कफ, कुष्ठ और ज्वरनाशक है / ... विशेष उपयोग (1) दातों में कीड़े हों तो-धमासा अथवा उसकी जड़ का धुआँ लेना चाहिए / Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 वनस्पति-विज्ञान (2) घाव पर-हरे धमासा का रस लगाना चाहिए / (3) हिचकी में-धमासा के काढ़ा में शहद मिलाकर पीएँ। (4) भ्रम और मूर्छा में-धमासा के काढ़ा में गाय का घी मिलाकर पीना चाहिए। (5) पथरी में-धमासा, और काँस की जड़, नारियल . के पानी में काढ़ा बनाकर तथा शहद मिलाकर पीना चाहिए / (6) मूत्रकृच्छ में-धमासा और कॉस की जड़ के काढ़ा में शहद मिलाकर पीना चाहिए / (7) शीत-पित्त में-धमासा का काढ़ा पीना चाहिए / (8) मूत्राधात में-धमासा के काढ़े में जवाखार मिलाकर पीना चाहिए। (8) हरताल के विष पर-धमासा का काढ़ा पीएँ / (10) अन्तर्विद्रधि पर-धमासा की जड़, चावल के धोअन में पीस और शहद मिलाकर पीना चाहिए / (11) कुष्ठ में धमासा, मुंडी और अनन्तमूल का काढ़ा पीना चाहिए। MARAAM जवासा सं० यवास, हि• जवासा, ब० यवासा म० कांटेचुबुक, गु० जवासे, क० तोरेइंगलु, अ० अलगुलहाज, झा० फराक्नुन, और लै० अलहेजाई मरोरम-Alhagimaurorum. Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 171 जवासा विशेष विवरण-जवासा भी धमासा के समान ही होता है। यह जलाशय के समीप विशेष पैदा होता है। इसके कॉटे धमासा से कुछ बड़े होते हैं। प्रायः दोनों का गुण भी मिलताजुलता है / वर्षा के अन्त में यह फलता-फूलता है। वर्षाऋतु में जल से यह जल जाता है / इसमें लगने वाली शर्करा को जवासशर्करा या तरंजबीज कहते हैं। गुण-यासस्तु मधुरस्तिक्तो बल्यश्चाग्निप्रदीपकः / सरः शीतो लघुश्चैव तुवरः कफपित्तजित् // रक्तरुक्कुष्ठवीसर्पमेदभ्रममदापहः / वातरक्तं तृषां छदि कासं दाह ज्वरं हरेत् ॥-नि० 20 जवासा-मीठा, तीता, बल्य, अग्निप्रदीपक, सारक, शीतल, हलका, कषैला तथा कफ, पित्त, रक्तविकार, कुष्ठ, विसर्प, मेदरोग, भ्रम, मद, वातरक्त, तृषा, छर्दि, कास, दाह और ज्वर नाशक है / विशेष उपयोग (1) भ्रमरोग में-जवासा और मिश्री का काढ़ा पीना चाहिए। (2) नशा उतारने के लिए-जवासा का काढ़ा पीएँ। (3) मूत्रकृच्छ में-जवासा और आँवला का चूर्ण शीतल जल के साथ लेना चाहिए। (4) वायुरोग में-जवासा का चूर्ण सूंघना चाहिए / (5) सन्धिवात में-जवासा की पत्ती का तेल लगाएँ। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 वनस्पति-विज्ञान (6) विरेचन के लिए-जवास-शर्करा जौ के आटा के साथ पीना चाहिए। (7) शरीर पुष्टि के लिए-जवास-शर्करा दूध के साथ लें। निसोथ सं० त्रिवृत, हि० निसोथ, ब० तेड्डी, म० तेंड, गु० नसोतर, क० तिगड़े, ता. शिवदइ, तै० पालतेगडा, अ. तुरबुद, फा० निसोथ, अँ० टरविथरूट-Turbithroot, और लै० आइमोपियांटरपीथम-Ipomoeaturpethum. विशेष विवरण-निसोथ का पेड़ जंगलों में होता है। इसमें सफेद फूल आते हैं / फल गोल-गोल होते हैं। प्रत्येक फल में चार-चार बीज निकलते हैं। इसके पत्ते नोकदार तथा गोल होते हैं। इसके पेड़ की लकड़ी में तीन धारें होती हैं। यह तीन प्रकार का होता हैकिन्तु सबों में उत्तम सफेद होता है। ___ काले निसोथ का भी पेड़ होता है / इसके फूल कालिमा लिए बैंगनी रंग के होते हैं / पत्ते गोल-गोल पहले ही की तरह होते हैं। किन्तु उससे कुछ छोटे होते हैं / फल भी उसकी अपेक्षा कुछ छोटे होते हैं / बाको सब आकार-प्रकार मिलता-जुलता होता है / सफेद, काला और लाल तीन प्रकार का निसोथ फूलों के रंग-भेद से होता है / यह तीनों प्रकार का निसोथ विरेचक है किन्तु सबों में Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 173 निसोथ काला तीव्र होता है / इसकी जड़ और डंठल का प्रयोग औषध के लिए होता है। सफेद की मात्रा दो माशे से लेकर साढ़े चार माशे तक और काले की मात्रा एक मासा से तीन माशे तक तथा लाल की मात्रा तीन माशे से छः माशे तक की शास्त्रकारों ने कही है / गुण-श्वेतात्रिवरेचनी स्यात्स्वादुरुष्णा समीरहृत् / __रूक्षा पित्तज्वरश्लेष्मपित्तशोथोदरापहा ॥-भा० प्र० सफेद निसोथ–रेचक, स्वादिष्ट, उष्ण, वातनाशक, रूखा तथा पित्तज्वर, पित्त, शोथ और उदररोगनाशक है / गुण-श्यामात्रिवृत्ततो हीनगुणा तीव्र विरेचनी / मूर्छादाहमदभ्रान्तिकण्ठोत्कर्षणकारिणी ॥–शा० नि० काला निसोथ-सफेद की अपेक्षा हीन गुणवाला है; किन्तु विरेचन में उससे तीव्र है। यह मा , दाह, मद और भ्रान्ति को दूर करनेवाला तथा कंठ को उत्कर्ष देता है / गुण-अरुणा त्रिवृता स्वादुः कषाया मृदुरेचनी / ___ रूक्षा च कटुका चैव पाके तिक्ता कफापहा ॥-रा० व० लाल निसोथ-स्वादिष्ट, कषैला, मृदुरेचक, रूखा, कड़वा, पाक में तीता तथा कफनाशक है / विशेष उपयोग (1) सिर की नँ मारने के लिएसफेद निसोथ, कॉजी के साथ पीसकर लगाना चाहिए। ( 2 ) पथरी में-निसोथ, इन्द्रजौ का चूर्ण दूध के साथ लें। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 174 (3) विरेचन के लिए-निसोथ का चूर्ण गरम जल के साथ पीना चाहिए। (4) पित्त की अधिकता में विरेचन के लिए-निसोथ, मुनक्का के काढ़े के साथ लेना चाहिए / (5) भस्मक रोग में--निसोथ दूध के साथ पोएँ। (6) पित्तनगुल्म में-निसोथ और त्रिफला का काढ़ा पीना चाहिए। (7) पाण्डुरोग में--निसोथ और गदहपूर्णा की जड़ पीसकर पीना चाहिए। विदारीकन्द सं० विदारी, हि० विदारीकन्द, ब० भुईकुमड़ा, म० भूईकोहला, गु० फगवेलानो कन्द, क० नेलकुंबल, तै० नेलगुंबुडु और लै० आईपोमिया डिजिटेटा-Iprmoeadijitata. विशेष विवरण-विदारीकन्द एक प्रकार का कन्द है / यह अनूप देश के जंगलों में विशेष पाया जाता है। कुछ लोग इसे चर्मकासलुक भी कहते हैं। यह कन्द वाराह के समान होता है। इसमें रोएँ भी होते हैं। इसके पत्ते बड़े-बड़े घुइयाँ के समान होते हैं। नीचे बहुत बड़ा कन्द निकलता है / Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 175 विदारीकन्द कन्द का रंग लाली लिए होता है। यह दो प्रकार का होता है / उसका वृक्ष भी इसीके समान होता है। किन्तु उस दूसरे प्रकार वाले में कन्द, मूली के समान ही मोटा निकलता है / पहले वाली सादी होती है / लेकिन दूसरी से दूध निकलता है। दूसरे प्रकार का विदारी कन्द-क्षीरविदारी के नाम से प्रसिद्ध है और यह घोड़ों को खिलाई जाती है / प्रथम विदारी कन्द के पत्ते एक-एक शाखा में सात-सात निकलते हैं / किसी-किसी में आठ तक पाए जाते हैं। यह लाल और सफेद दो रंग का होता है। विदारी और क्षीरविदारी दोनों का शाक बनाया जाता है / इसके बारीक कंद को लड़के बड़े चाव से खाते हैं / इसके कंद का हलवा भी बनता है। यह औषध के लिए विशेष उपयोगी है। गुण -विदारी मधुरा शीता वृष्या स्निग्धा च पौष्टिका / धातुवृद्धिकरी बल्या कफदुग्धप्रदा गुरुः // रसायनी मूत्रला च स्वर्या रूक्षा च गर्भदा / पित्तवातहरा स्वादू रक्तरुग्दाहवान्तिहा // ज्ञेया ह्येते गुणाः कन्दे पुष्पं वृष्यं च शीतलम् / ... रसे पाके च मधुरं कफद्वातलं गुरु // पित्तनाशकरं . ह्येतदुक्तं मुनिवरैः पुरा।-शा० नि० विदारीकन्द-मधुर, शीतल, वृष्य, स्निग्ध, पौष्टिक, धातुवर्द्धक, वल्य, कफकारक, दुग्धप्रद, भारी, रसायन, मूत्रल, स्वर्य, रूखा, गर्भदायक, पित्त वातनाशक, स्वादिष्ट तथा रक्तविकार, दाह Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति विज्ञान 176 और वमननाशक है / इसका फूल-शीतल, रस और पाक में मधुर, कफकारक, वातल, भारी और पित्तनाशक कहा गया है। गुण-प्रोक्ता क्षीरविदारी तु मधुराम्ला कषायका / वृष्या च शुक्रजननी पुष्टिदुग्धप्रदा कटुः // रसायनी च बल्या च शीता मूत्रकफप्रदा / स्निग्धा वर्ष्या गुरुः स्वर्या पित्तरुयक्तदोषहा // पित्तशूलहरा वातदाहजिन्मूत्रमेहजित् / ज्ञेया कंदविदारीस्तु याः सदृशा, वल्लिवद्गुणैः ॥–शा० नि० तीर विदारीकन्द-मीठा, खट्टा, कषैला, वृष्य, शुक्रजनक, पुष्टिकारक, दुग्धप्रद, कड़वा, रसायन, बल्य, शीतल, मूत्रल, कफकारक, चिकना, वये, भारी, स्वयं तथा पित्तविकार, रक्तदोष, पित्त, शूल, वात, दाह, मूत्र और प्रमेहनाशक है। इसीके समान विदारीकंद का गुण भी समझना चाहिए। विशेष उपयोग (1) बल और पुष्टि के लिए-विदारीकंद का एक तोला चूर्ण, घी के साथ खाकर ऊपर से दूध पीएँ / (2) दुग्ध वृद्धि के लिए-विदारीकंद दूध के साथ पीसकर तथा मिश्री मिलाकर पीना चाहिए। (3) प्रमेह में-विदारीकंद के पत्ते के एक पाव रस में आँवला का छ: माशे चूर्ण मिलाकर पीना चाहिए / (4) भस्मक रोग में-विदारीकंद का रस, दूध और घी मिलाकर पीना चाहिए। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरफोंका ( 5 ) बहुमूत्र में विदारीकंद का चूर्ण एक सेर, घी के साथ भूनकर तथा लौंग, इलायची, जायफल, जावित्री, तज और पिपरामूल समभाग तथा सबों का चतुर्थाश सोंठ एवं षोड़शांश पीपर का चूर्ण तथा सबके बराबर मिश्री मिलाकर दो-दो तोले वजन का मोदक बनाकर सुबह-शाम दूध के साथ खाना चाहिए / ( 6 ) हैजा में-सफेद विदारीकंद खाना चाहिए / (7) सिर-दर्द पर-विदारीकंद पीसकर लेप करें। सरफोंका सं० शरपुंखा, हि० सरफोंका, ब० वननील, म. उन्हाली, क० येरडुकागि, ता. कोल्लकवकेल्लपि, तै० प्रांगोराचे?, अँ परपलटेफ्राज़िया-Purpletephrosia, और लै० टेफ्रोजियापरपूरिया- ephrosia Purpurea. विशेष विवरण-सरफोंका का वृक्ष होता है / इसके पत्ते नील के पत्ते के समान होते हैं। फूल लालरंग के; किन्तु बारीक होते हैं। फलियों के ऊपर रोंआ होता है। वह दो प्रकार का होता है। दूसरे प्रकार वाले के फल पर रोंआ नहीं होता। सफेद सरफोंका का छत्ता फैला रहता है। इसके पत्ते लाल सरफोंका की अपेक्षा कुछ छोटे होते हैं / इसका फूल सफेद होता है / इसकी मात्रा चार माशे तक की मानी गई है / दूसरे की पाँच माशे तक की है / Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 178 गुण-शरपुंखा यकृत्प्लीहागुल्मव्रणविषापहा.। तिकः कषायः कासास्रश्वासज्वरहरो लघुः ॥-मा० प्र०... सरफोंका-तीता, कषैला, हलका तथा यकृत, प्लीह, गुल्म, व्रण, विष, कास, रक्तविकार और ज्वरनाशक है। गुण-कंठपुंखा कटूष्णा च कृमिशूलविनाशिनी ।-रा०नि० कंठपुंखा-कड़वा, गरम तथा कृमि और शूलनाशक है / विशेष उपयोग (1) यकृत में-सरफोंका की पत्ती, छाछ के साथ पीसकर देनी चाहिए। - (2) लीह पर-सरफोंका की पत्ती और अंजीर का काढ़ा पिलाना चाहिए। (3) जलोदर में-सरफोंका की पत्ती के रस में गोमूत्र मिलाकर पिलाना चाहिए। (4) कृमिरोग में-सरफोंका की पत्ती और वायविडंग पीसकर खाना चाहिए। (5) रक्तविकार में सरफोंका का अर्क शहद मिलाकर पीना चाहिए। मुसली - सं० ब० तालमूली, हि० म० गु० मुसली, क० नेलताडी, तै० नेलतारु, और लै० हाइपोक्सिस-Hypuxis. Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 179 मुसली विशेष विवरण-मुसली के दो भेद होते हैं / १–काली, और २-सफेद / सफेद मुसली की अपेक्षा काली मुसली अधिक गुणद है / मुमली का क्षुप ऐसा होता है ; जैसे-चार-पाँच पत्तों. वाला खजूर / इसमें बहुत छोटे-छोटे पीले रंग के फूल आते हैं / पड़ की जड़ में अंगुली के समान मोटी इसकी जड़ होती है / उस जड़ के ऊपर भूरे रंग की छाल होती है। किन्तु उस छाल के भीतर सफेद रंग होता है / इसके छोटे-छोटे पौधे बरसात में होते हैं। इसका कंद पाँच-छः अंगुल लम्बा होता है / दोनों की उत्पत्ति एक ही प्रकार की है। गुण-मुसली मधुरा वृष्या वीर्योष्णा बृहणी गुरुः / तिक्ता रसायनी हन्ति गुदजन्यानिलांस्तथा ॥–शा० नि० मुसली-मधुर, वृत्य, उष्णवीर्य, बृंहण, भारी, तीती, रसायन तथा बवासीर और वातनाशक है / गुण-कृष्णाधिकगुणा प्रोक्ता श्वेता चाल्पगुणामता / -शा० नि० काली मुसली-सफेद की अपेक्षा अधिक गुणदायक है तथा सफेद अल्प गुणवाली कही गई है। विशेष उपयोग (1) वीर्यवृद्धि के लिए-मुसली पीसकर आध सेर, दूध चार सेर; दोनों का खोआ बनाकर घी के साथ भूनकर तथा मिश्री, जायफर, इलायची, केसर और बादाम मिलाकर रख दिया जाय और शक्ति के अनुसार दोनों समय दो तोले तक दूध के साथ सेवन करना चाहिए Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 180 (2) प्रदर में-ताजी मुसली खाकर ऊपर से मिनी और दूध पीना चाहिए। (3) संग्रहणी में-मुसली-छाछ अथवा चावल की धोअन के साथ एक तोला तक पीना / ___(4) दूध बढ़ाने के लिए दूध के साथ मुसली का चूर्ण सेवन करना चाहिए। (5) धातुवृद्धि के लिए-मुसली का चूर्ण, शहद, मिश्री और दूध मिलाकर पीना चाहिए। करंज सं० करज, हिं० ब० करंज, म० चापड़ाकरंज, गु० करंज, क० नापसीयमरतु, ता० पुंगामारम्, तै० कंज, अॅ० स्मथ लिब्ड पोनगोमिया-Smooth Leaved Pongamia, और लै० पोनगोमिया ग्लेबा-Pongamia Globra. विशेष विवरण-करंज के बहुत बड़े-बड़े वृक्ष वन में होते हैं। फल भी नीले रंग के झुमकेदार होते हैं। इसके पत्तों से दुर्गन्ध निकलती है / इसका फूल आसमानी रंग का होता है। लोग इसे रास्ते में छाया के निमित्त लगाते हैं। इसकी छाया शीतल और सुखद होती है। इसका पेड़ घना होता है / . इसके बीज का तैल चिराग जलाने के काम आता है / Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 281 करंज गुण-करणः कटुकः पाके नेत्र्योष्णस्तिक्तको रसे। कषायोदावर्त्तवातानां योनिदोषापहः स्मृतः // वातगुल्मार्शव्रणहृत्कण्डूकफविषापहः / विचर्चिकापित्तकृमित्वग्दोषोदरमेहहा // प्लीहाहरश्च संप्रोक्तः फलमुष्णं लघु स्मृतम् / शिरोरुग्वातकफहृत्कृमिकुष्ठार्शमेहनुत् // पर्ण पाके कटूष्णं स्याद्भेदकं पित्तलं लघु / कफवाताशकृमिनुव्रणं शोथं च नाशयेत् // पुष्पमुक्तं चोष्णवीर्य पित्तवातकफापहम् / अस्यांकुरा रसे पाके कटुकाश्चाग्निदीपकाः // पाचकाः कफघातार्शः कुष्टकृमिविषापहाः / शोथनाशकराः प्रोक्ता ऋषिभिः सूक्ष्मदर्शिभिः॥-नि० र० करंज-पाक में कड़वा; नेत्र्य, उष्ण; रस में तीता; कषैला तथा उदावर्त, योनिदोष, वात, गुल्म, अर्थ, व्रण, खुजली, कफ, विष, विचर्चिका, पित्त, कृमि, त्वचादोष, उदररोग, प्रमेह और प्लीहानाशक है। करंज का फल-गरम, हलका तथा शिरोरुजा, वात, कफ, कृमि, कुष्ट, अर्श और प्रमेहनाशक है। करंज का पत्ता-पाक में गरम, उष्ण, भेदक, पित्तल, हलका तथा कफ, वात, अर्श, कृमि, व्रण और शोथनाशक है / करंज का फूल-उष्णवीर्य तथा पित्त, वात और कफनाशक है। करंज का अंकुर-रस और पाक में कड़वा, अग्निदीपक, Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनस्पति-विज्ञान पाचक तथा कफ, वात, अर्श, कुष्ठ, कृमि, विष और शोथनाशक है। गुण-करञ्जतैलं तीक्ष्णोष्णं कृमिहद्भक्तपित्तकृत् / नयनामयवातार्तिकुष्टकण्डूव्रणप्रणुत् // .. वातनुत्पित्तकृत्किञ्चिल्लेपनात् चर्मदोषनुत् / -पा० स० करंज का तेल-तीक्ष्ण, उष्ण तथा कृमि, हृद्रोग और रक्तपित्त कारक एवं नेत्ररोग, वात की पीड़ा, कुष्ठ, खुजली, व्रण तथा वातनाशक एवं पित्त कारक है। इसका लेप करने से चर्मदोष भी नष्ट हो जाता है। विशेष उपयोग (1) सर्पविष में-करंज की छाल घी में घिसकर दंशस्थान पर लगाना चाहिए। (2) खुजली और दाद पर-करंज के तेल में कपूर अथवा नीबू का रस मिलाकर लगाना चाहिए / (3) अंडवृद्धि पर-करंज की छाल घिसकर लगाएँ। (4) गण्डमाला पर-चावल की धोअन में करंज की छाल पीसकर लगाना चाहिए। (5) पित्त निकालने के लिए करंज की छाल का रस पीना चाहिए। (6) आँखों के जाला पर-करंज का बीज, पलास के फूल के रस में बारीक घोटकर गोली बना ली जाय और पानी के साथ घिसकर अंजन की तरह लगाना चाहिए / Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 183 करंजा (7) आधाशीशी में-करंज का बीज, गुरिच के रस में घिसकर नस्य लेनी चाहिए। (8) उरुस्तम्भ में-करंज की जड़ अथवा छाल पीस और गरम करके लेप करना चाहिए / (8) वमन के लिए-करंज का बीज भूनकर खाएँ / (10) विरेचन के लिए-करंज और अमिलतास का काढ़ा पीना चाहिए। (11) आमवात में-करंज का पाँच बीज गोमूत्र के साथ पीसकर लेना चाहिए। 