Book Title: Dharm aur Darshan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन देवेन्द्र मुनि, शास्त्री सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा-२ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मति साहित्य रत्नमाला का १०० वां रत्न धर्म और दर्शन लेखक परम श्रद्धेय पंडित प्रवर श्री पुष्करमुनि जी महाराज के सुशिष्य देवेन्द्रमुनि, शास्त्री, साहित्यरत्न श्री सन्मति ज्ञान पीठ, आगरा Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक प्रकाशन में श्रर्थ सहयोग १ – डालचन्द वच्छराज एण्ड कम्पनी, पालघर (महाराष्ट्र ) २ - घीसुलाल जी खेमराज जी चंगेरिया परेल भुंईवाड़ी, म्युनिसिपालचाल नं० ४ / ६०१ बम्बई १२ ३ - शाह रिखबचन्द जुगराज ठि० रीड रोड, ५ कुआ अहमदाबाद नं० २ ४ - चांदमल हरखचन्द कोठारी, क्रोसलाइन, अहमदाबाद नं० २ पुस्तक : धर्म श्रौर दर्शन लेखक : देवेन्द्र मुनि, शास्त्री विषय : निबन्ध संग्रह ० O पुस्तक पृष्ठ : २४८ प्रथम प्रकाशन : अगस्त १९६७ O प्रकाशक : सन्मति ज्ञान पीठ लोहामंडी, आगरा २ आठ मूल्य : O मुद्रक : श्री विष्णु प्रिंटिंग प्रेस, राजा की मंडी आगरा - २ ० रुपए o ० Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण निस्सीम श्रद्धा और भक्ति के साथ परम श्रद्धय पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी महाराज Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राथमिकी भारतीय चिन्तन का निचोड़ है आत्मा और उसके स्वरूप का प्रतिपादन । आत्मा और परमात्मा के स्वरूप को जिस व्यग्रता तथा समग्रता साथ भारतीय धर्म एवं दर्शनों ने समझने का प्रयास किया है, उतना प्रयास न यूनान के चिन्तकों ने किया है और न यूरोप के विचारकों ने ही । भारतीय धर्म और दर्शन में जड़ प्रकृति का वर्णन व विवेचन भी है. किन्तु वह संवेचन मुख्यतः चैतन्य के स्वरूप को समझने के लिए हैं; उसकी मीमांसा करने * लिए है । जब कि पाश्चात्य दर्शनों में आत्मा का जो वर्णन किया गया है वह गुख्यतः जड़ प्रकृति को समझने के लिए है । जड़ प्रकृति की समीक्षा करने के लिए ही उन्होंने आत्मा का निरूपण किया है । यह प्रत्यक्ष सचाई है कि भारशौय दर्शन आत्मा की खोज का दर्शन है, और पाश्चात्य दर्शन जड़ प्रकृति की खोज का । भारतीय-दर्शन अध्यात्म प्रधान है और पाश्चात्य दर्शन भौतिकता प्रधान । भारतीय चिन्तन को अन्तिम परिणति मोक्ष है । मोक्ष साध्य है, धर्म और वर्शन उसकी साधना है । पाश्चात्य दर्शन की तरह भारतीय दर्शन ने धर्म और दर्शन को एक-दूसरे का विरोधी नहीं माना, किन्तु एक दूसरे का सहचर और सहगामी माना है। दर्शन सत्य की मीमांसा तर्क के द्वारा करता है तो धर्म श्रद्धा के द्वारा । दर्शन विचार को प्रधानता देता है तो धर्म आचार को । दर्शन का अर्थ है 'सत्य का साक्षात्कार करना और धर्म का अर्थ है उस सत्य को जीवन में उतारना। दर्शन हमें राह दिखाता है तो धर्म हमें उस राह पर चलने को प्रेरित करता है। अधिक स्पष्ट शब्दों में कहा जाय तो धर्म, दर्शन की प्रयोगशाला है। धर्म और दर्शन के मूलभूत तत्त्वों के सम्बन्ध में प्रस्तुत पुस्तक में कुछ लिखा गया है। सूर्य के प्रकाश की तरह सत्य है कि पुस्तक ल वने को कलाना प्रारम्भ में मेरे मन में नहीं थी और ये निबन्ध इस हाष्ट से लिखे भी नहीं गये थे, समय-समय पर जो मैंने निबन्ध लिखे उन निबन्धों मे से धम और दर्शन Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ( ६ ) सम्बन्धी कुछ निबन्ध इस संग्रह में जा रहे हैं । धर्म और दर्शन का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत पुस्तक से पाठकों को हो सकेगा - यह मैं मानता हूँ । इन निबन्धों को लिखने की मूल प्रेरणा परम श्रद्धेय पूज्य गुरुदेव श्रीपुष्कर मुनि जी महाराज की रही है । उनकी अपारकृपा, मार्ग-दर्शन और प्रोत्साहन के कारण ही मैं कुछ लिख सका हूँ । मेरे शब्द कोष में उनके प्रति आभार प्रदर्शित करने के लिए उपयुक्त शब्द नहीं है । परम श्रद्धय कविरत्न उपाध्याय श्री अमरचन्द्र जी महाराज का असीम अनुग्रह भी मैं विस्मृत नहीं कर सकता जो मुझे सदा अध्ययन एवं लेखन की उत्साह भरी प्रेरणाएं देते रहे हैं । साथ ही उन्हीं के प्रधान शिष्य कलमकलाधर श्री विजय मुनि जी, शास्त्री, साहित्यरत्न ने मननीय प्रस्तावना लिखकर मुझे अनुगृहीत किया । जैन जगत के यशस्वी लेखक और तेजस्वी सम्पादक पण्डित श्री शोभाचन्द्र जी भारिल्ल का हार्दिक स्नेह भी भुलाया नहीं जा सकता जिन्होंने निबन्धों को पढ़कर मुझे उत्साह बद्धक प्रेरणा ही नहीं दी, किन्तु मेरा स्वास्थ्य ठीक न होने से एक दो निबन्धों का सम्पादन भी किया । सिद्धान्त प्रभाकर श्री हीरामुनि जी, साहित्यरत्न शास्त्री गणेश मुनि जी, जिनेन्द्रमुनि, रमेशमुनि, राजेन्द्र मुनि और पुनीत मुनि प्रभृति मुनि-मण्डल का प्रेमपूर्ण सेवा व्यवहार भी लेखन में सहायक रहा है । उन सभी के प्रति में हृदय से आभारी हूँ, जिनका मुझे लेखन और प्रकाशन में सहयोग मिला है । तथा भविष्य में भी अधिकाधिक मिलता रहे इसी आशा और विश्वास के साथ 'विरमामि । हरषचन्द्र कोठारी हॉल, " राज हँस" बालकेश्वर बम्बई ६ न 98819 - देवेन्द्रमुनि Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन : एक मूल्यांकन 'धर्म और दर्शन' पर क्या लिखू ? लिखने को बहुत कुछ है, और लिखने को कुछ भी नहीं है। लिखने के प्रश्न को टालने का प्रयत्ल किया। परन्तु प्रेम के आग्रह को टाला भी तो कैसे जाए ? मेरे सामने प्रश्न का प्रश्न यही था, और उलझन की उलझन भी तो यही थी न ? जीवन के प्रांगण में, किसी भी उलझन का आना, मैं उसे अभिशाप के रूप में नहीं ----एक सुन्दर वरदान के रूप में ही स्वीकार करता हूँ। जीवन उलझनदार है-आज से ही नहीं, एक सीमा-हीन युग से । उलझकर फिर उलझने को तो निश्चय ही मैं जीवन नहीं कहता। मेरे विवार में उलझना बुरा नहीं, पर उलझकर सुलझने का प्रयत्न ही न करना-निश्चय ही बुरा है । धर्म और दर्शन का जन्म इसी उलझन के सुलझाव से हुआ है। मेरे अपने विचार में मनुष्य, इसीलिए मनुष्य है, कि वह उलझ कर भी सुलझने की शक्ति रखता है। प्रश्न था, और प्रश्न है, और प्रश्न भविष्य में भी रहेगा --धर्म क्या है ? दर्शन क्या है ? उन दोनों का परस्पर में सम्बन्ध क्या है ? What is Philosophy of religion, and what is raligion of Philosophy ? I atat प्रश्न एक-दूसरे के पूरक हैं । धर्म को दर्शन की और दर्शन को धर्म की सदा से ही आवश्यकता रही है-दोनों सापेक्ष हैं, निरपेक्ष नहीं । मानव जीवन की सरिता इन दोनों तटों के मध्य में से ही प्रवाहित होती है। उसके प्रवाह के लिए दोनों तट आवश्यक हैं। एक बार ग्रीक दार्शनिक सुकरात से पूछा गया था-What is reace and where it is ? शान्ति क्या है और वह है कहाँ ? कुछ गम्भीर होकर और फिर कुछ मन्दमुस्कान के साथ में सुकरात ने कहा था--मेरे लिए शान्ति, मेरा धर्म है, और मेरे लिए शान्ति, मेरा दर्शन है । और वे कहीं बाहर नहीं, स्वयं मेरे अन्दर ही हैं । सुकरात धर्म को विचार से भिन्न नहीं मानता । और जो कुछ विचार है, वही आचार भी । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं देखता हूँ, कि सुकरात के बाद में, ग्रीक दार्शनिकों में और यूरोपीय दार्शनिकों में, धर्म और दर्शन को लेकर पर्याप्त मत-भेद खड़े हो गए हैं। किन्तु सुकरात ने विचार को ही धर्म एवं आचार कह कर जैनपरम्परा का ही अनुगमन किया था। हमारे यहाँ पाँच आचारों में एक ज्ञानाचार भी है, जिसका अर्थ है-ज्ञान ही स्वयं आचार बनता है । जो कुछ विचार है, वही आचार है, और जो कुछ प्राचार है, वही तो विचार है । श्रमणों की परम्परा में, विचार और आचार-दोनों को सहगामी माना है। इस अर्थ में, विचार ही दर्शन है, और आचार ही धर्म है-दोनों सम्बद्ध एवं पूरक है। भले ही आज हम पाश्चात्यों का अन्ध अनुकरण करके धर्म के लिए religion और दर्शन के लिए Philosophy शब्द का प्रयोग ओर उपयोग करें, परन्तु जो गम्भीरता और व्यापकता धर्म और दर्शन में है, वह religion और Philosophy में नहीं है । क्योंकि ये दोनों एकांगी हैं, दोनों एक-दूसरे से निरपेक्ष हैं, सापेक्ष नहीं। ___ भारत के दार्शनिकों ने कभी धर्म और दर्शन को अलग स्वीकार ही नहीं किया । यहाँ तो जो धर्म है, वही दर्शन है, और जो कुछ दर्शन है, वही धर्म भी है । इतना अन्तर तो अवश्य है, कि दर्शन में तर्क की प्रधानता है, तो धर्म में श्रद्धा की मुख्यता है । परन्तु तर्क धर्म में बाधक नहीं, तो श्रद्धा भी दर्शन में बाधक नहीं। मैं देखता हूँ, कि वेदान्त में जो पूर्व मीमांसा है, वही धर्म है। जो उत्तर मीमांसा है, वही दर्शन है। योग आचार है, तो सांख्य विचार है । बौद्ध परम्परा में, दो पक्ष हैं-एक हीनयान और दूसरा महायान । महायान दर्शन बन गया,तो हीनयान धर्म बन गया । जैन परम्परा में भी मुख्यरूप से दो ही तत्त्व हैं-अहिंसा और अनेकान्त, अहिंसा धर्म बन गया और अनेकान्त दर्शन बन गया। भारत में धर्म और दर्शन एक-दूसरे को छोड़कर नहीं रह सकते हैं। मानव जीवन की साधना की धरती पर दर्शन को धर्म होना ही पड़ेगा और धर्म को भी दर्शन बनना ही पड़ेगा । यहाँ विचार को आचार होना होता है, और प्राचार को भी विचार होना होता है। इसके विपरीत यूरोप और ग्रीस में, धर्म और दर्शन, दोनों एक-दूसरे से अलग होकर जीवित रहने का प्रयत्न करते रहे हैं। और इस प्रयत्न में, वे दोनों एक दूसरे से अलग ही नहीं हुए, बल्कि एक-दूसरे के विरोध में भी खड़े Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो गए । आवश्यकता है, आज फिर इन दोनों के सहयोग और समन्वय की। तभी धर्म और दर्शन मानवी जीवन को सुन्दर बना सकेंगे। भारतीय विचारक दर्शन और धर्म के सम्बन्ध में क्या सोचते रहे हैं ? इस सम्बन्ध में लेखक ने अपनी पुस्तक में बहुत उद्धरण दिए हैं, जिससे विषय स्पष्ट हो जाता है । परन्तु थोड़ा परिश्रम करके पाश्चात्य विचारकों का भी मत यदि दे दिया होता, तो सोने में सुगन्ध हो जाती। शायद इधर लेखक का ध्यान गया ही नहीं। पाश्चात्य लोग धर्म में तीन तत्त्वों को स्वीकार करके चलते हैंKnowing, Feeling and Doing or Willing, बुद्धि, भावना और क्रिया -तीनों के समवेत रूप को ही धर्म कहा गया है। बुद्धि का अर्थ है-ज्ञान. भावना का अर्थ है-श्रद्धा और क्रिया का अर्थ है-आचार । जैन परम्परा के अनुसार भी श्रद्धान, ज्ञान और आचरण-तीनों धर्म ही हैं और ये तीनों ही मोक्ष के साधन भी हैं। हीगल ने धर्म की जो परिभाषा की है, उसमें एकमात्र ज्ञानात्मक पहल पर जोर दिया गया है। शेष दो अंशों की उसमें उपेक्षा की गई है। मैक्समूलर ने भी हीगल का ही अनुसरण किया है । कान्ट ने धर्म की जो परिभाषा दी है, उस में उसने ज्ञानात्मक के साथ में क्रियात्मक पहलू पर भी ध्यान दिया है, परन्तु भावनात्मक पहलू की उपेक्षा कर दी है। लेकिन मार्टिन्यू ने धर्म की जो परिभाषा को है, उसमें विश्वास, विचार और आचार-तीनों का समावेश कर लिया गया है । अतः धर्म की यह अपने आप में पूर्ण परिभाषा है । एक प्रकार से इसमें धर्म और दर्शन के साथ में भक्ति को भी समेट लिया गया है। इसका अर्थ यह है, कि धर्म के क्षेत्र में भक्ति, ज्ञान और कर्म-तीनों का समन्वय है। __आज के नवयुग के चिन्तन में से एक नया प्रश्न खड़ा हो रहा है, कि धर्म और विज्ञान का क्या सम्बन्ध है ? धर्म Religion और विज्ञान Science में क्या कुछ भेद है, और यदि है, तो वह क्या है ? इस विषय पर विस्तार के साथ में विचार करने का न समय है और न प्रसंग ही। फिर भी दोनों का स्वरूप ज्ञान तो आवश्यक ही है । विज्ञान का उद्देश्य कार्य-कारण सिद्धान्त के द्वारा वस्तुओं के बीच स्थिरता कायम करना है । परन्तु विज्ञान से जब पूछा जाता है कि कार्य-कारण की श्रृखला-एक व्यवस्था का निर्माण किस प्रकार Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) करती है, तो विज्ञान मौन हो जाता है । विज्ञान का सम्बन्ध जीवन से कम है - प्रकृति से अधिक । धर्म का सम्बन्ध आन्तरिक जीवन से ही है । धर्म और विज्ञान में मूल भेद यह है, कि धर्म का प्रधान उद्देश्य मुक्ति की साधना है, जबकि विज्ञान का प्रधान उद्देश्य केवल प्रकृति का अनुसन्धान है । विज्ञान में सत्य Truth तो है, पर शिव Good ness और सुन्दर Beauty नहीं है, जब कि धर्म में तीनों हैं - सत्य भी, शिव भी और सुन्दर भी । 1 धर्म और दर्शन में क्या भेद है ? इस सम्बन्ध में, मैं प्रारम्भ में ही लिख क्या और कैसा सोचते हैं ? चुका हूँ । परन्तु पाश्चात्य विद्वान् इस विषय में I पाश्चात्य विचारकों को यह मान्यता है, कि धर्म और दर्शन दोनों का विषय सम्पूर्ण विश्व है । दर्शन मनुष्य की अनुभूतियों की युक्तिपूर्ण व्याख्या करके सम्पूर्ण विश्व के आधारभूत सिद्धान्तों की खोज करता है । धर्म भी श्राध्यात्मिक मूल्यों के द्वारा सम्पूर्ण विश्व की व्याख्या करने का प्रयास करता है । धर्म और दर्शन में दूसरी समता यह है, कि दोनों मानवीय ज्ञान की योग्यता में विश्वास करते हैं । धर्म और दर्शन – दोनों मानवीय ज्ञान की यथार्थता में पूर्ण विश्वास करके चलते हैं । धर्म और दर्शन में मूल साम्य यह है, कि दोनों चरमतत्त्व में ( आत्मा में ) विश्वास करते हैं । दर्शन यदि बौद्धिक भूख को शान्त करता है, तो धर्मं आध्यात्मिक भूख को शान्त करता है | दर्शन सिद्धान्त की ओर जाता है, तो धर्म व्यवहार की ओर जाता है। धर्म का आधार श्रद्धा है, तो दर्शन का आधार तर्क है । आज के युग में एक प्रश्न और पूछा जाता है - धर्म और दर्शन का जन्म ia से हुआ ? इस प्रश्न के सम्बन्ध में यहाँ पर संक्षेप में, इतना ही लिखना पर्याप्त होगा, कि मनुष्य के मन और मस्तिष्क के साथ ही धर्म और दर्शन का जन्म होता है । कभी हो, इतना सत्य है, कि दोनों एक-दूसरे को छोड़ कर कभी नहीं रह सकते ? धर्म के अभाव में दर्शन अधूरा है, और दर्शन शून्य धर्म भी अधूरा ही रहेगा । मानव जीवन को सुन्दर और मधुर बनाने के लिए दोनों की समान भाव से आवश्यकता है । प्रस्तुत पुस्तक " धर्म और दर्शन" में मानव जीवन की मुख्य- शुख्य समस्याओं पर विस्तार के साथ में विचार किया गया है। भाषा सुन्दर है, भाव गम्भीर है और शैली आकर्षक है । प्रत्येक विषय को प्राचीन ग्रन्थों के उद्धरणों से परिपुष्ट किया गया है । विचारशील पाठकों के लिए यह ग्रन्थ बहुत ही उप Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगी और प्रयोगी सिद्ध होगा। धर्म और दर्शन जैसे गम्भीर विषय को इतनी सुन्दर भाषा में और इतनी सरल एवं सरस शैली में अभी तक नहीं रखा गया था। आभ्यन्तर सुन्दरता के साथ में पुस्तक की बाह्य सुन्दरता भी प्रशंसनीय है। मणि-काञ्चन का यह संयोग, अध्येताओं के लिए अत्यन्त उपादेय सिद्ध होगा। धर्म और दर्शन के लेखक हैं--पण्डित रत्न, प्रखर प्रवक्ता, श्रद्धय पुष्कर मुनिजी महाराज के अन्तेवासी शिष्य-श्री देवेन्द्र मुनिजी शास्त्री, साहित्यरत्न । गुरु से प्राप्त ज्ञान शिष्य में कितना उज्ज्वलतर हो गया है ? यह पुस्तक लिख कर मुनिजी ने जहाँ गुरू से प्राप्त ज्ञान को सफल किया है, वहां अपने अथक परिश्रम से उसे समाज की चेतना के समक्ष बहुत ही व्यवस्था और सजावट के साथ रखने में पूर्णतः सफल हुए हैं। उनकी लेखनी के चमत्कार से सभी परिचित हैं । मुझे आशा से भी बढ़कर विश्वास है, कि भविष्य में वे इससे भी अधिक शानदार कृति भारती के भण्डार में समर्पित करने में सफल रहेंगे। कांदावाड़ी जैन स्थानक बम्बई १२-८-३७ -विजयमुनि Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाश की य * धर्म और दर्शन का महत्वपूर्ण प्रकाशन प्रस्तुत करते हुए हमें अत्यन्त प्रसन्नता है । इस पुस्तक में श्री देवेन्द्र मुनि जी ने धर्म और दर्शन के सम्बन्ध में बहुप्रचलित भ्रान्तियाँ, और अज्ञानमूलक धारणाओं के परिष्कार के साथ ही धर्म और दर्शन की मौलिक स्थापनाओं का, उसकी विविध प्रक्रियाओं का सदसंर्भ जो शास्त्रीय विश्लेषण प्रस्तुत किया है, वह नई पीढ़ी के नये विचारशील युवकों के लिए पठनीय एवं मननीय है । श्री देवेन्द्र मुनि जी, शास्त्री स्थानकवासी समाज के उदीयमान साहित्यकार है । सतत अध्ययन और नवलेखन उनकी रुचि Hoby है । सन्मति ज्ञान पीठ अपनी विशुद्ध सांस्कृतिक परम्परा के अनुरूप मौलिक और महत्वपूर्ण प्रकाशनों को प्रस्तुत करती रही है। इससे पूर्व मुनि श्री की एक खोजपूर्ण कृति " ऋषभदेवः एक परिशीलन" भी प्रकाशित हो चुकी है । आशा है उस पुस्तक की तरह प्रस्तुत पुस्तक का भी सर्वत्र उत्साह के साथ स्वागत किया जायेगा । पर्युषण के अवसर पर पुस्तक सम्पन्न करने का हमारा संकल्प था । समय अत्यन्त कम था, किन्तु फिर भी कार्य यथासमय सम्पन्न हो सका, इसकी हमें अत्यन्त प्रसन्नता है । पुस्तक के प्रूफ संशोधन में ज्ञानपीठ के कार्यकर्त्ता श्री श्रीचन्दजी सुराना 'सरस' तथा मुद्रण में श्री विष्णु प्रेस के मालिक श्री रामनारायण जी मेड़तवाल का सहयोग सदा स्मरणीय रहेगा । मन्त्री सम्मति ज्ञान पीठ, आगरा २ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन, O अध्यात्मवाद : एक अध्ययन ० कर्मवाद : पर्यवेक्षण ० स्याद्वाद : ० धर्म का मूल : सम्यग् दर्शन О साधना का मूलाधार O श्रमण संस्कृति में तप o अनुक्रम अहिंसा और सर्वोदय ० सेबा : एक विश्लेषण o धर्म का प्रवेशद्वार : दान О महावीर के सिद्धान्त ३ १७ ३८ १०४ १२ε १३६ १४५ १६६ १७६ १९७ २२० Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ''' distr" a ,દર્શન, Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन मानवमस्तिष्क जिज्ञासाओं का महासागर है । उसमें विविध प्रकार के चिन्तन की ऊर्मियाँ उठती ही रहती हैं । अन्तर्जगत् और बहिर्जगत् के विषय में अनेक विध प्रश्न उद्भूत होते रहते हैं । "मैं क्या हैं ? कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? मेरा पुनर्जन्म होगा या नहीं ? होगा तो कहाँ, किस रूप में होगा ?" ये कतिपय प्रश्न उन प्रश्नों में से हैं, जो अपने अन्तर्जगत् के विषय में उत्पन्न होते हैं और कभी-कभी मनुष्य को बेहद परेशान कर देते हैं । एक इस प्रकार बहिर्जगत् के सम्बन्ध में भी सैकड़ों जिज्ञासाएँ उत्पन्न होती रहती हैं । हमारे चारों ओर फैला हुआ यह विशाल विश्व, जिसका कहीं प्रोर छोर नजर नहीं प्राता, क्या है ? यह प्राणिसृष्टि और जड़ सृष्टि क्या है ? विश्व की आदि