________________ रंस-चिकित्सा का विकास आसुरी मानवी दैवी चिकित्सा त्रिविधा मता / शस्त्रैः कषायोंमायैः क्रमेणान्त्या सुपूजिता // आसुरी, मानवी और दैवी-तीन प्रकार की चिकित्सा मानी गई है। वह क्रम से शस्त्र, कषाय और होमादिक से पूर्ण होती है। अर्थात् शल्य-शास्त्र की गणना आसुरी चिकित्सा में की गई है / मानवी चिकित्सा कषाय-द्वारा मानी गई है तथा दैवी-चिकित्सा जप-होमादि से सुसम्पन्न होती है / ___ किन्तु वह मानवी चिकित्सा जो उस समय कषाय-द्वारा की जाती थी, वही अब रस द्वारा भी सुसम्पन्न होतो है / अब हमारी आर्य-चिकित्सा पद्धति दो धाराओं में प्रवाहित होकर कुछ ही दूर जाने पर एक हो जाती है। इसी सङ्गम को वनौषधि और रसचिकित्सा पद्धति कहते हैं। कुछ लोग इन धाराओं पर शङ्का भी कर सकते हैं। किन्तु यह किसी विज्ञ पाठक से छिपा नहीं है कि हमारा आधुनिक रस-चिकित्सा-शास्त्र वनस्पति-चिकित्सा-शास्त्र से एकदम भिन्न नहीं है / जिन पारद, गन्धक आदि द्रव्यों का उल्लेख हमारे इन रस-प्रन्थों में मिलता है, उनका उल्लेख हमारे प्राचीन वनस्पति-शास्त्रों में नहीं है। अन्तर केवल इतना है कि हमारी 'आर्ष चिकित्सा पद्धति दोष के विपरीत पद्धति है, और यह रस-पद्धति व्याधि विपरोत चिकित्सा पद्धति है। अनेक रसों में