99 / करंजा सं० कण्टकरंज, हि० करंजा, ब० काँटाकरंज, म० सागरगोटा, गु० कांकच, क. करंजभेदु, तै० कचकाई, अ० अक्तमक्त, फा० खाय, अँ० बोण्डकनट-Bonducnut, और लै० सिसाalafatet aigaar--Caesalpinia Bondacella. - विशेष विवरण-करंजा का पेड़ माली लोग बगीचे की दीवार पर रक्षा के लिए लगा दिया करते हैं / किंतु जंगलों में यह अपने आप पैदा होता है। इसका पेड़ लता के समान होता है / कई एकसाथ मिलकर गठ जाते हैं। इसके पत्ते सिरस के समान डाल के एक इधर और एक उधर होते हैं। फल कचौरी के Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 184 समान लगते हैं / किन्तु फलों में इतने विशेष काँटे होते हैं कि कहीं तिल रखने का स्थान नहीं मिलता / उसमें चार-पाँच बड़े-बड़े दाने निकलते हैं / इन्हीं को करंजा कहते हैं। ऊपर से उनका छिलका राख के रंग का होता है / किन्तु भीतर सफेद रंग की गिरी निकलती है / इसका फूल गुच्छों में और पीले रंग का होता है / प्रत्येक फूल में पाँच पखुड़ियाँ होती हैं। उनमें चार फॉक फीके रंग की होती हैं / एक बीच वाला लाल रंग का होता है / इसके बीज में पुरुष-पराग और स्त्रीकेसर होती है / इसकी गुद्दी कड़वी होती है। इसकी मात्रा एकमाशा तक की है / गुण-कण्टयुक्तः करंजस्तु पाके च तुवरः कटुः / ग्राहकश्चोष्णवीर्यः स्यात्तिक्तः प्रोक्तश्च मेहहा // कुष्टा व्रणवातानां कृमीणां नाशनः परः / पुष्पंतु चोष्णवीर्य स्यात्तिक्त वातकफापहम् // -शा० नि० करंजा-पाक में कषैला; कड़वा, प्राही, उष्णवीर्य, तीता तथा प्रमेह, कुष्ठ, अर्श, व्रण, वात और कृमिनाशक है / करंजा का फूल-उष्णवीर्य, तीता और वातनाशक है / विशेष उपयोग (1) क्षय, प्रसूत और उदरशूल मेंभूने हुए करंजा का चूर्ण घी के साथ खाना चाहिए / अथवा लहसुन, हींग और सेंधानमक के साथ खाना चाहिए / (2) शोथ पर-करंजा, आक और एरंड का पत्ता पीस और गरम करके तीन दिनों तक लेप करना चाहिए / Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 185 ___गुंजा (3) उपदंश में-करंजा के पत्ते के रस में घी मिलाकर सात दिनों तक पीना चाहिए / भात और घी खाना चाहिए / (4) कृमि पर-करंजा के पत्ते के रस में आमाहल्दी और पित्तपापड़ा पीसकर लेप करना चाहिए। ____(5) वातगुल्म में-भुने हुए करंजा का चूर्ण गिलोय के रस के साथ खाना चाहिए। (6) ज्वर में करंजा के पत्ते का रस चार तोला, दो रत्ती भुनी हींग मिलाकर सेवन करना चाहिए। विषमज्वर के अतिरिक्त यह सभी में विशेष लाभदायक है / (7) आमवात में आधे कच्चे करंजा को भूनकर उसके एक माशा चूर्ण में मिश्री मिलाकर सेवन करना चाहिए / . 'गुंजा सं० हि० म० गुजा, ब० कुँच, गु० चणोठी, क० गुलगुंजे, 'ता० करिन, तै० गुलविंदे, अ० हब, फा० चश्मेखरूस, अँ० वीड ट्री-Bead Tree, और लै० एब्रेस प्रिटोरियसAbrus Precatorius. विशेष विवरण-गुजा की लता जंगलों में विशेष पाई जाती है / इसके पत्ते इमली के पत्ते के समान होते हैं / पत्ते खाने में मीठे मालूम पड़ते हैं। इसके फल और फूल सेम के समान Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनस्पति-विज्ञान 186 होते हैं। उन्हीं फलियों में गुजा होती है। यह दो प्रकार की होती है / १-सफेद, और २-लाल। लाल के मुखपर कालापन होता है ; किन्तु सफेद का मुख सफेद ही होता है। यह उपविष है / इसके सम्पूर्ण अंगों का व्यवहार औषधि के लिए होता है। गुण-गुञ्जाद्वयं स्वादु तिक्तं बल्यं चोष्णं कषायकम् / त्वच्यं केश्यं च रुच्यं च शीतं वृष्यं मतं बुधैः // नेत्ररोगं विषं पित्तमिन्द्रलुप्तं व्रणं कृमीन् / राक्षसग्रहपीड़ां च कण्डू कुष्ठं कर्फ ज्वरम् // मुखशीर्षरुजं वातं भ्रमं श्वासं तृषं तथा / मोहं मदं नाशयति बीजं वान्तिकरं मतम् // शूलनाशकरं मूलं पणं च विषनाशकम् / श्वेतगुंजाविशेषेण वशीकरणकृन्मता ॥–शा० नि० दोनों प्रकार की गुंजा-स्वादिष्ट, तीती, बल्य, उष्ण, कषैली, त्वच्य, केश्य, रुच्य, शीतल, वृष्य तथा नेत्र-रोग, विष, पित्त, इन्द्रलुप्त, व्रण, कृमि, राक्षसवाधा, ग्रहपीड़ा, खुजली, कुष्ठ, कफ, ज्वर, मुख एवं सिर की पीड़ा, वात, भ्रम, श्वास, तृषा, मोह और मदनाशक है। -गुंजा का बीज-वान्तिकारक तथा शूलनाशक है / गुंजा की जड़ और पत्ते-विषनाशक हैं / सफेद गुंजा-विशेष करके वशीकरण करनेवाली कही गई है। विशेष उपयोग (1) आधाशीशी पर-गुंजा की जड़ पानी में घिसकर नास लेनी चाहिए / Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 187 गुंजा (2) चेचक से आँख में फूली पड़ जाने पर-रेंड के रस में गुंजा घिसकर अंजन करना चाहिए। (3) वीर्यवृद्धि के लिए-गुंजा की जड़ और मिश्री दूध के साथ पकाकर पीना चाहिए। (4) स्तम्भन के लिए-गुंजा की जड़ और मिश्री दूध के साथ पकाकर पीना चाहिए। (5) इन्द्रलुप्त पर-गुंजा की जड़ अथवा गुंजा तथा मिलावा, पानी के साथ घिसकर लगाना चाहिए / अथवा गुंजा, घी और शहद एक साथ घोटकर लगाना चाहिए / (6) स्वरभंग में-गुंजा की पत्ती मुख में रखकर चूसें / (7) मुँह के छालों पर-गुंजा की पत्ती अथवा जड़ चबाना चाहिए। ____(8) प्रमेह में-गुंजा की पत्ती का रस, दूध में मिलाकर पीना चाहिए। ___(8) मूत्रकृच्छ में-सफेद गुंजा के रस में मिश्री और जीरा का चूर्ण मिलाकर पीना चाहिए / (10) उपदंश में-गुंजा की पत्ती के रस में जीरा और मिश्री मिलाकर पीना चाहिए / (11). पारा का विष-गुंजा की पत्ती सात दिनों तक खाने से नष्ट हो जाता है। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 188 (12) उर्द्धवात पर-सफेदगुंजा की जड़ घिसकर लगाना चाहिए। (13) रतौंधी में-गुंजा की जड़ बकरा के मूत्र के साथ घिसकर अंजन करना चाहिए। कौंच सं० कपिकच्छु, हि० कौंच, ब० आल्कुशि, म० कुहिलींचेबीज, गु० कउचों, क० नसुगुन्नी, ता. पुनाइक, तै० पिल्लिअडुगु, अॅ० कोहेज-Cowhage, और लै० म्युकुडा पुरियेसMuctda Pruriens. . विशेष विवरण-कौंच की लता होती है। इसके फूल सेम के फूल के समान होते है तथा फल भी सेम के समान ही होते हैं। फलों के ऊपर सूक्ष्म रोओं होता है। यही रोओं जिस समय शरीर में लग जाता है, उस समय बड़ा कष्ट होता है / उससे छुटकारा पाने का एक यही उपाय है कि जौ के आटा का उबटन किया जाय / अन्यथा खुजाते-खुजाते बदन लाल होकर फूल जाता है। इन फलियों के भीतर से सेम-जैसा ही बीज निकलता है। यह बीज बड़ा पुष्टिकारक और वीर्यवर्द्धक होता है / यह दो प्रकार का होता है / छोटे कौंच का भी पेड़ होता है / गुण-कपिकच्छुः स्वादुरसा वृष्या वातक्षयापहा / शीतपित्तास्त्रहंत्री च विकृता गुणनाशिनी ॥-रा०नि० Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 189 कौंच कौंच रस में स्वादिष्ट, वृष्य तथा वात, क्षय, शीतपित्त, रक्तविकार और दुष्टत्रण नाशक है / गुण-तद्वीजं वातशमनं स्मृतं वाजीकरं परम् ।—भा०प्र० कौंच का बीज-वात को शमन करनेवाला और परम वाजीकर है। गुण-कच्छुरा तुवरा तिक्ता योनिदोषापहा मता। कुष्ठं व्रणं रक्तकोपं नाशयेदिति कीर्तिता ॥-नि०र० छोटी कौंच-कषैली, तीती तथा योनिदोष, कुष्ठ, व्रण और रक्तविकार नाशक है। विशेष उपयोग (1) कृमिरोग में-कौंच के ऊपर के काँटे का थोड़ा रस दूध या गिलोय के रस में दें। ____(2) कौंच के विष पर-घी, मिश्री और शहद चाटें। (3) गर्भधारण के लिए-छोटी कौंच की जड़ और कत्था, दूध के साथ पीसकर पीना चाहिए। (4) धातुपुष्टि के लिए-कौंच का बीज और मखाना का चूर्ण, मिश्री मिलाकर दूध के साथ सेवन करना चाहिए / (5) मूर्छा में-कौंच का बीज पीसकर लेप करें। (6) श्वास में-कौंच के बीज का चूर्ण प्रातःकाल विषम मात्रा घी और शहद के साथ मिलाकर सेवन करना चाहिए / ... (7) बद पर कौंच का बीज पीसकर लगाएँ / Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरियरा सं० बला, हि० खरेंटी, बरियरा, ब० बेडेला, म. चिकणा, गु० बलदाण, क० वेणेगरग, तै० मुपिंडी, अँ हार्नबिम लीब्ड सिडा-Hornabeam Leaved Side, और लै० सिडा airaaimanfaat--Side Carpinifolia, विशेष विवरण-बरियरा का वृक्ष प्रायः सभी बगीचों और गाँवों में पाया जाता है / किन्तु कोंकण में यह विशेष होता है / इसका पेड़ अधिक-से-अधिक हाथ-डेढ़ हाथ तक ऊँचा होता है / वर्षाऋतु में यह विशेष होता है। इसका फूल पीले रंग का होता है। इसमें बारीक जीरे लगते हैं। उन्हीं जीरों में इसका बीज रहता है / यह अधिक पौष्टिक होता है / इसकी पत्ती और बीज मलने से लवाब-जैसा निकलता है। कुछ लोग इसकी पत्ती का शाक खाते हैं / इसका सम्पूर्ण अंग औषधि के काम आता है। गुण-बला तिक्तातिमधुरा पिसातीसारमाशिनी। ___ बलवीर्यपुष्टिदात्री कफरोधविशोधनी ॥-रा० नि० बरियरा-तीता, अति मधुर ; पित्त और प्रतीसार नाशक; बल, वीर्य और पुष्टिदायक तथा कफ को शुद्ध करनेवाला है / गुण-बलाफलं स्वादु पाके कषायं मधुरं रसे। हिमवीय गुरुगुणं स्तम्भनं लेखनं भृशम् // . विवन्धाध्मानपवनकारि पित्तकफास्रनुत् / -वै० नि० Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 191 कोरैया बरियरा का फल-पाक में स्वादिष्ट; कषैला, रस में मधुर, शीतवीर्य, भारी, स्तम्भक, अत्यन्त लेखन तथा विवन्ध, आध्मान और वात कारक एवं पित्त, कक और रक्तविकार नाशक है / विशेष उपयोग (1) पुष्टि के लिए -बरियरा की ताजी पत्ती नित्य खानी चाहिए। (2) प्रमेह और धातुविकार में-बरियरा के पंचांग को पानी का छींटा देकर पीसकर रस निकाला जाय / बाद दस तोले रस सात दिनों तक दोनों समय पीएँ / (3) घाव पर-बरियरा की जड़ का रस लगाना चाहिए। अथवा कपड़ा की पट्टी बाँधकर इसके रस से तर करनी चाहिए। (4) फोड़ा पकाने के लिए-बरियरा की पत्ती पीसकर बाँधनी चाहिए। (5) स्तम्भन के लिए-बरियरा के बीज का चूर्ण मिश्री मिलाकर खाना चाहिए / कोरैया सं० कुटज, हि० कोरैया, ब० कुटराज, म. कुडा, गु० कडी दुधला, क० कोडसिगेयमरनु, तै० अंकेलु, अ. तिवाज, अॅ. ओवल लीड रोज़ बे-val Leaved Rose Bay, और लै. Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान ... 192 राइटिया एडिसेन्टेरिका-Wrightia Antidysenterica. विशेष विवरण-इसका पेड़ बड़ा होता है। इसके पत्ते रामफल के पत्ते के समान होते हैं। फूल सफेद होता है। इसमें फलियाँ भी लगती हैं। इसका उपयोग औषध के लिए होता है / यह दो प्रकार की होती है। सफेद कोरैया का दूध विषाक्त होता है। इससे मनुष्य मर तक जाता है। गुण-कुटजः कटुको रूक्षो दीपनस्तुवरो हिमः / अशीतिसारपित्तास्रकफतृष्णामकुष्ठनुत् ॥-भा० प्र० कोरैया-कड़वी, रूखी, दीपक, कषैली, शीतल तथा अर्श, अतीसार, पित्त, रक्तविकार, कफ, तृषा, आम और कुष्ठनाशक है / गुण-श्वेतस्तु कुटजस्तितः कटुश्चोष्णोग्निदीपकः / पाचकस्तुवरो रूक्षो ग्राहको रक्तदोषहा // कुष्ठातिसारपित्ताशः कफतृट्कृमिहा मतः / ज्वरं चामं च दाहं च नाशयेदिति कीर्तितः ॥-नि० 20 सफेद कोरैया-तीती, कड़वी, उष्ण, अग्निदीपक, पाचक, कषैली, रूखी, ग्राही तथा रक्तदोष, कुष्ठ, अतीसार, पित्त, अर्श, कफ, तृषा, कृमि, ज्वर, आम और दाहनाशक है / गुण-पुष्पं तु वत्सकस्योक्तं तुवरं चाग्निदीपकम् / तिक्तं शीतं वातलं च लघुपित्तातिसारनुत् // रक्तदोषं कर्फ पितं कुष्ठं चैवातिसारकम् / कृमींश्चैव हरेदेतदुक्तं पूर्दैश्च सूरिभिः ॥-नि० 20 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 193 रोहिणी कोरैया का फूल-कषैला, अग्निदीपक, तीता, शीतल, वातल, हलका तथा पित्तातीसार, रक्तदोष, कफ, पित्त, कुष्ठ, अतीसार और कृमिनाशक है। विशेष उपयोग (1) अतीसार में-कोरैया की छाल का चूर्ण मट्ठे के साथ सेवन करना चाहिए / (2) नेत्रविकार पर-कोरैया की छाल घिस और गरम करके लेप करना चाहिए। (3) कृमिरोग में-कोरैया की छाल और वायविडंग का चूर्ण गरम जल के साथ लेना चाहिए / (4) रक्तविकार में-कोरैया की छाल, मुंडी के अर्क के साथ पीसकर पीना चाहिए। (5) बवासीर पर-कोरैया का पत्ता पीसकर लगाएँ। रोहिणी ___ सं० रोहिणी, हि० रोहिणी, म० रोहिणी, गु० रोण्य, क० रोहिणी, अ० रेडवोड ट्री-Redwood Tree, और लै० सोयमीडा फेब्रीफ्युगा-Soymida Febrihiga. विशेष विवरण-रोहिणी के वृक्ष प्रायः जंगलों में विशेष होते हैं। इसके पत्ते खिन्नी के पत्ते के समान होते हैं / एक-एक टहनी में सात-सात पत्ते निकलते हैं। इसका फल अत्यन्त सूक्ष्म Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 वनस्पति-विज्ञान होता है। यह खानदेश और नागपुर में विशेष होता है। इसका वृक्ष बड़ा होता है / इसकी छाल से रंग का काम लिया जाता है। यह दो प्रकार का होती है। गुण-रोहिणी वातहृत्कासश्वासशोणितनाशिनी ।-शा० नि० रोहिणी-वात, कास, श्वास, और रक्तनाशक है / गुण-मांसरोहिणिका व्रण्या चोष्णा च रक्तपित्तजित् / सर्वा संग्रहणी हन्ति नात्र कार्या विचारणा ॥-नि० 20 मांसरोहिणी-व्रण को हितकारी, उष्ण तथा रक्तपित्त एवं सब प्रकार की ग्रहणी को नष्ट करती है। इसमें विचार करने की आवश्यकता नहीं है। विशेष उपयोग (1) आँख आने पर-रोहिणी की छाल पीस और गरम करके लगाना चाहिए / (2) संग्रहणी में-रोहिणी की छाल और बेल की गुद्दी का काढ़ा पीना चाहिए। (3) घाव पर-रोहिणी की छाल की राख, घी में मिलाकर लगानी चाहिए। मेउड़ी सं० निर्गुण्डी, हि० मेउड़ी, ब० निशिन्दा, म० निर्गुण्डी, गु० नागड्य, क० करियल्लाकिमेउडी, ता० नोक्चि, अ० कसलुक, Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 195 मेउड़ी फा० परंगुष्ठ, अँ० फाइवलिव्ड चेष्टटी-Fiveleaved Chastetree, और लै० विटक्सा नगुंडा-Vitexa Negunda. विशेष विवरण-मेउड़ी के वृक्ष बगीचे और जंगलों में विशेष पाए जाते हैं / इसका वृक्ष दस से बीस फीट तक ऊँचा पाया जाता है / इसकी पत्ती अरहर की पत्ती के समान होती है / एकएक डंठी में पाँच-पाँच पत्तियाँ होती हैं। यह पत्तियाँ ऊपर कुछ नीलापन लिए हरी और दूसरी ओर सफेद होती हैं / मेउड़ी को अनेक जातियाँ हैं / कुछ पर काले और कुछ पर सफेद फूल आते हैं / फल आम की बौर के समान गुच्छेदार और केसरिया रंग के होते हैं / इसकी जड़, पत्ती और बीज का उपयोग औषध के लिए होता है। . गुण-कटूष्णा नीलनिर्गुण्डी तिक्ता रूक्षा च कासजित् / श्लेष्मशोफशरीरातिप्रदराध्मानहारिणी ॥-रा० नि० नीली मेउड़ी-कटु, उष्ण, तीती, रूखी तथा खाँसी, कफ, शोथ, शरीर की पीड़ा, प्रदर और अध्माननाशक है / गुण-निर्गुण्डी कटुका तिक्ता रूक्षोष्णा च कषायका / स्मृतिप्रदा नेत्रहिता केश्या लध्वग्निदीपनी // मेध्या वर्ष्या च संप्रोक्ता गुदवातक्षयापहा / सन्धिवातं च वातं च शोफ वामं कृमीस्तथा // कुष्ठ कर्फ व्रणं प्लीहां गुल्मं कण्ठरुज तथा / विषशूलं चारुचिं च ज्वरमेदोरुजं तथा // Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनस्पति-विज्ञान गृध्रसी च प्रतिश्यायं कासं श्वासं च नाशयेत् / पित्तनाशकरी प्रोक्ता पर्णमस्या लघु स्मृतम् // कृमिनाशकरं प्रोक्त पूर्ववैद्यैः कृपालुभिः।