है या नहीं ? है तो कब इसकी रचना हुई ? विश्व का अन्त होगा या यह शाश्वत है ? अन्त होगा तो कब होगा ? १. पुरत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, दाहिणाओ वा पच्चत्थिमाओ वा''''उत्तराओ वा''''उड्ढाओ वा "अहोदिसाओ वा आगओ अहमंसि ? एवमेगेसि णो णायं भवइ - अत्थि मे आया उववाइए, णत्थि मे आया उववाइए ? के अहमंसि ? के वा इओ चुओ इह पेच्चा भविस्सामि ? (ख) कोऽहं कीहक् कुत आयातः - श्राचारांग १-१ -चर्पट पंजरिका, प्राचार्य शंकर Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन इन प्रश्नों के समाधान के दो उपाय हैं-निष्ठा और तर्क । निष्ठा से धर्म का जन्म होता है और तर्क से दर्शन का। किन्तु धर्म और दर्शन, दोनों विषय अत्यन्त गम्भीर हैं और उनमें व्यापक भाव निहित है । अतएव उचित होगा कि उनके सम्बन्ध में यहां संक्षेप में विचार कर लिया जाए। धर्म क्या है ? ___'धर्म' एक बहुप्रचलित शब्द है। इस देश में अधिक से अधिक प्रचलित और प्रयुक्त होने वाले शब्दों में 'धर्म' शब्द की गणना की जा सकती है। पठित और अपठित सभी वर्गों के लोग दैनिक व्यवहार में सहस्रों बार इस शब्द का प्रयोग करते हैं। फिर भी निस्संकोच कहा जा सकता है कि धर्म के मर्म को पहचानने वाले बहुत कम लोग हैं। अधिकांश लोग जाति एवं समाज में पुरातन काल से चली आती परम्पराओं, रूढ़ियों या धारणाओं में धर्म की कल्पना कर लेते हैं और उन्हीं के पालन को धर्म का पालन मान लेते हैं । उन्हीं का पालन करके वे सन्तुष्ट हो जाते हैं और अन्तिम समय तक धोखे में रहते हैं । । समाज में एक वर्ग ऐसा है, जो धन के विषय में प्रमाणभूत समझा जाता है। किन्तु दुर्भाग्य से उसमें भी अधिकांश व्यक्ति ऐसे होते हैं जो धर्म की वास्तविकता से अनभिज्ञ होते हैं। अन्धे के नेतृत्व में चलने वाले अन्धों की जो गति होती है, वही जनसाधारण की भी गति होती है। धर्म का सम्बन्ध कई लोग लौकिक कर्त्तव्यों या वर्तमान जीवन के साथ ही जोड़ते हैं, तो कई लोग सिर्फ प्रात्मा के शाश्वत कल्याण के साथ । किन्तु सूक्ष्म और गंभीर विचार करने पर विदित होगा कि धर्म वास्तव में एकांगी नहीं है । उसमें मनुष्य के लौकिक और आध्यात्मिक सभो कर्तव्यों का समावेश होता है। मनुष्य को अपनी आत्मशुद्धि के लिए या अपने शुद्ध स्वरूप की उपलब्धि के लिए जिन नियमों या विधि-निषेधों का अनुसरण करना चाहिए, उनका समावेश तो धर्म में होता ही है, मगर उसके समस्त लौकिक कर्तव्य भी धर्म के अन्तर्गत ही हैं । मनुष्य का अन्य प्राणियों के प्रति क्या कर्तव्य है ? अगर Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन वह ग्रामवासी है तो ग्राम के प्रति, नगर निवासी है तो नगर के प्रति और जिस राष्ट्र का नागरिक है, उस राष्ट्र के प्रति उसका किस प्रकार का सम्बन्ध होना चाहिए ? अन्ततः समग्र विश्व के प्रति उसका क्या कर्त्तव्य है ? इन सब कर्त्तव्यों का समावेश धर्म में होता है । यही कारण है कि हमारे दीर्घदृष्टि शास्त्रकारों ने जहाँ आत्मधर्म का निरूपण किया है वहीं ग्रामधर्म; नगरधनं और राष्ट्रधर्म आदि का प्रतिपादन भी किया है और समग्र विश्व के कल्याण की कामना करने की भी प्रेरणा की है । और यह तो सहज ही समझा जा सकता है कि विश्वकल्याण की कामना कोरी कामना ही नहीं है, वरन् उसके लिए यथाशक्ति प्रयास करना भी उसमें गर्भित है । विश्व के हित की कामना की जाय, किन्तु तदनुकुल प्रयत्न न किया जाय तो वह कामना आत्मवञ्चना से अधिक और क्या होगी ? तथ्य यह है कि लोककल्याण और आत्मकल्याण दो पृथक्-पृथक् कर्त्तव्य नहीं हैं । ये दोनों सम्मिलित होकर ही धर्म का रूप ग्रहण करते हैं | सच्चा धर्मनिष्ठ पुरुष लोककल्याण को श्रात्मकल्याण से भिन्न और आत्मकल्याण को लोककल्याण से भिन्न नहीं मानता। वह लोककल्याण को प्रात्मकल्याण के रूप में ही देखता है और आत्मकल्याण का ही एक आवश्यक अंग मानता । अतएव परोपकार वस्तुतः श्रात्मोपकार ही है । नन्दीसूत्र की टीका इस सम्बन्ध में अवलोकनीय है । ऐसी स्थिति में निश्चयनय के नाम पर या श्रात्मा के नाम पर धर्म को अत्यन्त संकीर्ण दायरे में बन्द करने के जो प्रयास किए जा रहे हैं, २. दसविधे धम्मं पण्णत्ते, तं० गामधम्मे, नगरधम्मे, रट्ठधम्मे, पासंडधम्मे, कुलधम्मे, गजधम्मे, संघधम्मे, सुयधम्मे, चरितधम्मे, अस्थिकाम्मे । - स्थानांग १०-१ ३. सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग् भवेत् ॥ ( ख ) ५. क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपालः । काले काले च सम्यग् वर्षतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम् ॥ दुर्भिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां मास्म भूज्जीवलोके, जैनेन्द्र धर्मचक्रं प्रभवतु सततं सर्वसौख्यप्रदायि || Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन वे किसी भी प्रकार से उचित नहीं हैं । यही नहीं, किन्तु इन प्रयासों ने धर्म को खतरा उत्पन्न कर दिया है। जब समग्र विश्व वेग के साथ समाजवाद की ओर अग्रसर हो रहा है, तब धर्म को एकान्त वैयक्तिक रूप प्रदान करने का प्रयत्न देश और काल से भी विपरीत है। वास्तविकता तो उसमें है ही नहीं। यह सत्य है कि लौकिक कर्त्तव्य के नाम पर प्रात्मा के शाश्वत कल्याण की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, किन्तु यह भी सत्य है कि आत्मकल्याण के नाम पर लौकिक कर्त्तव्यों को दृष्टि से अोझल नहीं कर देना चाहिए । जिसने धर्म के मर्म को पहचान लिया है वह आत्मकल्याण और लोककल्याण का सुन्दर समन्वय करके चलता है और उनमें किसी भी प्रकार विरोध नहीं उत्पन्न होने देता। यही धर्म की उदारता और व्यापकता है। जब तक धर्म में यह उदारता और व्यापकता बनी रहेगी, वह किसी भी देश और काल में अनुपादेय नहीं समझा जा सकेगा। अगर हम चाहते हैं कि मनुष्य का प्रत्येक कदम और प्रत्येक उच्छ वास धर्म से अनुप्राणित हो, तो हमें धर्म के उदार स्वरूप की रक्षा करनी ही होगी। इस प्रकार धर्म हमारे वैयक्तिक, सामाजिक, ऐहिक और पारलौकिक कर्त्तव्यों का नियामक और संचालक है। धर्म से हमारा जीवन संगीतमय बनता है और साथ ही शिवमय भी। मनुष्य ने अनेक कलाओं का आविष्कार किया है, किन्तु धर्म कला उन सब में उत्तम है, जो जीवन को स्थायी सत्य, शिव और सौन्दर्य से अापूरित कर देती है। __आचार्य हरिभद्र ने धर्म की प्रशस्ति करते हुए लिखा है-"धर्म से उत्तम कुल में जन्म लेने की प्राप्ति होती है, धर्म से ही दिव्य रूप की, धन समृद्धि की और सुविस्तृत कोत्ति की प्राप्ति होती है । धर्म अनुपम मंगल है, समस्त दुःखों की अनुपम औषध है, धर्म विपुल बल है, धर्म ही प्राणियों के लिए त्राण और शरण है । अधिक क्या कहा जाय, समस्त जीवलोक में इन्द्रियों और ४. सव्वा कला धम्मकला जिरोइ । -गौतमकुलक Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन मन को जो भी अभिराम प्रतीत होता है, वह सब धर्म का ही फल है" ।' इस कथन से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि धर्म का सम्बन्ध न केवल आध्यात्मिक श्र ेयस् से है, अपितु हमारे वर्तमान जीवन के साथ भी है । धर्मव्याख्या धर्म शब्द का व्याकरण शास्त्र के अनुसार अर्थ है - धारण करना । जो धारण करता है वह धर्म है । 'धृञ्' धातु में 'मत्" या 'म' प्रत्यय जोड़ने पर 'धर्म' शब्द निष्पन्न होता है । जो दुर्गतिपात से प्राणियों को बचाता है, वह धर्म है । कणाद के कथनानुसार जिससे अभ्युदय ५. ६. धारणाद् धर्ममित्याहुः । ७. ८. धम्मेण कुलप्पसूई, धम्मेण य दिव्वरूवसंपत्ती । धम्मेण धणसमिद्धी, धम्मेण सुवित्थडा कित्ती ॥ धम्मो मंगलमउलं, ओसहमउलं च सव्वदुक्खाणं । धम्मो बलमवि विउलं, धम्मो ताणं व सरणं च ॥ कि जंपियेण बहुणा, जं जं दीसइ सव्वत्थ जियलोए । इन्दिय-मणाभिरामं तं तं धम्मफलं सव्वं ॥ ε. (ख) धारणाद् धर्मं उच्यते । — मनु - महाभारत, कर्ण पवं धृञ, धारणे, अस्य धातोर्मंत् प्रत्ययान्तस्येदं रूपम् धर्म इति । - दशवं० जिन० चूर्णि पू० १४ धृञ धारणे, इत्यस्य धातोमंप्रत्ययान्तस्येदं रूपम् धर्मं इति । -समराइच्चकहा -दशवं० हारि० टीका, पत्र २० यस्माज्जीवं नरकतिर्यग्योनिकुमानुषदेवत्वेषु प्रपतन्तं धारयतीति धर्मः, उक्तञ्च -- दुर्गतिप्रसृतान् जीवान्, यस्माद् धारयते ततः । धत्ते चेतान् शुभस्थाने तस्माद् धर्म इति स्थितः ॥ - दशवे० जिन० चूर्णि० पू० १५ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन अर्थात् स्वर्ग की और निःश्रेयस् अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है, वह धर्म है। - 'धर्म' शब्द की उल्लिखित व्युत्पत्तियाँ शब्द और अर्थ की दृष्टि से मिलती-जुलती हैं। किन्तु आध्यात्मिक परम्परा के मूर्धन्य सन्त प्राचार्य कुन्दकुन्द ने धर्म की जो परिभाषा की है, उसमें जैन दृष्टि की विशिष्टता स्पष्ट प्रतिभासित होती है। उन्होंने वस्तु के स्वभाव को धर्म कहा है' । वस्तु का स्वभाव धर्म किस प्रकार है, इसका स्पष्टीकरण ध्यानयोगी प्राचार्य रामसेन ने किया है, जो इस प्रकार हैसमस्त विश्व पर्यायों को दृष्टि से क्षण-क्षण में विनष्ट हो रहा है। सचेतन हो या अचेतन, सभी पदार्थ प्रतिक्षण नाश को प्राप्त हो रहे हैं। निरन्तर प्रवर्त्तमान इस विनाशलीला में भी वस्तु का मूल स्वभाव वस्तु को धारण किये रखता है, कायम रखता है। प्रत्येक वस्तु अपने स्वभाव से धृत है, अवस्थित है, अतएव वस्तु का स्वभाव धर्म है । उदाहरणार्थ- जीव पर्याय की दृष्टि से विनाशशोल होने पर भी अपने चैतन्यस्वभाव से सदा धृत अर्थात् ध्र व रहता है, इस कारण चैतन्य जीव का धर्म है। प्रतिक्षण विनष्ट होते हुए पुद्गल को उसका मूर्तिकत्व स्वभाव धारण किए रहता है, अर्थात् अस्तित्व में रखता है, अतएव मूर्तिकता पुद्गल का धर्म है ।। प्राचार शास्त्र की दृष्टि से अहिंसा, संयम और तप धर्म है । धर्म उत्कृष्ट मंगल है । इन सभी व्याख्याओं का समन्वय करते हुए कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है-वस्तु का स्वभाव धर्म है, क्षमा आदि दश प्रकार का भाव १०. यतोऽभ्युदयनिःश्रेयसिद्धिः स धर्मः । - - वैशेषिक दर्शन ११. वत्युसहावो धम्मो। १२. शून्यीभवदिदं विश्वं स्वरूपेण धृतं यतः । सस्माद्वस्तुस्वरूपं हि, प्राहुधर्म महर्षयः ।। -तस्थामुशासन, ५३ १३. धम्मो मंगल मुक्किट्ठ, अहिंसा संजमो तवो । -दशव० ० १ गा० १ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन धर्म है, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप रत्नत्रय धर्म है और जीवों का रक्षण करना धर्म है। प्राचार्य समन्तभद्र के कथनानुसार धर्म वह है, जो प्राणियों को सांसारिक दुःखों से बचाता है और उत्तम सुख में धारण करता है। धर्म की इन अनेक व्याख्याओं के उल्लेख का प्रयोजन यह है कि पाठक धर्म के व्यापक स्वरूप को हृदयङ्गम कर सकें। उल्लिखित व्याख्याएं स्पष्ट प्रकट करती हैं कि जीवन को उच्च, पवित्र और दिव्य बनाने वाले जो भी विधिविधान या क्रियाकलाप हैं, वे सभी धर्म के अन्तर्गत हैं। संक्षेप में, दशवैकालिक सूत्र में प्रदर्शित धर्म के स्वरूप के प्रकाश में कहा जा सकता है कि जो उत्कृष्ट मंगल है वही धर्म है । मंगल शब्द का अर्थ है-पाप या बुराइयों का नाश और सुख या कल्याण की प्राप्ति । तात्पर्य यह हया कि जो प्राचारप्रणालिका हमारे जीवन को पाप की कालिमा से बचाती है, जीवनगत बुराइयों को दूर करती है और जिससे कल्याण का पथ प्रशस्त होता है, वही धर्म है। इस व्यापक परिभाषा से जैनागमप्रतिपादित धर्म सार्वभौम धर्म का दर्जा प्राप्त कर लेता है । जिससे प्रात्मा का मंगल हो वह प्रात्म-धर्म है, जिससे राष्ट्र का मंगल हो वह राष्ट्रधर्म है और जिस आचारप्रणाली से विश्व का मङ्गल हो, वह विश्वधर्म है। इसी प्रकार यह परिभाषा सभी समाजों, वर्गों और वर्णों पर लागू होती है। 'चोदनालक्षणो धर्मः' अर्थात् वेद से मिलने वाली प्रेरणा धर्म है, यह परिभाषा जैसे एक ग्रन्थविशेष पर आधारित होने के कारण संकीर्ण है, उस प्रकार जैनपरिभाषा में लेशमात्र भी संकीर्णता नहीं है। १४. धम्मो वत्थुसहावो, खमादिभावो य वसविहो धम्मो । रयणतयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो ॥ -कात्तिकेयानुप्रेक्षा, ४७८ १५. संसारदुःखतः सत्त्वान्, यो धरत्युत्तमे सुखे । -~~-रत्नकरण्डक श्रावकाचार Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन भारत और धर्म भारतवर्ष धर्मप्रधान देश के नाम से विख्यात हैं। भारत की यह ख्याति प्राधुनिक भारतीय जीवन के कारण नहीं, वरन् इस कारण है कि इतिहासातीत काल से भारत को प्रजा का जीवन धर्म से अनुप्राणित रहा है। जब से मानव समाज का निर्माण हुना, सभ्यता और संस्कृति का नवोन्मेष हुमा, तभी से प्रजा के एक विशिष्ट वर्ग ने धर्मसम्बन्धी चिन्तन और उसके प्रचार-प्रसार के लिए अपना जीवन समर्पित किया और उस वर्ग की परम्परा आज भी अक्षुण्ण रूप से चली आ रही है। उस वर्ग को भारतीय प्रजा ने अपनी श्रद्धा-भक्ति अर्पित की और अपना उद्धारक माना है। भारत कभी ऐश्वर्य या वैभव का उपासक नहीं रहा, उसने सदा धर्म की आराधना की है। चक्रवर्ती सम्राट भी धर्मप्राण सन्तों के चरणों में विनम्रभाव से नतमस्तक होते आए हैं। धर्म की रक्षा में ही हमारी रक्षा है,१६ यह भारत के मनीषियों का उद्घोष रहा है। भारतीय साहित्य में धर्म की रक्षा के लिए प्राणों का बलिदान करने वाले वीर पुरुषों और नारियों के सहस्रों उदाहरण विद्यमान हैं, जो आज भी प्रेरणा के स्रोत हैं । इस प्रकार भारत को धर्म प्रधान देश कहने में तनिक भी अत्युक्ति नहीं है। भले आज आचरण में धर्म की न्यूनता दृष्टिगोचर होती हो परन्तु भारतीय जनमानस धर्म के प्रति आज भी सर्वाधिक आस्थावान् है। धर्मसम्बन्धी भ्रम विज्ञानप्रदत्त सुविधाओं के कारण अाज समग्र विश्व जैसे एकाकार हो गया है। प्रत्येक देश का दूसरे समस्त देशों के साथ निकटतम सम्पर्क स्थापित हो गया है। ऐसी स्थिति में वांछनीय तो यह था कि भारतीय धर्म एवं संस्कृति का सदेश समग्र विश्व में फैलता, किन्तु ऐसा हो नहीं रहा है । जो देश वैज्ञानिक दृष्टि से उन्नत और इसी कारण सबल हैं, उनका प्रभाव हमारे देश पर बड़ी तेजी से पड़ रहा है। उनकी विचारधारा भी भारतीयों को प्रभावित कर रही है। उसके फलस्वरूप धर्म के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के भ्रमों की सृष्टि १६. धर्मो रक्षति रक्षितः । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन हुई है । कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि धर्म जीवन को रूखा बनाता है । कइयों की धारणा है कि प्रात्महित को प्रधानता देकर धर्म मनुष्य को स्वार्थपरायण बना देता है। किसी किसी का आक्षेप है कि धर्म त्याग, संन्यास या निवृत्ति का विधान करके और उस पर अत्यधिक बल देकर मनुष्य को जीवनसंघर्ष से दूर भागने की प्रेरणा करता है, तो कई लोग धर्म को कलह का मूल कहते हैं। ये सभी भ्रम धर्म के वास्तविक स्वरूप के नहीं, अपितु अज्ञान के फल हैं । धर्म की जो प्रमाणोपेत व्याख्या हमने प्रस्तुत की है, उसी से इन सब भ्रमों का निवारण हो जाता है। धर्म से जीवन नीरस नहीं, मर्यादित बनता है । सरसता का अर्थ यदि मर्यादाहीन उखल विहार समझा जाय तो बात दूसरी है, अन्यथा धर्म का ऐसा कोई भी विधान नहीं है जो जीवन में नीरसता उत्पन्न करता हो। व्यक्ति को स्वार्थ परायण बना देने का आक्षेप तो एकदम ही निराधार है, क्योंकि धर्म प्राणिमात्र को आत्मवत् समझने की प्रेरणा करता है और परोपकार को प्रात्मोपकार ही मानने की शिक्षा देता है । जैनशास्त्र का विधान है कि मुमुक्षु को स्व-पर के प्रति समभावी होना चाहिए और अपनी विशिष्ट अन्तःशुद्धि के लिए विशेष रूप से परोपकार करने का यत्न करना चाहिए। जो त्यागवृत्ति अंगीकार करता है, प्रव्रज्या ग्रहण करता है, या संन्यास धारण करता है, क्या वह जीवनसंघर्ष से दूर भागता है ? नहीं, गृहस्थी की सुख-सुविधाओं का परित्याग करके जो व्यक्ति त्याग के पथ को अंगीकार करता है, वह बड़ी से बड़ी कठिनाइयों को, कष्टों को और प्रभावों को समभाव से सहन करता है। वह उन सबसे जूझने के लिए कृतसंकल्प होता है। महावीर और बुद्ध दोनो राजकुमार थे । संसार के उत्तम से उत्तम सुखसाधन उन्हें अनायास उपलब्ध १७. निःश्रेयसपदमधिरोढकामेन तदवाप्तये स्वपरसममानसीमूय स्वपरोपकाराय यतितव्यम् । तत्रापि महत्यामाशयविशुद्धौ परोपकृतिः कत्तुं शक्यते, इत्याशयविशुद्धिप्रकर्षसम्पादनाय विशेषतः परोपकारे यत्न प्रास्थ्यः । - नन्दीसूत्र टीका, मलयगिरि Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन थे। राजमहलों में उन्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं था, दुःख नहीं था। फिर किस लिए उन्होंने राजकीय वैभव को तृण की तरह त्यागकर तपश्चर्या का पथ अंगीकार किया ? खासतौर से भगवान् महावीर का जीवन तो निराला ही है । वे आए हुए संकटों को ही अविचल भाव से सहन नहीं करते थे, किन्तु संकटों को प्रामन्त्रित भी करते थे और उनको पराजित करने में आत्मिक वीर्य का सदुपयोग करते थे। _ 'धर्म कलह का कारण है'-इस कथन में भी कोई सचाई नहीं है । धर्म कलह को पाप और आत्मपतन मानता है। वह विश्वमैत्री पर बल देता है। अनेकान्त दर्शन ने समस्त दर्शनों के मतभेदों का निवारण करने का मार्ग सुझाया है। दक्षिण भारत में शैवों द्वारा जैनों के प्रति किए गए प्राणहारी अत्याचार, ईसाइयों में रोमन कैथोलिकों और प्रोटेस्टेंटों के बीच हए संघर्ष और भारत के हिन्दूमुस्लिम दंगे आदि में क्या वास्तव में धर्म का हाथ है ? संसार का कोई भी धर्म, अन्य धर्मावलम्बियों का गला काटने का उपदेश नहीं देता। यह करतूतें तो उन अधार्मिक लोगों की हैं जो अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए धर्म के पवित्र नाम का दुरुपयोग करते हैं । धर्म के वास्तविक स्वरूप को न समझना भी इसका कारण हो सकता है । धर्मसम्बन्धी अज्ञान धर्मोन्माद को जन्म देता है और लोग धर्म और धर्मोन्माद में भेद न करके धर्म पर लाञ्छन लगाते हैं । वस्तुतः धर्म का उससे कोई सरोकार नहीं होता। धर्म और पन्थ ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है, जो विविध पन्थों को ही धर्म मानते हैं। किन्तु धर्म और पन्थ में बहुत अन्तर है । धर्म एक है, पन्थों को गणना करना भी सम्भव नहीं है। धर्म शाश्वत है, पन्थ सामयिक होते हैं। धर्म को यदि