________________ वनस्पति-विज्ञान शुक्रात॑वस्थैर्जन्मादौ विषेणैव विषक्रमे / तैश्च तिस्रः प्रकृतयः x x x // वात, पित्त, कफ-ये तीनों शुक्राणु और आर्तव में रहते हैं। इसीसे तीन प्रकार की प्रकृति बनती है / ये ही शुक्र और आर्तव के अणु जब गर्भाशय में मिश्रित होकर एक अणु के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं, तब यह गर्भ कहलाता है / सुश्रुत में लिखा है गर्भस्य नाभिमध्ये तु ज्योतिस्स्थानं ध्रुवं मतम् / तदा धमन्ति वातस्तु देहस्तेनास्य वर्द्धते // गर्भ रूप के मध्य में ज्योति अर्थात् पित्त का स्थान है / वायु के विभक्त करने से गर्भ वृद्धि को प्राप्त होता है। यद्यपि डाक्टर लोग वात, पित्त, कफ को नहीं मानते; तथापि उस गर्भाणु को वे सेल ( Cell ) कहते हैं। उस सेल के ऊपर रहनेवाले कफ को 'प्लोज्मा' कहते हैं और उसके मध्य में रहनेवाले पित्त को 'न्यूकलाई' कहते हैं, और उस अणु के विभाजक वायु को 'फोर्स' कहते हैं। इस प्रकार वात, पित्त और कफ-गर्भ के अणु में उस समय भी स्थित थे, जिस समय शरीर का कोई आकार नहीं था; और शरीर तैयार हो जाने पर भी वे प्रत्येक धातु के अणु में शरीर के वाह्य और मध्य में स्थित रहते हैं / इसी लिए वात, पित्त और कफ-धातु रूप कहलाते हैं। जब तक शरीर में ये साम्यावस्था में रहते हैं तब तक शरीर स्वस्थ