-शा० नि० मेउड़ी-कड़वी, तीती, उष्ण, रूखी, कषैली, स्मृतिदायक, नेत्र्य, केश्य, हलकी, अग्निदीपक, मेध्य, वर्ण्य तथा गुदवात. क्षय, सन्धिवात, वात, शोथ, आम, कृमि, कुष्ठ, कफ, प्लीहा, गुल्म, कण्ठ की पीड़ा, विषशूल, अरुचि, ज्वर, मेदरोग, गृध्रसी, जुकाम, खाँसी, श्वास और पित्तनाशक है। मेउड़ी की पत्ती-हलकी और कृमिनाशक कही गई है। गुण-प्रोक्ता चारण्यनिर्गुण्डी पथ्या पित्तज्वरं हरेत् / विषं च गृध्रसीवातं नाशयेद्वर्णकारिणी // पर्ण चास्यास्तु कटुकं चाग्निदीप्तिकरं लघु / कृमीन् कर्फ च वातं च नाशयेदिति कीर्तितम् // कटुं चोष्णं पुष्पमस्यास्तिक्तं कृमिकफापहम् / प्लीहां गुल्मं च वातं च कुष्ठ शोथं च नाशयेत् // अरुचेर्नाशकं प्रोक्तं कण्डूं चैव विनाशयेत् / —नि० र० बनमेउड़ी-पथ्य, वर्णकारक तथा पित्तज्वर, विष और गृध्रसीवातनाशक है। बनमेउड़ी की पत्ती-कड़वी, अग्नि को दीप्त करनेवाली, हलकी तथा कृमि, कफ और वातनाशक है। बनमेउड़ी का फूल-कड़वा, उष्ण, तीता, 'कृमि, कफ, प्लीहा, गुल्म, वात, कुष्ठ, शोथ, अरुचि, और खुजली का नाश करती है / Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 197 कपास विशेष उपयोग (1) शीतज्वर में-मेउड़ी की पत्ती और कालीमिर्च पीसकर पीना चाहिए। (2) थकान दूर करने के लिए-मेउड़ी के काढ़े से स्नान करना चाहिए। (3) वीर्यवृद्धि के लिए-मेउड़ी और मिश्री का समभाग चूर्ण, दूध के साथ सेवन करना चाहिए / (4) घाव में कीड़ा पड़ जाने पर-मेउड़ी का रस छोड़ना चाहिए। (5) घाव पर-मेउड़ी के छाल का कोयला, घी में घोट कर लगाना चाहिए। . (6) खाँसी में-मेउड़ी और मुलेठी का काढ़ा पीएँ / (7) श्वास में मेउड़ी के रस में कालीमिर्च का चूर्ण और शहद मिलाकर पीना चाहिए कपास सं० कार्पास, हि० कपास, ब० कार्पास, म० कापशी, गु० कपास, क० हत्ति, तै० पत्तिचेटु, अ० कुतन, फा० कुतुन, अँ० काटन प्लॉट-Cottenn Plant, और लै० गासपायं अरपेश्यGossypium Heurpcem. विशेष विवरण--कपास के पेड़ देश में प्रायः सर्वत्र पाये Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 198 जाते हैं / कपास की खेती भारतवर्ष में प्रायः सभी लोग देहातों में करते हैं / कपास के फूल पीले और बीच में लाल होते हैं / फूल गूलर के समान तिकोने होते हैं। इन्हीं फूलों के भीतर कपास होती है। यह चरखी में श्रओटी जाती है, और उसमें से जो बीज निकलता है, उसे बिनौला कहते हैं / इसका पत्ता एरंड के पत्ता के समान पाँच ओर कटा होता है। किन्तु उनकी अपेक्षा वह छोटा होता है। एक काली कपास भी होती है। उसका फूल और बिनौला दोनों काला होता है / एक प्रकार की नरयावाडी कपास भी होती है / इसके पेड़ बड़े-बड़े होते हैं, और सब चीजें कपास के ही समान होती हैं। कपास ही हमारी लज्जा रखती है। भारतवर्ष में इसका बहुत बड़ा व्यवसाय होता है। वस्त्र आदि इसीसे बनते हैं। गुण-कार्पासकी लघुश्चोष्णा मधुरा वातनाशनी / तत्पलाशं समीरनं रक्तकृन्मूत्रवर्द्धनम् // तत्कर्णपिडिकानादपूयास्रावविनाशकम् / तत्बीजं स्तन्यदं वृष्यं स्निग्धं कफहरं गुरु ॥–भा० प्र० कपास-हलका, गरम, मधुर और वातनाशक है / कपास का पत्ता-वातनाशक, रक्तवर्द्धक, मूत्रकारक तथा कर्ण की पीड़ा, शब्द और पूय विनाशक है / कपास का बीज-दूध को बढ़ाने वाला, वृष्य, स्निग्ध, कफनाशक और भारी है। गुण-भारद्वाजी हिमा रुच्या व्रणशस्त्रक्षतापहा ।-शा० नि० Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 199 कपास बनकपास-शीतल, रुच्य तथा व्रण और शस्त्रक्षत नाशक है। गुण-कालाञ्जनी कटूष्णा स्यादम्लामकृमिशोधिनी / ___अपानावर्त्तशमनी जठरामयहारिणी ॥–रा० नि० काला कपास-कड़वा, उष्ण, खट्टा ; आम तथा कृमि नाशक; अपानावर्त्तशामक और उदररोगनाशक है। विशेष उपयोग (1) रक्तस्राव पर-कपास के पत्ता का रस; अथवा कपास की जड़ चावल की धोअन के साथ पीसकर दोनों समय पीना चाहिए / (2) विषूचिका में कपास के कोमल जीरों को खाएँ। (3) ज्वर में-कपास का कोमलजीरा और कालीमिर्च पीसकर पीना चाहिए। (4) सर्पविष पर-कपास के पत्ते का रस पीना तथा लगाना चाहिए। (5) गंडमाला में-कपास की जड़ का चूर्ण और चावल का आटा, घी में भूनकर दूध के साथ खाना चाहिए। (6) दूध बढ़ाने के लिए-कपास और ईख की जड़, कॉजी के साथ पीसकर स्त्रियों के स्तन पर लगाना चाहिए / (7) स्तनरोग पर-कपास की जड़, दुधिया और गेहूँ पीसकर लेप करना चाहिए। (8) बिच्छू के विष पर-कपास का पत्ता और राई पीसकर लगाना चाहिए। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति विज्ञान 200 (8) अफीम का नशा उतारने के लिये-कपास का बीज और फिटकिरी का चूर्ण खिलाना चाहिए / (10) मासिक धर्म के लिए-कपास के तेल के साथइलायची, जीरा, हल्दी और इन्द्रायण की जड़ एक-एक माशा पीस और पोटली बनाकर चौथे दिन योनि में रखनी चाहिए। (11) कामलारोग में-कपास के जीरा का रस, नाक से पीना चाहिए। (12) अर्श में-कपास का रस तीन तोले, दूध के साथ मिलाकर पीना चाहिए। (13) आगन्तुक ज्वर में-कपास का पत्ता, दूध के साथ पीस और गरम करके लेप करना चाहिए / कुश सं० हि० ब० कुश, म० दर्भ, गु० दरभ, क० बिलीप बुदकुशि, तै० कुशदूर्वालु दुभ, और लै० एंड्रोपोगन नारडेइडिसAudropogon Nordaides. विशेष विवरण-कुश दो जाति का है। १-कुश और २-दर्भ। किन्तु इसमें कोई विशेष अन्तर नहीं है। यह प्रायः रेतीली जमीन में होता है। यद्यपि कुश और दर्भ दोनों समान गुणवाले हैं / तथापि दर्भ की अपेक्षा कुश अधिक गुणदायक है। एक के अभाव में दूसरा लिया जा सकता है। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुश 201 गुण-दर्भद्वयं त्रिदोषघ्नं मधुरं तुवर हिमम् / ___मूत्रकृच्छ्राश्मरीतृष्णावस्तिरुक्प्रदरास्वजित् ॥-भा० प्र० कुश और दर्भ-त्रिदोष नाशक, मधुर, कषैला, शीतल तथा मूत्रकृच्छ्र, अश्मरी, तृषा, वस्ति की पीड़ा, प्रदर और रक्तविकार नाशक है। गुण-x x x x x दर्भमूलं तु शीतलम् / रुच्यं च मधुरं रक्तज्वरतृटश्वासकामलाम् // पित्तं च नाशयत्येवं मुनिभिः परिकीर्तितम् ।-नि० र० कुश की जड़-शीतल, रुचिकारक, मधुर तथा रक्त, ज्वर, तृषा, श्वास, कामला और पित्तनाशक है। विशेष उपयोग (1) प्रदर में-कुश की जड़, चावल की धोवन के साथ पीसकर तथा जीरा का चूर्ण और मिश्री मिलाकर पीना चाहिए। (2) मूत्रशुद्धि के लिए -कुश की जड़ का काढ़ा पीएँ / (3) वातज्वर में-कुश को जड़ और गोखुरू के काढ़े में मिश्री और शहद मिलाकर पीना चाहिए / (4) दाह पर-कुश की जड़ पीसकर लगाना चाहिए / (5) मासिकधर्म के लिए-कुश की जड़, कालातिल, पुराना गुड़ और आदी का काढ़ा बनाकर पीना चाहिए / Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोखुरू सं० गोक्षुर, हि० गोखुरू, ब० गोखरि, म० सण्टे, गु० गोखरु, क० वेडितीसराटीदोडुनेग्गिलु, तै० पालरु, अ० वजरुलखस्क, फा० तुख्मेखारखस्क, और लै० पेडेलेम्मुरेक्स-Pedalum Murx. विशेष विवरण-गोखुरू दो जाति का होता है। १छोटा और २-बड़ा / कोई लोग बड़े को पहाड़ी और छोटे को देशीभी कहते हैं। पहाड़ी गोखुरू का पेड़ होता है। इसका फूल पीला और सफेद होता है / पत्ते भी थोड़े. सफेद होते हैं / फल के ऊपर बराबर काँटे होते हैं। छोटे गोखुरू का छत्ता होता है। इसके पत्ते चने के पत्ते के समान होते हैं / फूल पीला होता है। इसके फल में छः काँटे होते हैं। इसकी मात्रा छः माशे तक की दी जाती है। यह बड़ा पौष्टिक होता है। इसका उपयोग औषध के लिए होता है। गुण-गोक्षुरः शीतलो बल्यो मधुरो बृहणो मतः / बस्तिशुद्धिकरो घृष्यः पौष्टिकश्च रसायनः // अग्निदीप्तिकरः स्वादुमूत्रकृच्छूश्मरीहरः / दाहमेहश्वासकासहृद्रोगार्शविनाशनः // वस्तिवातं त्रिदोषं च कुष्ठं शुलं च नाशयेत् / -शा० नि० गोखुरू-शीतल, बल्य, मधुर, बृंहण, वस्ति को शुद्ध करने Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 203 गोरु वाला, वृष्य, पौष्टिक, रसायन, अमिदीप्तिकारक, स्वादिष्ट तथा मूत्रकृच्छ , अश्मरी, दाह, मेह, श्वास, कास, हृद्रोग, अर्श, वस्तिवात, त्रिदोष, कुष्ठ और शूलनाशक है।। गुण-तिक्तं, गोक्षुरकं वृष्यं शाकस्रोतो विशोधनम् ।-रा०व० गोखुरू का पत्ता--तीता, वृष्य और नाड़ी को शुद्ध करनेवाला है। गुण-वीजं गोक्षुरकं शीतं मूत्रलं शोथवारणम् / घृष्यमायुष्करं शुक्रमेहनुस्कृच्छ्रनाशनम् ॥-मा० सं० गोखुरू का बीज-शीतल, मूत्रल, शोथनाशक, वृष्य, आयुषर्द्धक तथा शुक्र, प्रमेह और मूत्रकृच्छुनाशक है। गुण-क्षारस्तु गोक्षुराणां तु मधुरः शीतलो मतः / स्रोतोविशोधनश्चैव. वातघ्नो वृष्य एव च ॥-नि० र० गोखुरू का तार-मधुर, शीतल, स्रोतसों को शुद्ध करने वाला, वातनाशक और वृष्य है। विशेष उपयोग (1) पाण्डुरोग में गोखुरू के काढ़े में शहद और मिश्री मिलाकर पीना चाहिए / (2) प्रमेह में-गोखुरू और मिश्री का चूर्ण खाएँ। (3) मूत्रकृच्छ और उष्णवात में-गोखुरू के पंचांग के काढ़े में शहद और मिश्री मिलाकर पीना चाहिए / (4) पुष्टि के लिए-गोखुरू का चूर्ण तीन माशे; एक पाव दूध, चार तोले घी, और एक तोला मिश्री के साथ सेवन करें। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 204 (5) पित्तजप्रमेह और मूत्राघात में-गोखुरू का हरा पेड़ धोकर पानी में भिगो दिया जाय और थोड़ी देर के बाद हिलाने से पानी में उसका लवाब निकल पाएगा; उस लवाब में मिश्री और जीरा का चूर्ण मिलाकर सात दिनों तक पीना चाहिए / (6) आमवात में-गोखुरू और सोंठ का काढ़ा पीएँ / (7) इन्द्रलुप्त पर-गोखुरू, तिल का फूल, शहद और घी, समान भाग पीसकर लेप करना चाहिए। (8) प्रसव के बाद का शूल-गोखुरू, मुलेठी और मुनक्का; दूध के साथ पीसकर पीना चाहिए / (8) पथरी पर-गोखुरू का चूर्ण और शहद एक साथ मिलाकर भेड़ के दूध के साथ सेवन करना चाहिए / (10) मूत्रकृच्छ में-गोखुरू का चूर्ण और मिश्री; दूध के।साथ सेवन करना चाहिए। (11) वीर्यवृद्धि के लिए-गोखुरू और बरियरा के के बीज का चूर्ण; मिश्री और दूध के साथ लेना चाहिए / घीकुवार सं० ब० घृतकुमारी, हि० घीकुवार, म० कोरफड, गु० कुवार, क० लोयिसर, तै० विरजाजितोगे, अ० मुसबर, फा० दरखतेसिन्न, अँ० बाइँडोज़ अलोज-Barbadoes Aloes, और लै० अलोइबाबडेन्स-Aloebarbadense. Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घीकुवार 205 विशेष विवरण-घीकुवार का क्षुप होता है। यह खारी, रेतीली तथा नदी-तट की जमीनों पर विशेष होता है। इसके पट्टे लम्बे और मोटे होते हैं / प्रत्येक पट्टे के दोनों ओर काँटे होते हैं। इसके भीतर से चिकना, लवाब-जैसा गूदा निकलता है। पट्टे के छोर अनीदार होते हैं / घीकुवार के बीच से डंठल निकलता है / उस डंठल में लाल रंग का फूल निकलता है। घीकुवार के रस से एलुवा बनाया जाता है। गुण-गृहकन्या हिमा तिक्ता मदगन्धिः कफापहा / पित्तकासविषश्वासकुष्ठम्नी च रसायनी ॥-रा: नि० घीकुवार-शीतल, तिक्त, मद के गन्धवाली तथा कफ, पित्त, कास, विष, श्वास और कुष्ठनाशक एवं रसायन है / गुण-तन्मध्यदण्डो मधुरः कुमारीसदृशो गुणैः / विशेषात्कृमिपित्तघ्नः पुष्पमस्य गुरु स्मृतम् // वातं पित्तं कृमीश्चैव नाशयेदिति कीर्तितम् / —शा० नि० ___घीकुवार के भीतर का डंठल-घीकुवार के समान ही गुणों वाला है ; किन्तु यह मधुर तथा विशेष करके कृमि और पित्तनाशक है / घीकुवार का फूल-भारी तथा वात, पित्त और कृमिनाशक है। _ विशेष उपयोग (1) विषम ज्वर में घीकुवार का लवाब दस माशे तक गरम पानी के साथ सेवन करना चाहिए। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घनस्पति-विज्ञान 206 (2) अजीर्ण में घीकुवार का लवाब, हल्दी का चूर्ण मिलाकर खाना चाहिए। (3) ऊर्द्धवास में-घीकुवार और अडूसा को सेंककर रस निकाला जाय और उसमें शहद, पीपर और भूनी लौंग का चूर्ण मिलाकर पीना चाहिए। (4) कफविकार में घीकुवार के रस में शहद, सेंधानमक और हल्दी का चूर्ण मिलाकर पीना चाहिए। (5) आँख आने पर-घीकुवार के लवाब में भूनी फिटकिरी और अफीम मिलाकर तथा गरम करके लगाना चाहिए। (6) स्तनरोग में-घीकुवार की जड़ और हल्दी पीसकर लगाना चाहिए। . (7) आग से जल जाने पर-घीकुवार का गूदा लगाना चाहिए। (8) घाव में कीड़ा पड़ जाने पर-घीकुवार की जड़ गोमूत्र के साथ घिसकर दिन में तीन बार लगानी चाहिए / (8) कर्णदाह में-घीकुवार का रस छोड़ें। (10) कामलारोग में-घीकुवार के रस में घी मिलाकर नास लेनी चाहिए। (11) उदरशूल में-घीकुवार के गूदा में कालानमक मिलाकर खाना चाहिए। - Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाटला सं० पाटला, हि० पाडरि, ब० पारुल, म० पाडल, गु० पाडर, क० हादरी, ता० पड्रि, तै० कलगोरु, और लै० विगनोनिया सुवियोलेन्स-Vignonia Suaviolens. विशेष विवरण–पाटला का फूल लाल होता है। यह कई प्रकार का होता है / एक दूसरे प्रकारवाले का फूल सफेद होता है / इसके पत्ते बेलपत्र के जैसे होते हैं / इन दोनों भेदवालों के वृक्ष होते हैं। तीसरे प्रकारवाले पाटला की लता होती है / कुछ लोग इसे बटौआ की बेल भी कहते हैं / ___ गुण -पाटला तु रसे तिक्ता कटूष्णा कफवातजित् / - शोफामानवमिश्वासशमनी सन्निपातनुत् ॥-रा०नि० पाटला-रस में तीता; कड़वा, उष्ण तथा कफ, वात, शोथ, आध्मान, वमन, श्वास और सन्निपातनाशक है / गुण --पुष्पाणि पाटलायास्तु स्वादूनि तुवराणि च / हृयानि शीतवीर्याणि रक्तदोषहराणि च // दाहं कर्फ पित्तरोगं पित्तातीसारहानि च / फलानि पाटलायास्तु शीतलानि गुरूणि च // तुवराणि च तिक्तानि मधुराणि बुधा जगुः / मूत्रकृच्छं रक्तपित्तं हिकावासहराणि च ॥-रा० नि० पाटला का फूल-स्वादिष्ट, कषैला, हृद्य, शीतवीर्य तथा Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 208 रक्तदोष, दाह, कफ, पित्तरोग और पित्तातीसारनाशक है। पाटला का फल-शीतल, भारी, कषैला, तीता, मधुर तथा मूत्रकृच्छ, रक्तपित्त, हिचकी और वातनाशक है / गुण-भूपाटला कटूष्णा च बल्या वीर्यविवर्द्धिनी / -शा० नि० भूपाटला-कटु, उष्ण, बल्य और वीर्यवर्द्धक है / गुण-क्षुद्रा तु पाटला श्वेता स्निग्धा च व्रणशोधिनी / __कफमेदः कुष्टविषमण्डलानि विनाशयेत् ॥–शा० नि० छोटा पाटला-सफेद, स्निग्ध, व्रणशोधक तथा कफ, मेद, कुष्ठ, विष और मण्डलकुष्ठनाशक है / गुण-वल्ली पाटलिका चोष्णा वातारोचकपित्तहा / रक्तदोषं च शोकं च नाशयेदिति कीर्तिता ॥–शा० नि० वल्ली पाटला-गरम तथा वात, अरोचक, पित्त, रक्तदोष और शोथनाशक है। विशेष उपयोग (1) हिचकी में-पाटला के फूल के रस में शहद मिलाकर पीना चाहिए / (2) विष पर-पाटला की जड़ घिसकर पिलानी चाहिए। (3) मूत्रकृच्छ में-पाटला का रस नाभि पर लगाएँ। (4) सिर-दर्द पर-पाटला का रस लगाना चाहिए / (5) शोफोदर में-पाटला की जड़ छाछ के साथ दें। (6) कफ प्रमेह में-पाटला की जड़ और गोखुरू का काढ़ा पीना चाहिए। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 209 खम्भारी (7) अम्लपित्त पर-पाटला के पत्ते के रस में छः माशे सोंठ और दो तोले मिश्री मिलाकर पीना चाहिए। (8) पित्तविकार में-पाटला के रस में तीन माशे सोंठ का चूर्ण और दो तोले मिश्री मिलाकर पीना चाहिए / __ (8) हैजा और उदरशूल में-पाटला की जड़ शीतल जल के साथ पीसकर पीना चाहिए / w खम्भारी सं० गम्भारी, हि० खम्भारी, ब० गाम्भारी, म०शिवणगम्भारी, गु०, शवन्य, क० सीवनी, तै० साल्लागुंबुटीचेटु, और लै० मीलाइना अखोरिया-Gmelina Arboria. - विशेष विवरण-खम्भारी का वृक्ष बड़ा होता है। इसके पत्ते समुद्रशोष-जैसे; किन्तु पीपल के पत्तों से बड़े होते हैं। इसके फल और फल पीले रंग के होते हैं / इसकी छाल सफेद होती है। गुण-काश्मरी तुवरा तिक्ता वीर्योष्णा मधुरा गुरुः / . . दीपनी पाचनी मेध्या भेदिनी भ्रमशोषजित् // - दोषतृष्णामशूलार्शीविषदाहज्वरापहा ।