सरोवर मान लिया जाय तो पन्थ उसमें उठने वाली एक लहर है। युग की समाप्ति के साथ पन्थ समाप्त हो जाते हैं, जब कि धर्म त्रिकाल-अबाधित है । धर्म के अभाव में सृष्टि के अस्तित्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती। .. भारतीय साहित्य में धर्म की विस्तृत और सूक्ष्मतम विवेचना की Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 धर्म और दर्शन गई है। विभिन्न वर्गों के लिए धर्म की विविध श्रेरिणयां प्रदर्शित की गई हैं, पर विस्तार भय से यहां उनका उल्लेख नहीं किया जा सकता। धर्म और दर्शन धर्म और दर्शन का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है । यह कहना भी अत्युक्ति न होगा कि धर्म और दर्शन एक सिक्के के दो बाजू हैं । मानव जीवन के साथ जैसे धर्म का सम्बन्ध है वैसे ही दर्शन का भी । धर्म प्राचारपक्ष है, दर्शन विचारपक्ष है। दर्शन क्या है ? ___दर्शन का सामान्य प्रर्थ दृष्टि है। प्रस्तुत दृष्टि को अंगरेजी भाषा में विज़न (Vision) कहते हैं। साधारणतः प्रत्येक व्यक्ति, जिसे नेत्र प्राप्त हैं, देखता ही है, मगर यहाँ पर वह साधारण दृष्टि विवक्षित नहीं है। दर्शन का सही अर्थ दिव्य दृष्टि है, जिसके द्वारा तत्त्व का साक्षात्कार होता है। दर्शन मानव-मस्तिष्क की बौद्धिक उपज कहा जाता है। इस कथन में आंशिक सत्य है, किन्तु पूर्ण सत्य नहीं। जगत् में अनेक दर्शन ऐसे भी हैं जो मानव-मस्तिष्क के चिन्तन-व्यायाम से उद्भूत हैं, किन्तु अल्पज्ञ का मस्तिष्क, चाहे जितना भी उर्वर क्यों न हो, तत्त्व के सम्पूर्ण स्वरूप का स्पर्श नहीं कर सकता । मस्तिष्क की दौड़ की एक सीमा है। उसमें सीमित सत्य ही समा सकता है, किन्तु जब मनुष्य अति विश्वास का शिकार होता है और अपनी अक्षमता को स्वीकार न करके अपने आपको सर्वसमर्थ समझ बैठता है तो वह अपने द्वारा दृष्ट, अपूर्ण सत्य को पूर्ण समझ लेता है। उसे यह मालूम नहीं होता कि मैंने जो कुछ देखा, जाना या समझा है। उससे प्रागे भी बहुत कुछ है । वह उन अन्धों की टोली का ही एक सदस्य बन जाता है जो हाथी के एक-एक अंग को ही परिपूर्ण हाथी समझकर आपस में झगड़ने लगते हैं। १८. दृश्यतेऽनेनेति दर्शनम् । -सर्वदर्शन संग्रह टीका Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन सत्य एक है, किन्तु उसका निरूपण करने वाले दर्शन अनेक हैं और उनका निरूपण परस्पर विरोधी है । आत्मभिन्न पदार्थो की बात छोड़िए और आत्मा को ही लीजिए। उसके विषय में जितने मुँह उतनी बातें हैं । एक दर्शन का निरूपण दूसरे दर्शन से मेल नहीं खाता । एक दर्शन आत्मा के अस्तित्व का एकान्त निषेध करता है और दूसरा एकान्त विधान करता है । आत्मासम्बन्धी ये दोनों दृष्टियाँ क्या सत्य हैं ? सत्य कोई बहुरूपिया नहीं है, जो एक को अपना एक रूप और दूसरे को दूसरा रूप प्रदर्शित करे । इसके अतिरिक्त बहुरूपिया का भी असली रूप तो एक ही होता है । उसके अनेक रूप वास्तविक हैं । तात्पर्य यह है कि मानव मस्तिष्क से उपजने वाले दर्शनों में पूर्णता सम्भव नहीं है । १४ पूर्ण सत्य की उपलब्धि करने वाला दर्शन वही हो सकता है, जो दिव्यदृष्टि से उद्भुत होता है । दिव्यदृष्टि का अर्थ हैअतीन्द्रिय ज्ञान । तीव्र तपश्चर्या और गम्भीरतम आत्मानुभूति जब चरम सीमा को प्राप्त होती है, तब साधनानिरत पुरुष की आत्मा समस्त आवरणों को छिन्न-भिन्न करके अनन्त ज्ञान की लोकोत्तर ज्योति से जगमगाने लगती है । वह ज्योति इतनी निर्मल होती है कि उसमें प्रत्येक वस्तु अपने वास्तविक स्वरूप में प्रतिभासित होती है । वह ज्योति इतनी पूर्ण होती है कि जगत् की सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तु भी उनसे प्रकाशित नहीं रहती । वह ज्योति ऐसी अप्रतिहत होती है कि देश और काल की दीवारें उसकी गति को नहीं रोक सकतीं । वह ज्योति इतनी प्रखर होती है कि उसे प्राप्त करने वाला सर्वज्ञ सर्वदर्शी बन जाता है । दिव्यदृष्टि से उद्भुत दर्शन ही वास्तविक दर्शन है । वही वस्तुस्वरूप की यथार्थता का निदर्शक होता है । वह तर्क और युक्ति का संबल लेकर वस्तु के प्रत्येक पहलु पर चिन्तन करता है । उद्देश्य जैसा कि प्रारम्भ में कहा जा चुका है, भारत में धर्म और दर्शन का घनिष्ठ सम्बन्ध है और वे एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों का Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन उद्देश्य एक ही है- अपवर्ग, निःश्रेयस् विदेह दशा, निर्वारण, आत्यन्तिक दुःखनिवृत्ति या ब्रह्म की प्राप्ति । मैत्रेयी याज्ञवल्क्य से कहती है- जिससे मैं अमृत नहीं बनती, उसे लेकर क्या करू ँ ? जो अमृतत्त्व का साधन हो, वही मुझे बताओ । १९ इषुकार नरेश से रानी कमलावती कहती है- राजन् धर्मं के अतिरिक्त कोई भी वस्तु त्रारणप्रदाता नहीं है । २° १५ इस प्रकार मैत्रेयी अपने पति से मोक्ष के साधनभूत दर्शन की माँग करती है और महारानी कमलावती अपने पति को मोक्ष के साधनभूत धर्म को ही त्रारणप्रद बतलाती है । इन सम्वादों से स्पष्ट हो जाता है कि धर्म और दर्शन दोनों का स्वर एक है । पाश्चात्य विद्वान् धर्म और दर्शन को पृथक्-पृथक् मानते हैं । उन्होंने दर्शन के लिए फिलासफी (Philosophy) शब्द का प्रयोग किया है, जिसका अर्थ है-बुद्धि का प्रेम ( Love of wisdom ) । दर्शन केवल बुद्धि का चमत्कार है । इस प्रकार पाश्चात्य विचार के अनुसार दार्शनिक वह है जो जीव, जगत्, परमात्मा और परलोक का निरपेक्ष विद्यानुरागी हो । वहाँ दर्शन केवल दर्शन के लिए है अर्थात् कोरा बुद्धिविलास है । किन्तु भारतीय दर्शन का लक्ष्य बहुत ऊँचा है । उसका केन्द्रबिन्दु आत्मा हैं, अर्थात् अपने आपको सही रूप में पहचानना है। साथ ही वह विश्व के समस्त पदार्थों की वास्तविकता को हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है । यहाँ दर्शन केवल कल्पनाकुशल कोविदों के मनोविनोद का साधन नहीं, मगर तत्त्व को जानकर हितप्रवृत्ति का १६. येनाहं नामृता स्यां किं तेन कुर्याम् ? यदेव भवान् वेद तदेव मे ब्रूहि । - बृहदारण्यकोपनिषद् २०. एगो हु धम्मो नरदेव ! ताणं, न विज्जए अन्नमिहेह किंचि । - उत्तराध्य० १४, ४० Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन साधन है । आत्मोत्कर्ष के लिए व्यर्थ के काल्पनिक प्रादर्शो के गगन में उड़ान भरने की अपेक्षा उन आदर्शो को जीवन में उतारना अधिक उत्तम है । १६ आत्मोत्थान में धर्म प्रचार के रूप में साधन है तो दर्शन विचार के रूप में । प्राचार और विचार के समन्वय से ही अभीष्ट की सिद्धि होती है । यही कारण है कि वैदिक दर्शन ने ज्ञानयोग और कर्मयोग के रूप में २१, बौद्ध दर्शन ने विद्या और चारित्र के रूप में २२ तथा जैनदर्शन ने सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र के रूप२३ में प्रचार और विचार का समन्वय किया है । प्राचारहीन विचार निष्फल है और विचारहीन प्राचार अन्धकार में ठोकरें खाने के समान केवल प्रायासजनक ही होता है । दर्शन जीवन का प्रकाश है तो धर्म गति है । दर्शन जीवन की शक्ति है और धर्म जीवन की अभिव्यक्ति हैं । दर्शन से विचार की शुद्धि होती है और धर्म से प्राचार की विशुद्धि होती है । संस्कृत साहित्य में अन्ध-पंगु न्याय प्रसिद्ध है । अन्धा चल सकता है, देख नहीं सकता । उसे उन्मार्ग और सन्मार्ग का विवेक नहीं होता । श्रतएव वह उन्मार्ग या विपरीत मार्ग पर चल कर अपने लक्ष्य से और अधिक दूर हो सकता है। पंगु देख सकता है, पर चल नहीं सकता । उसका देखना किसी काम नहीं श्राता । श्रतएव दोनों में समन्वय आवश्यक है । इसी प्रकार यह अनिवार्य है कि अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मनुष्य प्रचार और विचार का समन्वय करे और शुद्ध विचार की रोशनी में चले । यही धर्म और दर्शन का समन्वय है । २१. देखिए भगवद्गीता । २२. २३. अंगुत्तरनिकाय, ११-११ आहंसु विज्जा चरणं पमोक्खं । (ख) स्थानांग, २-६३ (ग) - सूत्रांग, १।१२।११ तत्त्वार्थसूत्र, १ - १ आवश्यक नियुक्ति गा० ६४ और ६६ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मवाद : एक अध्ययन भारतवर्ष सदैव अध्यात्म-विद्या की लीलाभूमि रहा है। प्रतापपूर्ण प्रतिभासम्पन्न विज्ञों ने अध्यात्म क्षेत्र में जिस घिरन्तन सत्य का साक्षात्कार किया, उसकी प्रभास्वर रश्मिमाला से विश्व का प्रत्येक भूभाग आलोकित है। भारतीय इतिहास व साहित्य प्रस्तुत कथन का ज्वलन्त प्रमाण है कि आध्यात्मिक गवेषणा, अन्वेषणा और उसका सम्यक् आचरण ही भारत के सत्य-शोधी साधकों के जीवन का एकमात्र अभिलषित लक्ष्य रहा है। आध्यात्मिक उत्क्रान्ति के द्वारा ही भारत ने विश्व का नेतृत्व किया और विश्वगुरु के महत्त्वपूर्ण पद से अपने को समलंकृत किया। भारतीय संस्कृति की समुज्ज्वल विचारधाराएं विवध रूपों व रंगों में व्यक्त हुई हैं, जिनकी गणना करना असम्भव न सही, कठिन अवश्य है । तथापि यह निर्विवाद है कि जैन, बौद्ध और वैदिक ये तीनों धाराएँ ही उनमें प्रमुख हैं । इन त्रिविध धाराओं में ही प्रायः अन्य सभी धाराएँ अन्तहित हो जाती हैं। उनमें अध्यात्म विद्या की गरिमा का जो मधुर गान गाया गया है वह भौतिक-भक्ति के युग में पले-पुसे इन्सान को भी विस्मय से विमुग्ध कर देता है । विमुग्ध ही नहीं, जो मानव भौतिकता की चकाचौंध में प्रतिपल, प्रतिक्षण बहिष्टा बनते जा रहे हैं, जिन्हें अन्तर्दर्शन का अवकाश नहीं है, आत्ममार्जन की चिन्ता नहीं है, अन्तरर्तम की परिशुद्धि और परिष्कृति का उद्देश्य जिनके सामने नहीं है, केवल बहिर्दर्शन ही जिनके जीवन का परम और चरम ध्येय है, उन्हें भी प्रस्तुत संगीत एक बार तो आत्मदर्शन की पवित्र प्रेरणा प्रदान करता ही है। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ धर्म और दर्शन मैं कौन हूँ, ? कहाँ से आया हूँ, ?' यहाँ से कहाँ जाऊँगा ? क्या मेरा पुनर्जन्म होगा ? मेरा स्वरूप क्या है ? क्या मैं देह हूँ ? इन्द्रिय हूँ ? मन हूँ ? या इन सबसे भिन्न कुछ हूँ ? इन सभी प्रश्नों का सही समाधान भारत के मनीषी मूर्धन्य-मुनियों ने प्रदान किये हैं। भाषा, परिभाषा, प्रतिपादनपद्धति और परिष्कार में अन्तर होने पर भी सूक्ष्म व समन्वय दृष्टि से अवलोकन करने पर सूर्य के प्रकाश की भाँति यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि वे सभी एक ही राह के राही हैं। जैन दृष्टि: भारतीय संस्कृति में जैन संस्कृति का स्वतन्त्र स्थान है, स्वतन्त्र विचारधारा है, और स्वतन्त्र निरूपण पद्धति है । जैन दर्शन को जिनदर्शन या आत्म-दर्शन भी कह सकते हैं। जनदर्शन में आत्मा के लक्षण और स्वरूप के सम्बन्ध में अत्यन्त सूक्ष्म गम्भीर और व्यापक विचार किया गया है। जैन-दर्शन के अनुसार प्रात्मा चैतन्य स्वरूप है, षट् द्रव्यों में स्वतन्त्र द्रव्य है । नव पदार्थों में प्रथम पदार्थ है। सप्त तत्त्व में प्रथम तत्त्व है।" पंचास्तिकाय में चतुर्थ अस्ति काय है। १. आचारांग, प्रथम अध्ययन । २. जीवे णं भंते ! जीवे, जीवे जीवे ? गोयमा ! जीवे ताव नियमा जोवे, जीवे वि नियमा जीवे । -भगवती ६।१० ३. धम्मो अधम्मो आगासो, कालो पुग्गल जैतवो । ____एस लोगोत्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहि ।। -उत्तराध्ययन २८ ४. नव सब्भावपयत्था पं० त० जीवा अजीवा पुण्णं पावो आसवो संवरो णिज्जरा बंधो मोक्खो । -ठाणाङ्ग ६८६७ ५. जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् । -तत्त्वार्थ० १४ ६. पंच अत्थिकाया पं० त० धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए । आगासस्थिकाए, जीवस्थिकाए, पोग्गलत्थिकाए । -ठाणाङ्ग २२१५३० (ख) भगवती २।१०। पृ० ५२३ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मवाद : एक अध्ययन उपयोग ही उसका मुख्य लक्षण है। उपयोग शब्द ज्ञान और दर्शन का संग्राहक है। चेतना के बोधरूप व्यापार को उपयोग कहते हैं। वह दो प्रकार का है-(१) साकार उपयोग (२) और अनाकार उपयोग । साकार उपयोग ज्ञान है और अनाकार उपयोग दर्शन है । जो उपयोग पदार्थों के विशेष धर्म का (जाति, गुण, क्रिया आदि का) बोध कराता है वह साकार उपयोग है और जो सामान्य सत्ता का बोध कराता है वह अनाकार उपयोग है । यों आत्मा में अनन्त गुण पर्याय हैं किन्तु उन सभी में उपयोग ही प्रमुख और असाधारण है। वह स्व-पर प्रकाशक होने से अपना तथा दूसरे द्रव्य, गुण, पर्यायों का ज्ञान करा सकता है । सुख-दुःख का अनुभव करना, अस्ति-नास्ति को जानना, यह सब उपयोग का ही कार्य है । उपयोग जड़ पदार्थों में नहीं होता क्योंकि उनमें चेतना शक्ति का अभाव है। ___ आत्मा को ज्ञानस्वरूप कहा है। इसका अर्थ यह नहीं कि वह ज्ञान के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है, इसमें दर्शन भी है, आनन्द भी है, ७. उवओगलक्खणेणं जीवे । -भगवती १३।४।४८० (ख) गुणओ उवओगगुणो। -ठाणाङ्ग ५३१५३० (ग) जीवो उवओगलक्खणो। -उत्तराध्ययन २८।१० (घ) उवओगलक्खणे जीवे । -भगवती २०१० (ङ) उपयोगो लक्षणम् । -तत्त्वार्थ सूत्र राम (च) जीवो उवओगमओ अमुत्ति कक्षा सदैहपरिमाणो । भोत्ता संसारत्थो, सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई। -द्रव्य संग्रह : नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ८. आया भंते ! नाणे अन्नाणे ? गोयमा आया सिय नाणे, सिय अन्नाणे, रणाणे पुण नियमं आया। -भगवती १६ । ३ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन अनन्तवीर्य भी है, अन्य धर्म भी हैं । वस्तुतः ज्ञान और आत्मा में गुण-गुणी का तादात्म्य सम्बन्ध है । ज्ञान गुण है, आत्मा गुणी (द्रव्य ) है । इसी भाव को व्यक्त करने के लिए भगवती सूत्र में कहा हैआत्मा ज्ञान भी है, और ज्ञान के अतिरिक्त भी है किन्तु ज्ञान नियम से आत्मा ही है । आत्मा साक्षात् ज्ञान है, और ज्ञान ही साक्षात् आत्मा है ।" जो ग्रात्मा है वही विज्ञाता है, जो विज्ञाता है वही आत्मा है । जो इस तत्त्व को स्वीकार करता है वह आत्मवादी है । " ज्ञान और आत्मा के द्वैत को जैन दर्शन स्वीकार नहीं करता है । आत्मा और ज्ञान में तादात्म्य है, वे अलग-अलग तत्त्व नहीं हैं, जैसा कि कणाद आदि स्वीकार करते हैं । २० विस्तार की दृष्टि से आत्मा का लक्षण बतलाते हुए भगवान् महावीर ने कहा- ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य, उपयोग ये जीव के लक्षण हैं ।" अर्थात् आत्मा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य (शक्ति) और उपयोगमय है । श्रात्मा रूपी है । १२ शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित है । वह न लम्बा है न छोटा है, न टेढ़ा है न गोल, न चौरस है, न मण्डलाकार है अर्थात् उसकी अपनी कोई आकृति नहीं है । न ε. १०. १२. आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत् करोति किम् ? 1 ११. नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा । वीरियं उवओगो य, एवं जीवस्स लक्खरणं ॥ १३. जे आया से विष्णाया, जे विण्णाया से आया । जे विजानाति से आया, तं पडुच्च पडिसखाए, से आयावादी । - श्राचारांग १ सेण सद्द े, ण रूवे, ण गंधे, ण रसे, ण फासे, ,, - श्राचार्य अमृतचन्द्र अरूवी सत्ता ' -- श्राचारांग ६।१।३३३ (ख) चत्तारि अस्थिकाया अरूविकाया पं० तं० जीवत्थिकाए.... । —स्थानाङ्ग ४।१।३१४ - उत्तराध्ययन २८ । ११ - श्राचारांग ६।१।३३३ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ अध्यात्मवाद : एक अध्ययन हल्का है, न भारी है । क्योंकि लघुता गुरुता जड़ के धर्म हैं ! वह न स्त्री है, न पुरुष है, १४ क्योंकि ये शरीराश्रित उपाधियां हैं। वह अनादि है, अनिधन है, अविनाशी है, अक्षय है, ध्रुव और नित्य है ।" वह पहले भी था, अब भी है और भविष्य में भी रहेगा; " तीनों कालों में भी वह जीव रूप में ही विद्यमान रहता है । जीव कभी जीव नहीं होता" लोक में जीव और प्रजीव शाश्वत है ।" आत्मा १४. १५. १६. १७. (ख) जीवत्थिकाए गं अवन्ने, अगंधे, अरसे, अफासे, अरूवी.... भावतो अवन्ने, अगन्धे, अरसे, अफासे, अरूवी, --स्थानाङ्ग ५।२।५३० (ग) जीवत्थिकाए गं भंते ! कतिवन्ने, कतिगंधे, कतिरसे, कतिफासे ? गोमा ! अवणे जाव अरूवी । - भगवती २०११० से ण दीहे, ण हस्से, ण वह े, ण तसे, ण चउरंसे, ण परिमंडले, ण किण्हे, ण णीले, ण लोहिए, ण हालिद्द े, ण सुक्किल्ले, ण सुरहिगन्धे, ण दुरहिगन्धे, ण तित्त े, ण कडुए, ण कसाए, ण अंबिले, ण महुरे, ण कक्खडे, ण मउए, ण गरुए, ण लहुए, ण सीए, ण उण्हे, ण णिद्ध े, ण लुक्खे, ण काऊ, ण रूहे, ण संगे, ण इत्थी, ण पुरिसे, ण अन्नहा, परि सण्णे | जीवो अणाइअनिधनो अविणासी अक्खओ धुओ णिच्चं । - श्राचारांग ३|१।३३१ -भगवती कालओ ण कयाइ णासी, न कयाइ न भवइ, न कयाइ न भविस्सइत्ति भुवि भवइ य भविस्सइ य धुव णितिए सासए अक्खए अव्वए अट्टिए णिच्चे | ठाणाङ्ग ५।३।५३० (ख) भगवती १।४।४१ ण एवं भूयं वा भव्वं वा भविस्सइ वा जं जीवा अजीवा भविस्सन्ति अजीवा वा जीवा भविस्सन्ति । १८. के सासया लोए ? जीवच्चेव अजीवच्चेव । -ठाणाङ्ग १०।१।६३१ -ठाणाङ्ग २।४।१५१ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन ज्ञान मय असंख्य प्रदेशों का पिण्ड है । वह अरूप है, एतदर्थ नेत्रों से देखा नहीं जाता, किन्तु चेतना गुणों से उसका अस्तित्व जाना जा सकता है। वह वाणी द्वारा प्रतिपाद्य और तर्क द्वारा गम्य नहीं है ।२० गणधर गौतम के प्रश्न के उत्तर में भगवान् महावीर ने अनेकान्त की भाषा में प्रात्मा को जहाँ नित्य बलाया है, वहाँ अनित्य भी बताया है। एक समय की बात है। भगवान् महावीर के चरणारविन्दों में गौतम स्वामी आए। वन्दना करके विनम्र भाव से बोले-भगवन् ! जीव नित्य है या अनित्य है ? भगवान् बोले-गौतम ! जीव नित्य भी है और अनित्य भी। गौतम-भगवन् ! यह किस हेतु से कहा गया कि जीक नित्य भी है और अनित्य भी ! भगवान् गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य है ।२१ अभिप्राय यह है कि जीवत्व की दृष्टि से जीव शाश्वत है। अपने मूल द्रव्य के रूप में उसकी सत्ता कालिक है। अतीतकाल में जीव था, वर्तमान में है और भविष्य में भी रहेगा, क्योंकि सत् पदार्थ कभी असत् नहीं होता । इस प्रकार द्रव्यतः नित्य होने पर भी जीव पर्यायतः अनित्य है, क्योंकि पर्याय की दृष्टि से वह सदा परिवर्तनशील है। जीव विविध गतियों में, विभिन्न अवस्थाओं में परिणत होता रहता है। जैसे सोने के कुण्डल, मुकुट, हार आदि अनेक आभूषण बनने पर भी, नाम और रूप में अन्तर पड़ जाने पर भी सोना-सोना ही रहता १६. अपयस्स पयं णत्थि । -प्राचारांग ६३१३३२ २०. सव्वे सरा णियट्टन्ति, तक्का जत्थ ण विज्जइ । मई तत्थ ण गाहिता".. । -पाचारांग ६।