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________________ वनस्पति-विज्ञान कहीं हेतु या दोष का नामोल्लेख तक नहीं किया गया है। रोगों की ही प्रधानता मानकर रसों के गुणों का वर्णन किया गया है / यद्यपि अनेक रसों में दोषों का भी वर्णन किया गया है। किन्तु वहाँ पर भी उनका अभिप्राय दोष के क्रमानुसार चिकित्सा नहीं; प्रत्युत वह रोगों की अवस्थाओं के द्योतक हैं तथा औषध के शीत एवं उष्णवीर्य होने का भाव प्रकट करते हैं। जिसके द्वारा चिकित्सक-रोगी और औषधि की प्रकृति का ज्ञान करके शीघ्र लाभकारी चिकित्सा-विधि की योजना कर सकता है / रस-चिकित्सा का आरम्भ चरक-काल माना जाता है / इसके पूर्व आत्रेय और हारीत आदि के समय में इसका नाम तक न था / दूसरे इसकी उत्पत्ति भी मानव-कल्याण के लिए नहीं हुई थी / आरम्भ में केवल इसका रसायनवाद विषय था। उस समय इसका कार्य केवल हीन धातुओं को उच्च-धातु बनाना था। किन्तु वे धातुएँ औषधार्थ नहीं बनाई जाती थीं। उस समय जो धातुएँ स्वर्ण बनाने में असफल पाई गई, उनका उपयोग व्याधियों पर किया जाने लगा और जब वे उपयोगी सिद्ध हुई तब उनका प्रयोग बढ़ने लगा। वास्तव में आर्ष-चिकित्सा से रस-चिकित्सा का कोई सम्बन्ध नहीं है। एक तीसरा कारण भी है, जो रसायन को अनार्ष ही नहीं; - प्रत्युत विदेशी चिकित्सा सिद्ध करता है / वह हैं रस-शास्त्र में उपयोगित विदेशी द्रव्य / इन विदेशी द्रव्यों के ही कारण हम इसे
SR No.004288
Book TitleVanaspati Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHanumanprasad Sharma
PublisherMahashakti Sahitya Mandir
Publication Year1933
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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