-शा० नि० खम्भारी-कषैली, तीती, उष्णवीर्य, मधुर, भारी, दीपक, पाचक, मेध्य, भेदिनी, तथा भ्रम, शोष, त्रिदोष, तृषा, आमशूल, अर्श, विष, दाह और ज्वरनाशक है / Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 घनस्पति-विज्ञान गुण-गाम्भरिकाफलं पाहि सतिक्तमधुरं गुरु / ___केश्यं रसायनं मेध्यं शीतलं दाहपित्तजित् // -रा०व० खम्भारी का फल-पाही, सहित तिक्तरस के मीठा, भारी, केश्य, रसायन, मेध्य, शीतल और दाह तथा पित्तनाशक है / गुण-तत्पुष्पं मधुरं शीतं तिक्तं संग्राहिवातलम् / / कषायं मधुरं पाके पित्तासृग्गदापहम् ॥–शा० नि० खम्भारी का फूल-मधुर, शीतल, तिक्त, ग्राही, वातल, कषैला, पाक में मधुर तथा रक्तपित्त और रक्तविकार नाशक है / गुण–गाम्भारीमूलमत्युष्णमहितं मानुषेषु तत् / -रा० 30 खम्भारी की जड़-अत्यन्त उष्ण और मनुष्यों के लिए अहितकारक है। . विशेष उपयोग (1) अामातीसार में खम्भारी और सौंफ के चूर्ण में मिश्री तथा कालानमक मिलाकर जल के साथ सेवन करना चाहिए। (2) दाह पर-खम्भारी की पत्ती पीसकर लेप करें। (3) रक्तशुद्धि के लिए-खम्भारी के रस में शहद मिलाकर पीना चाहिए। (4) वातार्श में खम्भारी की छाल घिसकर लगाएँ / (5) अरुचि में खम्भारी और सोंठ का चूर्ण गरम पानी के साथ लेना चाहिए। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 211 प्रसारणी (6) संग्रहणी में-खम्भारी का फूल, सोंठ, मिश्री और सौंफ का काढ़ा पीना चाहिए। (7) सर्पविष पर-खम्भारी की छाल का रस पीएँ / प्रसारणी सं० हि० म० प्रसारणी, ब० गाँधाली, गु० प्रसारणवेल्य, क० हेसरणे, तै० सविरेलचेटु, और लै० पिडेरियाफोटिडाPaederiafoetida. विशेष विवरण-प्रसारिणी को संस्कृत में राजबला भी कहते हैं। किन्तु अभी तक किसी ने यह निश्चय नहीं किया कि प्रसारिणी क्या बला है ? इसे कुछ लोग मराठी में चाँद विल और गुजराती में नारी कहते हैं / लैटिन में चाँद वेल और प्रसारिणी के नाम, लक्षण और गुण अलग-अलग हैं। वे नाम, लक्षण और गुण इससे एकदम नहीं मिलते / इन दोनों में बड़ा अन्तर है। गुण-प्रसारिणी गुरुव॒ष्या बल सन्धानकृत्सरा / .. वीर्योष्णा वातहत्तिक्ता वातरक्तकफापहा ॥-भा० प्र० प्रसारणी-भारी, वृज्य, बल्य, सन्धानकारक, उष्णवीर्य, वातनाशक, ताती तथा वातरक्त और कफनाशक है। विशेष उपयोग (1) वातविकार में प्रसारिणी के पंचांग का चूण सेवन करना चाहिए / Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनस्पति-विज्ञान 212 (2) वीर्यवृद्धि के लिए-प्रसारिणी का चूर्ण, मिश्री और दूध के साथ सेवन करना चाहिए / (3) चोट पर-प्रसारिणी पीस और गरम करके लगाएँ। अनंतमूल सं० सारिवा, हि० अनंतमूल, ब० अनंतमूल, म० उपलसरी, गु० कपरी, क० सारिवा, तै० नीलतिग, और लै० इंडियन सारसापरिला-Indian Sarsaparilla. विशेष विवरण-अनंतमूल दो प्रकार का होता है / १सफेद, और २-काला / सफेद को सारिवा और काले को कृष्ण सारिवा कहते हैं / अनंतमूल की लता होती है / इसकी पत्ती अनार के समान होती है। किन्तु उसमें सफेद रंग की छींटे होती हैं / इसकी जड़ से कपूरकचरी-जैसी गंध निकलती है / इसमें एक साथ दो-दो फलियाँ आती हैं। लोग इसे सारसापरिला भी कहते हैं / गुण-श्वेता तु सारिवाशीता मधुरा शुक्रला गुरुः / स्निग्धा तिक्ता सुगन्धिश्च कुष्ठकण्डूज्वरापहा // देहदौर्गन्ध्याग्निमांद्यश्वासकासारुचीहरा / आमत्रिदोषविषहृदक्तरुक्प्रदरापहा // कफातिसारतृड्दाहरक्तपित्तहरा परा। वातनाशकरी प्रोक्ता ऋषिभिस्तत्वदर्शिभिः // -रा० नि० सफेद अनंतमूल-शीतल, मधुर, शुक्रल, भारी, स्निग्ध, Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 213 अनंतमूल तीता, सुगन्धित तथा कुष्ठ, खुजली, ज्वर, देह की दुर्गन्धि, अग्निमांद्य, श्वास, कास, अरुचि, आम, त्रिदोष, विष, रक्तविकार, प्रदर, कफ, अतीसार, तृषा, दाह, रक्तपित्त और वातनाशक है / गुण-कृष्णा तु सारिवा शीता वृष्या च मधुरा मता / कफनी चैव संप्रोक्ता गुणाश्चान्ये तु पूर्ववत् ॥-नि० 20 काला अनंतमूल-शीतल, वृष्य, मधुर और कफनाशक है। अन्य सभी गुण सफेद अनंतमूल के समान ही समझे। विशेष उपयोग (1) रक्तशुद्धि के लिए-अनंतमूल और गोरखमुंडी के काढ़े में शहद मिलाकर पीना चाहिए / (2) प्रदर में-अनंतमूल और असगंध के काढ़े में दूध, मिश्री और घी मिलाकर पीना चाहिए / . (3) वीर्यवृद्धि के लिए-अनंतमूल के चूर्ण में मिश्री मिलाकर खाना चाहिए / ' (4) वातरक्त में अनंतमूल पीसकर लगाना और पीना चाहिए। (5.) कुष्ठरोग में-अनंतमूल पीसकर पीना चाहिए। (6) देह की दुर्गन्धि पर-अनंतमूल और गुलाब का फूल पीसकर लगाना चाहिए। (7) दाह पर-अनंतमूल की हरी पत्ती पीसकर लगाएँ। تھی۔ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लटजीरा सं० अपामार्ग, हि० लटजीरा, ब० आपाङ्ग, म० अघाडा, गु० अघेडो, क० चिचिरा, तै० दुच्चीणिके, अ० उत्कम, फा० खारवासगोता, अँ० रफचेपट्री-Ruph Chafitree, और लै० एचिरेंथिस एस्पिरा-Achyranthis Aspera. विशेष विवरण-चिरचिटे का क्षुप होता है / इसे चिरचिटा और लटजीरा भी कहते हैं ; इसके पत्ते गोल होते हैं / पत्तों के बीच से एक बाल निकलती है। उस बाल में सूक्ष्म, मृदु'; किंतु काँटेयुक्त बीज निकलते हैं। यह जंगलों में स्वयं ही उत्पन्न होता रहता है। यह चार फिट तक ऊँचा होता है। वर्षाऋतु में यह अधिकता से होता है। इसके पौधे प्रायः भारत के सभी प्रान्तों में पाए जाते हैं। इसके डंठल पर बारीक रेशा होता है / यह लाल और सफेद दो प्रकार का होता है। गुण-अपामार्गस्तु तिक्तोष्णः कटुश्च कफनाशनः / ____ अर्शः कण्डूदरामन्नो रक्तहृद्ग्राहि वान्तिकृत् // - रा० नि० लटजीरा-तिक्त, उष्ण, कड़वा, ग्राही, वान्तिकारक तथा कफ, अर्श, कण्डू और उदररोग, आमविकार तथा रक्तविकार नाशक है। गुण-रक्तापामार्गः किंचित्कटुकः शीतलः स्मृतः / मलावष्टम्भवमिकृद्वातविष्ठम्भकारकः // Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 215 लटजीरा रूक्षो व्रणं विषं वातं कर्फ कण्डूं च नाशयेत् / बीजमस्य रसे पाके दुर्जरं स्वादु शीतलम् // मलावष्टम्भकं रूक्षं वान्तिकृद्रक्तपित्तजित् / कासनाशकरं प्रोक्तं मुनिभिस्तत्वदर्शिभिः // -नि० र० लाल लटजीरा-थोड़ा कड़वा, शीतल, मलरोधक, वमन और विष्टम्भकारक; रूखा तथा व्रण, विष, वात, कफ और कण्डू नाशक है। लाल लटजीरा का बीज-रस-पाक में दुर्जर, स्वादिष्ट, शीतल, ग्राही, रूखा, छर्घ तथा रक्तपित्त और कासनाशक है / _ विशेष उपयोग (1) बिच्छू के विष पर लटजीरा की जड़ पीसकर लगाना तथा पीना चाहिए / विष उतर जाने पर इसका पानी कड़वा मालूम पड़ता है। . (2) कुत्ता का विष-लटजीरा की जड़ का चूर्ण एक तोला, शहद के साथ चाटना चाहिए; और घीकुवार का गुदा तथा सेंधानमक लगाना चाहिए / . (3) दाँतों के दर्द पर लटजीरा का रस लगाएँ। (4) बहिरेपन पर-लटजीरा की छाल का रस और तिल का तेल एक में पकाकर छोड़ें। (5) आँख आने पर-लटजीरा की जड़ और सेंधानमक दही के पानी के साथ लोहे के वर्जन में घिसकर लगाएँ। (6) आँख की फूली पर लटजीरा की जड़ शहद के साथ घिसकर अंजन देना चाहिए / Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 216 (7) रतौंधी में लटजीरा की जड़ एक तोला रात के सोते समय खानी चाहिए। (8) रक्तार्श में-लटजीरा का बीज, चावल की धोधन के साथ पीसकर पीना चाहिए। (8) विचिका में लटजीरा की जड़ पीसकर पीएँ / (10) मासिकधर्म के लिए लटजीरा की जड़ योनि में रखनी चाहिए। (11) उपदंश में-लटजीरा की जड़ का रस चार तोले, छः माशे जीरा का चूर्ण मिलाकर सात दिनों तक पीना चाहिए / (12) शीघ्र प्रसव के लिए रविवार के दिन लटजीरा की जड़ पुष्यनक्षत्र में लाकर कच्चे सूत में बाँधकर कमर या हाथ में बाँधना चाहिए। किन्तु प्रसव के बाद तुरत उसे हटा देना चाहिए / अन्यथा अन्य अंग भी निकल आते हैं। (13) खाँसी और श्वास में-लटजोरा की राख पान के साथ खानी चाहिए। सोनापाग सं० श्योनाक, हि० सोनापाठा, ब० सोनालु, म० टेटु, गुरु मरमट्य, क० शोणा, तै० पेद्दामानु, ता. पन, और. लै० ओरो कसिलं इंडिकम्-Orocylum Indicum. Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 217 सरिवन विशेष विवरण-इसका वृक्ष बहुत ऊँचा होता है / इसकी फलियाँ लम्बी-लम्बी तलवार के समान दो-दो फिट तक की होती हैं। इसके भीतर रूई और दाने निकलते हैं। एक दूसरे प्रकार का भी सोनापाठा होता है। उसके फूल लाली लिए समुद्रशोपजैसे होते हैं। गुण-श्योनाकयुगलं तिक्त शीतलं च त्रिदोषजित् / पित्तश्लेष्मातिसारनं सचिपातज्वरापहम् ॥-रा० नि० दोनों प्रकार का सोनापाठा-तीता, शीतल तथा त्रिदोषनाशक ; कफ, पित्त, अतीसार और सन्निपातज्वरनाशक है / . विशेष उपयोग (1) रक्तविकार पर-सोनापाठा के काढ़ा में शहद मिलाकर पीना चाहिए / (2) अतिसार में सोनापाठा का पुटपाक करके तथा रस निकालकर पीना चाहिए। (3) कृमिरोग में सोनापाठा और वायविडंग का चूर्ण, शहद के साथ चाटना चाहिए / mmmmmm - सविन सं० गु० शालिपर्णी, हि० सरिवन, ब० शालपान, म० सालवण, क. मुरुलुवोने, तै० शीयाकुपना, और लै० डेस्मोडियं गंटिकम्-Demodium Gangelicum. Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 वनस्पति-विज्ञान विशेष विवरण-सरिवन का क्षुप होता है / एक-एक डंठी. में तीन-तीन पत्तियाँ होती हैं। उन पत्तियों में छोटी-छोटी फलियाँ लगती हैं / यह दो प्रकार का होता है। एक तीन-तीन पत्तीवाला और दूसरा एक-एक पत्तीवाला। गुण-शालिपर्णी रसे तिक्ता गुयृष्णा धातुवर्द्धिका। . रसायनी स्वादु वृष्या विषमज्वरवातहा // मेहाशः शोथसन्तापज्वरश्वासविषकृमीन् / त्रिदोषशोषच्छर्दिनी क्षतकासातिसारहा ॥-नि० 20 सरविन-रस में तीता, भारी, उष्ण, धातुवर्द्धक, रसायन, स्वादिष्ट, वृष्य तथा विषमज्वर, प्रमेह, अर्श, शोथ, सन्ताप, ज्वर, श्वास, विष, कृमि, त्रिदोष, शोष, वमन, क्षत और कासनाशक है। विशेष उपयोग (१)शोथ पर-सरविन पीसकर लगाएँ / (2) विषमज्वर में-सरिवन की पत्ती और कालीमिर्च पीसकर पीना चाहिए। (3) अर्शरोग पर-सरिवन के काढ़े से धोना चाहिए / पिठिवन - सं० पृश्निपर्णी, हि० पिठिवन, ब० चाकुले, म० पीठवण, गु० पृष्टिपर्णी, क० तोरेभोड, तै० कोलाकुपन्न, और लै० उरेरिया लेगोपोइडिस-Uraria Logopoides. Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 219 भूतृण विशेष- विवरण-पिठिवन पश्चिम और बंगदेश में विशेष होता है। किन्तु दक्षिण देश में इसका पता भी नहीं चलता। इसके पत्ते गोल और बेलदार होते हैं / फूल-गोल, सफेद और जटायुक्त होता है। विशेषकर इसकी जड़ का ही व्यवहार करना चाहिए / किन्तु स्वल्पमल होने से प्रायः पंचांग का ही व्यवहार होता है / गुण-गृष्टिपर्णी कटूष्णा च तिक्तातीसारकासनुत् / ___ हन्ति दाहज्वरश्वासरक्तातीसारतृड्वमीम् ॥-भा० प्र० पिठिवन-कड़वा, गरम, तीता तथा अतीसार, कास, दाह, ज्वर, श्वास, रक्तातीसार, तृषा और वमननाशक है / विशेष उपयोग (1) अतीसार में-पिठिवन की जड़, बेल की गुद्दी और सौंफ का काढ़ा बनाकर पीना चाहिए / (2) दाह पर-पिठिवन की पत्ती पीसकर लगाएँ / (3) रक्तातीसार में-पिठिवन के काढ़े में शहद मिलाकर पीना चाहिए। भूतृण सं० हि भूतृण, गु० भूत्रण, क० परिमलदगंजीणं, और लै० ऐंड्रोपोगम सिट्रेटस-Andropogam Citratus. विशेष विवरण-भूतृण जंगल और बाग-बगीचों में बहुतायत से उत्पन्न होता है, और इसमें गुनछे से लगते हैं और उनमें बहुत-से तथा बहुत छोटे-छोटे बीज होते हैं / Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 220 गुण-विदाहि दीपनं रूममनेत्र्यं मुखशोधनम् / अवृष्यं बहुविटकं च पित्तरकप्रदूषणम् ॥-भा० प्र० भूतृण-दीपक, रूखा, विदाहकारक, मुखशोधक, अवृष्य, बहुत मल निकालनेवाला, नेत्रों को अहितकारक तथा पित्त एवं रक्त को दूषित करनेवाला है। विशेष उपयोग (1) वमन रोकने के लिए-भूतृण की राख, शहद के साथ देनी चाहिए / (2) मुख की विरसता पर-भूतृण और मिश्री का काढ़ा पीना चाहिए। (3) श्वास पर-भूतृण और हल्दी का कोयला, शहद के साथ चाटना चाहिए। कटाई सं० बृहती, हि० कटाई, ब० व्याकुड, म० थोरडोरली, गु० उभी भोरिंगणी, क० हेग्गुलु, ता० चेरुचुंट, तै० पेहामुलंगा, अ. वालुंजान जंगली, फा० उस्तरगार, और लै० सोलेनम् इंडिकम्Solanum Indicum. विशेष विवरण-कटाई का क्षुप जंगलों में होता है। इसमें काँटे बहुत कम होते हैं / इसके पत्ते बैगन के पत्ते के समान होते हैं / फल बड़े-बड़े आँवले के समान चितेले और पीले रंग के होते हैं / यह कई प्रकार की होती है। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 221 ___ कटाई गुण-वृहती कटुतिक्तोष्णा वातजिज्ज्वरहारिणी / __अरोचकामकासन्नी श्वासहृद्रोगनाशिनी ॥-रा. नि. कटाई-कड़वी, तीती, उष्ण तथा वात, ज्वर, अरोचक, प्राम, कास, श्वास और हृद्रोगनाशक है। गुण-फलानि वृहतीनां च कटुतिक्त लघूनि च / ___कण्डूकुष्टकृमिघ्नानि कफवातहराणि च ॥-शा० नि० कटाई का फल-कड़वा, वीता, हलका तथा खुजली, कुष्ठ, कृमि, कफ और वातनाशक है। गुण-लघ्वी वृहतिका वातश्वासशूलकफापहा / ____ अग्निमांद्यं ज्वरं छदि हृगुगामं च नाशयेत् ॥–शा० नि० छोटी कटाई-वात, श्वास, शूल, कफ, अग्निमांद्य, ज्वर, छर्दि, हृद्रोग और आमनांशक है / गुण-श्वेता वृहतिका रुच्या कफवातविनाशिनी / ___ अंजनान्नेत्ररोगघ्नी गुणास्त्वन्ये तु पूर्ववत् ॥-रा० नि० सफेद कटाई-रुचिकारक, कफ-वातनाशक एवं अंजन करने से नेत्र-रोगनाशक है / अन्य गुण पहले जैसे हैं। विशेष उपयोग ( 1 ) ऊर्द्धश्वास पर-कटाई के काढ़े में पीपर का चूर्ण मिलाकर पीना चाहिए। (2) आँख आने पर-कटाई के बीज का अंजन करें। .. (3) सन्धिवात पर-कटाई पीस और गरम करके लगाएँ। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरणी सं० अग्निमन्थ, हि० अरणी, ब० गणिर, म० थोरऐरण, गु० अरणी, क० नरबल, तै० नेलिचेटु, और लै० कोलोडेन्ड्रन cataifea-Clorodendron Phlomides. विशेष विवरण-इसका पेड़ होता है। पत्ते गोल, छोटे और कड़े होते हैं / फूल सफेद होते हैं / इसके फल छोटे करौंदे के समान होते हैं / यज्ञ में इसकी लकड़ी से आग पैदा की जाती थी। अरणी छोटी और बड़ी दो जाति की होती है। काले और सफेद फूल होने के कारण दो प्रकार की और भी होती है। छोटी अरणी का पेड़ पाँच से ग्यारह फिट तक ऊँचा होता है। बड़ी अरणी का पेड़ तीस फिट तक ऊँचा पाया गया है। बड़ी अरणी के पत्ते छोटी से कुछ छोटे और काँटेदार होते हैं / अरणी के फूल निक. लते हैं / वे अपनी मनोमुग्धकारी गन्ध से मनुष्य को अपनी ओर वरवस आकृष्ट कर लेते हैं। गाँवों, खेतों और बगीचों में इसके वृक्ष बहुतायत से पाए जाते हैं। दशमूल में इसकी जड़ मिलाई जाती है। यह विशेष करके लेप और पट्टी बाँधने के काम आती है। गुण-तर्कारी कटुका तिक्ता तथोष्णानिलपाण्डुजित् / शोथश्लेष्माग्निमांद्यार्थीविट्वन्धामविनाशिनी // -50 नि० अरणी--कड़वी, तीती, उष्ण तथा वायु, पाण्डु, शोथ, कफ, अग्निमांद्य, अर्श और मलवद्धता तथा आमनाशक है / Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 223 अरणी गुण-लध्वनिमन्थस्य गुणाः प्रोक्ता वृद्धाग्निमन्थवत् / विशेषाल्लेपने चोपनाहे शोफे च कीर्तिताः // -नि० 20 छोटी भरणी-का गुण भी उड़ी अरणी के समान ही है। किन्तु यह विशेष करके लेप करने से उपनाह और शोथ नाशक है। गुण -तेज मन्थगुणाः प्रोक्ताश्चाग्निमन्थसमा बुधैः / विशेषाद्वातशोफे च प्रोक्ताः पूर्वैश्च सूरिभिः // -नि० र० तेजोमंथ-के गुण भी अरणी के समान ही है / किन्तु यह विशेष करके वात और शोथनाशक कही गई है। विशेष उपयोग (1) शोथ पर-अरणी की पत्ती सेंककर बाँधनी चाहिए। (2) शीतज्वर में-अरणी की जड़ शिखा में बाँधे / (3) वसाप्रमेह में-अरणी के फूल का काढ़ा पीएँ। (4) शीतपित्त में-अरणी के फूल का चूर्ण घी के साथ दें। ___(5) पक्षाघात में-काली अरणी का तेल लगाएँ / (6) संधिवात पर-अरणी का तेल लगाएँ। (7) दाह पर-काली अरणी पीसकर लगाएँ / Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बास सं० बंश, हि० ब० बाँस, म० बेल, गु० बाँश, क० यरडुविदीरु, ता० मूगिल, तै० कचिकई यदुरु, फा० कसब, अँ० बंबू केनBamboo Cane, और लै० बंबूस बलगारा--Bambusa Vulgares. विशेष विवरण-बाँस-वन, जंगल और पर्वत की तले. टियों में विशेष होता है / इसका फूल सफेद होता है। बाँस से बंशलोचन निकलता है। कभी-कभी बाँस पर जीरे भी आते हैं / उसमें से चावल निकलता है / उस चावल का लोग भात खाते हैं। गुण-वंशोम्लस्तुवरस्तिकः शीतलः सारको मतः / वस्तिशुद्धिकरः स्वादुश्छेदनो भेदको मतः॥ कर्फ रक्तरुजं पित्तं कुष्ठं शोथं व्रणं तथा / मूत्रकृच्छ्रप्रमेहाान् दाहं चैव विनाशयेत् ॥-नि० र. बाँस-खट्टा, कषैला, तीता, शीतल, सारक, वस्तिशोधक, स्वादिष्ट, छेदक, भेदक तथा कफ, रक्त की पीड़ा, पित्त, कुष्ठ, शोथ, व्रण, मूत्रकृच्छ, प्रमेह, अर्श और दाहनाशक है / गुण-तस्करीरः कटुः पाके रसे रूक्षोगुरुः सरः / __कषायः कफकृत्स्वादुर्विदाही वातपित्तलः // -भा० प्र० वाँस का अंकुर- पाक में कड़वा; रस में रूखा; भारी, सारक, कषैला, कारक, स्वादिष्ट, विदाही तथा वात-पित्तकारक है / Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 225 बाँस गुण-वेणोर्यवस्तु तुवरो रूक्षश्चमधुरो मतः। पुष्टिकृद्धीर्यकृद्धल्यः कफपितहरो मतः // विषप्रमेहशमनो मुनिभिः परिकीर्तितः।-नि० र० बाँस का चावल--कषैला, रूखा, मधुर, पुष्टिकारक, वीर्यदायक, वल्य तथा कफ, पित्त, विष और प्रमेहनाशक है। विशेष उपयोग (1) मूत्राघात पर-बाँस की राख और मिश्री, चावल के धोअन के साथ मिलाकर पीना चाहिए / (2) पारा के विष पर-चार तोले बाँस के पत्तों के रस में मिश्री मिलाकर पीना चाहिए / (3) रक्तजन्य दाह पर-बाँस की छाल के काढ़े में शहद मिलाकर पीना चाहिए / (4) बहुमूत्र में-बाँस के पत्तों का काढ़ा हर समय पीएँ। (5) बालकों के ऊर्द्धश्वास पर-बाँस की गाँठ जल के साथ घिसकर अथवा बंशलोचन शहद के साथ चाटें। - (6) घाव में कीड़े पड़े हों, तो-बॉस की राख, तिल के तेल के साथ मिलाकर लगानी चाहिए। (7) श्वास में-बाँस और लटजीरा की राख पान के साथ खानी चाहिए। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंगेरन सं० नागबला, हि० गंगेरन, ब० गोरख, म० गांगेटी, क. बट्टगरुके, और लै० सिडास्पमोजा-Sidaspamosa. विशेष विवरण--गंगेरन का वृक्ष सहदेई के समान होता है। किन्तु इसके पत्ते कुछ मोटे तथा दो आनवाले होते हैं / इसका फूल गुलाबी रंग का होता है। इसका फल सहदेई से बड़ा होता है / यह सूखने पर स्वयं ही पाँच भागों में विभक्त हो जाता है / गुण-मधुराम्ला नागबला कषायोष्णा गुरुस्तथा / कटूष्णा कफवातनी व्रणपित्तविनाशिनी ॥-रा० नि० गंगेरन-मधुर, अम्ल, कषैली, उष्ण, भारी, कड़वी, गरम, कफ-वातनाशक तथा व्रण और पित्तनाशक भी है / विशेष उपयोग (1) खुजली पर-गंगेरन की पत्ती का रस लगाना चाहिए। (2) दाह पर-गेरन का चूर्ण शीतल जल के साथ लें। (3) अम्लपित्त पर-गेरन के रस में शहद मिलाकर पीना चाहिए। paa -- कंघी सं० अतिबला, हि० कंघी, म० विकंकती, गु० खपाट्य, क० मुल्लदुरुवे, अँ० 'इंडियन मेलो--Indian Malow, और लै० एन्युटिलन इंडिकम-Abutilon Indicum. Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 227 कंधी विशेष विवरण-कंघी का वृक्ष दो-ढाई हाथ तक ऊँचा होता है / इसका फल-पीला और फल चक्रदार होता है / बालक उन फलों से कपड़ों पर छापा देते हैं। इसका बीज खरेंटी के बीज के समान होता है। गुण-तिक्ता कटुश्चातिबला वातन्त्री कृमिनाशिनी / दाहतृष्णाविषच्छर्दिक्लेदोपशमनी परा ॥–शा० नि० कंघी-तीती, कड़वी तथा वात, कृमि, दाह, तृषा, विष, वमन और क्लेदनाशक है। विशेष उपयोग (1) विद्रधि और व्रण पर-कंधी के कोमल पत्त पीस और गरम करके लगाना तथा कपड़ा बाँधकर बराबर शीतल जल छोड़ना चाहिए / (2) आतशक की गर्मी पर--कंघी की छाल और पत्तों का काढ़ा बनाकर सिर धोना चाहिए / (3) भूतज्वर में- कंघी की जड़ बाँधनी चाहिए / (4) ज्वर में-पुष्य नक्षत्र में कंघी की जड़ लाकर बाँधे। (5) मूत्र और वीर्यदोष पर-कंघी के बीज का चूर्ण, हींग, दूध और घी एक साथ मिलाकर पीना चाहिए / (6) अंडवृद्धि में कंघी के काढ़े में एरंड तैल मिलाकर पीना चाहिए। (7) बिच्छू का विष-कंघी की जड़ पीसकर लगाएँ। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फरहद सं० पारिभद्र, हि० फरहद, ब० पालतेमन्दार, म० पानरो, गु०, पांडरेवा, क० हरिवाला, ता० मुराक, तै० वारिदेचेद, और लै० एरिथिर्ना इंडिका-Erythrina Indica. विशेष विवरण-इसका पेड़ जंगल और सड़क के किनारे पाया जाता है / पत्ते ढाक के समान एक-एक डाल में तीन-तीन होते हैं / फूल सफेदी लिए लाल रंग का बड़ा सुन्दर मालूम पड़ता है। इसी पर कलियाँ भी लगती हैं। इनमें सूक्ष्म काँटे होते हैं। इसकी छाल, पत्ते और फल का व्यवहार किया जाता है / इसकी मात्रा दो माशे तक की है / यह सफेद और लाल दो जाति का होता है / सफेद बहुत कम दीख पड़ता है / इसकी लकड़ी हलकी होती है / इसकी लकड़ी का तलवार का म्यान बनता है / सफेद फरहद अधिक गुणोंवाला है। गुण–पारिभद्रः कटूष्णश्च पथ्यश्चाग्निप्रदीपकः / अरोचकः कफकृमिमेहशोफहरः स्मृतः // पुष्पं पित्तरुजं हन्ति कर्णव्याधिं विनाशयेत् / -शा० नि० फरहद-कड़वा, उष्ण, पथ्य, अग्निदीपक तथा अरोचक, कफ, कृमि, प्रमेह और शोथनाशक है / फरहद का फूलपित्त की पीड़ा और कर्णरोगनाशक है। ___विशेष उपयोग (1) कामला में-फरहद की छाल का चूर्ण एक तोला, चावल की धोधन के साथ लेना चाहिए / Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 229 नीम (2) वातरक्त में-सफेद फरहद की छाल का चूर्ण, घी और मिश्री के साथ लेना चाहिए। (3) धातुविकार पर--सफेद फरहद की छाल का चूर्ण मक्खन के साथ लेना चाहिए / ... (4) विच्छू के विष पर-फरहद की छाल का रस पीना चाहिए। (5) कर्णरोग में-फरहद के फूल का रस छोड़ें। . नीम सं० निम्ब, हि० नीम, ब० निमगाछ, म० कडुनिम्ब, गु० लिंबडो, क० बडवेवु, ता० वेपुम् मरम् , तै० वेया, फा० नेनवूनीम दरख्तहक, अँ० निम्बट्री---Nimbutree, और लै० एकाडिरेकटा इंडिका-Acadiracta Indica. . विशेष विवरण-नीम के वृक्ष भारतवर्ष में प्रायः सर्वत्र पाए जाते हैं। यह चालीस-पचास फिट तक का ऊँचा होता है / यह पुराना होने पर दस-बारह वर्गफिट तक मोटा होता है / इसकी प्रत्येक शाखा में प्रायः एक हाथ तक लम्बी सींकें होती हैं। उन सीकों में दोनों ओर पत्ती होती हैं / यह पत्ती आगे के ओर लम्बी, बीच-बीच में कटी, जरा रूखी और हरे रंग की होती हैं। इसमें सफेद रंग के फूल लगते हैं। रात के समय इनमें से बड़ी भीनी और Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनस्पति-विज्ञान 230 . मधुर गंध निकलती है। उसी फूल में हरे निमकौड़े लगते हैं। पकने पर ये पीले पड़ जाते हैं। उसके भीतर से मीठा और गाढ़ा रस निकलता है। फल के भीतर एक बीज निकलता है / फागुन या चैत में इसमें मुलायम पत्ते निकलते हैं। उस समय यह बड़ी सुन्दर मालूम पड़ती है / निमकौड़े के भीतर के बीज से तेल निकलता है / इसके फूल को लोग घी या तेल में भूनकर खाते भी हैं / नीम में से एक प्रकार का गोंद निकलता है। यह कड़वा नहीं होता; बल्कि मीठा होता है। नीम की छाल और गोंद रंग के काम आती है / नीम जितनी महत्वपूर्ण वस्तु संसार में दूसरी नहीं है। इसका संपूर्ण अंग काम आता है। गुण-निम्दधृक्षो लघुः शीतस्तिक्तो ग्राही कटुः स्मृतः / अग्निमांद्यकरश्चैव . व्रणशोधनकारकः // शोथपाककरो बाले हितो रुद्यो मतो बुधैः / कृमिवान्तिव्रणकफशोफपित्तविषापहः // वातं कुष्ठं च हृाहं श्रमं कासं ज्वरं तृषाम् / अरुचि रक्तदोषं च मेहं चैव विनाशयेत् ॥-नि० र० नीम-हलका, शीतल, तीता, ग्राही, कड़वा, अग्निमांद्यकारक, वणशोधक; शोथ और पाक को करनेवाला; बालकों को हितकारक तथा कृमि, वान्ति, व्रण, कफ, शोथ, पित्त, विष, वात, कुष्ठ, हृदय की दाह, श्रम, कास, ज्वर, तृषा, अरुचि, रक्तदोष और प्रमेहनाशक है। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम भीम 231 गुण-कोमलं पल्लवं चास्य ग्राहको वातकारकः / रक्तपितं नेत्ररोगं कुष्ठं चैव विनाशयेत् ॥-नि० र० नीम के कोमल पत्ते-ग्राही, वातकारक तथा रक्तपिरा, नेत्ररोग और कुष्ठनाशक हैं। गुण-जीर्णपर्ण विशेषेण वणनाशकरं मतम् / –नि ०र० नीम के पुराने पत्ते-विशेष करके वणनाशक हैं। गुण-निम्बवृक्षस्य पुष्पाणि पित्तन्नानि विशेषतः / तिक्तानि च कृमिन्नानि तथा कफहराणि च ॥–शा०नि० नीम का फूल--विशेष करके पित्तनाशक, तीता तथा कृमि और कफनाशक है। गुण-निम्बस्य सूक्ष्मशाखा तु कासश्वासार्शगुल्महा / कृमिमेहहरा प्रोक्ता फलं चामं लघु स्मृतम् // स्निग्धं च भेदकं चोष्णं मेहकुष्ठविनाशकम् / --शा० नि० - नीम की सींक-कास, श्वास, अर्श, गुल्म, कृमि और मेहनाशक है / निमकौड़ी-हलकी, चिकनी, भेदक, गरम तथा मेह और कुष्ठनाशक है। गुण-निम्बबीजस्य मजा तु कुष्ठन्नी कृमिनाशिनी ।-शा० नि० निमकौड़ी की गिरी-कुष्ठ और कृमिनाशक है / गुण-निम्वतैलं तु कुष्ठघ्नं तिक्तं कृमिहरं परम् / शा० नि० नीम का तेल-तीता तथा कुष्ठ और कृमिनाशक है। -गुण-निम्बवृक्षस्य पंचांर्ग रक्तदोषहरं मतम् / . पित्वं कण्डूं व्रणं दाहं कुष्ठं चैव विमाशयेत् ॥–शा० नि० Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 232 नीम का पंचांग-रक्तदोष, पित्त, खुजली, वण, दाह और कुष्ठनाशक है। _ विशेष उपयोग ( 1 ) वमन और कुष्ठ पर-नीम का काढ़ा पिलाना चाहिए। (2) सर्पविष में नीम और मसूर की दाल एक साथ पकाकर खानी चाहिए। (3) दुष्टत्रण पर-नीम का तेल लगाना चाहिए। (4) दूध कमकरने के लिए नीम की पत्ती पीसकर और गरम करके स्तनों पर लगानी चाहिए। (5) ज्वर में नीम की छाल का काढ़ा पीएँ। (6) चेचक पर-नीम का पंखा झलना चाहिए। (7) पारी के ज्वर पर-नीम की छाल का काढ़ा पीएँ। (8) पेट के कीड़ों पर-नीम और वायविडंग का काढ़ा पीना चाहिए। (8) सिर की जूं मारने के लिए नीम का तेल लगाना चाहिए। (10) शीतपित्त पर-नीम का तेल लगाना चाहिए / (11) फुन्सियों पर-नीम की छाल घिसकर लगाएँ। (12) शीतज्वर में नीम की अन्तरछाल का काढ़ा पीएँ। (13) बिगड़े हुए फोड़े पर-नीम की पत्ती पीस और गरम करके बाँधनी चाहिए। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 233 नीम (१४)-चर्मरोग पर -- नीम का तेल लगाना चाहिए / (15) पित्तज वातरक्त पर-बारह वर्ष तक नीम के नीचे रहना तथा उसकी लकड़ी से भोजन बनाकर खाना चाहिए। (16) श्वासरोग में-नीम का तेल तीस बूंद तक खाकर पान खाना चाहिए। (17) विषूचिका में-नीम की तेल के मालिश करें। (18) फोड़े पर-नीम की पत्ती का बफारा दें। (16) घाव में कीड़ा पड़ जाने पर-नीम का तेल लगाना चाहिए। (20) सन्धिवात पर-नीम का तेल लगाएँ / (21) दाँतों के कीड़ों पर-नीम का तेल लगाएँ। र (22) कर्णरोग में-नीम का तेल और शहद छोड़ें। (23) मस्तक के कीड़ों पर-नीम का रस और तिल का तेल मिलाकर नाक में छोड़ना चाहिए। . ( 24 ) कुष्ठरोग में-नीम के पंचांग का चूर्ण छः माशे तक चालिस दिन तक सेवन करना चाहिए / (25) सिकतामेह पर-नीम की अन्तरछाल का काढ़ा पीना चाहिए। (26) कामला रोग में नीम के रस में शहद मिलाकर पीना चाहिए। (27) नासूर में नीम का रस छोड़ना चाहिए / Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बकाइन सं० महानिम्ब, हि० बकाइन, ब० महानिम, म० कडुनिंब, गु० बकान्य, क० महावेड़, ता० मालाइवेतुवावेप्यम, तै० पेदवेया अ० वान, फा० आजाद दरख्त, और लै० मेलिया अजेडेरकMelia Azadirghth. विशेष विवरण-बकाइन के पेड़ नीम के समान बड़े-बड़े होते हैं / इसके पत्ते नीम से कुछ बड़े होते हैं। इसका फूल भी उसी के फूल के समान होता है / किन्तु सफेदी के स्थान पर यह कुछ नीलापन लिए रहता है / इसके फल गोल-गोल होते हैं। गुण-महानिम्बः कटुस्तिक्तः शीतश्च तुवरोमतः / रूक्षो ग्राही कर्फ दाहं व्रणं रक्तरुजं तथा // पित्तं कृमींश्च विषमज्वरं च हृदयव्यथाम् / सर्वकुष्टानि छदि च प्रमेहं च विषूचिकाम् // मूषिकायां विषं गुल्मं शीतपित्तं च नाशयेत् / कोष्ठरोगं चाशरोगं श्वासं च विनिवारयेत् ॥