१।३३० २१. भगवती, शतक ७, उद्द० २ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मवाद : एक अध्ययन है, वैसे ही विविध योनियों में भ्रमण करते हुए जीव के पर्याय बदलते हैं-रूप और नाम बदलते हैं-मगर जीव द्रव्य वही रहता है। जीवन में सुख और दुःख किस कारण से पैदा होते हैं ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए भगवान् महावीर ने कहा-आत्मा ही अपने सुख और दुःख का कर्ता है, और भोक्ता है । २२ अात्मा ही अपने कृत कर्मों के अनुसार विविध गतियों में परिभ्रमण करता है२3 और अपने ही पुरुषार्थ से कर्मपरम्परा का उच्छेद कर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त बनता है।२४ जैसा कि पहले कहा जा चुका है, आत्मा का कोई प्राकार नही है, किन्तु सकर्मक आत्मा किसी न किसी शरीर के साथ ही रहती है, अतएव प्राप्त शरीर का आकार ही उसका आकार हो जाता है । इस कारण जैन दर्शन में प्रात्मा को कायपरिमित माना गया है । प्रात्मा स्वभावतः असंख्यात प्रदेशी है, और उसके प्रदेश संकोच-विकासशील होते हैं । अतएव वह कर्मोदय के अनुसार जो शरीर उसे प्राप्त होता है, उसी में उसके समस्त प्रदेशों का समावेश हो जाता है। इस प्रकार न पात्मा शरीर के एक भाग में रहती है, न शरीर के बाहर होती है और न सर्वव्यापी है। अलबत्ता केवलीसमुद्घात के समय उसके प्रदेश समस्त लोक में व्याप्त हो जाते हैं, इस अपेक्षा से उसे लोकव्यापक कहा जा सकता है ।२५ मगर एकसमयभावी उस अवस्था की विवक्षा नहीं करके प्रात्मा शरीरप्रमाण ही मानी जाती है। २२. उत्तरा० २०।३७ २३. जमिणं जगई पुढो जगा, कम्मेहिं लुप्पन्ति पाणिणो । सयमेव कडेहि गाहइ, नो तस्स मुच्चेज्जऽपुट्ठयं ।। -सूत्रकृताङ्ग १२।१।४ २४. जह य परिहीण-कम्मा सिद्धा सिद्धालयमुवेति । -प्रोपपातिक २५. द्रव्यसंग्रह, ब्रह्मदेवकृत टीका १० Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन जैसे दीपक को एक घड़े के नीचे रख दिया जाय तो उसका प्रकाश घड़े में समा जाता है। उसी दीपक को यदि किसी विशाल कमरे में रख दें तो वही प्रकाश फैलकर उस कमरे को व्याप्त कर लेता है और यदि खुले आकाश में रख दें तो और भी अधिक क्षेत्र को अवगाहन कर लेता है, उसी तरह प्रात्मप्रदेशों का संकोच और विस्तार होता है । यह अनुभवसिद्ध है कि शरीर में जहाँ कहीं चोट लगती है वहाँ सर्वत्र दुःख अनुभव होता है। शरीर से बाहर किसी भी वस्तु को काटने पर दुःख अनुभव नहीं होता। यदि शरीर से बाहर आत्मा होता तो अवश्य ही दुःख होता; अतः प्रात्मा सर्वव्यापी न होकर देहप्रमाण ही है ।२६ __गौतम ने जिज्ञासा व्यक्त की-भगवन् । जीव संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त है ? भगवान् ने समाधान किया-गौतम ? जीव अनन्त हैं ।२७ ____ जीवों की संख्या कभी न्यूनाधिक होती है या अवस्थित रहती है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान महावीर ने कहा-गौतम ! जीव कभी कम और कभी अधिक नहीं होते किन्तु अवस्थित रहते हैं ।२४ अर्थात् जीव संख्या की दृष्टि से सदा अनन्त रहते हैं ।२९ अनन्त होने २६: सदेहपरिणामो। -द्रव्यसंग्रह जीवदव्वा णं भन्ते ! किं संखेज्जा, असंखेज्जा, अणंता ? गोयमा ! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अरणंता। -भगवती २५॥२१७१६ (ख) के अणंता लोए ? जीवच्चेव अजीवच्चेव । -ठाणाङ्ग २।४।१५१ २८. भन्ते त्ति भगवं गोयमे जाव एवं वयासी-जीवाणं भन्ते ! किं वड्ढन्ति हायन्ति, अवट्ठिया? गोयमा ! जीवा णो वड्ढंति नो हायन्ति अवट्ठिया। जीवाणं भन्ते केवइयं कालं अवट्ठिया (वि) ? सव्वद्ध । -भगवती शा२२१ २६. दव्वओ णं जीवत्यिकाए अणंताई जीवदव्वाई। -भगवती २।१०।११७ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मवाद : एक अध्ययन २५ पर भी सभी आत्माएँ चेतन और असंख्यात प्रदेशी हैं, अतः एक हैं 30 क्षेत्र की दृष्टि से जीव लोकपरिमित है । जहाँ लोक है वहाँ जीव है । जहां तक जीव है वहाँ तक लोक है । 3" आत्मा प्रच्छेद्य है, अभेद्य है, उसे अग्नि जला नहीं सकती, शस्त्र काट नहीं सकता । २ जीव कदापि विलय को प्राप्त नहीं होता । यह एक परखा हुआ सिद्धान्त है कि अस्तित्व अस्तित्व में परिणमन करता है और नास्तित्व नास्तित्व में परिणमन करता है | 33 द्रव्य से अस्तित्व वान् जीव भविष्य में नास्तित्व में परिणमन नहीं कर सकता । ३०. ३१. ३२. ३३. (ख) दव्वओ गं. जीवत्थिकाए अरणंताई दव्वाइ' । एगे आया । - ठाणाङ्ग १०१ जाव ताव लोगे ताव ताव जीवा, जाव ताव जीवा ताव ताव लोए । --ठाणाङ्ग १०।ε३१ से न छिज्जइ न भिज्जइ न उज्झइ न हम्मइ कंचरणं सव्वलोए । - आचारांग १।३।३ (ख) अह भंते ! कुम्भे कुम्भावलिया गोहे गोहावलिया गोणे गोणावलिया मस्से मरगुस्सावलिया महिसे महिलावलिया, एएसि गं दुहा वा तिहा वा संखेज्जहा वा छिन्नाणं जे अन्तरा तेवि गं तेहिं जीवपएसेहिं फुडा ? हन्ता फुडा । पुरिसे णं भंते ! (जं अंतरं) ते अन्तरे हत्थेण वा पाएण वा अंगुलिया वा सलागाए वा कट्ट ेण वा कलिचेण वा आमुसमागे वा संमुसमाणे वा आलिहमारणे वा विलिहमारणे वा अन्नयरेण वा तिक्खेणं सत्थजाएणं आच्छिन्दमाणे वा विच्छिन्दमारणे वा afratri वा समोsहमाणे तेसि जीवपएसारणं किंचि आबाहं वा विवाहं वा उप्पायइ छविच्छेदं वा करेइ ? णो तिट्ट े समट्ठ े, नो खलु तत्थ सत्थं संकमइ ।” -ठाणाङ्गः ५।३।५३० - - भगवती ८।३।३२४ नत्थित्त नत्थित्त - भगवती १।३।३२ से पूणं भन्ते ! अत्थित्त अत्थित्त परिणमइ, परिणमइ ? हन्ता गोयमा ! जाव परिणमइ । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ धर्म और दर्शन जैसे दूध और पानी बहिर्दृष्टि से एक प्रतीत होते हैं वैसे ही संसारी दशा में जीव और शरीर एक लगते हैं, पर वे पृथक्पृथक् हैं । वादिदेव सूरि ने संक्षेप में सांसारिक आत्मा का स्वरूप इस प्रकार बताया है । "आत्मा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध है । वह चैतन्यस्वरूप है, परिणामी है, कर्मों का कर्त्ता है । सुख-दुःख का साक्षात् भोक्ता है, स्वदेहपरिमाण है, प्रत्येक शरीर में भिन्न है, पौगलिक कर्मों से युक्त है। '३४ प्रस्तुत परिभाषा में जैन दर्शन सम्मत आत्मा का पूर्णरूप आ गया है । आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व की सिद्धि के लिए श्री जिनभद्र गरणी ने विशेषावश्यक भाष्य में विस्तार से अन्य दार्शनिकों के तर्कों का खण्डन कर आत्मा की संसिद्धि की है । विस्तार भय से वह सारी चर्चा यहाँ नहीं की जा रही है । पाठकों को मूल ग्रन्थ देखना चाहिए । ३५ जैन श्रागम साहित्य में भी यथाप्रसंग नास्तिक दर्शन का उल्लेख कर उसका निराकरण किया गया है । सूत्रकृताङ्ग में अन्य मतों का निर्देश करते हुए नास्तिकों के सम्बन्ध में कहा है – “कुछ लोग कहते हैं - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, प्रकाश - ये पाँच महाभूत हैं । इन पाँच महाभूतों के योग से श्रात्मा उत्पन्न होता है और इनके विनाश व वियोग से आत्मा भी नष्ट हो जाता है । ३४. ३५. ३६. प्रमाता प्रत्यक्षादिप्रसिद्ध आत्मा । चैतन्यस्वरूपः परिणामी कर्ता साक्षाद् भोक्ता स्वदेहपरिमाणः प्रतिक्षेत्रं भिन्नः पौद्गलिकादृष्टवांश्चायम् । - प्रमाणनयतत्त्वालोक ७१५५-५६ विशेषावश्यकभाष्य | सन्ति पंच महब्भूया, इहमेगेसिमाहिया । पुढवी प्राउ तेउवा, वाउ आगास पंचमा | एए पंच महब्भूया, तेब्भो एगोत्ति आहिया । अह तेसि विणासेणं, विणासो होइ देहिणो ॥ — सूत्रकृताङ्ग श्र० १ । गाथा ७-८ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मवाद : एक अध्ययन आचार्य शीलाङ्क ने प्रस्तुत गाथाओं की वृत्ति में लिखा हैभूतसमुदाय काठिन्य आदि धर्मों वाले हैं । उनका गुरण चैतन्य नहीं है । पृथक्-पृथक् गुरण वाले पदार्थों के समुदाय से किसी अपूर्व गुण वाले पदार्थ की निष्पत्ति नहीं होती । जैसे रूक्ष बालुकरणों के समुदाय से स्निग्ध तेल की उत्पत्ति नहीं होती, वैसे ही चैतन्य गुण वाली आत्मा की जड़त्व धर्म वाले भूतों से उत्पत्ति होना सम्भव नहीं । ३७ भिन्न गुण वाले पाँच भूतों के संयोग से चेतनागुरण की निष्पत्ति नहीं होती । यह प्रत्यक्ष है कि पाँचों इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय का ही परिज्ञान करती हैं । एक इन्द्रिय द्वारा जाने हुए विषय को दूसरी इन्द्रिय नहीं जानती, किन्तु पाँचों इन्द्रियों के जाने हुए विषय को समष्टि रूप से अनुभूति कराने वाला द्रव्य कोई भिन्न ही होना चाहिए और उसे ही श्रात्मा कहते हैं 13 २७ इस प्रकार आत्मा के सम्बन्ध में जैन दर्शन के मौलिक और स्पष्ट विचार है । बौद्ध दृष्टि : महात्मा बुद्ध ने सांसारिक विषयासक्ति से दूर रहकर आत्मगवेषणा और आत्म-शान्ति का उपदेश दिया है। उन्होंने कहा - आत्मदीप होकर विहार करो, आत्मशरण, अनन्यशरण ही रहो"प्रत्तदीपा विहरथ, अत्तसररणा अनञ्ञसरणा" 13 उनकी दृष्टि से जो ३७. भूतसमुदायः स्वातन्त्र्ये सति धर्मित्वेनोपादीयते न तस्य चेतनाख्यो गुणोऽस्तीति साध्यो धर्मः, पृथिव्यादीनामन्यगुणत्वात् । यो योऽन्यगुणानां समुदायस्तत्राऽपूर्व गुणोत्पत्तिर्न भवतीति । यथा सिकतासमुदाये स्निग्ध गुणस्य तैलस्य नोत्पत्तिरिति, घटपटसमुदाये वा न स्तम्भादयो विभावा इति, दृश्यते च कार्यंचैतन्यं तदात्मगुणो भविष्यति न भूतानामिति । ३८. पंचन्हं संजोगे अण्णगुणाणं न चेयणाई गुणो होइ । पंचिन्दिय ठाणारणं सा अण्णमुरिणयं मुणई अण्णो ॥ - सूत्रकृताङ्ग - शोलांकवृत्ति ३६. दीघनिकाय ३ | ३|१ - सूत्रकृताङ्गः वृत्ति Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन निर्मोही है वहीं अक्षय आध्यात्मिक आनन्द का अधिकारी है । और वह सुख बिना काम-सुख त्यागे प्राप्त नहीं हो सकता। कामसुख हीन और अनार्य है। जब तक उसका परित्याग नहीं किया जाता, उस पर विजय प्राप्त नहीं की जाती, तब तक प्राध्यात्मिक आनन्द का अनुभव नहीं होता।४१ आध्यात्मिक सुखानुभूति होने के पश्चात् पुनः प्राणी किसी सांसारिक सुखतृष्णा में नहीं पड़ सकता। यह प्राध्यामिक सुख सम्राटों के और देवताओं के सुख से बढ़कर है ।४२ प्रात्मशरण की प्रबल प्रेरणा देने पर भी बौद्ध दर्शन प्रात्मा के सम्बन्ध में एक निराली दृष्टि रखता है । वह किसी दृष्टि से आत्मवादी है और किसी दृष्टि से अनात्मवादो भी है। एक ओर पुण्य, पाप, पुनर्जन्म, कर्म, स्वर्ग, नरक, मोक्ष को स्वीकारने के कारण प्रात्मवादी है तो दूसरी ओर आत्मा के अस्तित्व को सत्य नहीं किन्तु काल्पनिक संज्ञा मानने के कारण अनात्मवादी है। महात्मा बुद्ध ने अनात्मवाद का उपदेश दिया है। इसका अर्थ आत्मा जैसे पदार्थ का सर्वथा निषेध नहीं है, किन्तु उपनिषदों में जो ४०. तो क्या मानते हो मागन्दिय ! क्या तुमने कभी देखा या सूना है किसी को विषय भोगों से लिप्त विषयों को बिना छोड़े, काम दाह बिना त्यागे, काम सृष्णा बिना छोड़े, पिपासारहित होकर अपने अन्दर शान्ति अनुभव करते हुए ? नहीं, भो गौतम ! साधु मागन्दिय ! मैंने भी नहीं देखा न सुना। -मज्झिम नि० (मागन्दिय सुत्तन्त,) २।३।५ ४१. मज्झिम निकाय १।४।८ (महातण्हासंखय-सुत्तन्त)। ४२. यथा हि राजा रज्जसुखं देवता दिव्वं सुखं अनुभवन्ति एवं अरिया अरियं लोकुत्तरं सुखं अनुभविस्सामीति इच्छतिच्छ तक्खणे फलसमापत्ति समापज्जन्ति । -विसुद्धिमग्ग ३८ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मवाद : एक अध्ययन २६ शाश्वत, अद्व ेत आत्मा का निरूपण किया गया है और उसे संसार का एक मात्र मौलिक तत्त्व माना है, उसका खण्डन है । यद्यपि चार्वाक की तरह बुद्ध भी अनात्मवादी हैं किन्तु बुद्ध पुद्गल, आत्मा, जीव चित्त प्रादि को एक स्वतन्त्र वस्तु मानते हैं जबकि चार्वाकदर्शन चार या पाँच भूतों से समुत्पन्न होने वाली परतन्त्र वस्तु मानते हैं । महात्मा बुद्ध भी जीव, पुद्गल, अथवा चित्त को अनेक कारणों से समुत्पन्न मानते हैं और इस दृष्टि से वह परतन्त्र भी है, किन्तु इस उत्पत्ति में जो मूल कारण हैं उनमें विज्ञान और विज्ञानेतर दोनों प्रकार के कारण रहते हैं, जबकि चार्वाक दर्शन में चैतन्य की उत्पत्ति में चैतन्य से अतिरिक्त भूत ही कारण है, चैतन्य नहीं । सारांश यह है कि भूतों के सदृश विज्ञान भी एक मूल तत्त्व है, जो 'बुद्ध की दृष्टि से जन्य और नित्य है किन्तु चार्वाक भूतों के अतिरिक्त विज्ञान को मूल तत्त्व नहीं मानते । चैतन्य विज्ञान की संतति-धारा को बुद्ध अनादि मानते हैं किन्तु चार्वाक नहीं । ४३ महात्मा बुद्ध का मन्तव्य था कि जन्म, जरा, मरण आदि किसी स्थायी ध्रुव जीव के नहीं होते, किन्तु वे सभी विशिष्ट कारणों से समुत्पन्न होते हैं । अर्थात् जन्म, जरा, मरण इन सबका अस्तित्व तो है, किन्तु उसका स्थायी आधार वे स्वीकार नहीं करते । ४४ जहाँ उन्हें चार्वाक का देहात्मवाद स्वीकार नहीं है वहाँ उपनिषद् का शाश्वत आत्म स्वरूप भी अमान्य है । उनके मन्तव्यानुसार आत्मा शरीर से अत्यन्त भिन्न भी नहीं है और न शरीर से प्रभिन्न ही है । चार्वाक दर्शन एकान्त भौतिकवादी है, उपनिषदों की विचार धारा एकान्त कूटस्थ ग्रात्मवादी है, किन्तु बुद्ध का मार्ग मध्यम मार्ग है । जिसे बौद्ध दर्शन में प्रतीत्यसमुत्पाद - अमुक वस्तु की अपेक्षा से अमुक वस्तु उत्पन्न हुई - कहा है । ४३. ४४. आत्म-मीमांसा - पं० दलसुख मालवणिया पृ० २८ का सारांश | संयुक्त निकाय १२ - २६ । (ख) अंगुत्तरनिकाय ३, (ग) दीघनिकाय, ब्रह्मजालसुत्त', (घ) संयुत्तनिकाय १२।१७।२४ (ङ) विसुद्धिमग्ग १७।१६६-१७४ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० धर्म और दर्शन जब कभी भी महात्मा बुद्ध से प्रात्मा के सम्बन्ध में किसी जिज्ञासु ने प्रश्न किया तब उसका उत्तर न देकर वे मौन रहे हैं। मौन रहने का कारण पूछने पर उन्होंने कहा–यदि मैं कहूँ कि आत्मा है तो लोग शाश्वतवादी बन जाते हैं और यदि कहूँ कि आत्मा नहीं है तो लोग उच्छेदवादी हो जाते हैं, एतदर्थ उन दोनों के निषेध के लिए मैं मौन रहता हूँ।४५ एक स्थान पर नागार्जुन लिखते हैं-"बुद्ध ने यह भी कहा है कि प्रात्मा है और यह भी कहा है कि प्रात्मा नहीं है । बुद्ध ने आत्मा अनात्मा किसी का भी उपदेश नहीं दिया। आत्मा क्या है ? कहाँ से आया है और कहाँ जायेगा ? इन प्रश्नों के उत्तर भगवान् महावीर ने स्पष्टता से प्रदान किये हैं। उनका उत्तर देते समय बुद्ध ने उपेक्षा प्रदर्शित की है और उन्हें अव्याकृत कहकर छोड़ दिया है। वे मुख्यतः दुःख और दुःख निरोध, इन दो तत्त्वों पर प्रकाश डालते हैं। उन्होंने अपने प्रिय शिष्य को कहा-"तीर से व्यथित व्यक्ति के घाव को ठीक करने की बात विचारनी चाहिए । तीर कहाँ से आया है ? किसने मारा है ? इसे किसने बनाया है ? मारने वाले का रंग रूप कैसा है ? आदि आदि प्रश्न करना निरर्थक है।" बौद्ध दर्शन में आत्म तत्त्व के लिए पृथक्-पृथक् स्थलों पर कहीं मुख्य रूप से और कहीं गौण रूप से अनेक शब्द व्यवहृत हुए हैं। जैसे कि पुग्गल, पुरिस, सत्त, जीव, चित्त, मन, विज्ञान, नाम रूप आदि ।४८ ४५. अस्तीति शाश्वतग्राही, नास्तीत्युच्छेददर्शनम् । तस्मादस्तित्व-नास्तित्वे; नाश्रीयेत विचक्षणः ।। -माध्यमिक कारिका १८।१० ४६: आत्मेत्यपि प्रज्ञापित-मनात्मेत्यपि देशितम् । बुद्ध त्मिा न चानात्मा, कश्चिदित्यपि देशितम् ।। -माध्यमिक कारिका १६६ (क) मिलिन्द प्रश्न २।२५-३३ पृ० ४१-५२ (ख) न्यायावतारवार्तिक वृत्ति की प्रस्तावना पृ० ६ (ग) मज्झिमनिकाय, चूलमालुक्य सुत्त ६३ ४८. सब्बे सत्ता अवेरा""सब्बे पाणा"सब्बे भूता""सब्बे पुग्गला""। -पटसंभिदा २११३० ४७ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मवाद : एक अध्ययन लौकिक दृष्टि से आत्मा की सत्ता है; जो विज्ञान वेदना, संज्ञा, संस्कार और रूप-इन पाँच स्कन्धों का संघातमात्र है किन्तु पारमार्थिक रूप से प्रात्मा नहीं है ।४९ "मिलिन्द प्रश्न" में भदंत नागसेन और राजा मिलिन्द का संवाद है। राजा मिलिन्द के प्रश्न के उत्तर में भदन्त नागसेन ने बताया कि पुद्गल का अस्तित्व केश, दाँत प्रादि शरीर के अवयवों तथा रूप, वेदना, संज्ञा संस्कार, विज्ञान इन सबकी अपेक्षा से है, किन्तु पारमार्थिक तत्व नहीं हैं ।५० संक्षेप में यदि कहना चाहें तो बौद्धदर्शन आत्मा को स्थायी नहीं, किन्तु चेतना का प्रवाहमात्र मानता है। दीपशिखा के रूपक से प्रस्तुत कथन का प्रतिपादन किया गया है। जैसे दीपक की ज्योति जगमगा रही है। किन्तु जो लौ पूर्व क्षण में है, वह द्वितीय क्षण में नहीं। तेल प्रवाह रूप में जल रहा है, लौ उसके जलने का परिणाम है, प्रतिपल, प्रतिक्षण वह नई उत्पन्न हो रही है किन्तु उसका बाह्य रूप उसी प्रकार स्थितिशील पदार्थ के रूप में दृष्टिगोचर हो रहा है। बौद्धदर्शन के अनुसार प्रात्मा के सम्बन्ध में भी ठीक यही स्थिति चरितार्थ होती है । स्पष्ट है कि बौद्ध-दर्शन अनात्मवादी होते हुए भी आत्मवादी है। वैदिक दृष्टि : उपनिषद् आदि परवर्ती साहित्य में जिस प्रकार प्रात्म-मीमांसा की गई है वैसी मीमांसा वेदों में नहीं है । कठोपनिषद् में नचिकेता का एक मधुर प्रसंग है। बालक नचिकेता के पिता ऋषि वाजश्रवस् ने भीष्म प्रतिज्ञा ग्रहण की कि "मैं सर्वस्व दान दूंगा।" प्रतिज्ञानुसार सब कुछ दान दे दिया । बालक नचिकेता ने विचार किया-पिता ने अन्य वस्तुएं तो दान दे दी हैं पर अभी तक मुझे दान में क्यों नहीं दिया ? उसने पिता से पूछा-आप (ख) विशुद्धिमग्ग, ६।१६ ४६. मिलिन्द प्रश्न ५०. मिलिन्द प्रश्न २।४। सू० २६८ । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन मुझे किसको दान दे रहे हैं ? पिता मौन रहे। उसने पुनः वही प्रश्न दोहराया, फिर भी पिता का मौन भंग नहीं हमा। तृतीय बार कहने पर पिता को क्रोध आ गया और उसने झुंझला कर कहाजा तुझे यमराज को दिया। बालक नचिकेता यम के घर पहुंचा। यमराज घर पर नहीं थे। वह भूखा और प्यासा तीन दिन तक यमराज के द्वार पर बैठकर उनकी प्रतीक्षा करता रहा। यमराज आये। बालक की भद्रता पर वे मुग्ध हो गये । तीन वर मांगने के लिए कहा। नचिकेता ने तीसरा वर माँगा- मृत्यु के पश्चात् कुछ कहते हैं मानव की आत्मा का अस्तित्व है, कुछ कहते हैं नहीं है, सत्य तथ्य क्या है ; यह आप मुझे बतायें-यही मेरा तृतीय वर है । यमराज ने अन्य वर माँगने की प्रेरणा दी, पर नचिकेता अपने कथन से तनिक भी विचलित नहीं हुआ । उसने कहा-मुझे वही विधि बताइये, जिससे अमरता प्राप्त हो। यमराज ने कहा-त इस आत्म-विद्या के लिए प्राग्रह न कर, इसका ज्ञान होना साधारण बात नहीं है। देवता भी इस विषय में सन्देहशील रहे हैं ।