________________ रसायन और वनस्पति में सेवन नहीं की जा सकतीं; और अधिक मात्रा में सेवन कराए बिना लाभ की आशा भी व्यर्थ ही है / इसी प्रकार घृत-तैलादिक स्निग्ध पदार्थ भी सब जगह नहीं प्रयुक्त किए जा सकते; क्योंकि अनेक रोगियों को इनके सेवन से बड़ी आत्मिक ग्लानि होती है। वनस्पति चिकित्सा में अन्य कई असुविधाएँ और हैं। वनौषधियों के दो भेद हैं / १–शोधन और २-शमनकारक / शोधक औषधियाँ-विरेचक, संस्रावक, अनुलोमक, भेदक और वमनकारक होती हैं; और शोधक औषधियों के द्वारा वमन, विरेचन, नस्य, अनुवासन, निरूहण आदि पंचकर्म किए जाते हैं। किन्तु ये पंचकर्म अत्यन्त कष्ट साध्य हैं। आजकल अधिकांश रोगी शोधन के योग्य नहीं पाए जाते / अतएव शमनकारक औषधियाँ बहुत कम होती हैं। साथ ही वनस्पतियों से रोग की शान्ति बहुत अधिक समय में होती है। इन्हीं कारणों से रोग का सहज ही निराकरण करने के लिए चिकित्सक लोग अति दीर्घकाल से विविध प्रकार के सरल उपायों का अनुसन्धान करते आते थे। लोगों ने समझा कि यदि काष्ठादि औषधियाँ हीनवीर्य हो गई तो पृथ्वी के गर्भ में स्थित सुवर्णादि धातुएँ, पारदादिक रस, मणि-मुक्तादि रत्न रोग का प्रतिकार करने के लिए उपयोगी होंगे। उन्होंने प्रत्येक रोग में उक्त द्रव्यों का प्रयोग आरम्भ किया। इससे रोगों के शीघ्र दूर करने और शारीरिक एवं मानसिक शक्ति प्रात करने में विशेष सफलता प्राप्त हुई। इसका परि