-नि० र० बकाइन-कड़वी, तीती, शीतल, कषैली, रूखी, ग्राही तथा कफ, दाह, व्रण, रक्त की पीड़ा, पित्त, कृमि, विषमज्वर, हृदय की पीड़ा, सब प्रकार के कुष्ठ, वमन, प्रमेह, विषूचिका, मूसा का विष, गुल्म, शीतपित्त, कोष्ठरोग, अर्श और श्वासनाशक है। विशेष उपयोग (1) गृध्रसीवात पर बकाइन की अन्तरछाल अथवा जड़ का काढ़ा बनाकर पीना चाहिए / Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 235 पित्तपापड़ा (2) कुत्ता के विष पर-बकाइन की जड़ का रस पीएँ। (3) आँख की गरमी पर-बकाइन का फल पीसकर बाँधना चाहिए। (4) प्रमेह पर-बकाइन का फल, चावल की धोअन के साथ पीस और घी मिलाकर पीना चाहिए / (5) शीतपित्त में बकाइन का रस, सरसों के तेल में पकाकर लगाना चाहिए। पित्तपापड़ा सं० पर्पट, हि० पित्तपापड़ा, ब० क्षेत् पापड़ा, म० पित्तपापड़ा, गु० पित्तपापड़ो, क० पर्पाक, तै० पर्पाकमु, अ. बकलतल मलीक, फा० शातरा, अँ० जस्टिसिया प्रोकबेंसJusticia Procumbans, और लै० फुमेरिया पार्वीफ्लोराFumeria Parviflora. - विशेष विवरण-पित्तपापड़ा का वृक्ष होता है। इसकी दो जाति हैं / एक में नीला और दूसरे में लाल फूल आता है। किन्तु लाल फूलवाला विशेष गुणद होता है। यह दो-तीन हाथ वक सीधा बढ़ता है / इस पर बारीक काँटे या रोएँ होते हैं। यह बरसात के प्रारम्भ में पैदा होता है, और जाड़े के आरम्भ में सूख जाता है / इसके पत्ते लम्बे; किन्तु पतले और नुकीले होते हैं / इन पर पहले सफेद फूल निकलता है। किन्तु बाद नीला और लाल हो Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति विज्ञान 236 जाता है। यह स्वयं उगता है / यह करोमंडल के किनारे और विशेष करके नेलूर और मछलीपट्टम के जिले की रेतीली भूमि में होता है / इसकी जड़ लम्बी और नारंगी के रंग की होती है। इसमें सूती कपड़ा रंगने से अच्छा रंग आता है। इससे भूरा, जामुनी और नारंगी का रंग भी तैयार किया जाता है। देशी छींट का पक्का रंग पित्तपापड़ा की जड़ से ही तैयार किया जाता है / सीलोन से इसकी जड़ यूरोप आदि स्थानों में भेजी जातो है। यह बोया भी जाता है; किन्तु इसकी अपेक्षा स्वयं उगनेवाला अधिक गुणद और उपयोगी होता है / इसकी जड़ यद्यपि छोटी होती है; तथापि एक सेर जड़ से एक पाव रंग निकल आता है / यह समुद्रतट की सूखी, हलकी और रेतीली जमीन पर अपनेआप कसरत से होता है / बोये पित्तपापड़ा की जड़ दो फिट लम्बी और ऊपर रेशेवाली होती है। इसमें से मजीठी रंग निकलता है / दक्षिण देश के रंगरेज इसका उपयोग करते हैं। गुण-पर्पटः शीतलस्तिक्तः संग्राही वातकोपनः / लघुः पाके च कटुको हरेत् पित्तकफज्वरान् // रक्तदोषारुचीर्दाहग्लानिभ्रममदाजयेत् / प्रमेहवान्तितृक्तपित्तानां च विनाशकः // अस्य शाका तु संग्राही शीता वातकरा लघुः / तिक्ता रक्तरुजं पित्तं ज्वरं तृष्णां च नाशयेत् // . कर्फ भ्रमं च दाहं च नाशयेदिति कीर्तितम् / -नि० र० Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 237 पित्तपापड़ा . पित्तपापड़ा-शीतल, तीता, संग्राही, वात को कुपित करनेवाला, हलका, पाक में कड़वा तथा पित्त, कफ, ज्वर, रक्तदोष, अरुचि, दाह, ग्लानि, भ्रम, मद, प्रमेह, वमन, तृषा और रक्तपित्तनाशक है। पित्तपापड़ा का शाक-ग्राही, शीतल, वातकारक, हलका, तीता तथा रक्तविकार, पित्त, ज्वर, तृषा, कफ, भ्रम और दाहनाशक है। विशेष उपयोग (1) पित्तज्वर में पित्तपापड़ा के काढ़ा में पीपर का चूर्ण मिलाकर पीना चाहिए / (2) पित्तविकार पर-पित्तपापड़ा का रस, गाय का दूध और मिश्री पीना चाहिए / ___(3) पित्तज शिरःशूल पर-पित्तपापड़ा और करेला के पत्ते के रस में घी मिलाकर लगाना चाहिए। (4) शोथ में-पित्तपापड़ा का काढ़ा पीना चाहिए / ... (5) सिर की गर्मी पर-पित्तपापड़ा के काढ़ा में शहद मिलाकर पीना चाहिए। (6) वमन में पित्तपापड़ा का अर्क पीना चाहिए / (7) पथरी पर-पित्तपापड़ा का चूर्ण चार तोले, गाय के छाछ के साथ लेना चाहिए / अथवा पित्तपापड़ा का रस, छाछ में मिलाकर पीना चाहिए। --000 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हड़जोड़ सं० अस्थिसंहारी, हि० हड़जोड़, ब० हाड़भांगा, म० कांडबेल, तै० नालेह, और लै० विटिज़क्रोड्रेन ग्युलोरिज-Vitisquodron Gularis. विशेष विवरण-इसकी लता थूहर के जाति की होती है। : इसमें चार-छः अँगुल पर गाँठे होती हैं / यह दुधारा, विधारा और चौधारा जाति का होता है / इममें से एक हडसंहारी जाति भी होती है / कांडबेल में भिन्न-भिन्न भाग में कांड होती है / इसीलिए इसे कांडवल्ली कहते हैं / यह शंकल के समान होती है। इसीलिए इसे हड़शंकटी भी कहते हैं। पहले इसके लगाने की विशेष प्रथा थी। गुण-वज्रवल्ली सरा रूक्षा कृमिदुर्नामनाशिनी / दीपन्युष्णा विपाकेम्ला स्वाद्वी वृष्या बलप्रदा // अर्शसांतु विशेषण हिता चैवाग्निदीपनी / चतुर्धारा काण्डवल्ली भूतोप्रदवशूलहा // अत्युष्णाध्मानवातांश्च तिमिरं वातरक्तकम् / अपसारं वातरोग नाशयेदिति कीर्तितम् // विधारा काण्डवल्ली तु सरालध्ध्यग्निदीपनी / रूक्षोष्णा मधुरा वातकृम्पर्शः कफनाशिनी ॥–नि० र० दुधारा हड़जोड़-सारक, रूखा; कृमि और अर्शनाशक दीपक, उष्ण, पाक में अम्ल, स्वादिष्ट, वृष्य, बलप्रद, विशेष करके Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 239 जीवन्ती अर्शवाले को हित और अग्निदीपक है / चौधारा हड़जोड़भूतोपद्रव और शूलनाशक; एवं अत्यन्त उष्ण तथा आध्मान, वात, तिमिर, वातरक्त, अपस्मार और वातरोग नाशक है। तिधारा हड़जोड़-सारक, हलका, अमिदीपक, रूखा, गरम, मधुर तथा वात, कृमि, अर्श और कफनाशक है / विशेष उपयोग (1) हड्डी टूट जाने पर-तिधारा के अभाव में चौधारा हड़जोड़ काटकर तीन दिनों तक बाँधना चाहिए। पशुओं के लिए भी इसका उपयोग किया जा सकता है / (2) वातरोग में-हड़जोड़ की छाल का चूर्ण और उड़द की पीठी का तिल के तेल में बड़ा बनाकर खाना चाहिए। (3) शिरा कटजाने पर-हड़जोड़ को मसलकर बाँधे / ‘जीवन्ती सं० हि० ब० म० जीवन्ती, गु० राडारुडी और क० हिरियाहलि / विशेष विवरण-जीवन्ती अनेक जाति की होती है / इसकी लता होती है। फल डौंगों में आते हैं। इसे तोड़ने से आक के समान दूध निकलता है। १-जीवन्ती, २-वृहज्जीवन्ती, ३-तिक्त जीवन्ती और ४-स्वर्ण जीवन्ती। इस प्रकार यह चार प्रकार की होती है। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 240 गुण-जीवन्ती मधुरा शीता रक्तपित्तानिलापहा / क्षयदाहज्वरान्हन्ति कफवीर्यविवद्धिनी ॥-रा० नि० जीवन्ती-मधुर, शीतल तथा रक्तपित्त, वायु, क्षय, दाह और ज्वरनाशक; एवं कफ और वीर्य को बढ़ानेवाली है। गुण-एवमेव बृहत्पूर्वा रसवीर्यबलान्विता / भूतविद्रावणी ज्ञेया वेगाद्सनियामका ॥-रा०नि० बड़ी जीवन्ती-रस, वीर्य और बल में जीवन्ती के समान ही है। किन्तु विशेष करके यह भूतविद्रावक और पारद को बाँधनेवाली है। गुण-तिक्तजीवन्तिका वातकफाजीर्णज्वरापहा / शोफनी विषहंत्री च लेपादाखुविषापहा ॥–शा० नि० तिक्त जीवन्ती-वात, कफ, जीर्णज्वर, शोथ और विषनाशक है / किन्तु लेप करने से मूसा का विष भी नष्ट करती है। गुण-स्वर्णजीवन्तिका वृष्या चक्षुष्या मधुरा तथा / शिशिरा वातपित्तासृग्दाहजिबलवर्द्धिनी ॥-रा० नि० स्वर्ण जीवन्ती-वृष्य, चक्षुष्य, मधुर, शीतल तथा वात, पित्त, रक्तविकार और दाहनाशक एवं बलवर्द्धक है। विशेष उपयोग (1) प्रमेह में-जीवन्ती का चूर्ण दूध के साथ लेना चाहिए। (2) ज्वर में-जीवन्ती और कालीमिर्च पीसकर पीएँ। (3) शोथ पर-जीवन्ती पीस और गरमकर लेप करें। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुगवन सं० मुद्गपर्णी, हि० मुगवन, ब० मुगानि, म० रानमूग, गु० मगवल्य, क० कोहसरु, तै० कारूयेसारा, और लै० फेजियोलस ट्रायलाबेटस-Phasiolons Trilobetus. विशेष विवरण-मुगवन की लता मूंग के समान होती है / इसके पत्ते मुंग-जैसे हरे होते हैं। फूल पीले रंग के होते हैं तथा फली भी मँग के समान ही होती है। यह लता वृक्ष का आश्रय लेती है / यह दक्षिण, कोंकण और गोवा में विशेष होती है। इसकी लकड़ी छड़ी-जैसी होती है / इसके बीज से तेल होता है / गुण-मुद्गपर्णी हिमा रुक्षा तिक्ता स्वाद्वी च शुक्रला / चक्षुष्या क्षयशोथप्नी ग्राहिणी ज्वरदाहनुत् // दोषत्रयहरी लावी ग्रहण्य तिसारजित् / -भा० प्र० मुगवन-शीतल, रूखी, तीती, स्वादिष्ट, शुक्रल, चक्षुष्य, हलकी, माही तथा क्षय, शोथ, ज्वर, दाह, त्रिदोष, प्रहणी, अर्श और अतीसारनाशक है। विशेष उपयोग (1) खुजली पर-मुगवन का बीज एक दिन गोमूत्र में भिगोकर दूसरे दिन गोमूत्र के साथ पीसकर पीना तथा शरीर पर लेप करना चाहिए। (2) उपदंश में-मुगवन के बीज का तेल लगाएँ। (3) दाह पर-हरी मुगवन पीसकर लगाएँ / Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मषवन सं० माषपर्णी, हि० मषवन, ब० माषाणी, म० रानउड़ीद, गु० अडवाड, क० रानोडिंडुका उटु, तै० कारुमीनुरु, और लै० जिजनेड्रेस पाटना-Grangemadrass Patana. विशेष विवरण-माषपर्णी की लता उड़द के समान ही होती है / इसे ही बनउड़दी भी कहते हैं / इसकी उत्पत्ति समतल भूमि पर होती है। उसके नीचे साधारण जड़ होती है / किन्तु पार्वत्यप्रदेशों में होनेवाली मषवन की जड़ मूली-जैसी होती है। यह स्वाद में मीठी होती है। यह उड़द के समान होती है। औषध में इसके सर्वांग का व्यवहार किया जाता है। इसकी मात्रा दो माशे तक की मानी गई है। . गुण-माषपर्णी रसे तिक्ता वृष्या दाहज्वरापहा / शुक्रवृद्धिकरी बल्या शीतला पुष्टिवद्धिनी ॥-रा० नि० मषवन-रस में तीती; वृष्य, दाह और ज्वरनाशक शुक्रवर्द्धक, बल्य, शीतल और पुष्टिदायक है। विशेष उपयोग (1) धातुवृद्धि के लिए-मषवन और सतावर का चूर्ण-दूध तथा मिश्री के साथ सेवन करना चाहिए / (2) दाह पर-मषवन पीसकर लगाएँ / (3) प्रमेह में-मषवन के रस में हल्दी का चूर्ण मिलाकर पीना चाहिए। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातला सं० हि० सातला, ब० सिजविशेष, म० निवडुंगाचा भेद, गु० साथेर, क० कनरव, अ० सातर, फा० एशन, और लै० ओरिगेनं वल्गेरीज-Origanum Vulgaris. विशेष विवरण-सातला की लता जंगलों में होती है। इसके पत्ते खैर के पत्ते के समान छोटे-छोटे होते हैं। इसका फूल पीला होता है। इसमें पतली और चपटी फलियाँ लगती हैं / उन फलियों में से काले बीज निकलते हैं / इसे तोड़ने से पीले रंग का दूध निकलता है। गुण-सातला कटुका पाके वातला शीतला लघुः / तिक्ता शोफकफानाहा पित्तोदावर्चरक्तनुत् ॥-भा० प्र० सातला-पाक में कड़वा, वातल, शीतल, हलका, तीता तथा शोथ, कफ, आनाह, पित्त, उदावर्त और रक्तदोषनाशक है। विशेष उपयोग (1) सन्धिवात में-सातला को सरसों के तेल में पकाकर लगाना चहिए / (2) शोथ पर-सातला पीसकर लगाना चाहिए / (3) रक्तशुद्धि के लिए-सातला के रस में शहद मिलाकर पीना चाहिए। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेमल सं० शाल्मली, हि० सेमल, ब० शिमुल, म० सांवरी, गु० शेमलो, क० यवलवदमर, ता. पुला, तै० रुगचेटु, अँ सिल्क काटनटी-Silk Cottyntree, और लै० सालमेलिया मेलबेरिका-Salmaliya Malabarica. विशेष विवरण-सेमल का वृक्ष प्रायः जंगलों में होता है / एक डंठल में आठ-दस पत्ते तक लगते हैं। इसमें काँटे होते हैं। इसके फूल कमल के समान लाल रंग के होते हैं। फल आक के समान होते हैं। इसके भीतर से रुई निकलती है। यह सफेद और लाल दो जाति का होता है। कार्तिक और अगहन में इसमें फूल आते हैं तथा चैत्र में फल आते हैं। फल जिस समय हरे रहते हैं, उसी समय लोग तोड़ और सुखाकर इसके भीतर से रुई निकालते हैं / यह रुई तकिया आदि बनाने के काम आती है / गुण-शाल्मली मधुरा वृष्या बल्या च तुवरा मता / शीतला पिच्छिलालध्वी स्निग्धा स्वाद्वी रसायना // शुक्रला श्लेष्मला चैव धातुवृद्धिकरी मता। रक्तपित्तं च पित्तं च रक्तदोषं च नाशयेत् // त्वग्रसोस्या ग्राहकः स्यात्तवरः कफनाशनः / पुष्पन्तु शीतलं तिक्तं गुरुस्वादु कषायकम् // वातलं ग्राहकं रूक्षं कफपित्तविनाशकम् / रक्तदोषहरं चैव गुणा ते फलस्य च // Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेमल 245 कन्दोस्य मधुरः शीतो मलस्तम्भकरो मतः / शोफ दाहं च पित्तं च सन्तापं चैव विनाशयेत् ॥-नि० र० सेमल-मधुर, वृष्य, बल्य, कषैली, शीतल, पिच्छिल, हलकी, चिकनी, स्वादिष्ट, रसायन, शुक्रल, श्लेष्मल, धातुवर्द्धक तथा रक्तपित्त, पित्त और रक्तदोषनाशक है / सेमल की छालग्राही, कषैली और कफनाशक है। सेमल का फूल-शीतल, तीता, भारी, स्वादिष्ट, कषैला, वातल, ग्राही, रूखा तथा कफ, पित्त और रक्तदोषनाशक है। सेमल का फल-भी पुष्प के समान ही गुणवाला है। सेमल का कंद-मधुर, शीतल, मलरोधक तथा, शोथ, दाह, पित्त और सन्तापनाशक है। विशेष उपयोग (1) प्रदर में-सेमल की छाल का चूर्ण, अथवा इसके काँटे का चूर्ण दूध और मिश्री के साथ लें। (2) मूत्रकृच्छ में-सेमल का चूर्ण, मिश्री के साथ लें। (3) बिच्छू का विष-रविवार को पुष्यनक्षत्र में सेमल के उत्तर भाग की जड़ इस प्रकार निकाल कर लाएँ, जिसमें अपनी छाया न पड़े और बिच्छू का विष जहाँ तक व्याप्त हो, तीन बार उस जड़ को फेर देना चाहिए; और उसे थोड़ा घिसकर लगाना एव पिलाना भी चाहिए। (4) उपदंश में-सेमल के कंद का चूर्ण छः माशे इक्कीस दिनों तक दोनों समय खाकर ऊपर से दूध में सेमल का कंद घिसकर पीना चाहिए / दूध और चावल खाना चाहिए / Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनस्पति-विज्ञान 246 (5) धातुपुष्टि के लिए--सेमल का चूर्ण छः माशे, मिश्री चार तोले ; एक पाव दूध के साथ सेवन करना चाहिए / अथवा सेमल की चार तोला जड़, एक पाव दूध के साथ रात के समय मिगो दी जाय, सुबह छानकर और एक तोला मिश्री मिलाकर सात दिनों तक पीना चाहिए। (6) बलवृद्धि के लिए सेमल के जड़ की छाल का चूर्ण, शहद और मिश्री के साथ सेवन करना चाहिए। (7) आग से जलजाने पर--सेमल की रुई पीसकर लगानी चाहिए। (8) स्तम्भन के लिए-सफेद सेमल के कंद का चूर्ण मिश्री मिलाकर खाना चाहिए। (8) फोड़े पर--मुलायम सेमल के कंद के गूदे का रस लगाना चाहिए। (10) दाह पर-सेमल का रस लगाना चाहिए / (11) सुरामेह पर--सेमल की छाल का काढा पीएँ / (12) अजीर्णातिसार में सेमल का चूर्ण तीन माशे मिश्री मिलाकर खाना चाहिए। (13) अतीसार में-सेमल की छाल अथवा जड़ पीस कर पीनी चाहिए। (14) धातुस्राव में सफेद सेमल की छाल, दूध में पीसकर जीरा और चीनी मिलाकर चौदह दिनों तक पीएँ। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 247 (15) हृद्रोग में सेमल की छाल दूध में उबालकर एक महीने तक पीना चाहिए। (16) दीर्घजीवन के लिए सेमल की छाल दूध में उबालकर एक वर्ष तक पीना चाहिए। (17) चेचक पर--सेमल के रस में--सफेद चन्दन और मुलेठी घिसकर लगानी चाहिए / म बट सं० हि० ब० बट, म० वड़, गु० बड़, क. पाल, ता० पाल, तै० मर्रि चेटु, अ० जातुनुवाइ बथाब, फा० दरखितरेशा, अँ बनीयन्टी-Banyantree, और लै० फाईकस इंडिकसFicus Indicus. विशेष विवरण-बट का विशाल वृक्ष होता है। इसके पत्ते लम्बे और चौड़े होते हैं। इसके फल झरबेरी के समान होते हैं। इसकी शाखा में लाल रंग के अंकुर निकलते हैं / वे ही बढ़कर भूमि पकड़ लेते हैं / जहाँ यह जम जाता है, वहाँ अनेक बट के वृक्ष हो जाते हैं। भारतवर्ष में प्रायः सभी जगह इसका वृक्ष पाया जाता है। गुण-चटः शीतो गुरुग्राही कफपित्तत्रणापहः / वर्यो विसर्पदाहघ्नः कषायो योनिदोषहृत् ॥-मा० प्र० Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनस्पति-विज्ञान 248 बट-शीतल, भारी, प्राही, वर्ण्य, कषैला तथा कफ, पित्त, व्रण, विसर्प, दाह और योनिदोषनाशक है। विशेष उपयोग (1) नख और दाँत के विष परबट, शमी और नीम की छाल घिसकर लगानी चाहिए / - (2) प्रमेह में-बट के अंकुर का काढ़ा बनाकर पीएँ / . (3) बिच्छू के विष पर-बट का दूध लगाएँ। (4) गर्भधारण के लिए-बट के एकदम नए और कोमल पत्तों को इक्कीस गोली बनाकर प्रतिदिन एक गोली घी के साथ खानी चाहिए। (5) कृमिरोग में-बट के अंकुर का रस पीएँ / (6) धातुपुष्टि के लिए-बंट का दूध बतासे में खाएँ। (7) ज्वर में दाह हो, तो-बट के अंकुर का रस पीएँ। (8) अतीसार में-बट का अंकुर चावल के धोअन के साथ पीसकर और मट्ठा मिलाकर पीना चाहिए। (8) रक्तपित्त में-बट के अंकुर के कल्क में शहद और मिश्री मिलाकर खाना चाहिए। पलाश स० पलाश, हि० पलाश, ढाक, ब० पलाशगाछ, म० पलस, गु० खाखरा, क० मुत्तलु, ता० परशन, तै० मातुकाचेटु, अ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 249 पलाश. डाउनी ब्रांच ब्युटिया-Downy Branch Butiya, और लै० ब्युटिया फ्रान्डाजा-Butiya Frondoza. विशेष विवरण-पलाश के वृक्ष बड़े-बड़े प्रायः नदीतराई और जाङ्गल्यप्रदेशों में होते हैं / इसके पत्ते गोल-गोल प्रायः तीन-तीन आते हैं / पहले जब पत्ते निकलते हैं तब लाल रंग के होते हैं; किन्तु पीछे हरे हो जाते हैं। पत्ता एक ओर हरा और दूसरी ओर सफेदी लिए रोएँदार होता है / फूल की डंठी काली और रंग अत्यन्त सुन्दर होता है / फली लम्बी-लम्बी निकलती हैं / इसके बीज चिपटे और गोल होते हैं। इसके पत्तों की पत्तल और दोने बनते हैं / इसमें से गोंद निकलती है / गुण-पलाशो दीपनो वृष्यः सरोष्णो व्रणगुल्मजित् / भन्नसन्धानकृदोष ग्रहण्यशः कृमीन्हरेत् // कषायः कटुकस्तिक्तः स्निग्धो गुदरोगजित् / तत्पुष्पं स्वादु पाके तु कटु तिक्तं कषायकम् // वातलं कफपित्तास्रकृच्छूजिद् ग्राहि शीतलम् / तृड्दाहशमनं वातरक्तकुष्ठहरं परम् // फलं लघूष्णं मेहार्शः कृमिवातकफापहम् / विपाके कटुकं रूक्षं कुठगुल्मोदरप्रणुत् ॥