५२ पर नचिकेता की तीव्र जिज्ञासा से यमराज ने प्रसन्न होकर आत्मसिद्धि का सूक्ष्म रहस्य उसे बताया। आत्म-विद्या व योगविधि को पाकर नचिकेता को ब्रह्मानन्द अनुभव हुआ । उसका राग-द्वेष नष्ट हो गया। इसी प्रकार जो आत्म-तत्त्व को पाकर आचरण करेंगे वे भी अमरता को प्राप्त करेंगे। ५१. येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्ये, __ अस्तीत्येके नायमस्तीति चैके । एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं वराणामेष वरस्तृतीयः ।। -कठोपनिषत् १-२० ५२. देवैरत्रापि विचिकित्सितं पुरा, नहि सुविज्ञेयं अणुरेष धर्मः । -कठोपनिषत् ११२१ ५३. मृत्युप्रोक्तां नचिकेतोऽथ लब्ध्वा, विद्यामेतां योगविधिं च कृत्स्नम् । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मवाद : एक अध्ययन चरक के अनुसार अग्निवेश के प्रश्न के उत्तर में पुनर्वसु ने ग्रात्मतत्त्व का निरूपण किया है । १४ छान्दोग्य उपनिषद् में महर्षि नारद और सनत्कुमार का संवाद है । सनत्कुमार के पूछने पर नारद ने कहा -- वेद, पुराण, इतिहास आदि सभी विद्यानों का अध्ययन करने पर भी प्रात्मस्वरूप न पहचानने से मैं शोक-ग्रस्त हूँ, ग्रतः आत्मज्ञान प्रदान कीजिये, और चिन्ताओं से मुक्त कीजिये ।' ༣༥ बृहदारण्यक उपनिषद् में याज्ञवल्क्य ऋषि से मैत्रेयी ने भी आत्मविद्या का ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा व्यक्त की । १६ उपनिषद् के ऋषियों ने कहा है-- आत्मा ही दर्शनीय है, श्रवणीय है, मननीय है और ध्यान किये जाने योग्य है । ५७ मनुस्मृति के रचियता आचार्य मनु कहते हैं - 'सब ज्ञानों में आत्म-ज्ञान ही श्रेष्ठ है । सभी विद्याओं में वही परा विद्या है, जिससे मानव को अमृत (मोक्ष) प्राप्त होता है । ५८ ब्रह्मप्राप्तौ ५४. ५५. ५६. ५७. ५८. ३३ विरजोऽभूद् विमृत्यु - रन्योऽप्येवं यो विदध्यात्ममेव ॥ इत्यग्निवेशस्य वचः श्रुत्वा मतिमतां वरः । सर्वं यथावत् प्रोवाच प्रशान्तात्मा पुनर्वसुः || - चरक संहिता, शरीर स्थान, श्र० १, श्लो० १५ छान्दोग्योपनिषद्, प्रपाठक ७ खण्ड १ येनाहं नामृतास्यां किं तेन कुर्याम् ? तदेव भगवान् वेद तदेव मे ब्रूहि ॥ -- बहदारण्योपनिषद् आत्मा वारे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः । सर्वेषामपि चैतेषामात्मज्ञानं परं स्मृतम् । तद्धयग्रयं सर्वविद्यानां प्राप्यते ह्यमृतं ततः ।। कठोपनिषत् ६।१८ - बृहदारण्योपनिषद् २।४।५ - मनुस्मृति श्र० १२ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ धर्म और दर्शन आत्मा शरीर से विलक्षण है।५९ वह वाणी द्वारा अगम्य है ।६० न वह स्थूल है, न ह्रस्व है, न विराट है, न अणु है, न अरुण है, न द्रव है, न छाया है, न अन्धकार है, न हवा है, न आकाश है, न संग है, न रस है, न गंध है, न नेत्र है, न कर्ण है, न वाणी है, न मन है, न तेज है, न प्रारण है, न मुख है, न माप है, उसमें न अन्तर है, न बाहर है।६१ उपनिषदों में आत्मा के परिमारण की विभिन्न कल्पनाएँ मिलती हैं। छान्दोग्योपनिषद् में बताया है-"यह मेरी आत्मा अन्तर्हृदय में रहती है । यह चावल से, जौ से, सरसों से, श्यामाक (साँवा) नामक धान या उसके चावल से भी लघु है ।"६२ बृहदारण्यक में कहा है--"यह पुरुष रूपी आत्मा मनोमय भास्वान् तथा सत्य रूपी है और उस अन्तर्हृदय में ऐसी रहती है जैसे चावल या जौ का दाना हो । ६३ कठोपनिषद् में कहा है-"आत्मा अंगठे जितनी बड़ी है । अंगठे जितना वह पुरुष आत्मा के मध्य में रहता है।"६४ ५६. न हन्यते हन्यमाने शरीरे.... -कठोपनिषत् १-२॥१५॥१८ ६०. यतो वाचो निवर्तन्ते । अप्राप्य मनसा सह । --तैत्तिरीय उपनिषद् २।४ अस्थूलमनण्वह्रस्वमदीर्घमलोहितमस्नेहमच्छायमतमोऽवाय्वनाकाशमसङ्गमरसमगन्धम चक्षुष्कमश्रोत्रमवागमनोऽतेजस्कमप्राणममुखममात्रमनन्तरमबाह्यम्....। -बृहदारण्योपनिषद् ३।८।८ ६२. एष म आत्मान्तहृदयेऽणीयान्त्रीहेर्वा यवाद्वा सर्षपाद्वा श्यामाकाद्वा श्यामाकतण्डुलाद्वा । - छान्दोग्योपनिषद् ३३१४।३ ६३. मनोमयोऽयं पुरुषो भाः सत्यस्तेस्मिन्नन्तहृदये यथा व्रीहि र्वा यवो वा । ___-- बृहदारण्यक उप० ५।६।१ ६४. अंगुष्ठमात्रः पुरुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति । " -कठोपनिषत् २।४।१२ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मवाद : एक अध्ययन कौषीतकी उपनिषद् में कहा है-यह आत्मा शरीर-व्यापी है ।६५ तैत्तिरीय उपनिषद् ने प्रतिपादित किया है--अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय-ये सभी आत्माएँ शरीरप्रमाण है।६६ ___ मुण्डकोपनिषद् आदि में प्रात्मा को व्यापक माना गया है ।६७ "हृदय कमल के भीतर यह मेरा अात्मा पृथ्वी, अन्तरिक्ष, द्यलोक अथवा इन सब लोकों की अपेक्षा बड़ा है ।"६८ __गीता के अनुसार-आत्मा को शस्त्र छेद नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, पानी गीला नहीं कर सकता और हवा सूखा नहीं सकती है .६९ जैसे मानव जीर्ण-शीर्ण वस्त्र को उतारकर नवीन वस्त्रों को धारण करता है, वैसे ही यह प्रात्मा भो जीर्ण शरीर का परित्याग कर नवीन शरीर को धारण करता है। ६६. ६५. एष प्रज्ञात्मा इदं शरीरमनुप्रविष्टः । -कौषीतको उपनिषद् ३५।४।२० तैत्तिरीय उपनिषद् १।२ ६७. सर्वगतम् । -मुण्डकोपनिषद् १।११६ (ख) वैशेषिक दर्शन ७।१।२२ (ग) न्यायमंजरी पृ० ४६८ (घ) प्रकरण पं० पृ० १५८ (ङ) ईशावास्यमिदं सर्व, यत् किञ्च जगत्यां जगत् । --ईशावास्य उप० ६८. एष म आत्मान्तर हृदये ज्यायान् पृथिव्या, ज्यायानन्तरिक्षा ज्यायान् दिवो ज्यायानेभ्यो लोकेभ्यः । -छान्दोग्य उप० ३॥१४॥३ ६६. नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः ।। गीता, अध्याय २ । २३ ७०. वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ धर्मद __ वैदिक संस्कृति में ही नैयायिक, नैशेषिक, सांख्य, मीमांसक और योग इन दर्शनों का समावेश होता है। ये सभी दर्शन प्रात्मा को स्वीकार करते हैं और आत्मा, मोक्ष आदि की स्वतन्त्र परिभाषाएँ प्रस्तुत करते हैं। __ नैयायिक व वैशेषिक दर्शन का मन्तव्य है कि प्रात्मा एकान्त नित्य और सर्वव्यापी है । इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख-दुःख आदि के रूप में जो परिवर्तन परिलक्षित होता है, वह आत्मा के गुणों में है, स्वयं प्रात्मा में नहीं। प्रात्मा के गुण प्रात्मा से भिन्न हैं, इनसे हम आत्मा का अस्तित्व जानते हैं। सांख्य दर्शन प्रात्मा को कूटस्थ नित्य मानता है। उसके मतानुसार आत्मा सदा-सर्वदा एकरूप रहता है। उसमें परिवर्तन नहीं होता। संसार और मोक्ष भी आत्मा के नहीं, प्रत्युत प्रकृति के हैं " सुख-दुःख और ज्ञान भी प्रकृति के धर्म हैं, आत्मा के नहीं। आत्मा तो स्थायो, अनादि, अनन्त, अविकारी नित्य चित्स्वरूप और निष्क्रिय है। 3 सांख्य दृष्टि से आत्मा कर्ता नहीं, किन्तु फल का भोक्ता है । ४ कर्तृत्व प्रकृति में है।५ मीमांसक दर्शन के अनुसार प्रात्मा एक है, किन्तु देहादि की तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।। -गीता २०२२ ७१. सांख्यकारिका ६२ ७२. सांख्यकारिका ११ ७३. अमूर्तश्चेतनो भोगी, नित्यः सर्वगतोऽक्रियः । अकर्ता निगुणः सूक्ष्मः आत्मा कपिलदर्शने ।। -षड्दर्शनसमुच्चय ७४. सांख्यकारिका १७ ७५. प्रकृतेः क्रियमाणानि, गुणैः कर्माणि सर्वशः । अहंकारविमूढात्मा, कर्ताऽहमिति मन्यते । -गीता ३।२७ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मवाद : एक अध्ययन विविधता के कारण वह अनेक प्रतीत होता है ।" मीमांसक कुमारिल ने आत्मा को नित्यानित्य माना है। इस प्रकार हम देखते हैं, वैदिक दार्शनिकों ने भी आत्मा के सम्बन्ध में गहन चिन्तन किया है, किन्तु जैन-दर्शन जितना गंभीर चिन्तन वे नहीं कर पाये हैं। अनेकान्त दृष्टि से जैन दर्शन ने आत्मा का सर्वाङ्ग विवेचन किया है । वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। उपर्युक्त पंक्तियों में जैन, बौद्ध, और वैदिक दर्शन-मान्य आत्मा की एक हल्कोसी झाँकी प्रस्तुत की गई है। आधुनिक वैज्ञानिक भी आत्मा के मौलिक अस्तित्व को स्वीकार करने लगे हैं। प्रोफेसर अलबर्ट आई स्टीन ने, जो पाश्चात्य देशों में संसार के प्रतिभासम्पन्न विद्वान माने गये हैं, लिखा है- "मैं जानता हैं कि सारी प्रकृति में चेतना काम कर रही है।" इनके अतिरिक्त अन्य अनेक मूर्धन्य वैज्ञानिकों के विचार भी मननीय हैं, पर स्थानाभाव के कारण उन्हें यहाँ उद्घ त करना सम्भव नहीं है। ७६. एक एव हि भूतात्मा, मूते मूते व्यवस्थितः। ७७. तत्त्वसंग्रह का० २२३-७ । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन कर्मवाद - पर्यवेक्षण भारतवर्ष दर्शनों की जन्मस्थली है, क्रीडाभूमि है । यहाँ की पुण्य भूमि पर आदिकाल से ही आध्यात्मिक चिन्तन की, दर्शन की विचारधारा बहती चली आ रही है । न्याय, सांख्य, वेदान्त, वैशेषिक, मीमांसक, बौद्ध और जैन प्रभृति अनेक दर्शनों ने यहाँ जन्म ग्रहण किया, वे खूब फले और फूले । उनकी विचारधाराएँ हिमालय की चोटी से भी अधिक ऊँची, समुद्र से भी अधिक गहरी और ग्राकाश से भी अधिक विस्तृत हैं । भारतीय दर्शन जीवन-दर्शन है । केवल कमनीय कल्पना के अनन्त गगन में विहरण करने की अपेक्षा यहाँ के मनीषी दार्शनिकों ने जीवन के गम्भीर व गहन प्रश्नों पर चिन्तन, मनन, विमर्श करना अधिक उपयुक्त समझा । एतदर्थ यहाँ आत्मा, परमात्मा, लोक, कर्म आदि तत्त्वों पर गहराई से चिन्तन, मनन व विवेचन किया गया है। उन्होंने अपनी तपश्चर्या एवं सूक्ष्म कुशाग्र बुद्धि के सहारे तत्त्व का जो विश्लेषण किया है वह भारतीय सभ्यता व धर्म का मेरुदण्ड है । इस विराट् विश्व में भारत के मुख को उज्ज्वल - समुज्ज्वल रखने में, तथा मस्तिष्क को उन्नत रखने में ब्रह्मवेत्ताओं की यह प्राध्यात्मिक सम्पदा सर्वथा व सर्वदा कारण रही है । मानसिक पराधीनता के पङ्क में निमग्न आधुनिक भारतीय पाश्चात्य सभ्यता के चाकचिक्य के समक्ष इस अनुपम विचार राशि की भले ही अवहेलना करें किन्तु उन्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि भारत प्रतिप्राचीन काल से गौरवशाली देश रहा है तो अपने दार्शनिक चिन्तन के कारण ही । वस्तुतः तत्त्वज्ञान से ही भारतीय संस्कृति व सभ्यता की प्रतिष्ठा है । I Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद-पर्यवेक्षण दार्शनिक वादों की दुनिया में कर्मवाद का अपना एक विशिष्ट स्थान है। कर्मवाद के मर्म को समझे विना भारतीय दर्शन विशेषतः आत्मवाद का यथार्थ परिज्ञान नहीं हो सकता। डाक्टर हजारीप्रसाद द्विवेदी के मन्तव्यानुसार “कर्मफल का सिद्धान्त भारतवर्ष की अपनी विशेषता है । पुनर्जन्म का सिद्धान्त खोजने का प्रयत्न अन्यान्य देशों के मनीषियों में भी पाया जा सकता है, परन्तु इस कर्मफल का सिद्धान्त और कहीं भी नहीं मिलता।"१ ___ सुप्रसिद्ध प्राच्य-विद्याविशारद कीथ ने सन् १६०६ की रायल एशियाटिक सोसायटी की पत्रिका में एक बहुत ही विचार पूर्ण लेख लिखा था । उसमें वे लिखते हैं--"भारतीयों के कर्म बन्ध का सिद्धान्त निश्चय ही अद्वितीय है। संसार की समस्त जातियों से उन्हें यह सिद्धान्त अलग कर देता है । जो कोई भी भारतीय धर्म और साहित्य को जानना चाहता है, वह यह उक्त सिद्धान्त को जाने बिना अग्रसर नहीं हो सकता।" कर्म शब्द के पर्यायवाची : आत्मतत्त्व के सम्बन्ध में विभिन्न दार्शनिकों की विभिन्न धारणाएं होने से कर्म के स्वरूप-विवेचन में भी विभिन्नता होना स्वाभाविक है। तथापि यह स्पष्ट है कि सभी आस्तिक दर्शनों ने पुनर्जन्म की संसिद्धि के लिए किसी न किसी रूप में कर्म-सिद्धान्त को स्वीकार किया है । सभी दर्शनों के शब्दों में अन्तर होने पर भी उसके आधार भूत भाव में प्रायः समानता है। जैन दार्शनिकों ने जिसे कर्म कहा है, उसे वेदान्त दर्शन ने अविद्या, १. अशोक के फूल-भारतवर्ष की सांस्कृतिक समस्या : पृ० ६७, २. अशोक के फूल, पृ० ६७ उत्तराध्ययन अ० ३३३१ (ख) सूत्रकृताङ्ग १।२।१।४ (ग) आचारांग १२।२।५ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन प्रकृति तथा माया कहा है। बौद्ध दर्शन ने उसे वासना और विज्ञप्ति कहा है ।" सांख्य व योग दर्शन उसे आशय और क्लेश कहते हैं । न्याय और वैशेषिक दर्शन ने उसे धर्माधर्म, संस्कार और दृष्ट कहा है। मीमांसकों ने उसे अपूर्व कहा है ।" ईसा मोहम्मद ने उसे शैतान कहा है । कर्म शब्द के ही ये पर्यायवाची शब्द हैं, जिन्हें दार्शनिकों ने अपने-अपने ग्रन्थों में उट्टङ्कित किया है । कर्म का स्वरूप : और मूसा ४० कर्म का स्वरूप क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर विभिन्न विचारकों विभिन्न दृष्टि से दिया है । (घ) दशाश्रुतस्कन्ध, (ङ) कर्मग्रन्थ प्रथम गा० १ ४. ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्य २ ।१ । १४ ५. अभिधर्म कोष, चतुर्थ परिच्छेद । ६. ७. योगदर्शन भाष्य १-५२ - ३।२-१२२-१३ योगदर्शन तत्त्व वैशारदी | योगदर्शन भास्वती टीका । (घ) सांख्यकारिका । (ड) साँख्य तत्त्व कौमुदी । ६. ( ख ) ( ग ) न्याय भाष्य १।१।२ ( ख ) न्यायसूत्र ४। १ । ३-६ ( ग ) न्यायसूत्र १।१।१७ (घ) न्याय मंजरी पृ० ४७१।५०० (ङ) एवं च क्षणभंगित्वात्, संस्कारद्वारिकः स्थितः । कर्मजन्य संस्कारो धर्माधर्मगिरोच्यते ॥ ८. मीमांसा - सूत्र - शावर भाष्य २०११५ ( ख ) तन्त्रवार्तिक २|१५ ( ग ) शास्त्रदीपिका पृ० ८० बाइबिल कुरान शरीफ स - न्यायमंजरी पृ० ४७२ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद-पर्यवेक्षण न्याय दर्शन अदृष्ट (कर्म) को प्रात्मा का गुण मानता है और उसका फल ईश्वर के माध्यम से आत्मा को प्राप्त होता है। सांख्य दर्शन कर्म को प्रकृति का विकार मानता है।" अच्छी-बुरी प्रवृत्तियों का प्रकृति पर संस्कार पड़ता है, उस प्रकृतिगत संस्कार से ही कर्मों के फल प्राप्त होते हैं। बौद्ध दर्शन चिलगत वासना को ही कर्म मानता है ।२ वासना ही कार्य कारण भाव के रूप में सुख-दुःख का हेतु बनती है । मीमांसक यज्ञ आदि क्रियाओं को ही कर्म कहता है । 3 पौराणिक मान्यतानुसार व्रत नियमादि धार्मिक अनुष्ठान कर्म हैं। वैयाकरणों की दृष्टि से कर्ता जिसे अपनी क्रिया के द्वारा प्राप्त करना चाहता है वह कर्म है । गीता४ उपनिषद् आदि ने अच्छे-बुरे कार्यों को कर्म कहा है। जैनदर्शन के अनुसार कर्म केवल संस्कार मात्र नहीं है, किन्तु एक स्वतंत्र तत्त्व है । मिथ्यात्व, अवत, प्रमाद, कषाय और योग से जीव के द्वारा जो किया जाता है वह कर्म है ।५ अर्थात् प्रात्मा की राग द्वषात्मक क्रिया से आकाश प्रदेशों में स्थित अनन्तानन्त कर्म योग्य सूक्ष्म पुद्गल चुम्बक की तरह आकृष्ट होकर आत्म प्रदेशों के साथ बद्ध हो जाते हैं, वे कर्म हैं। जैसे गर्म लोहपिण्ड पानी में रखने १०. ईश्वरः कारणं पुरुषकर्म फलस्य दर्शनात् । -न्यायसूत्र ४१ ११. अन्तःकरणधर्मत्वं धर्मादीनाम् । -~सांख्यसूत्र ५।२५ १२. अभिधर्म कोष, चतुर्थ परिच्छेद १३. तन्त्रवार्तिक पृ० ३६५-६ १४. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । -भगवद्गीता प्र० ४ श्लो० २७ १५. कीरइ जीएण हेउहि, जेण तो भण्णए कम्मं । -कर्मग्रन्थ, प्रथम, गा० १ प्राचार्य देवचन्द्र, (ख) विसय कसायहिं रंगियहँ, जे अणुया लग्गति । जीव-पएसह मोहियहँ, ते जिण काम भणंति ॥ -परमात्मप्रकाश श६२ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन पर चारों ओर के पानी को खींचता है, वैसे ही आत्मा भी राग द्व ेष के वशीभूत होकर कार्मणजातीय पुद्गलों को आकर्षित करता है कर्म के भेद : ४२ कर्म के मुख्यतः दो भेद हैं, द्रव्य कर्म और भाव कर्म । सांसारिक जीव का "रागद्वेषादिमय वैभाविक परिणाम भाव कर्म हैं, और उन वैभाविक परिणामों से आत्मा में जो 'कार्मण वर्गरणा' के पुद्गल सर्वात्मना चिपकते हैं, वे द्रव्य कर्म हैं ।" द्रव्य कर्म और भाव कर्म में निमित्त-नैमित्तिक रूप द्विमुख कार्यकारण भाव सम्बन्ध है । द्रव्य कर्म कार्य है और भाव कर्म कारण है । प्रस्तुत कार्य कारण भाव मुर्गी और अण्डे के कार्य कारण भाव सदृश है । मुर्गी से अण्डा उत्पन्न होता है, अतः मुर्गी कारण है और अण्डा कार्य है । मगर अण्डे से मुर्गी उत्पन्न होती है, अतएव अण्डा कारण और मुर्गी कार्य है । इस प्रकार दोनों कार्य और दोनों कारण हैं । यदि यह जिज्ञासा व्यक्त की जाय कि पहले मुर्गी थी या अण्डा ? तो इसका समाधान नहीं दिया जा सकता, क्योंकि अण्डा मुर्गी से होता है और मुर्गी भी ग्रण्डे से समुत्पन्न होती है । ग्रतः दोनों में कार्य कारण भाव स्पष्ट है । उनमें पौर्वापर्य भाव नहीं बतलाया जा सकता। संतति की दृष्टि से उनका पारस्परिक कार्य कारण भाव अनादि है । वैसे ही द्रव्य और भाव कर्म का कार्य-कारण भाव सम्बन्ध संतति की अपेक्षा से अनादि है । दोनों एक दूसरे के उत्पन्न होने में निमित्त हैं । जैसे मिट्टी का एक पिण्ड घड़े आदि के रूप में परिरगत होने का उपादान कारण है, किन्तु कुम्भकाररूपी निमित्त के प्रभाव में वह घट नहीं बनता, वैसे ही कार्मरण वर्गरणा के पुद्गलों में कर्म रूप में परिणत होने की शक्ति है, एतदर्थ पुद्गल द्रव्य कर्म का उपादान कारण है, पर जीव में भाव कर्म की सत्ता का प्रभाव हो तो पुद्गल द्रव्य कर्म में परिणत नहीं हो सकता । अतः भावकर्म द्रव्य कर्म का १६. पोग्गल - पिडो दव्वं तस्सन्ति भावकम्मं तु I - गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, प्रा० नेमिचन्द्र Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद-पर्यवेक्षण निमित्त कारण है और द्रव्य कर्म भी भाव कर्म का निमित्त है । अतः द्रव्य और भाव कम का कार्य कारण भाव उपादानोपादेय रूप न होकर निमित्त नैमित्तिक रूप है। अन्य दर्शनकारों ने भी द्रव्य और भाव कर्म को विविध नामों से स्वीकार किया है । कर्म का अस्तित्व : इस विराट् विश्व में यत्र-तत्र-सर्वत्र विषमता, विचित्रता और विविधता दृष्टिगोचर होती है । सब जीव स्वभावतः समान होने पर भी उनमें मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि के रूप में जो महान् अन्तर दिखाई पड़ता है, इसका क्या कारण है ? केवल मानव जगत् को ही लें, तो भी कोई निर्धन है, कोई धनी है। कोई स्वस्थ है, कोई रुग्ण है । कोई अज्ञ है, कोई विज्ञ है। कोई निर्बल है, कोई सबल है । कोई सुन्दर है कोई कुरूप है। कोई सुखी है, कोई दुःखी है । कोई गगनचुम्बी अट्टालिकानों में रहता है तो कोई टूटी-फूटी झोंपड़ियों में । कोई गुलाबजामुन और रसगुल्ले उड़ा रहा है तो कोई भूख से छटपटा रहा है । कोई बहुमूल्य और चमकदार वस्त्रों से अलंकृत है तो कोई फटे-पुराने चीथड़ों से वेष्टित है। यहाँ तक कि एक माता की कौंख से उत्पन्न हुए पुत्रों में भी दिन-रात का अन्तर देखा जाता है, एक राजा है, दूसरा रंक है। इस भेद और विषमता का मूल कारण क्या है ? यह एक ज्वलंत प्रश्न है । भारत के मननशील मेधावी मनीषियों ने इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा --विषमता और विविधता का मूल कर्म है। कर्म से ही विविधता और विषमता उत्पन्न होती है। जैन दर्शन की तरह बौद्ध १७. देखिए-आत्ममीमांसा, पं० दलसुख मालवणिया । १८. कम्मओणं भंते, जीवे, नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमई । कम्मओणं जने ? णो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमई ॥ -भगवती १२१५ १६. कम्मुणा उवाही जायइ । -प्राचारांग ३१ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन दर्शन, न्याय दर्शन" वेदान्तदर्शन प्रभृति भी कर्म को ही जीव की विविध अवस्थाओं का कारण मानते हैं । यह एक परखा हुआ सिद्धान्त है कि जैसा बीज होगा वैसा ही वृक्ष होगा । २३ ૪ सौटंची स्वर्ण में कोई भेद नहीं होता, किन्तु विजातीय तत्त्व के संमिश्रण के कारण उसमें भेद होता है । वैसे ही निश्चय दृष्टि से २०. २१. सदरूपनीरूपयोः, (ख) क्ष्माभृद्ररङ्कयोर्मनीषिजडयोः श्रीमदुर्गतयोर्बलाबलवतोर्नी रोग रोगातयोः सौभाग्यासुभगत्व-संगम- जुषोस्तुल्येऽपि नृत्येऽन्तरं, यत्तत्कर्मनिबन्धनं तदपि नो जीवं विना युक्तिमत् ॥ (ग) जो तुल्लसाहणारणं, फले कज्जत्तणओ गोयम ! घडोब्ब हेऊ य सो कम्मं । - कर्मग्रन्थ प्रथम टीका - - देवेन्द्र सूरि विसेसो ण सो विणा हेउ । (ख) कर्मजं लोकवैचित्र्यं । भासितं पेतं महाराज, भगवता - कम्मस्सका माणवसत्ता, कम्मदायादा, कम्मयोनी, कम्मबन्धू, कम्मपटिसरणा, कम्मं सते विभजति, यदिदं पणीततात ॥ -- विशेषावश्यक भाष्य, जिनभद्रगणी - मिलिन्द प्रश्न ३२ जगतो यच्च वैचित्र्यं, सुखदुःखादिभेदतः । कृषिसेवादिसाम्येऽपि विलक्षणफलोदयः ॥ अकस्मान्निधिलाभस्य विद्यत्पातश्च कस्यचित् । क्वचित्फलमयत्नेऽपि यत्नेऽप्यफलता क्वचित् ॥ तदेतद् दुर्घटं दृष्टात्कारणाद् व्यभिचारिणः । तेनादृष्टमुपेतव्यमस्य किञ्चन कारणम् || २२. ब्रह्मसूत्र -- शांकर भाष्य २।१।१४ २३. करम प्रधान विश्व करि राखा । जो जस करहि सो तस फल चाखा ।। -- श्रभिधर्म कोष ४।१ --त्यायमंजरी - जयन्तभट्ट - रामचरितमानस Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमवाद-पर्यवेक्षण ४५ आत्माएं एक हैं, किन्तु जो भेद और विषमता है, वह कर्म के कारण से है ।२४ आत्मा पहले या कर्म : आत्मा पहले है या कर्म पहले है ? दोनों में पहले कौन है और पीछे कौन है ? यह एक प्रश्न है । __उत्तर है-आत्मा और कर्म दोनों अनादि हैं। कर्मसंतति का आत्मा के साथ अनादि काल से सम्बन्ध है। प्रतिपल-प्रतिक्षण जीव नूतन कर्म बांधता रहता है। ऐसा कोई भी क्षण नहीं, जिस समय सांसारिक जीव कर्म नहीं बाँधता हो । इस दृष्टि से आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध सादि भी कहा जा सकता है, पर कर्म-सन्तति की अपेक्षा आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध अनादि है ।२५ अनादि का अन्त कैसे : प्रश्न है-जब प्रात्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध अनादि है तब उसका अन्त कैसे हो सकता है ? क्योंकि जो अनादि होता है उसका नाश नहीं होता। २४. कामादिप्रभवश्चित्रं कर्मबन्धानुरूपतः । -प्राप्त मीमांसा--प्राचार्य समन्तभद्र २५. जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो। परिणामादो कम्म कम्मादो होदि गदिसुगदी ॥ गदिमधिगदस्स देहो, देहादो इन्दियाणि जायन्ते । तेहि दु विसयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा ।। जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि, इदि जिणवरेहि भणिदो अणादिणिधणो सणिधणो वा ॥ -पंचास्तिकाय--प्राचार्य कुन्दकुन्द जीव हैं कम्मु प्रणाइ जिय जणियउ कम्मु ण तेण । कम्में जीउ वि जणिउ गवि दोहिं वि आइ ण जेण ॥ एह ववहारें जीवडउ हेउ लहे विणु कम्मु । बहुविह-भावें परिणवइ तेण जि धम्मु अहम्मु ।। -परमात्म प्रकाश ११५९६० Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ धर्म और दर्शन उत्तर है - अनादि का अन्त नहीं होता, यह सामुदायिक नियम है, जो जाति से सम्बन्ध रखता है । व्यक्ति विशेष पर यह नियम लागू नहीं भी होता । स्वर्ण और मिट्टी का घृत और दुग्ध का सम्बन्ध अनादि है, तथापि वे पृथक्-पृथक् होते हैं । वैसे ही आत्मा और कर्म के अनादि सम्बन्ध का अन्त होता है । २६ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि व्यक्ति रूप से कोई भी कर्म अनादि नहीं है । किसी एक कर्मविशेष का अनादि काल से आत्मा के साथ सम्बन्ध नहीं है । पूर्वबद्ध कर्म स्थिति पूर्ण होने पर प्रात्मा से पृथक् हो जाते हैं | नवीन कर्म का बन्धन होता रहता है। इस प्रकार प्रवाह रूप से आत्मा के साथ कर्मों का सम्बन्ध अनादि काल से है, २७ न कि व्यक्तिशः । श्रतः अनादि कालीन कर्मों का अन्त होता है, तप और संयम के द्वारा नये कर्मों का प्रवाह रुकता है, संचित कर्म नष्ट होते हैं और आत्मा मुक्त बन जाता है । ૨૮ आत्मा बलवान् या कर्म : आत्मा और कर्म इन दोनों में अधिक शक्तिसम्पन्न कौन है ? क्या आत्मा बलवान् है या कर्म बलवान है ? समाधान है - प्रात्मा भी बलवान् है और कर्म भी बलवान है । आत्मा में भी अनन्त शक्ति है और कर्म में भी अनन्त शक्ति है । कभी जीव, काल आदि लब्धियों की अनुकूलता होने पर कर्मों को पछाड़ २६. द्वयोरप्यनादिसम्बन्धः, कनकोपल - सन्निभः । २७. यथाऽनादिः स जीवात्मा, यथाऽनादिश्च पुद्गलः द्वयोर्बन्धोऽप्यनादिः स्यात् सम्बन्धो जीव- कर्मणोः । २८. - पंचाध्यायी २०४५, पं० राजमल्ल (ख) अस्त्यात्माऽनादितो बद्धः कर्मभिः कार्मणात्मकैः । — लोकप्रकाश ४२४ (ग) आदिरहितो जीवकर्मयोग इति पक्षः । खवित्ता पुष्वकम्माई, संजमेण तवेण य । सव्व - दुक्ख पहीणट्ठा, पक्कमंति महेसिणो ॥ - स्थानाङ्ग ११४१६ टीका - उत्तराध्ययन २५।४५ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद-पर्यवेक्षण ४७ देता है, और कभी कर्मों की बहुलता होने पर जीव उनसे दब जाता है ।२९ ___ बहि ष्टि से कर्म बलवान् प्रतीत होते हैं, पर अन्तर्दृष्टि से आत्मा ही बलवान् है, क्योंकि कर्म का कर्ता आत्मा है, वह मकड़ी की तरह कर्मों का जाल बिछाकर उसमें उलझता है। यदि वह चाहे तो कर्मों को काट भी सकता है । कर्म चाहे कितने भी अधिक शक्ति शाली हों, पर आत्मा उससे भी अधिक शक्तिसम्पन्न है। ___ लौकिक दृष्टि से पत्थर कठोर है और पानी मुलायम है, किन्तु मुलायम पानी पत्थर के भी टुकड़े-टुकड़े कर देता है । कठोर चट्टानों में भी छेद कर देता है। वैसे ही आत्मा की शक्ति कर्म से अधिक है। वीर हनुमान को जब तक स्व स्वरूप का परिज्ञान नहीं हुआ तब तक वह नाग-पाश में बँधा रहा, रावण की ठोकरें खाता रहा, अपमान के जहरीले पूंट पीता रहा, किन्तु ज्यों ही उसे स्वरूप का ज्ञान हुआ, त्यों ही नाग-पाश को तोड़कर मुक्त हो गया। प्रात्मा को भी जब तक अपनी विराट् चेतनाशक्ति का ज्ञान नहीं होता तब तक वह भी कर्मों को अपने से अधिक शक्तिमान् समझकर उनसे दबा रहता है, ज्ञान होने पर उनसे मुक्त हो जाता है । कर्म और उसका फल : ___ सांसारिक जीव जो विविध प्रकार के कर्मों का बन्धन करते हैं, उन्हें विपाक की दृष्टि से भारतीय चिन्तकों ने दो भागों में विभक्त किया है, शुभ और अशुभ, पुण्य और पाप अथवा कुशल, और अकुशल । इन दो भेदों का उल्लेख, जैन दर्शन,° बौद्ध दर्शन, सांख्य २६. कत्थवि बलिओ जीवो, कत्थवि कम्माइ हुन्ति बलियाई। जीवस्स य कम्मस्स य, पुब्बविरुद्धाइ वैराइ । -गणधरवाद २-२५ शुभः पुण्यस्य, अशुभ : पापस्य ---तत्त्वार्थ सूत्र ६।३-४ ३१. विशुद्धिमग्ग १७४८८ ३०. Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९ धर्म और दर्शन दर्शन २, योग दर्शन33, न्याय दर्शन, वैशेषिक दर्शन और उपनिषद् आदि में हुआ है। जिस कर्म के फल को प्राणी अनुकूल अनुभव करता है वह पुण्य है और प्रतिकूल अनुभव करता है वह पाप है । पुण्य के फल की सभी इच्छा करते हैं । किन्तु पाप के फल की कोई इच्छा नहीं करता । इच्छा न करने पर भी उसके विपाक से बचा नहीं जा सकता। ___ जीव ने जो कर्म बांधा है उसे इस जन्म में या आगामी जन्मों में भोगना ही पड़ता है ।३६ कृत-कर्मों का फल भोगे बिना प्रात्मा का छुटकारा नहीं हो सकता। महात्मा बुद्ध कहते हैं "चाहे अन्तरिक्ष में चले जानो, समुद्र में घुस जामो, गिरि कंदराओं में छिप जाओ। किन्तु ऐसा कोई प्रदेश नहीं, जहाँ तुम्हें पाप कर्मों का फल भोगना न पड़े।८ वेदपंथी कवि सिहलन मिश्र भी यही कहते हैं कि कहीं भी चले जाओ, परन्तु जन्मान्तर में जो शुभाशुभ कर्म किये हैं, उनके ३२. सांख्यकारिका ४४ ३३. योगसूत्र २।१४ . (ख) योगभाष्य २०१२ ३४. न्याय मंजरी पृ० ४७२ । (ख) प्रशस्तपाद पृ० ६३७।६४३ ३५. बहदारण्यक ३।२।१३ ३६. परलोककडा कम्मा इहलोए वेइज्जंति, इहलोककडा कम्मा इहलोए वेइज्जति । -भगवती सूत्र (ख) स्थानान सूत्र ७७ ३७. कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि ।। -उत्तराध्ययन ४॥३ ३८. न अन्तलिक्खे न समुद्दमझे, न पव्वतानं विवरं पविस्स । न विज्जती सो जगतिप्पदेशो, यत्थट्टितो मुञ्चेऽय्य पावकम्मा । -धम्मपद १२ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण ४६ फल तो छाया के समान साथ ही साथ रहेंगे । वे तुम्हें कदापि नहीं छोड़ेगे 13 आचार्य अमितगति का कथन है- " अपने पूर्वकृत कर्मों का ही शुभाशुभ फल हम भोगते हैं, यदि अन्य द्वारा दिया फल भोगें तो हमारे स्वकृत कर्म निरर्थक हो जायेंगे । ४० अध्यात्मशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित प्राचार्य कुन्दकुन्द का भी यही स्वर है - " जीव और कर्मपुद्गल परस्पर गाढ़ रूप में मिल जाते हैं, समय पर वे पृथक्-पृथक् भी हो जाते हैं । जब तक जीव और कर्म पुद्गल परस्पर मिले रहते हैं तब तक कर्म सुख-दुःख देता है और जीव को वह भोगना पड़ता है । ४१ महात्मा बुद्ध ने एक बार पैर में काँटा विंध जाने पर अपने शिष्यों से कहा - "भिक्षु ! इस जन्म से एकानवे जन्म पूर्व मेरी शक्ति (शस्त्र ३६. ४०. ४१. आकाशमुत्पततु गच्छतु वा दिगन्त - मम्भोनिधिं विशतु तिष्ठतु वा यथेष्टम् । जन्मान्तराजितशुभाशुभकृन्नराणां, छायेव न त्यजति कर्म फलानुबन्धि || स्वयं कृतं कर्म्म यदात्मना पुरा, परेण T फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा ॥ जीवा पुग्गलकाया अण्णा गाढगणपडिबद्धा | काले विजुज्जमाणा, सुहदुक्खं दिति भुंजन्ति ॥ 1 - शान्तिशतकम् ८२ - द्वात्रिंशिका, ३० - पञ्चास्तिकाय ६७ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन विशेष) से एक पुरुष की हत्या हुई थी। उसी कर्म के कारण मेरा पैर काँटे से विध गया है।"४२ भगवान् महावीर के जीवन प्रसंगों से भी यह बात स्पष्ट है कि उन्हें साधनाकाल में जो रोमांचकारी कष्ट सहने पड़े थे, उनका मूल कारण पूर्वकृत कर्म ही थे।४३ आत्मा स्वतन्त्र है या कर्म के अधीन ? पहले बताया जा चुका है कि जीव जैसा कर्म करता है वैसा ही उसका फल उसे प्राप्त होता है। शुभकर्म का फल शुभ होता है और अशुभकर्म का फल अशुभ होता है ।४४ कर्म की मुख्यतः दो अवस्थाएँ हैं-बंध (ग्रहण) और उदय (फल) । कर्म को बांधने में जीव स्वतन्त्र है, किन्तु उसके फल को भोगने में वह स्वतन्त्र नहीं है, कर्म के अधीन है। जिस प्रकार कोई व्यक्ति वृक्ष पर चढ़ता है वह चढ़ने में स्वतन्त्र है, अपनी इच्छानुसार चढ़ सकता है किन्तु असावधानीवश गिर जाय तो वह गिरने में स्वतन्त्र नहीं है।४५ वह इच्छा से गिरना नहीं चाहता तथापि गिर जाता है, अतः गिरने में परतन्त्र है। इसी प्रकार भंग पीने में स्वतन्त्र है, किन्तु उसका परिणाम भोगने में परतन्त्र है। उसकी इच्छा न होते हुए भी भंग अपना चमत्कार दिखलाएगी ही। उसकी इच्छा का फिर कोई मूल्य नहीं है। ४३. ही ४२. इत एकनवते कल्पे, शक्त्या में पुरुषो हतः ।' तेन कर्मविपाकेन, पादे विद्धोस्मि भिक्षवः ।। -षड्दर्शन समुच्चय, टीका देखिए : लेखक का 'महावीर जीवनदर्शन ग्रन्थ' ४४. सुच्चिण्णा कम्मा सुच्चिण्णफला भवंति, दुच्चिण्णा कम्मा दुच्चिण्णफला भवंति । - दशाश्रत स्कन्ध, ६ ४५. कम्मं चिणंति सवसा, तस्सुदयम्मि उ परवसा होन्ति । रुक्खं दुरुहइ सवसो, विगलस परवसो तत्तो ।। -विशेषावश्यक, भाष्य १-३ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण उक्त कथन का यह अर्थ नहीं कि बद्ध कर्मों के विपाक में आत्मा कुछ भी परिवर्तन नहीं कर सकता। जैसे भंग के नशे की विरोधी वस्तु के सेवन से भंग का नशा नहीं चढ़ता या नाम मात्र को चढ़ता है, उसी प्रकार प्रशस्त अध्यवसायों के द्वारा पूर्वबद्ध कर्म के विपाक को मन्द भी किया जा सकता है और नष्ट भी किया जा सकता है । उस अवस्था में कर्म, प्रदेशों से उदित होकर ही निर्जीर्ण होजाते हैं । उसकी कालिक मर्यादा ( स्थितिकाल ) को कम करके शीघ्र उदय में भी लाया जा सकता है। नियतकाल से पूर्व कर्मों को उदय में ले आना 'उदीरणा' कहलाता है। 'पांतजलयोग' भाष्य में भी अदृष्ट-जन्य वेदनीय कर्म की तीन गतियाँ निरूपित की हैं। उनमें से एक गति यह है-"कई कर्म बिना फल दिये ही प्रायश्चित्त आदि के द्वारा नष्ट हो जाते हैं।" इसे जैन पारिभाषिक शब्दों में प्रदेशोदय कहा है। कर्म की पौद्गलिकता : अन्य दर्शनकारों ने जहाँ कर्म को संस्कार और वासनारूप माना है, वहाँ जैनदर्शन उसे पौद्गलिक मानता है। कर्म आत्मा का गुण नहीं है, किन्तु वह आत्मगुणों का विघातक है। परतंत्र बनाने वाला और दुःखों का कारण है। यह तथ्य है, "जिस वस्तु का जो गुण है वह उसका विघातक नहीं होता । कर्म आत्मा का विधातक है अतः आत्मा का गुण नहीं हो सकता । कर्म पौद्गलिक न होता तो वह आत्मा की पराधीनता का कारण नहीं हो सकता था। ___ जैनदर्शन की दृष्टि से द्रव्य कर्म पौद्गलिक है। पुद्गल मूर्त ही होता है। उसमें रूप, रस, गंध और स्पर्श-ये चार गुण होते हैं। जिसका कारण पौद्गलिक होता है उसका कार्य भी पौद्गलिक होता है । जैसे कपास भौतिक है, तो उससे बनने वाला वस्त्र भी भौतिक ही होगा । जैसे कार्य से कारण का अनुमान किया जाता है वैसे ही कारण से भी कार्य का अनुमान किया जा सकता है। शरीर आदि कार्य Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन पौद्गलिक और मूर्त है, अतः उसका कारण कर्म भी पौद्गलिक और मूर्त ही होना चाहिए।४६ मूर्त का अमूर्त पर प्रभाव : __ प्रश्न है--कर्म मूर्त है तो उसका प्रभाव अमूर्त प्रात्मा पर कैसे होता है ? उत्तर है -जैसे मदिरा और क्लोरोफार्म का प्रभाव अमूर्त चेतना आदि गुणों पर प्रत्यक्ष देखा जाता है, वैसे ही अमूर्त प्रात्मा पर मूर्तं कर्म का प्राव पड़ता है।४७ उक्त प्रश्न का दूसरा समाधान यह है कि अनन्तकाल से आत्मा कर्म से सम्बद्ध होने के कारण स्वभावतः अमूर्त होते हुए भी संसारी अवस्था में मूर्त है ।४८ इस कारण भी वह कर्म से प्रभावित होता है।४९ जो प्रात्मा कर्ममुक्त हैं, उन्हें कर्म का बन्धन नहीं होता, पूर्व कर्म से बंधा हुआ जीव ही नए कर्मों का बंधन करता है ।५० गौतम--भगवन् ! दुःखी जीव दुःख से स्पृष्ट होता है या अदुःखी दुःख से स्पृष्ट होता है ?५१ ४६. मुत्तो फासदि मुत्त, मुत्तो मुत्तेण बंधमरणुहवदि, जीवो मुत्तिविरहिदो, गाहदि ते तेहिं उग्गहदि । -पंचास्तिकाय १३४ ४७. मुतणामुत्तिमओ उवघाया-ऽणुग्गहा कहं होज्जा ? जह विण्णाणाईणं मइरापाणो-सहाईहिं । -विशेषावश्यक, भाष्य गा० १६३७ ४८. अहवा नेगंतोऽयं संसारी सव्वहा अमुत्तोत्ति । जमणाइकम्मसंतइपरिणामावन्नरूवो सो॥ -विशेषावश्यक, भाष्य गा० १६३८ ४६. वण्ण रस पंच गन्धा, दो फासा अट्ट णिच्छिया जीवे । ___णो संति अमुत्ति तदो ववहारा मुत्ति बंधादो । --द्रव्यसंग्रह ५०. समिय दुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव आवट्ट अणुपरियट्टइ । --आचारांग २।६।१०५ ५१. दुःखनिमित्तत्वाद् दुःखं कर्म, तद्वान् जीवो दुःखी । -भगवती, टोका ७।१।२३६ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण महावीर-गौतम ! दुःखी जीव दुःख से स्पृष्ट होता है, अदुःखी दुःख से स्पृष्ट नहीं होता है। दुःख का स्पर्श, पर्यादान (ग्रहण), उदीरणा, वेदना, और निर्जरा दुःखी जीव करता है, अदुःखी नहीं ।१२ गौतम-भगवन् ! कर्म कौन बांधता है-संयत, असंयत, अथवा संयतासंयत ? महावीर-असंयत, संयतासंयत और संयत ये सभी कर्म बाँधते हैं । तात्पर्य यह है कि जो सकर्म आत्मा हैं वे ही कर्म बांधती हैं, उन्हीं पर कर्म का प्रभाव होता है। कर्म बंध के कारण : जीव के साथ कर्म का अनादि सम्बन्ध है किन्तु कर्म किन कारणों से बंधते हैं, यह एक सहज जिज्ञासा है। गौतम ने प्रश्न कियाभगवन् ! जीव कर्म बन्ध कैसे करता है ? भगवान् ने उत्तर दिया-गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म के तीव्र उदय से, दर्शनावरणीय कर्म का तीव्र उदय होता है । दर्शनावरणीय कर्म के तीव्र उदय से दर्शनमोह का उदय होता है। दर्शनमोह के तीव्र उदय से मिथ्यात्व का उदय होता है और मिथ्यात्व के उदय से जीव आठ प्रकार के कर्मों को बाँधता है ।५४ स्थानाङ्ग५५ समवायांग५६ में तथा उमास्वाति ने कर्मबंध के ५२. भगवती ७।१।२६६ ५३. भगवती ६।३ ५४. भंते ! जीवे अट्ट कम्मपगडीओ बंधति ? गोयमा ! णाणावरणिज्जस्म कम्मस्स उदएणं दरिसणावरणिज्ज कम्म नियच्छति, दरिसणावरणिस्स कम्मस्त उदएणं दंसणमोहणिज्जं कम्म णिगच्छइ, दंसणमोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं मिच्छत्त णिगच्छइ, मिच्छत्तणं उदिण्णेणं एवं खलु जीवे अट्टकम्मपगडोओ बंबइ।। प्रज्ञापना २३११।२८६ ५५. पंच आसवदारा पण्णत्ता,-समवायांग, समवाय ५ । ५६. स्थानाङ्ग ४१८ । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन पाँच करण बताये हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, और योग ।५० संक्षेप दृष्टि से कर्म बंध के दो कारण हैं-- कषाय और योग । कर्मबन्ध के चार भेद हैं-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश ।५९ इनमें प्रकृति और प्रदेश का बंध योग से होता है। स्थिति व अनुभाग का बंध कषाय से होता है ।६० संक्षेप में कहा जाय तो कषाय ही कर्म बंध का मुख्य हेतू है ।६१ कषाय के अभाव में समपरायिक कर्म का बंध नहीं होता। दसवें गुणस्थान तक दोनों कारण रहते हैं अतः वहाँ तक साम्परायिक बंध होता है । कषाय और योग से होने वाला बंध साम्परायिक बन्ध कहलाता है । और गमनागमन आदि क्रियाओं से जो कर्म बंध होता है वह ईर्यापथिक बंध कहलाता है ।६२ ईर्यापथ कर्म की स्थिति उत्तराध्ययन६३ प्रज्ञापना६४ में दो समय की मानी है और ५७. मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः । -तत्त्वार्थ सूत्र ८१ ५८. जोगबंधे, कसायबंधे । -समवायाङ्ग ५६. प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशास्तद्विधयः । -तत्त्वार्थ सूत्र ८४ ६०. जोगा पयडिपएसं ठिइअणुभागं कसायओ कुणइ । -पंचम कर्मग्रन्थ गा० ६६ जीवाणं चउहि ठाणेहि अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिसु तं० कोहेणं, माणेणं, मायाए, लोभेणं । -स्थानांग, ४ स्थान ६१. सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्त । __ -तत्त्वार्थ सूत्र ८।२ ६२. सकषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः ।। -तत्त्वार्थ० ६५ ६३. जाव सजोगी भवइ, ताव ईरियावहियं कम्मं निबन्धइ सुहफरिसं दुसमयठिइयं । तं पढमसमए बद्ध, बिइयसमये वेइयं, तइयसमये निज्जिण्ण। -उत्तरा०प्र० २६ प्र०७१ ६४. सातावेदणिज्जस्स इरियावहियबंधगं पडुच्च अजहण्णमणुक्कोसेणं दो समया। -प्रज्ञापना २३।१३ पृ० १३७ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण ५५ पं० सुखलाल जी ने६५ सिर्फ एक समय की मानी है। योग होने पर भी अगर कषायाभाव हो तो उपार्जित कर्म की स्थिति या रस का बंध नहीं होता। स्थिति और रस दोनों का बंध का कारण कषाय ही है। विस्तार से कषाय के चार भेद हैं--क्रोध, मान, माया और लोभ ।६६ स्थानाङ्ग और प्रज्ञापना में कर्म बंध के ये चार कारण बताये हैं। संक्षेप में कषाय के दो भेद हैं राग और द्वेष । राग और द्वष इन दोनों में भी उन चारों का समन्वय हो जाता है। राग में माया और लोभ, तथा द्वष में क्रोध और मान का समावेश होता है। राग और ६५. तत्त्वार्थ सूत्र-पं० सुखलाल जो पृ० २१७ ६६. कोहं च मारणं च तहेव मायं, लोभं चउत्थं अज्झत्थ-दोसा । -सूत्रकृताङ्ग, सूत्र ६।२६ (ख) स्थानाङ्ग ४।१।२५१ (ग) प्रज्ञापना २३।१।२६० ६७. रागो य दोसो वि य कम्मबीयं । -उत्तरा० ३२७ ६८. दोहिं ठाणेहि पापकम्मा बंधति""रागेण य दोसेण य । रागे दविहे पण्णत्त ।"माया य लोभे य । दोसे दुविहे.""कोहे य मारणे य। -स्थानाङ्ग सूत्र २६३ (ख) जीवेणं भंते, णाणावरणिज्जं कम्मं कतिहि ठाणेहि बंधति ? गोयमा ! दोहिं ठाणेहि, तंजहा-रागेण य दोसेण य । रागे विहे पण्णत्त तं जहा-माया य लोभे य । दोसे दुविहे पण्णत्त तं जहा-कोहे य माणे य। -प्रज्ञापना, २३ (ग) परिणमदि जदा अप्पा, सुहम्मि असुहम्मि रागदोसजुदो । तं पविसदि कम्मरयं, णाणावरणादिभावेहि ।। -प्रवचनसार, गा० ६५ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन द्वेष के द्वारा ही अष्टविध कर्मों का बंधन होता है । अतः राग द्वेष को ही भाव कर्म माना है। राग-द्वेष का मूल मोह ही है।। ___आचार्य हरिभद्र ने लिखा है--जिस मनुष्य के शरीर पर तेल चुपड़ा हया हो, उसका शरीर उड़ने वाली धूल से लिप्त हो जाता है, वैसे ही राग द्वष के भाव से पाक्लिन्न हुए आत्मा पर कर्म रज का बंध हो जाता है । यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि मिथ्यात्व को जो कर्मबन्धन का कारण कहा है, उसमें भी राग द्वष ही प्रमुख हैं। राग-द्वेष की तीव्रता से ही ज्ञान विपरीत होता है । इसके अतिरिक्त जहाँ मिथ्यात्व होता है वहाँ अन्य कारण स्वतः होते हैं । अतः शब्द भेद होने पर भी सभी का सार एक है। केवल संक्षेप-विस्तार के विवक्षाभेद से उक्त कथनों में भेद समझना चाहिए। जैन दर्शन की तरह बौद्धदर्शन ने भी कर्मबंधन का कारण मिथ्याज्ञान अथवा मोह माना है । २ न्याय दर्शन का भी यही मन्तव्य है कि मिथ्याज्ञान ही मोह है, प्रस्तुत मोह केवल तत्त्वज्ञान की अनुत्पत्ति रूप नहीं है, किन्तु शरीर, इन्द्रिय, मन, वेदना, बुद्धि ये ७१. ६९. बद्ध यतेऽष्टविधेन कर्मणा येन हेतुभूतेन तद् बन्धनम् । -प्रतिक्रमण सूत्रवृत्ति, प्राचार्य नमि ७०. उत्तराध्ययन ३२१७ (ख) स्थानाङ्ग २१२ (ग) समयसार ६४१६६।१०९।१७७ (घ) प्रवचनसार ११८४८८ स्नेहाभ्यक्तशरीरस्य, - रेणुना श्लिष्यते यथा गात्रम् । राग-द्वषाक्लिनस्य, कर्म-बंधो भवत्येवम् ॥ -आवश्यक टीका ७२. सुत्तनिपात, ३।१२।३३ (ख) विसुद्धिमग्ग, १७।३०२ (ग) मज्झिम निकाय, महातण्हासंखयसुत्त, ३८ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण अनात्मा होने पर भी इनमें "मैं ही हूँ" ऐसा ज्ञान मिथ्याज्ञान और मोह है। यही कर्म बन्धन का कारण है।७३ वैशेषिक दर्शन भी प्रकृत कथन का समर्थन करता है। सांख्यदर्शन भी बंध का कारण विपर्यास मानता है७५ और विपर्यास ही मिथ्याज्ञान है! योगदर्शन क्लेश को बंध का कारण मानता है और क्लेश का कारण अविद्या है। उपनिषद् भगवद्गीता, और ब्रह्म सूत्र में भी अविद्या को ही बंध का कारण माना है। ७३. न्यायभाष्य ४।२।१ (ख) दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः । -न्यायसूत्र १११।२ (ग) तत्त्रैराश्यं रागद्वषमोहान्तर्भावात् । -न्यायसूत्र४।१।३ (घ) तेषां मोहः पापीयानामूढस्येतरोत्पत्तः । -न्यायसूत्र ४।१६ ७४. प्रशस्तपाद पृ० ५३८ विपर्ययनिरूपण ।। (ख) प्रशस्तपाद भाष्य, संसारापवर्ग प्रकरण । ७५. सांख्यकारिका-४४-४७-४८ ७६. ज्ञानस्य विपर्ययोऽज्ञानम् । -माठर वृत्ति ४४ ७७. अविद्यास्मितारागद्वषाभिनिवेशाः पञ्च क्लेशाः । अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम् ॥ -योगदर्शन २।३।४ अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वयं धीराः पण्डितंमन्यमानाः। दन्द्रम्यमाणाः परियन्ति मूढा, अन्धेनैव नीयमाना यथाऽन्धाः ॥ -कठोपनिषद् १।२।५ ७६: अज्ञानेनावृतं ज्ञानं, तेन मुह्यन्ति जन्तवः, ज्ञानेन तु तदज्ञानं, येषां नाशितमात्मनः । xxx तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥ -भगवद्गीता ॥१५६ ७८. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन इस प्रकार जैन दर्शन और अन्य दर्शनों में कर्म बंध के कारणों में शब्दभेद और प्रक्रियाभेद होने पर भी मूल भावनाम्रों में खास भेद नहीं है । ईश्वर और कर्मवाद : ५८ जैन दर्शन का यह स्पष्ट मन्तव्य है कि जीव जैसा कर्म करता है वैसा ही उसे फल प्राप्त होता है ।" न्यायदर्शन " की तरह वह कर्म फल का नियन्ता ईश्वर को नहीं मानता । कर्म फल का नियमन करने के लिए ईश्वर की आवश्यकता नहीं है । कर्म परमाणुत्रों में जीवात्मा के सम्बन्ध से एक विशिष्ट परिणाम समुत्पन्न होता है । जिससे वह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव, गति, स्थिति प्रभृति उदय के अनुकूल सामग्री से विपाक - प्रदर्शन में समर्थ होकर आत्मा के संस्कारों को मलिन करता है । उससे उनका फलोपभोग होता है। पीयूष और विष, पथ्य और पथ्य भोजन में कुछ भी ज्ञान नहीं होता, तथापि श्रात्मा का संयोग पाकर वे अपनी अपनी प्रकृति के अनुकूल विपाक उत्पन्न करते हैं। वह बिना किसी प्रेरणा अथवा बिना ज्ञान के अपना कार्य करते ही हैं | अपना प्रभाव डालते ही हैं । कालोदायी अनगार ने भगवान् श्री महावीर से प्रश्न कियाभगवन् ! क्या जीवों के किये गये पाप कर्मों का परिपाक पापकारी होता है ८०. ८१. ८२. ८३. ८४. ८५. अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । ईश्वरः कारणं पुरुषकर्माफलस्य दर्शनात् । (ख) तत्कारित्वादहेतुः । प्रज्ञापना पृष्ठ २३ भगवती ७।१० - उत्तरा० २०|३७ भगवती ७-१० । दव्वं खेत्तं, कालो, भवो य भावो य हेयवो पंच । हेतुसमासेदओ जायइ सव्वाण पगईणं ॥ -न्याय दर्शन, सूत्र ४।१ - गौतमसूत्र, श्र० ४ ० १ सू० २१ - पंचसंग्रह Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण ५8 भगवान् ने उत्तर दिया-कालोदायी, हाँ, होता है। कालोदायी ने पुनः जिज्ञासा व्यक्त की-भगवन् ! किस प्रकार होता है ? भगवान् ने रूपक की भाषा में समाधान करते हए कहा-- कालोदायी ! जिस प्रकार कोई पुरुष मनोज, सम्यक् प्रकार से पका हुप्रा शुद्ध, अष्टादश व्यंजनों से परिपूर्ण विषयुक्त भोजन करता है। वह भोजन आपातभद्र-खाते समय-अच्छा होता है, किन्तु ज्यों-ज्यों उसका परिणमन होता है त्यों-त्यों उसमें विकृति उत्पन्न होती है, वह परिणामभद्र नहीं होता। इसी प्रकार प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन शल्य (अठारह प्रकार के पाप कर्म) आपातभद्र और परिणामअभद्र होते हैं। कालोदायी, इसी प्रकार पाप कर्म पापविपाक वाले होते हैं।८६ कालोदायी ने निवेदन किया-भगवन् । क्या जीवों के किये हुए कल्याण-कर्मों का परिपाक कल्याणकारी होता है ? भगवान् ने कहा-हाँ, होता है। कालोदायी ने पुनः तर्क किया-भगवन् ! कैसे होता है ? भगवान ने कहा-कालोदयी ! प्राणातिपातविरति यावत् मिथ्या दर्शनशल्य विरति आपातभद्र प्रतीत नहीं होती, पर परिणामभद्र होती है । इसी प्रकार हे कालोदायी ! कल्याणकर्म भी कल्याणविपाक वाले होते हैं। १६. अत्थि णं भन्ते ! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कज्जन्ति ? हन्ता, अत्थि । कहं णं भंते ! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कज्जति ?........कालोदाई ! जीवाणं पाणाइवाए जाव मिच्छादसणसल्ले तस्स णं आवाए भद्दए भवइ तो पच्छा विपरिणममाणे विपरिणममाणे दुरूवत्ताए जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति । एवं खलु कालोदाई ! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कज्जति । -भगवती ७।१० ८७, अत्थि णं भंते ! जीवाणं कल्लाणा कम्मा कल्लाणफलविवागसंजुत्ता कज्जन्ति ? Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन जैसे गणित करनेवाली मशीन जड़ होने पर भी अंक गिनने में भूल नहीं करती, वैसे हो कर्म भी जड़ होने पर भो फल देने में भूल नहीं करता, उसके लिए ईश्वर को नियन्ता मानने की आवश्यकता नहीं है । आखिर ईश्वर वही फल प्रदान करेगा जैसे जीव के होंगे । कर्म के विप रीत वह कुछ भी देने में समर्थ नहीं होगा । इस प्रकार एक ओर ईश्वर को सर्वशक्तिमान् मानना और दूसरी ओर उसे प्रणुमात्र भी परिवर्तन का अधिकार न देना, वस्तुतः ईश्वर का उपहास है । इससे यह भी सिद्ध है कि कर्म की शक्ति ईश्वर से भी अधिक है और ईश्वर भी उसके अधीन ही कार्य करता है । दूसरी दृष्टि से कर्म में भी कुछ करने धरने की शक्ति नहीं माननी होगी, क्योंकि वह ईश्वर के सहारे से ही अपना फल दे सकता है । इस प्रकार दोनों एक दूसरे के अधीन हो जाएँगे । इससे तो यही श्रेष्ठ है कि स्वयं कर्म को ही अपना फल देने वाला स्वीकार किया जाय। इससे ईश्वर का ईश्वरत्व भी अक्षुण्ण रहेगा और कर्म - वाद के सिद्धान्त में भी किसी प्रकार की बाधा समुपस्थित नहीं होगी। जैन संस्कृति की चिन्तनधारा भी प्रस्तुत कथन का ही समर्थन करती है । ६० कर्म का संविभाग नहीं: वैदिक दर्शन का यह मन्तव्य है कि आत्मा सर्वशक्तिमान् ईश्वर के हाथ की कठपुतली है । उसमें स्वयं कुछ भी कार्य करने की क्षमता नहीं है । स्वर्ग और नरक में भेजने वाला, सुख और दुःख को देने हंता ! अस्थि ! कहं णं भंते ! जीधारणं कल्लाणा कम्मा जाव कज्जन्ति ?.... कालोदाई ! जीवाणं पाणा इवायवेरमणे जाव परिग्गहवेरमरणे, कोहविवेगे जाव मिच्छादंसणसल्ल विवेगे तस्स गं आवाए नो भद्दए भवइ, तओ पच्छा परिणममाणे सुरूवत्ताए जाव नो दुखत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमइ । एवं खलु कालोदाई ! जीवाणं कल्लाणा कम्मा जाव कज्जति । -भगवती ७।१० Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण वाला ईश्वर है। ईश्वर की प्रेरणा से ही जीव स्वर्ग और नरक में जाता है।८ जैन दर्शन के कर्म सिद्धान्त ने प्रस्तुत कथन का खण्डन करते हुए कहा कि-ईश्वर किसी का उत्थान और पतन करने वाला नहीं है। वह तो वीतराग है । प्रात्मा ही अपना उत्थान और पतन करता है । जब आत्मा स्वभाव दशा में रमरण करता है तब उत्थान करता है और जब विभाव दशा में रमण करता है तब उसका पतन होता है। विभाव दशा में रमरण करने वाला आत्मा ही वेतरणी नदी और कूटशाल्मली वृक्ष है, और स्वभावदशा में रमण करने वाला आत्मा कामधेनु और नन्दनवन है। यह आत्मा सुख और दुःख का कर्ता, भोक्ता स्वयं ही है । शभ मार्ग पर चलने वाला प्रात्मा मित्र है, और अशुभ मार्ग पर चलने वाला प्रात्मा शत्रु है । __ जैन दर्शन का यह स्पष्ट उद्घोष है कि जो भी सुख और दुःख प्राप्त हो रहा है उसका निर्माता आत्मा स्वयं ही है । जैसा आत्मा कर्म करेगा वैसा ही उसे फल भोगना पड़ेगा।९१ वैदिकदर्शन और बौद्ध ८८. अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुख-दुखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्, स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ।। - महाभारत, वनपर्व प्र० ३० श्लो. २८, ८६. अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली। अप्पा कामदुहा धेनू, अप्पा मे नंदणं वणं ।। -उत्तराध्ययन २०१३६ ६०. अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्त च, दुप्पट्ठिअ सुपट्ठिओ ॥ -उत्तराध्ययन २०१३७ ६१. संसारमावन्न परस्स अट्टा, साहारणं जं च करेइ कम्मं । कम्मस्स ते तस्स उ वेयकाले, ण बंधवा बंधवयं उति ।। -उत्तराध्ययन ४।४ माया पिया एहसा भाता, भज्जा पुत्ता य ओरसा । नालं ते मम ताणाय, लुप्पंतस्स सकम्मणा ॥ --उत्तराध्ययन ६।३ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन दर्शन की तरह वह कर्म फल के संविभाग में विश्वास नहीं करता। विश्वास ही नहीं, किन्तु उस विचारधारा का खण्डन भी करता है।९२ एक व्यक्ति का कर्म दूसरे व्यक्ति में विभक्त नहीं किया जा सकता। यदि विभाग को स्वीकार किया जायेगा तो पुरुषार्थ और साधना का मूल्य ही क्या है ? पाप पुण्य करेगा कोई और, भोगेगा कोई और। अतः यह सिद्धान्त युक्ति-युक्त नहीं है । कर्म का कार्य : कर्म का मुख्य कार्य है-आत्मा को संसार में प्राबद्ध रखना। जब तक कर्मबंध की परम्परा का प्रवाह प्रवहमान रहता है, तब तक आत्मा मुक्त नहीं बन सकता। यह कर्म का सामान्य कार्य है। विशेष रूप से देखा जाय तो भिन्न भिन्न कर्मों के भिन्न भिन्न कार्य हैं; जितने कर्म हैं उतने ही कार्य हैं । जैन कर्मशास्त्र की दृष्टि से कर्म की आठ मूल प्रकृतियाँ हैं, जो प्राणी को विभिन्न प्रकार के अनुकूल एवं प्रतिकूल फल प्रदान करती हैं। उनके नाम ये हैं-(१) ज्ञानावरण (ख) ११ ६२. आत्ममीमांसा पं० दलसुख मालवणिया पृ० १३१ (ख) श्री अमर भारती, भारतीय दर्शनों में कर्मविवेचन । -उपाध्याय अमरमुनि ६३. मिलिन्द प्रश्न ४।८।३०-३५ पृ० २८८ (ख) कथावत्थु ७।६।३ । पृ० ३४८ १४. स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं । स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा ॥ निजाजितं कर्म विहाय देहिनो, न कोऽपि कस्यापि ददाति किञ्चन । विचारयन्नेवमनन्य - मानसः परो ददातीति विमुञ्च शेमुषीम् ।। -द्वात्रिंशिका, प्राचार्य अमितगति ३०-३१ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण (२) दर्शनावरण (३) वेदनीय (४) मोहनीय (५) प्रायु (६) नाम (७) गोत्र (८) और अन्तराय । ५ ___ इन आठ कर्म-प्रकृतियों के भी दो अवान्तर भेद हैं। इनमें चार घाती हैं, और चार अघाती हैं । ज्ञानावरण (२) दर्शनावरण (३) मोहनीय (४) अन्तराय ये चार धाती हैं ।१६ (१) वेदनीय (२) आयु (३) नाम और (४)गोत्र ये अघाती हैं। जो कर्म आत्मा से बंधकर उसके स्वरूप का या उसके स्वाभाविक गुणों का घात करते हैं वे घाती कर्म हैं। इन की अनुभाग-शक्ति का ६५. नाणस्सावरणिज्जं, दंसणावरणं तहा । वेयणिज्जं तहा मोह, आउकम्मं तहेव य ॥ नामकम्मं च गोयं च, अन्तरायं तहेव य । एवमेयाइ कम्माइ, अट्ठव उ समासओ। -उत्तराध्ययन ३३१२-३ (ख) स्थानाङ्ग ८।३।५६६ (ग) प्रज्ञापना २३।१ (घ) भगवती शतक ६, उद्द० ६ पृ० ४५३ (ङ) तत्त्वार्थ सूत्र ८०५ (च) प्रथम कर्मग्रन्थ गा० ३ (छ) पंचसंग्रह २-२ ६६. तत्र घातीनि चत्वारि, कर्माण्यन्वर्थसंज्ञया । घातकत्वाद् गुणानां हि जीवस्यैवेति वाक्स्मृतिः ॥ --पंचाध्यायी २१९९८ (ख) आवरणमोहविग्धं, घादी जीवगुणधादणत्तादो। -गोमटसार-कर्मकाण्ड : ६७. ततः शेषचतुष्कं स्यात्, कर्माघातिविवक्षया । गुणानां घातकाभावशक्तिरप्यात्मशक्तिवत् । -पंचाध्यायी RAREE (ख) आउगणामं गोदं, वेयणियं तह अघादित्ति । -गोमटसार-कर्मकाण्ड : Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૪ धर्म और दर्शन सीधा असर श्रात्मा के ज्ञान प्रादि गुणों पर होता है । इनसे गुरण विकाश अवरुद्ध होता है, जैसे बादल सहस्ररश्मि सूर्य के चमचमाते प्रकाश को आच्छादित कर देता है, उसकी रश्मियों को बाहर नहीं आने देता, वैसे ही घात कर्म आत्मा के मुख्य गुण ( १ ) अनन्त ज्ञान (२) अनन्त दर्शन (३) अनन्त सुख ( ४ ) और अनन्त वीर्य गुणों को प्रकट नहीं होने देता । ज्ञानावरणीय कर्म जीव की अनन्त ज्ञान शक्ति को प्रकट नहीं होने देता । दर्शनावरणीय कर्म आत्मा के अनन्त दर्शन शक्ति के प्रादुर्भाव को रोकता है। मोहनीय कर्म ग्रात्मा के सम्यक् श्रद्धा, और सम्यक् चारित्र गुण का अवरोध करता है, जिससे आत्मा को अनन्त सुख प्राप्त नहीं होता । अन्तराय कर्म श्रात्मा की अनन्त वीर्यशक्ति आदि का प्रतिघात करता है, जिससे प्रात्मा अपनी अनन्त विराट् शक्ति का विकास नहीं कर पाता। इस प्रकार घातकर्म आत्मा के विभिन्न गुणों का घात करते हैं । जो कर्म आत्मा के निज गुण का घात नहीं कर केवल आत्मा के प्रतिजीवी गुणों का घात करता है, वह प्रघाती कर्म है । प्रघाती कर्मों का सीधा सम्बन्ध पौद्गलिक द्रव्यों से होता है, इनकी अनुभाग- शक्ति जीव के गुणों पर सीधा असर नहीं करती । अघाती कर्मों के उदय से आत्मा का पौगलिक द्रव्यों से सम्बन्ध जुड़ता है । जिससे आत्मा "अमूर्तोऽपि मूर्त इव" रहती है । उसे शरीर के कारागृह में बद्ध रहना पड़ता है । जो जीव के गुण ( १ ) अव्याबाध सुख ( २ ) अटल अवगाहन (३) मूर्तिकत्व और ( ४ ) प्रगुरुलघुभाव को प्रकट नहीं होने देता । वेदनीयकर्म आत्मा के अन्याबाध सुख को प्राच्छन्न करता है । आयुष्य कर्म ग्रात्मा की अटल अवगाहना - शाश्वत स्थिरता को नहीं होने देता । नाम कर्म आत्मा की प्ररूपी अवस्था को प्रावृत किये रहता है । गोत्र कर्म आत्मा के अगुरुलघुभाव को रोकता है । इस प्रकार अघाती कर्म अपना प्रभाव दिखाते हैं । जब घाति कर्म नष्ट हो जाते हैं, तब श्रात्मा केवलज्ञान, केवलदर्शन का धारक अरिहन्त बन जाता है ।" और जब अघाती कर्म नष्ट हो जाते हैं, तब विदेह, सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाता है । ६८. मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तराय - क्षयाच्च केवलम् । - तत्त्वार्थ १०/१ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण ज्ञानावरण कर्म जीव चैतन्यमय है। उपयोग उसका लक्षण है ।