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________________ आयुर्वेद हैं। पृथ्वी घ्राण में, जल रसना में, तेज नेत्रों में, वायु स्पर्श में, आकाश कणों में विशेष रूप से विद्यमान है। जो इन्द्रिय जिस पंचमहाभूत के द्वारा निर्मित हुई है, वह उसी भूत के भाव को प्राप्त होकर, उसी भूत-विषय का अनुसरण करती है। जब तक वह अपने भूत-विषयक कार्य में साम्यावस्था पर रहती है, तभी तक कोई विकार नहीं होता / परन्तु जब वह अति तर्पण, अयोग और मिथ्या योग में पड़ जाती है, तब हमारी इन्द्रियाँ और मन विकृत हो जाते हैं / इसी विकार का नाम रोग है। चरकाचार्य का कथन हैं कि अहितकर विषयों को छोड़कर हितकर विषयों का अनुसरण करना चाहिए। विवेक-पूर्वक देश, काल और आत्मा के अनुकूल व्यवहार करना चाहिए / सदैव मन को स्थिर करके दुष्कर्मों का परित्याग और सत्कर्मों का परिग्रहण करना ही श्रेयस्कर है। सत्कर्मों के द्वारा ही हम नीरोगता प्राप्त कर सकते हैं, और नीरोगता के द्वारा ही हम अपनी इन्द्रियों पर संयम और निग्रह रख सकते हैं। आयुर्वेद की शिक्षा का केवल यही अभिप्राय है। व्याधि के प्रादुर्भूत होने पर सभी चिकित्साशास्त्रों ने प्रतिकार का उपाय निर्दिष्ट किया है। तथापि हमारे आयुर्वेद में ऐसे उपायों पर विशेष प्रतिबन्ध किया गया है, जिनका पालन करने से रोग का आक्रमण हो ही नहीं सकता। यही आयुर्वेद की एक महती विशेषता है। हमारे पूर्व-पुरुष इन्हीं नियमों का पालन करके एक सौ बीस
SR No.004288
Book TitleVanaspati Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHanumanprasad Sharma
PublisherMahashakti Sahitya Mandir
Publication Year1933
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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