–भा० प्र० पलाश-दीपक, वृष्य, सारक, उष्ण, व्रण तथा गुल्मनाशक; भमसन्धानकारक तथा ग्रहणी, अर्श और कृमिरोगनाशक एवं कषैला, कड़वा, तीता, चिकना और गुदरोगनाशक है / पलाश का फूल Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनस्पति-विज्ञान 250 स्वादिष्ट; पाक में कड़वा ; तीता, कषैला, वातल तथा कफ, पित्त, रक्तविकार और मूत्रकृच्छनाशक एवं ग्राही और शीतल तथा तृषा, दाह, वातरक्त और कुष्ठनाशक है / पलाश का फल-हलका, गरम ; पाक में कड़वा; रूखा और मेह, अर्श, कृमि, वात, कफ, कुष्ठ, गुल्म और उदररोगनाशक है। गुण-पलाशभवनिर्यासो ग्राही च क्षपयेद्धृवम् / ग्रहणी मुखजान्कासाञ्जयेत्स्वेदातिनिर्गमम् ॥-पा० स० पलाश का गोंद-ग्राही तथा संग्रहणी, मुखरोग, खाँसी और अधिक पसीने का आना रोकता है। विशेष उपयोग (1) दाह पर-पलाश का पत्ता उस स्थान पर रखना चाहिए। (2) रतौंधी पर---पलाश के रस का अंजन करना चाहिए। (3) फूली पर-पलाश के रस में कपूर घिसकर लगाना चाहिए। (4) कृमिरोग में-पलाश के बीज का चूर्ण गरम जल के साथ सेवन करना चाहिए। (5) खुजली पर--पलाश के बीज का उबटन करें। (6) अतीसार में--पलाश के रस में शहद मिलाकर सेवन करना चाहिए। (7) आमवात पर--पलाश के बीज का चूर्ण खाएँ / (8) मुँह के छालों पर-पलाश की गोंद चूसें। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 251 अमिलतास (8) बालकों की खाँसी में-पलाश की गोंद दो रत्ती, दूध के साथ देनी चाहिए / अमिलतास सं० पारग्वध, हि० अमिलतास, ब० सोनालु, म० बाहवा, गु० गरमालो, क० हेगाके, तै० रेल्लकाया, अ० ख्यारेशम्वर, अँ० पुडिंग पाइपटी-Pudding Pipetree, और लै० केश्याफिसचुला-Cassiafistula. विशेष विवरण-अमिलतास का पेड़ बड़ा होता है। इसके पत्ते लालचन्दन-जैसे छोटे होते हैं। इसका फूल खेखसा की तरह पीले रंग का होता है / इसमें हाथ-डेढ़-हाथ लम्बा फल लगता है। इसके भीतर चिकना गूदा निकलता है। यही औषध के काम आता है। इसके भीतर जोगियारंग का चिपटा ; किन्तु जरा लम्बा बीज निकलता है। इसे आग पर सेंक देने से गूदा जल्द निकलता है। यह छोटा और बड़ा दो जाति का होता है। इसके फूल में पाँचपाँच पंखुड़ियाँ हल्दी के रंग की होती हैं। एक प्रसिद्ध यूनानी हकीम का कथन है कि उत्तम विरेचन के लिए अमिलतास की गुद्दी और बादाम का तेल खिलाना चाहिए / इससे छाती का दर्द नष्ट हो जाता है। यह बालक और सगर्भा को भी दिया जा सकता है। गुण-आरग्वधो गुरुः स्वादुः शीतलो मृदुरेचनः / ___ ज्वरहृद्रोगपित्तास्रवातोदावर्तशूलनुत् // Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान ____ 252 तत्फलं ख्रसनं रुयं कुष्ठपित्तकफापहम् / ज्वरे तत्सततं पथ्यं कोष्ठशुद्धिकरं परम् ॥-भा०प्र० अमिलतास-भारी, स्वादिष्ट, शीतल, मृदुरोचक तथा ज्वर, हृद्रोग, रक्तपित्त, उदावर्च और शूलनाशक है। अमिलतास का फल-संसन, रुच्य तथा कुष्ठ, पित्त और कफनाशक एवं ज्वर में निरन्तर पथ्य तथा परम कोष्ठशोधक है। गुण-पत्रमारग्वधस्यापि कफमेदोविशोषणम् / ज्वरे च सततं पथ्यं मलदोषसमन्विते // पुष्पाणि स्वादु शोतानि तिक्तानि ग्राहकाणि च / तुवराणि वातलानि कफपित्तहराणि च // मजा तु मधुरा पाके स्निग्धा चामिविवर्द्धिनी / रेचिका पित्तवातनां नाशिका समुदाहृता ॥-नि० र० अमिलतास का पत्ता-कफ और मेद विशोषक, ज्वर में निरन्तर पथ्य और मल को ढीला करनेवाला है / अमिलतास का फूल-स्वादिष्ट, शीतल, तीता, माही, कषैला, वातल तथा कफ-पित्तनाशक है। अमिलतास की गुद्दी-पाक में मधुर; चिकनी, अग्निवर्द्धक, रेचक तथा पित्त-वातनाशक है। विशेष उपयोग (1) दाह, कुष्ठ और खुजली परअमिलतास का पत्ता, कॉजी के साथ पीसकर लेप करना चाहिए। अथवा इसके फल या अंकुर का रस लगाना चाहिए / (2) चकत्तों पर-अमिलतास का पत्ता पीसकर लगाएँ। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 253 अमिलतास (3) नवजात वालकों के शरीर पर छाले हों, तोअमिलतास का पत्ता, गाय के दूध के साथ पीसकर लेप करें। (4) खुजली पर अमिलतास की जड़, मट्ठा के साथ पीस कर लगानी चाहिए। .. (5) चर्मरोग पर-अमिलतास का पत्ता मट्ठा के साथ पीस कर लगाना चाहिए। (6) पित्तज प्रमेह में अमिलतास की गुही का काढ़ा पीना चाहिए। (7) कफरोग में-अमिलतास की गुही और पाकड़ का फल पीस कर सुपारी बराबर गोली बनाकर प्रतिदिन जल के साथ खानी चाहिए। (8) रक्तपित्त में-अमिलतास और आँवला के काढ़े में शहद और मिश्री मिलाकर पीना चाहिए / (8) गण्डमाला पर-अमिलतास की जड़; चावल की धोअन के साथ पीस कर नस्य लेना और लेप करना चाहिए। (10) भिलावा के विष पर-अमिलतास के पत्ता का रस लगाना चाहिए। (11) विरेचन के लिए-अमिलतास की गुद्दी, सोनामुखी और हरे का काढ़ा पीना चाहिए। (12) पित्त की शान्ति के लिए-अमिलतास की गुद्दी और इमली पीसकर देना चाहिए / Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान ___254 (13) सन्धिवात पर-अमिलतास की गुद्दी लगाएँ। (14) वमन के लिए-अमिलतास का पाँच बीज पीसकर पीना चाहिए। . (15) शीघ्र प्रसव के लिए-अमिलतास की छाल, केसर, गुलाब का फूल और मिश्री पीसकर पीना चाहिए। --05 अशोक सं० हि० म० अशोक, ब० अस्पाल, गु० अशुपालो, और लै० जोनेशिया अशोका-Jonesia Asoka. विशेष विवरण-अशोक का पेड़ आम-जैसा होता है। इसके पत्ते आम के पत्ते से कुछ बड़े होते हैं। किन्तु ये अधिक कोमल और सुन्दर दीख पड़ते हैं / इसकी छाया बड़ी सघन होती है / इसका पेड़ बड़ा सुन्दर होता है। इसलिए लोग इसे बाग के चारों ओर लगाया करते हैं / इसका फूल लाल रंग का होता है। गुण-अशोको मधुरः शीतश्चास्थिसन्धानकृन्मतः / प्रियः सुगन्धिः कृमिकृत्तुवरोष्णश्च तिक्तकः // शरीरकान्तिकृञ्चैव स्त्रीणामुच्छोकनाशनः / ग्राही पित्तहरो दाहश्रमगुल्मोदरापहः / शूलाध्माने विषं चाझे प्रणं सर्वा तृषं तथा / शोथापचीतृषश्चैव नाशयेद्रकां स्नम् ॥-नि० र. Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 255 तुलसी अशोक-मधुर, शीतल, अस्थिसन्धानकारक, प्रिय, सुगन्धित, कुमिकारक, कषैला, उष्ण, तीता शरीर की कान्ति बढ़ानेवाला, स्त्रियों के शोक को दूर करनेवाला, ग्राही तथा पित्त, दाह, श्रम, गुल्म, उदररोग, शूल, आध्मान, विष, अर्श, सब प्रकार के फोड़े, तृषा, शोथ, अपची और रक्तविकारनाशक है। विशेष उपयोग (1) रक्तप्रदर में अशोक की छाल, समभाग दूध और पानी के साथ पकाई जाय, केवल दूध शेष रहने पर शीतल करके पिलाना चाहिए। (2) सब प्रकार के प्रदर पर-अशोक की छाल और रसवत, चावल के धोअन के साथ पीस-छानकर तथा शहद मिलाकर पीना चाहिए। ___ (3) पित्तज प्रमेह में अशोक के काढ़े में घी, मिश्री और शहद मिलाकर पीना चाहिए / तुलसी सं० हि० ब० म० गु० तुलसी, क० एरेडतुलसी, तै० तुलसी, अ० उलसीबदरुत, फा० रेहान, अ० ह्वाइटविजिल-White Basil, और लै० ओसिमम आल्बं-Ocimum Album. ... विशेष विवरण-तुलसी के वृक्ष सब जगह पाए जाते हैं। गृहस्थ लोग इसकी पूजा करते हैं। इसकी पची गोल और मुला Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 256 यम होती है / इसे मलने से बड़ी तीव्र और सुन्दर गन्ध निकलती है। यह दो प्रकार की होती है। एक की पत्ती एकदम हरी होती है और दूसरे की कुछ श्याम रंग की होती है। एक प्रकार की बनतुलसी भी होती है। इसका पेड़ प्रायः पुराना होने पर दो फिट तक ऊँचा पाया जाता है। भारतवर्ष की यह वस्तु बड़ी उपयोगी है / वैष्णव लोगों की तो यह प्राण है। इसकी मंजरी किसी जगह भी छोड़ देने से अनेक पेड़ उग आते हैं। गुण-तुलसी कटुका तिक्ता हृद्योष्णा दाहपित्तकृत् / दीपनी कुष्टकृच्छ्रास्त्रपार्श्वरुक्कफवातजित् / / शुक्ला कृष्णा च तुलसी गुणेस्तुल्या प्रकीर्तिता ।-शा० नि० तुलसी-कड़वी, तीती, हृद्य, उष्ण, दीपक तथा दाह-पित्तकारक एवं कुष्ठ, मूत्रकृच्छ, रक्तविकार, पार्श्वशूल और कफ-वातनाशक है / काली तुलसी-भी सफेद के समान ही गुणवाली कही गई है। विशेष उपयोग (1) शीतज्वर में-तुलसी और श्रदरख के रस में शहद मिलाकर पीना चाहिए / (2) प्रामातीसार और रक्तातीसार में तुलसी की जड़ का चूर्ण पान के साथ खाना चाहिए। (3) कर्णशूल पर-तुलसी का रस गरम करके छोड़ें। (4) रक्तस्राव और चक्कर में तुलसी के रस में शक्कर मिलाकर पीना चाहिए। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 257 मुलेठी (5) प्रसवपीड़ा में तुलसी का रस पीएँ। (6) वीर्यस्राव पर-तुलसी की मंजरी रात के समय पानी में भिगोकर सुवह मल और छानकर पीना चाहिए। (7) दाद तथा खुजली पर-तुलसी पीसकर मलें / (8) वातरोग में-तुलसी का सेवन करना चाहिए / (8) सब प्रकार के ज्वरों पर-तुलसी, कालीमिर्च और सेंधानमक पीसकर पीना चाहिए / (10) जुकाम में तुलसी की सूखी पत्ती की चाय पीएँ। (11) मुख की विरसता पर-तुलसी खानी चाहिए। मुलेठी सं० मधुयष्टी, हि० मुलेठी, ब० यष्टीमधु, म० जेष्ठमध, गु० जेठोमधनोमूल, क० यष्टिमधु, तै० यष्टीमधुकमु, अ० असलुससूसमुकस्सर रव्येसूस, फा० वखमेहेकूमजू, अ० लिक्योरिस रूटLiquorice Root, और लै० लिकारिस इक्सट्रेक्ट-Liquorice Extract, विशेष विवरण-मुलेठी की लता भारतवर्ष में प्रायः बहुत स्थानों में होती है। दक्षिण यूरोप में भी यह पाई जाती है। कालीमिट्टी तथा उष्णप्रदेश में यह विशेष होती है। इसकी एक दूसरी जाति भी होती है / इसका पेड़ होता है / इस पेड़ की ऊँचाई दो Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 258 हाथ तक होती है / इसके पत्ते चकवड़-जैसे लम्बे होते हैं। इसमें पाँच-पाँच अंगुल पर गाँठ होती है। यह थाना जिले में विशेष होती है। गर्मी के दिनों में यह सूख जाती है। पानी में होने वाली मुलेठी की एक तीसरी जाति होती है। उसे संस्कृत में 'मधू. लका' कहते हैं / इसकी जड़ को भी मुलेठी ही कहते हैं / विदेशी लोग इसका अर्क उतार कर भारत में भेजते हैं / हमलोग उसे बड़ी प्रसन्नता के साथ पीते हैं; किन्तु मुलेठी का उपयोग नहीं कर सकते। यह बड़े लज्जा का विषय है। इसका सत्त भी व्यवहार किया जाता है। गुण-यष्टिहिमा गुरुः स्वादी. चक्षुष्या वलवर्णकृत् / सुस्निग्धा शुक्रला केश्यास्वर्या पित्तानिलानजित् // व्रणशोथविषच्छदितृष्णाग्लानिक्षयापहा / तस्या रसक्रिया स्वाद्वी यष्टेः सा तु गुणाधिका ॥-नि० र० मुलेठी-शीतल, भारी, स्वादिष्ट, चक्षुष्य, बल-वर्णकारक, चिकनी, शुक्रल, केश्य, स्वयं तथा रक्तपित्त, वातरक्त, व्रण, शोथ, विष, वमन, तृष्णा, ग्लानि और क्षयनाशक है। मुलेठी का सत्त-स्वादिष्ट एवं मुलेठी की अपेक्षा अधिक गुणदायक है। विशेष उपयोग (1) तृषा शमन के लिए-मुलेठी चूसना चाहिए / अथवा काढ़ा बनाकर पीना चाहिए।' (2) आगन्तुक व्रण पर-मुलेठी पीस और गरम करके लगानी चाहिए। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 259 मुलेठी (3) हिचकी में-मुलेठी का चूर्ण शहद के साथ चाटें / (4) वमन के लिए-मुलेठी के काढ़ा में राई का चूर्ण मिलाकर पीना चाहिए। (5) वीर्यवृद्धि के लिए-मुलेठी का चूर्ण, विषम मात्रा घी और शहद के साथ मिलाकर खाएँ तथा ऊपर से दूध पीएँ। ___(6 ) बलवृद्धि के लिए-मुलेठी और सतावर का चूर्ण विषम मात्रा घी और शहद के साथ मिलाकर खाना तथा ऊपर से दूध पीना चाहिए। (7) मुँह के छालों पर-कंकोल और मिश्री रात के समय चूसना तथा प्रातःकाल मुलेठी का काढ़ा घी और मिश्री मिलाकर पीना चाहिए। (8) पित्तप्रदर-मुलेठी एक तोला, चावल के धोअन के साथ पीसकर चार तोले मिश्री मिलाकर पीना चाहिए। (1) वालकों के चर्मरोग पर-गाय के मक्खन के साथ मुलेठी घिसकर तथा कत्था का चूर्ण मिलाकर लगाएँ। (10) कफ सूख जाने पर-मुलेठी के काढ़ा में मिश्री मिलाकर पीना चाहिए। ___(11) ऊर्द्धश्वास में-मुलेठी और मिश्री एक साथ पकाकर पीना चाहिए / (12) उरतत पर-मुलेठी के काढ़ा में पीपर का चूर्ण और मिश्री मिलाकर पीना चाहिए। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 260 (13) मृगी में-कूष्मांड के रस में. मुलेठी घिसकर पीना चाहिए। (14) कफ में-मुलेठी के काढ़े में शहद या मिश्री मिलाकर अथवा गोमूत्र में शहद और बहेड़ा घिसकर पीएँ / ___(15) त्रिदोष में-अदरख और तुलसी के रस में मुलेठी घिसकर तथा शहद मिलाकर पीना चाहिए / (16) कफ से दूध-दूषित होने पर-घी में मुलेठी और सेंधानमक घिसकर पिलाना चाहिए और अशोक का फूल पीसकर स्तनों पर एवं बालक के होंठ पर लगाना चाहिए / (17) मूत्रकृच्छ में-मुलेठी का चूर्ण दूध के साथ लें। (18) हृद्रोग में-मुलेठी और कुटकी का चूर्ण गरम जल के साथ लेना चाहिए। (16) विषूचिका में-मुलेठी का काढ़ा पीना चाहिए। (20) रक्तज वमन में-मुलेठी और सफेद चन्दन दूध में घिसकर पीना चाहिए। (21) स्वरभंग में-मुलेठी का चूर्ण, घी और मिश्री के साथ खाना चाहिए। (22) खाँसी में-मुलेठी का चूर्ण मलाई के साथ खाना चाहिए। ... (२३)श्वास में-मुलेठी और अडूसा का काढ़ा पीएँ। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाँग सं० विजया, हि० भाँग, ब० सिद्धि, म० भाँग, गु० भाग्य, तै० जनपरितुलु, अ० कन्नवकेन, फा० किन्नाविष, अँ० इण्डियन हेम्प-Indian Remp, और लै० कनाविस सेटिवाCannabis Sativa. विशेष विवरण-भाँग का पौधा तीन-चार हाथ ऊँचा होता है / गाँजा और भाँग दोनों एक ही जाति के हैं / इसके पत्ते लम्बे, पतले और अनीदार होते हैं। उसमें नीले फूल के गुच्छे होते हैं। इसका फल बहुत छोटा होता है। इसके दाने मखमली फूल के दाने-जैसे होते हैं / यह दो जाति का होता है / १-पुरुष और २-स्त्री। पुरुष-जाति के पत्ते जो काम में लाए जाते हैं, उसे ही भाँग कहते हैं / स्त्री-जाति के पौधे जो काम में लाये जाते हैं, उसे गाँजा कहते हैं। गाँजा के ही पेड़ से नीले रंग का रस निकलता है / उस रस को चरस कहते हैं / यह कामोद्दीपक होता है / इसे पाक, माजूम और याकूती में छोड़ते हैं / यूनानी चिकित्सक इसे प्रमेह और अंत्रवृद्धि के लिए उपयोगी बतलाते हैं / गुण-भंगा कफहरी तिक्ता ग्राहिणी पाचनी लघुः / / तीक्ष्णोष्णा पित्तला मोहमदवाग्वन्हिवर्द्धिनी ॥–भा० प्र० भाँग-कफनाशक, तीती, प्राही, पाचक, हलकी, तीक्ष्ण, उष्ण, पित्तकारक तथा मोह, मद, वासिद्धि और अग्निवर्द्धक है / Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्पति-विज्ञान 262 गुण-अग्नेयी तर्षिणी बल्या मन्मथोद्दीपनी चला। . निद्रासंजननी गर्भपातिनी विकाशिनी // वेदनाक्षेपहरणी ज्ञेया च मदकारिणी / -पा० स० गाँजा-पाचक, तृष्णाकारक, बल्य, कामोद्दीपक, मन को चलायमान करनेवाला, निद्राजनक, गर्भपात करनेवाला, विकाशी; वेदना एवं आक्षेप को दूर करनेवाला तथा मदकारक है। विशेष उपयोग (1) अर्श रोग पर-भाँग, दूध के साथ पीसकर लगानी चाहिए। (2) संग्रहणी में-भाँग और सोंठ घी में भूनकर खाएँ। (3) अतीसार में-भाँग, घी के साथ भूनकर तथा मिश्री मिलाकर एक माशा तक खानी चाहिए। (4) मंदाग्नि में-भाँग और कालीमिर्च पीसकर पीएँ / (5) घाव पर-भाँग का पंचांग पीसकर लगाएँ / (6) निद्रा के लिए-भाँग और मिश्री पानी के साथ खाएँ। (7) वातार्श में-भाँग और गेंदा की पत्ती पीसकर बाँधे। (8) गर्भपात के लिए-गाँजा की पोटली गुप्तांग में रखें। (8) स्तम्भन के लिए-गाँजा दो रत्ती मसलकर गुड़ के बीच में रखकर खाना चाहिए। किन्तु इसके ऊपर दूध, घी तथा मिश्री मिलाकर अवश्य पीना चाहिए / Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाऊ सं० झावुक, हि० झाऊ, ब० झाऊगाछ, म० झावूतिलव्यावृक्षभेद, गु० झाबू / . . विशेष विवरण-झाऊ के वृक्ष प्रायः नदी के तट और रेतीली जमीनों पर होते हैं / इसके गुच्छे सरों के गुच्छे के समान होते हैं। किन्तु उसके जैसे और उतने लम्बे नहीं होते / इसका पेड़ झाँ देदार होता है / इसकी लकड़ी बहुत गाँठदार और मजबूत होती है / इसमें छोटे-छोटे अनेक फल होते हैं। गुण-झावुकः कटुकस्तिक्तः मूत्रकृच्छविनाशकः ।-शा० नि० झाऊ-कड़वा, तीता तथा मूत्रकृच्छनाशक है। विशेष उपयोग (1) यकृत में-झाऊ की पत्ती पीसकर खानी चाहिए। .. (2) दाह पर-झाऊ पीसकर लगाना चाहिए / (3) पथरी पर-झाऊ पीसकर पीना चाहिए / * समाप्त * Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेताक्षरों का विवरण द्रव्य-नामों के प्रत्येक भाषा के संकेताबरों का परिचय / सं०-संस्कृत __ हि०-हिन्दी ब०-बङ्गाली म०-मराठी गु०-गुजराती क०-कर्नाटकी तै०-तैलङ्गी ता०-तामिली अ०-अरबी फा०-फारसी . *०-अंग्रेजी लै०-लैटिन Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वास्थ्य सम्बन्धी उत्तमोत्तम पुस्तकें आरोग्य-मन्दिर यह स्वास्थ्य-रक्षा सम्बन्धी देश के उद्भट विद्वानों द्वारा विभिन्न विषयों पर अनुसन्धान-पूर्ण सुचिन्तित लेखों का संग्रह है / हिंदी में स्वास्थ्य सम्बन्धी जितना साहित्य अबतक प्रकाशित हो चुका है, यह उसका पूर्णतत्व है। इसमें व्यायाम, संयम, ब्रह्मचर्य, प्राणायाम, दीर्घायु, अमृतपान, दिनचर्या, ऋतुचर्या, जल, दूध, तम्बाकू एवं निद्रा; और धातुरोग, सूजाक, उपदंश, राजयक्ष्मा, प्रदर, रक्तगुल्म, यकृत, हैजा, प्लेग, नेत्ररोग, एवं जलोदर आदि; और थूहर इमली, नीम, जामुन, तुलसी, कपास, खैर, गूगुल और चूना आदि 84 विषयों पर मनन-योग्य लेखों का चयन है। पृष्ठ संख्या 400; मूल्य सजिल्द पुस्तक का 2) _ "इस पुस्तक में स्वास्थ्य-रक्षा और स्वास्थ्यवर्द्धन के अनेकानेक अत्यन्त सुलभ साधन बतलाए गए हैं। मेरा विश्वास है कि इस पुस्तक से लोगों का बड़ा लाभ होगा।" -गणेशशंकर विद्यार्थी आहार-विज्ञान भोजन ही जीवन का आधार है। प्रत्येक दीर्घायुकामी व्यक्ति को भोजन सम्बन्धी आवश्यक नियमों और भोज्य वस्तुओं के गुण-दोषों का ज्ञान निश्चय ही होना चाहिए / किन्तु इस पुस्तक के सिवा वह बहुमूल्य ज्ञान हिन्दी की किसी भी पुस्तक Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 2 ) में सुलभ नहीं है। इसमें भोजन क्यों करना चाहिए। श्राहार का परिमाण, भोजन का स्थान और गेहूँ, चना, चावल, जौ, ज्वार, साँवाँ, राई, मसूर, कोदो, कुलथी, उड़द, अरहर और सम्पूर्ण शाक, फल, फूल, मूल, दूध, दही, घी, छाछ; एवं पान, सुपारी, गुड़, चीनी, अदरख, इलायची इत्यादि सम्पूर्ण चीजों का संसार की सभी भाषाओं के नाम, गुण, विवरण और उपयोग के साथ पूरा-पूरा वर्णन दिया गया है। भाषा सरल, सरस, परिमार्जित और बोधगम्य है। छपाई-सफाई बढ़ियो; पृष्ठ-संख्या 400; मूल्य 2) ___ "आहार-विज्ञान नामक पुस्तकमैंने देखी, बड़ी उपयोगी है।" -डा० गंगानाथ झा एम० ए० (वाइस चांसलर,प्रयाग विश्वविद्यालय) सुखी गृहिणी खस्थ माताएँ ही सबल एवं नीरोग सन्तान की जननी हो सकती हैं / किन्तु खास कर स्त्रियों ही के लिए केवल स्वास्थ्यरक्षा सम्बन्धी महत्वपूर्ण बातें बताने वाली हिंदी में कोई अकेली पुस्तक नहीं है / इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, सौजन्य, रजोदर्शन, दाम्पत्य-प्रेम, परदाप्रथा, दिनचर्या, स्त्रीरोग, बालरोग; सम्पूर्ण विषयों की विवेचना की गई है। सुन्दर छपाई, मोटा कागज, पृष्ठ-संख्या 184; मूल्य 1) "स्वास्थ्य-रक्षा, पवित्र-चरित्र-निर्माण, और सुखपूर्ण जीवनयापन के जो नियम इस पुरतक में बतलाए गए हैं, वे महत्वपूर्ण हैं / भाषा सरल और सुबोध है। मेरी राय में महिला समाजखासकर नवयुवतियों के लिए यह पुस्तक बहुत उपयोगी है। आशा है, इसका प्रत्येक घर में आदर होगा।"-"माधुरी" (लखनऊ) Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखी जीवन आनन्द की पगदंडियों से होकर जीवन को सुखमय बिताने के लिए स्वास्थ्य विषयक शान नितान्त आवश्यक है। स्वस्थ और सबल सन्तानों का पिता बनने योग्य स्वस्थ और सबल पुरुष ही उपपुक्त है। इसमें जीवन की छोटी-बड़ी सभा गुत्थियाँ सुलझाई गई हैं। स्वास्थ्य, व्यायाम, ब्रह्मचर्य, विश्राम, संयम, शिक्षा, सदाचार, दाम्पत्य जीवन, स्नान, भोजन, वस्त्र, शयन, मादकपदार्थ, कुटुम्ब-शासन एवं गृह-निर्माण आदि विषयों पर लेखक ने पूर्ण रूप से विचार किया है। प्रत्येक बात की छानबीन विद्वत्ता के साथ की गई है। प्रत्येक गृहस्थ के लिए यह पुस्तक एक पथ-प्रदर्शक का काम करेगी। प्रत्येक नवयुवक के चरित्रनिर्माण में भी एक सुयोग्य पिता-जैसा काम देगी।पुरुष-स्वास्थ्यसम्बन्धी सभी विषयों पर पूर्ण प्रकाश डाला गया है। सभी विचार प्राचीन हैं; किन्तु बीसवीं शताब्दी के प्रकाश में लिखे गए हैं / एक मात्र यही अकेली पुस्तक हिन्दी भाषा में है, जिसके प्रत्येक पृष्ठ और पंक्ति में जीवन को सुखमय बनाने के सुलभ साधन भरे पड़े हैं। भाषा इतनी सरल और बोधगम्य है कि आप बराबर पढ़ते जाइए, जी न घबरायेगा और सभी बाते ठीक-ठीक समझ में आ जायँगी। बढ़िया सुन्दर छपाई, मोटा ऐंटिक कागज, पृष्ठ-संख्या 200, मूल्य 1) . -0: सफलता का रहस्य यह पुस्तक अंग्रेजी के प्रसिद्ध लेखक मिस्टर वार मेकफैडन की हाऊ सक्सेस इज़वन' (HOW SUCCESS IS WON) का हिन्दी अनुवाद है। इस पुस्तक में-मादक वस्तुओं का Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 4 ) त्याग, सच्ची स्वतन्त्रता, अच्छी सोसायटी, कर्मण्यता, एकाग्रता और सञ्चरित्रता आदि क्या है और मनुष्य को अपने जीवन में किस तरह सफलता मिल सकती है; यदि सफलता मिलती है, तो वह किस तरह और जीवन में कितनी बार मिलती है; सफलता के कौन-कौन अङ्ग हैं / सफलता के लिए स्वास्थ्य की कितनी आवश्यकता है। बहुत से लोग थोड़ी उम्र में कोई विशेष कार्य हो जाने से समझते हैं कि मुझे अपने जीवन में बहुत बड़ी सफल लता मिली है; परन्तु उनका यह ख़याल गलत है। उद्योग करने से बहुत बड़ी-बड़ी सफलताएँ मिलेंगी। सब बातों को जानने के लिए इस पुस्तक को अवश्य पड़िये। भाषा सरल, सरस और सुन्दर है। छपाई आदि उत्तम है। पृष्ठ 180, मूल्य ) ___ "अनुवादक महोदय ने अपनी ओर से कुछ और भी बातें जोड़कर पुस्तक का महत्व बढ़ा दिया है ।"-"सुधा" (लखनऊ) -::-- सिर का दर्द यह पुस्तक बतलाएगी कि मस्तिष्क की रचना कैसी है, उसमें जो सूक्ष्म तन्तु हैं, उनकी क्या क्रियाएँ हैं, उन तन्तुओं में खराबी क्यों होती है, सिर में दर्द क्यों होने लगता है, कितने प्रकार का सिर-दर्द होता है / डाक्टरी तथा वैद्यक के मतानुसार उसका विवेचन क्या है। इन दोनों मतों के अनुसार उसकी चिकित्सा क्या है, और सिर दर्द का प्राकृतिक उपाय क्या है ? सब बातों के जानने के लिए इसे अवश्य पढ़िए / पढ़ते जाइये ज़रा भी तबीयत न घबराएगी। छपाई सफाई प्रशंसनीय, पृष्ठसंख्या 100, मूल्य // "इसमें मस्तिष्क की रचना, क्रियाएँ, और पीड़ा के कारण, Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उससे निष्कृति के उपाय बड़े सुन्दर ढंग से बतलाये गये हैं। मस्तिष्क सम्बन्धी बड़ी उपयोगी पुस्तक है।”—'महारथी' (दिल्ली) -:: द-चिकित्सा “दद्रु-रोग का आरंभ, उसकी वृद्धि, उससे होने वाले कष्ट तथा उसकी भारतीय, यूनानी तथा अंग्रेजी चिकित्सा तो दी ही है; साथ-ही दद्रु-नाश के लिए प्राकृतिक,मानसिक, यौगिक, वायु, जल,अन्न, अग्नि, सौर, उपवास और तैल-द्वारा चिकित्सा का जो समावेश कर दिया गया है, उससे पुस्तक की उपयोगिता बहुत अधिक बढ़ गई है। दद्रु-पीड़ित जनता को इस पुस्तक से हर प्रकार का लाभ तो होगा ही, सर्वसाधारण तथा चिकित्सा करनेवाले सज्जन भी इससे बड़ा लाभ उठाएँगे।" बढ़िया कागज; सुन्दर छपाई; पृष्ठ 112, मूल्य ॥)-"भारत" (प्रयाग) -:: जीवन-रक्षा बालक ही राष्ट्र के मूलधन हैं। उनके जीवन की रक्षा से ही राष्ट्र का वास्तविक कल्याण सम्भव है / यह पुस्तक राष्ट्र की इस पूजी की रक्षा करने का बीमा लेती है। यदि इसे बालक पढ़े तो स्वस्थ और सबल हो जायँ, माता-पिता पढ़ें तो आदर्श सन्तान पा जाय / पृष्ठ-संख्या 120; मूल्य // ) "अच्छी पुस्तक है। भाषा सरल, विषय उपयोगी है। स्वास्थ्य- रक्षा के सभी नियम महत्व के हैं। बालकों और नवयुवकों के बड़े काम की पुस्तक है।" -महावीरप्रसाद द्विवेदी Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमृतपान यदि आप प्राकृतिक उपाय उषःजलपान से बड़े-बड़े भीषण रोगों का जैसे-अग्निमांद्य, उदर-रोग, मलावरोध, शूल, अम्लपित्त, उदावर्त, संग्रहणी, मूत्राघात, ज्वर, गण्डमाला, नेत्र-रोग, शिरोरोग, अश, शोथ, रक्तपित्त, मेदरोग और प्रतिश्याय आदि नाश करना चाहते हैं, तो इस पुस्तक को अवश्य पढ़िये / भाषा उत्कृष्ट, छपाई-सफाई चित्ताकर्षक / पृष्ठ 48; मूल्य / ) "इसमें नासिका द्वारा जलपान करने को विधि तथा लाभ बताये गये हैं। यह बताया गया है कि इस क्रिया से कौन-कौन कठिन रोगों से छुटकारा मिल सकता है।"-'वर्तमान' (कानपुर) - : दीर्घजीवन यह पुस्तक आपको बतायेगी, कि हवा, भोजन, पानी, वस्त्र, गृह, व्यायाम आदि क्या हैं; उनके क्या कार्य हैं; उनमें कैसे बिगाड़ पैदा होता है, और वे किन रूपों में हमारे जीवन को सुखी, हमारी आयु को दीघ बना सकते हैं। लम्बी आयु के अभिलाषी प्रत्येक व्यक्ति को इस पुस्तक की हर एक पंक्ति अपने हृदय पर लिख लेनी चाहिए। भाषा सरल, कागज छपाई उत्तम; पृष्ठ 34; मू०) ___ “प्राकृतिक स्वास्थ्य के प्रेमियों को अवश्य पढ़नी चाहिये। प्रत्येक गृहस्थ के लिए उपयोगीसिद्ध होगी।-'वर्तमान' (कानपुर) Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौंफ-चिकित्सा यदि आप सौंफ-जैसे पदार्थ से सम्पूर्ण रोगों का नाश करना चाहते हैं, यदि आप यह जानना चाहते हैं कि सौंफ का उपयोग कैसे करना चाहिए, तो 'सौंफ-चिकित्सा' को मंगाकर एकबार अवश्य पढ़िये। इसका प्रत्येक शब्द हृदय-पटल पर अंकित करने लायक है। इसके पढ़ लेने से प्रमेह, प्रदर, मूत्ररोग, अजीर्ण, विसूचिका, रक्तपित्त, हिचकी, श्वास, अतीसार और ज्वर आदि रोगों को श्राप सौंफ द्वारा ही भगाने में समर्थ हो जायेंगे। भाषा सरल, छपाई और सफाई मनोहर है। पृष्ठसंख्या 64, मूल्य / / ___"इसमें 'सौंफ' किन-किन रोगों में और कितनी मात्रा में लाभ पहुँचाती है, इसका वर्णन किया गया है / पुस्तक की उपयोगिता देखते हुए मूल्य बहुत कम है / प्रत्येक गृहस्थ को अपने घर में इसको अवश्य रखना चाहिए।" -'सुधा' (लखनऊ) . -0: काम-कुंज भूमिका-लेखक-डा. भगवानदासजी एम० ए० यह पुस्तक कामशास्त्र-सम्बन्धी संसार की प्रायः सभी पुस्तकों के अध्ययन के बाद लिखी गई है। लेखक ने अपने बहुमूल्य चार वर्षों का समय इस पुस्तक के लिखने में व्यय किया है। प्रायः सम्पूर्ण भाषाओं में प्राप्त कामशास्त्र-सम्बन्धो पुस्तकों का तत्त्व कहना अत्युक्ति न होगी। प्राचार्यों के मतमतान्तर पर विद्वान लेखक की टिप्पणी सारगर्भित है। पूर्व-पश्चिम, प्राचीन एवं प्रा. Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 5 ). चीन विद्वानों की डालो हुई मत विषयक गुत्थियों के सुझलाने की चेष्टा भी की गई है। काम की वैज्ञानिक एवं आयुर्वेदिक विवेचना भी पठनीय है। कामशास्त्र की व्यापकता, इतिहास, प्राचीनता और वात्स्यायन ऋषि के काल में विद्वानों का मतभेद और उनका ऐतिहासिक निर्णय, गवेषणापूर्ण है। भूमिका में लेखक ने काम शास्त्र की आवश्यकता के सम्पूर्ण अंगों पर पूर्ण प्रकाश डाला है। जो लोग ठगों के कारण कामशास्त्र को एक अश्लील और गंदी पुस्तक बताकर सदैव उसकी निन्दा किया करते हैं, नाम सुनकर घृणा करते हैं; वेही इसे पढ़कर सहर्ष राष्ट्र के भावी कर्णधारों के हाथ में देने को तैयार हो जायँगे। विवाहित दम्पतियों को एकबार इस पुस्तक को मंगाकर अवश्य पढ़ना चाहिए। छपाई-सफाई दर्शनीय ; मोटा ऐंटिक कागज ; सुन्दर बढ़िया जिल्द ; पृष्ठ संख्या 700, मूल्य केवल 4) “ऐसी क्लिष्ट और काम-सम्बन्धी पुस्तक का सुन्दर, सुरुचि. पूर्ण एवं साहित्यिक संस्करण देखकर चित्त प्रसन्न हुआ। पुस्तक में अत्यन्त सुष्टु और संयत भाषा का प्रयोग किया गया है / पुस्तक आधुनिक ज्ञान विस्तार के उपयुक्त है। लेखक का प्रयत्न स्तुत्य एवं प्रशंसनीय है। विश्वास है, विवाहित युवकयुवतियाँ तथा कामशास्त्र के प्रेमो विद्वान पुस्तक का सम्मानकर लेखक का उत्साह बढ़ाएंगे। यही मेरी कामना है।" / -डाक्टर प्राणनाथ, विद्यालंकार, डी० एस-सी०, पी० एच० डी०, एम० आर० ए० एस० (प्रोफेसर काशी हिन्दू-विश्वविद्यालय) सभी पुस्तकों के मिलने का पतामहाशक्ति-साहित्य-मन्दिर, बुलानाला, बनारस सिटी Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - ORDER बुलानाला बनारस ना . সাহাবি ঘাথ, শিরীন महाशक्ति चूर्ण चालीस औषधियों के योग से तैयार किया हुआ यह चूर्ण नपुंसकत्व, वीर्यदोष, मूत्र-कृच्छ, स्मरण-शक्ति-क्षीणता आदि का समूल नाश करता है / मूल्य 40 खुराक के डिब्बे का 5); 20 खुराक का 2 // ____ महाशक्ति बटी अनुपान-भेद से यह अभूतपूर्व बटी सैकड़ों रोगों को दूर करने में जादू का असर रखने वाली है / मूल्य 40 गोलियों को शीशी का 2) मनहर तैल सूर्य और चन्द्र की ज्योति से इसमें एक तरह की बिजली पैदा की गई है। यह तैल दिमागी ताकत को बढ़ाने, दिमाग को ठंढा रखने और बाल काले और मुलायम करने में विलक्षण चमत्कार दिखाता है / अजीब सुगन्ध वाला है / मूल्य 1) शीशी चर्मरोगारितैल // शीशी | दाद का मरहम / शीशी मुक्ता दन्त-मंजन / ) डिब्बी | द्रुनाशक अर्क / शीशी प्लेगनाशक अर्क 2) शीशी शीतज्वर नाशक बटी 1) शीशी सिरदर्दनाशक नस्य / शीशी सोजाक नाशक 2) शीशी आँख की दवा / शीशी हैजे की गोलियाँ // शीशी बहरेपन की दवा // शीशी घाव का मरहम / / शीशी | योगराज गुग्गुल 1) शीशी Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - মাইকি ঘশ্বাস্তত্বসুলনা বিন बहुमूल्य प्राचीन भस्में मूल्य एक भर का मूल्य एक भर का वन भस्म 5000); 2500) महाराज मृगाङ्क 500), 150) माणिक भस्म 250) हिरण्यगर्भ 110) मुक्ता भस्म 100); 50) | रत्नगर्भ पोटली 100) स्वर्ण भस्म सिद्ध मकरध्वज लौह भस्म (1000 पुट) 40) वृहत् वात चिन्तामणि अभ्रक भस्म (1000 पुट) 40) मालती वसन्त नागेश्वर भस्म 20) वसन्त कुसुमाकर प्रदरान्तक लौह वृहत्. कस्तूरी भैरव त्रिवंग भस्म 10) / वराशनि रस ف ق ق ق ق ق ق ق ल बटी और चूर्ण मूल्य एक भर का वृहत् मृगाङ्क वटी 50) चन्द्रोदय वटी ___50) विषम ज्वरनी वटी 30) ग्रहणी कपाट मूल्य एक छटाँक का सीतोपलादि चूण वन-क्षार चूर्ण हिंग्वाष्टक चूर्ण सुदर्शन चूर्ण // तैल और घृत मूल्य एक सेर का महानारायण तैल 24) महाचन्दनादि तैल महालाक्षादि तैल ग्रहणी-मिहिर तैल कामदेव घृत अशोक घृत' शतावरी घृत 7777 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकमहाशक्ति-साहित्य-मन्दिर बुलानाला, बनारस सिटी