१९ उपयोग शब्द ज्ञान और दर्शन का संग्राहक है। ज्ञान साकारोपयोग है और दर्शन निराकारोपयोग ।।०१ जिससे जाति, गुण, क्रिया आदि विशेष धर्मों का बोध होता है वह ज्ञानोपयोग है और जिससे सामान्य धर्म अर्थात् सत्ता मात्र का बोध होता है वह दर्शनोपयोग है।०२ जिस कर्म के प्रभाव से ज्ञानोपयोग आच्छादित रहता है वह ज्ञानावरण कर्म है। आत्मा के ज्योतिर्मय स्वभाव को आवत करने वाले इस कर्म की तुलना कपड़े की पट्टी से की गई है। जैसे नेत्रों पर कपडे की पटटी लगा देने से नेत्र-ज्ञान अवरुद्ध हो जाता है वैसे हो ज्ञानावरण कर्म के प्रभाव से प्रात्मा की समस्त पदार्थों को सम्यक्तया जानने की ज्ञानशक्ति पाच्छादित हो जाती है । ०3 ६६. जीवो उवओग लक्षणो। -उत्तरा० २८।१० १००. जीवो उवओगमओ, उवोगो णाणदंसणो होई । -नियमसार, १० १०१. स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः । -तत्त्वार्य० २६ (ख) तत्त्वार्थ सूत्र भाष्य राक्ष १०२. प्रमाणनयतत्त्वालोक २७ १०३. एसि जं आवरणं पडुव्व चक्खुस्स तं तयावरणं । -प्रथम कर्मग्रन्थ, ६ (ख) पडपडिहारसिमिज्जाहलिचित्तकुलालभंडयारीणं, जह एदेसि भावा तहवि य कम्मा मुणेयव्वा । -गोमटसार (कर्मकाण्ड) २१ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ धर्म और दर्शन ज्ञानावरण कर्म की पाँच उत्तर प्रकृतियाँ हैं - (१) मतिज्ञानावरण (२) श्रुतज्ञानावरण ( ३ ) अवधि ज्ञानावरण ज्ञानावरण (५) केवल ज्ञानावरण । १०४ (४) मनःपर्याय मतिज्ञानावरण कर्म इन्द्रियों व मन से होने वाले ज्ञान का निरोध करता है । श्रुतज्ञानावरण कर्म शब्द और अर्थ की पर्यालोचना से होने वाले ज्ञान को प्राच्छादित करता है । अवधिज्ञानावरण कर्म इन्द्रिय और मन की सहायता के विना होने वाले रूपी पदार्थों के मर्यादित प्रत्यक्ष ज्ञान को अवरुद्ध करता है । मनः पर्यायज्ञानावरण कर्म इन्द्रिय तथा मन की सहायता के बिना संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को जानने वाले ज्ञान को ग्राच्छादित करता है । केवल ज्ञानावरण कर्म, सर्व द्रव्यों और पर्यायों को युगपत् प्रत्यक्ष जानने वाले ज्ञान को प्रावृत करता है । ज्ञानावरण कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ सर्व घाती और देश घाती रूप से दो प्रकार की हैं । १०५ जो प्रकृति स्वघात्य ज्ञान गुण का पूर्णतया घात करे वह सर्वघाती है और जो स्वघात्य ज्ञान गुण का आंशिक रूप से घात करे वह देशघाती है । मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनः पर्याय ज्ञानावरण ये चार (ग) सरउग्गयस सिनिम्मलयरस्स जीवस्स छायरणं जमिहं । णाणावरणं कम्मं पडोवमं होइ एवं तु ॥ - स्थानांग, २।४।१०५ टीका में उद्धृत १०४. नाणावरणं पंचविहं, सुयं आभिणिबोहियं । ओहिनाणं च तइयं मणनाणं च केवलं । ( ख ) प्रज्ञापना २३|२ (ग) स्थानाङ्ग ५।४६४ (घ) तत्त्वार्थ० ८।६–७ - उत्तराध्ययन० ३३।४ १०५. णाणावरणिज्जे कम्मे दुविहे पं० तं० – देसनाणावर णिज्जे चेव सव्वणाणावर णिज्जे चेव । - स्थानाङ्ग सूत्र २०४।१०५ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण देशघाती हैं और केवल ज्ञानावरण सर्वघाती है। सर्वघाती कहने का तात्पर्य प्रबलतम आवरण की अपेक्षा से है । केवल ज्ञानावरणीय कर्म सर्वघाती होने पर भी आत्मा के ज्ञान गुण को सर्वथा आवृत नहीं करता, परन्तु केवल ज्ञान का सर्वथा निरोध करता है। निगोदस्थ जीवों में उत्कट ज्ञानावरणीय कर्म का उदय रहता है। जैसे घनघोर घटायों से सूर्य के पूर्णतः आच्छादित होने पर भी उसकी प्रभा का कुछ अंश अनावृत रहता है जिससे दिन और रात का विभाग प्रतीत होता है, वैसे ही ज्ञान का अनन्तवां भाग नित्य अनावृत रहता है । १०६ जैसे घनघोर घटानों को विदीर्ण कर सूर्य की प्रभा भूमण्डल पर आती है, पर सभी मकानों पर उसकी प्रभा एक सदृश नहीं गिरती, मकानों की बनावट के अनुसार मन्द और मन्दतर और मन्दतम गिरती है, वैसे ही ज्ञान की प्रभा मतिज्ञानावरण आदि के उदय के तारतम्य के अनुसार मन्द, मन्दतर और मन्दतम होती है। ज्ञान, पूर्णरूप से तिरोहित कभी नहीं होता। यदि ऐसा हो जाय तो जीव अजीव हो जाए। ___इस कर्म की स्थिति अधिकतम तीस कोटा-कोटि गागरोपम और न्यूनतम अन्तमुहूर्त की है ।१०७ १०६. (क) देशः---ज्ञानस्याऽऽभिनिबोधिकादिमावृणोतीति देशज्ञानावरणीयम्, सर्व ज्ञानं-केवलाख्यमावृणोतीति सर्वज्ञानावरणीयं, केवलावरणं हि आदित्यकल्पस्य केवलज्ञानरूपस्य । जीवस्याच्छादकतया सान्द्रमेघवृन्दकल्पमिति तत्सर्वज्ञानावरणं । मत्याद्यावरणं तु घनातिच्छादितादित्येषत्प्रभाकल्पस्य केवलज्ञानदेशस्य कटकुट्यादिरूपावरणतुल्यमिति देशावरणमिति । -ठाणाङ्ग, २।४।१०५ टीका (ख) स्थानाङ्ग-समवायाङ्ग, पृ० ६४-६५ पं० दलसुख मालवणिया । (ग) सव्वजीवाणं पि य णं अक्खरस्स अणंतभागो णिच्चुग्घाडिओ हवइ । जइ पुण सो वि आवरिज्जा तेणं जीवो अजीवत्तं पावेज्जा । 'सुट्ठवि मेहसमुदये होइ पभा चन्दसूराणं ।' -- नन्दीसूत्र ४३ १०७. उदहीसरिसनामाणं, तीसइ कोडिकोडीओ। उक्कोसिया ठिई होइ, अन्तोमुहुतं जहन्निया । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन दर्शनावरण कर्म पदार्थों की विशेषता को ग्रहण किये बिना केवल उनके सामान्य धर्म का बोध करना दर्शनोपयोग है।१०८ जिस कर्म के प्रभाव से दर्शनोपयोग आच्छादित रहता है वह दर्शनावरणीय कर्म है । दर्शन गुरण के सीमित होने पर ज्ञानोपलब्धि का द्वार बन्द हो जाता है। इस कर्म की तुलना शासक के उस द्वारपाल से की गई है जो शासक से किसी व्यक्ति को मिलने में बाधा उपस्थित करता है। द्वारपाल की बिना आज्ञा के व्यक्ति शासक से नहीं मिल सकता, वैसे ही दर्शनावरण कर्म वस्तुप्रों के सामान्य बोध को रोकता है ।१०९ पदार्थों के देखने में अड़चन डालता है। ___दर्शनावरण कर्म की नौ उत्तर प्रकृतियाँ हैं-(१) चक्षुर्दर्शनावरण, (२) अचक्षुर्दर्शनावरण, (३) अवधिदर्शनावरण, (४) केवल दर्शनावरण, (५) निद्रा, (६) निद्रानिद्रा, (७) प्रचला, (८) प्रचलाप्रचला, (६) स्त्याद्धि । ११० आवरणिज्जाण दुण्हं पि वेयणिज्जे तहेव य । अन्तराए य कम्मम्मि, ठिई एसा वियाहिया ।। -उत्तराध्ययन ३३।१६-२० (ख) आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्यः परा स्थितिः । तत्त्वार्थ सूत्र ८।१५ (ग) पञ्चम कर्मग्रन्थ गा० २६ । १०८. जं सामन्नग्गहरणं, भावाणं नेव कटु आगारं । अविसेसिऊण अत्थे, दंसणमिह वुच्चए समये ।। १०६. सणसीले जीवे, दंसणघायं करेइ जं कम्मं । तं पडिहारसमारणं, दंसणंवरणं भवे जीवे ॥ -स्थानाङ्ग २।४।१०५ टीका दसणचउ पणनिद्दा, वित्तिसमं दंसणावरणं । -प्रथम कर्मग्रन्थ है (ग) गोम्मटसार कर्मकाण्ड २१, नेमिचन्द्र ११०. निद्दा तहेव पयला, निद्दानिद्दा य पयलपयला य । तत्तो य थाणगिद्धी उ, पंचमा होइ नायव्वा ।। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण ___ चक्षुर्दर्शनावरण कर्म नेत्रों द्वारा होने वाले सामान्य बोध को आवृत करता है। अचक्षुदर्शनावरण कर्म-चक्षु के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों और मन के द्वारा होने वाले सामान्य बोध को प्रावृत करता है। अवधि दर्शनावरण कर्म-इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना आत्मा को रूपी द्रव्यों का जो सामान्य ब्रोध होता है उसे आच्छादित करता है। केवलदर्शनावरण कर्म सर्व द्रव्य और पर्यायों के युगपत् होने वाले सामान्य अवबोध को प्रावृत करता है। निद्रा कर्म वह है, जिससे सुप्त प्राणी सुख से जाग सके, ऐसी हल्की निद्रा उत्पन्न हो । निद्रानिद्रा कर्म से ऐसी नींद उत्पन्न होती है जिससे सुप्त प्रारणी कठिनाई से जाग सके। प्रचला-जिस कर्म से ऐसी नींद उत्पन्न हो कि खड़े-खड़े और बैठे-बैठे भी नींद आये । प्रचला-प्रचला कर्म-जिससे चलते-फिरते भी नींद आये । स्त्यानधिजिस कर्म से दिन में अथवा रात में सोचे हुए कार्यविशेष को निद्रावस्था में सम्पन्न करे, वैसी प्रगाढ़तम नींद । दर्शनावरण कर्म भी देशघाती और सर्वघाती रूप में दो प्रकार का है। चक्षु, अचक्षु, अवधिदर्शनावरण देशघाती हैं और शेष छह प्रकृतियाँ सर्वघाती हैं ।" सर्वघाती प्रकृतियों में केवल चक्खुमचक्खूओहिस्स, दंसणे केवले य आवरणे। एवं तु नवविगप्पं, नायव्वं दंसणावरणं ।। --उत्तरा० ३३१५-६ (ख) समवायाङ्ग सू०६ (ग) स्थानाङ्ग ८।३।६६८ (घ) चारचक्षुरवधिकेवलानां निद्रा-निद्रानिद्रा-प्रचला-प्रचलाप्रचला स्त्यानगृद्धिवेदनीयानि च । -तत्त्वार्थ सूत्र ८८ (ङ) प्रज्ञापना २३।१ (च) कर्मग्रन्थ १११. दरिसणावरणिज्जे कम्मे एवं चेव । टीका-देशदर्शनावरणीयं चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनावरणीयं; सर्वदर्शनावरणीयं तु निद्रापञ्चकं केवलदर्शनावरणीयं चेत्यर्थः, भावना तु पूर्ववदिति । -ठाणाङ्ग २।४।१०५ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० धर्म और दर्शन दर्शनावरण प्रमुख है। ज्ञानावरण की तरह इसे भी समझ लेना चाहिए। दर्शनावरण कर्म का पूर्ण क्षय होने पर जीव की अनन्त दर्शन शक्ति प्रकट होती है, वह केवल दर्शन का धारक बनता है। जब उसका क्षयोपशम होता है तब चक्षु दर्शन, अचक्षु दर्शन और अवधि दर्शन प्रकट होता है। प्रस्तुत कर्म की न्यूनतम स्थिति अन्तमुहूर्त की और उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटि सागरोपम की है । ११२ वेदनीय कर्म : __आत्मा के अव्याबाध गुण को प्रावृत करने वाला कर्म वेदनीय है। वेदनीय कर्म से आत्मा को सुख दुःख का अनुभव होता है। उसके दो भेद हैं-(१) साता वेदनीय, (२) असाता वेदनीय । १3 साता वेदनीय कर्म से जीव को भौतिक सुखों की उपलब्धि होती है। और असाता वेदनीय कर्म से मानसिक और शारीरिक दुःख प्राप्त होता है ।११४ वेदनीय कर्म की तुलना मधु से लिप्त तलवार की धार से की गई है । तलवार की धार पर लिप्त मधु को चाटने के ११२. उत्तराध्ययन ३३१६-२० (ख) तत्त्वार्थ सूत्र ८।१५ (ग) पंचम कर्मग्रन्थ गा० २६ (घ) प्रज्ञापना, पद २६ उ० २, सू० २६३ ११३. वेयणीयं पि दुविहं सायमसायं च आहियं । -उत्तराध्ययन ३३१७ (ख) स्थानाङ्ग २।१०५ ११४. यदुदयाद्देवादिगतिषु शरीरमानससुखप्राप्तिस्तत्सद् वेद्यम् । प्रशस्तं वेद्य सवेद्यमिति । यत्फलं दुःखमनेकविधं तदसवेद्यम् । अप्रशस्तं वेद्यमसद्वेद्यमिति । -तत्त्वार्थ ८।८, सर्वार्थसिद्धि Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण ७१ सदृश साता वेदनीय है और जीभ कट जाने के समान असाता वेदनीय है । १५ सात वेदनीय कर्म-आठ प्रकार का है-मनोज्ञ शब्द, मनोज्ञ रूप, मनोज्ञ गन्ध, मनोज्ञ रस, मनोज्ञ स्पर्श, सुखित मन, सुखित वाणी, सुखित काय जिससे प्राप्त हो'१६ । ___ असात वेदनीय भी पाठ प्रकार का है-अमनोज्ञ शब्द, अमनोज्ञ रूप, अमनोज्ञ गन्ध, अमनोज्ञ रस, अमनोज्ञ स्पर्श, दुःखित मन, दुःखित वाणी, दुःखित काय की प्राप्ति जिससे हो । ११० वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति उत्तराध्ययन १८ और प्रज्ञापना११९ ११५. महुलित्तखग्गधारालिहणं व दुहा उ वेयणियं । -प्रथम कर्मग्रन्थ, १२ (ख) तथा वेद्यते ---अनुभूयत इति वेदनीयं, सातं सुखं तद्र पतया वेद्यते यत्तत्तथा, दीर्घत्वं प्राकृतत्त्वात्, इतरद् - एतद्विपरीतम् आह चमहुलित्तनिसियक रवालधार जीहाए जारिसं लिहणं, तारिसयं सुहदुहउप्पायगं मुणह ॥ -ठाणाङ्ग २।४।१०५ टीका ११६. स्थानाङ्ग ८/४८८ (ख) प्रज्ञापना २३।३ ११७. स्थानाङ्ग ८।४८८ (ख) असायावेदणिज्जे णं भंते कम्मे कतिविधे पण्णते ? गोयमा । अट्ठविधे पन्नत्ते, तं जहा-अमरगुण्णा सद्दा, जाव कायदुहया । -प्रज्ञापना २३।३।१५ ११८. उदही सरिसनामाणं, तीसई कोडिकोडीओ। उक्कोसिया ठिई होइ, अन्तोमुहुत्तं जहानिया ॥ आवरणिज्जाण दुण्ह पि वेयणिज्जे तहेव य । अन्तराए य कम्मम्मि, ठिई एसा वियाहिया ।। -उत्तरा० ३३।१६-२० ११६. प्रज्ञापना २३।२।२१-२६ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ धर्म और दर्शन अन्तर्मुहूर्त की बताई है । भगवती १२° में दो समय की कही गई है । इन दोनों कथनों में कोई विरोध नहीं समझना चाहिए, क्योंकि मुहूर्त के अन्दर का समय अन्तर्मुहूर्त कहलाता है । दो समय को अन्तर्मुहूर्त कहने में कोई विसंगति नहीं है । वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त है । किन्तु तत्त्वार्थ सूत्र २१, और अन्य अनेक ग्रन्थों में बारह मुहूर्त की प्रतिपादित की गई है । उत्कृष्ट स्थिति सर्वत्र तीस कोटाकोटि सागर की है । मोहनीय कर्म : जो कर्म आत्मा में मूढ़ता उत्पन्न करे वह मोहनीय है । आठ कर्मों में यह सबसे अधिक शक्तिशाली है । अन्य सात कर्म प्रजा हैं तो मोहनीय कर्म राजा है । १२२ यह आत्मा के वीतराग भाव -शुद्धस्वरूप को विकृत करता है, जिससे आत्मा रागद्वेष आदि विकारों से ग्रस्त होता है । यह कर्म स्व-परविवेक में तथा स्वरूपरमण में बाधा समुपस्थित करता है । इस कर्म की तुलना मदिरापान से की गई है । जैसे मदिरापान से मानव परवश हो जाता है, उसे अपने तथा पर के स्वरूप का भान नहीं रहता, वह हिताहित के विवेक से विहीन हो जाता हैं, १२०. वेदणिज्जं जह दो समया । - भगवती ६ | ३ १२१. अपरा द्वादशमुहूर्ता वेदनीयस्य । १२२. - तत्त्वार्थ सूत्र ८।१६ (ख) वेदनीयप्रकृतेरपरा द्वादशमुहूर्ता स्थितिरिति । (ग) जहन्ना ठिई वेअणीअस्स बारस मुहुत्ता | नवतत्व साहित्य संग्रह : देवानन्द सूरिकृत, (घ) जैन दर्शन पृ० ३५४ डा० मोहनलाल मेहता अष्ट कर्म नो राजवी हो, मोह प्रथम क्षय कीन । - - तत्त्वार्थ भाष्य सप्तत स्वप्रकरण विनयचन्द चौबीसी Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण वैसे ही मोह कर्म के उदय से जीव को तत्त्व तत्त्व का भेद - विज्ञान नहीं हो पाता, वह संसार के विकारों में उलझ जाता है । १२३ मोहनीय कर्म दो प्रकार का होता है - (१) दर्शन मोहनीय और ( २ ) चारित्र मोहनीय । १२४ यहाँ दर्शन का अर्थ तत्त्वार्थश्रद्धान रूप आत्मगुण है । १२५ जैसे मदिरापान से बुद्धि मूच्छित हो जाती है वैसे ही दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से आत्मा का विवेक विलुप्त हो जाता है । वह अनात्मीय पदार्थों को आत्मीय समझता है । १२६ वह धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म मानता है । दर्शन मोहनीय कर्म तीन प्रकार का है १२७ -- ( १ ) सम्यक्त्व १२३. मज्जं व मोहणीयं - प्रथम कर्मग्रन्थ, गाथा १३ (ख) जह मज्जपाणमूढो लोए पुरिसो परव्वसो होइ, तह मोहेण विमूढो जीवो उ परव्वसो होइ । (ग) गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड ) २१ १२४. मोहणिज्जं पि दुविहं, दंसणे चरणे तहा । ( ख ) ठाणाङ्ग २|४|१०५ (ग) प्रज्ञापना २३३२ १२५. तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् - स्थानाङ्ग २।४।१०५ टोका १२६. यथा मद्यादिपानस्य, पाकाद् बुद्धिविमुह्यति । श्वेतं शंखादि यद्वस्तु, पीतं पश्यति विभ्रमात् । तथा दर्शन मोहस्य, कर्मणस्तुदयादिह । अपि यावदनात्मीयमात्मीयं मनुते कुह ॥ - तत्त्वार्थ सूत्र १।२ ७३ - उत्तराध्ययन ३३.८ १२७. सम्मत्तं चैव मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तमेव य । याओ तिनि पयडीओ, मोहणिज्जस्स दंसणे || ( ख ) स्थानाङ्ग २११८४ - पंचाध्यायी २६८-६-७ -- उत्तराध्ययन ३३।६ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन मोहनीय-जो कर्म सम्यक्त्व का प्रकट होना तो नहीं रोक सकता किन्तु औपशमिक और क्षायिक सम्यग्दर्शन को उत्पन्न नहीं होने देता। (२) मिथ्यात्व मोहनीय-जो कर्म तत्त्व में श्रद्धा उत्पन्न नहीं होने देता, और विपरीत श्रद्धा उत्पन्न करता है । (३) मिश्र मोहनोय-जो कर्म तत्त्व श्रद्धा में दोलायमान स्थिति उत्पन्न करता है। दर्शनमोहनीय के शुद्ध दलिक सम्यक्त्व मोहनीय, अशुद्ध दलिक मिथ्यात्व मोहनीय और शुद्धाशुद्ध दलिक सम्यगमिथ्यात्वमोहनीय हैं ।१२८ इनमें मिथ्यात्व मोहनीय सर्वघाती है और शेष दो देशघाती हैं ।१२९ ___ मोहनीय कर्म का द्वितीय भेद चारित्रमोह है। यह कर्म आत्मा के चारित्र गुण को उत्पन्न नहीं होने देता। १३० चारित्र मोहनीय के भी दो भेद हैं- (१) कषाय मोहनीय (२) नोकषाय मोहनीय । 137 कषाय मोहनीय के सोलह भेद हैं और नो-कषाय मोहनीय के सात अथवा नौ भेद हैं । १३२ १२८. प्रथम कर्म ग्रन्थ, गा० १४-१६ ।। १२६. केवलणाणावरणं, दसणछक्कं कषायवारसयं । मिच्छं च सव्वघादी, सम्मामिच्छं अबंधम्हि ॥ -गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) ३६ (ख) केवलणाणावरणं दसणछक्कं च मोहबारसगं । ता सध्वधाइसन्ना भवंति मिच्छत्तवीसइमं । -ठाणाङ्ग २।४।१०५ टीका में उद्धत १३०. एवं जीवस्य चारित्रं गुणोऽस्त्येकः प्रमाणसात् । तन्मोहयति यत्कर्म, तत्स्याच्चारित्रमोहनम् ॥ -पंचाध्यायी २११६ १३१. चरित्तमोहणं कम्मं, दुविहं तं वियाहियं । कसायमोहणिज्जं तु नोकसायं तहेव य ॥ -उत्तराध्ययन ३३११० (ख) प्रज्ञापना २३२ १३२. सोलसविहभेएणं, कम्मं तु कसायजं । सत्तविहं नवविहं वा, कम्मं च नोकसायजं ।। -उत्तरा० ३३।११ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण कषाय मोहनीय : कषाय शब्द कष और प्राय से बना है । कष-संसार आयलाभ, जिससे संसार अर्थात् भवभ्रमरण की अभिवृद्धि हो वह कषाय है । 33 क्रोध, मान, माया और लोभ के रूप में वह चार प्रकार का है | ये चार भी अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन, यों चार-चार प्रकार के हैं । इस प्रकार सोलह भेद कषायमोहनीय के हैं । इसके उदय से प्राणी में क्रोधादि कषाय उत्पन्न होते हैं । अनन्तानुबन्धी चतुष्क के प्रभाव से जीव अनन्त काल तक संसार में भ्रमण करता है । यह कषाय सम्यक्त्व का विघातक है । १३४ अप्रत्याख्यानावरणीय चतुष्क के प्रभाव से देशविरति रूप श्रावक धर्म की प्राप्ति नहीं होती । प्रत्याख्यानावरण चतुष्क के १३५ ( ख ) प्रज्ञापना २३२ (ग) स्थानाङ्ग 8|७००; (घ) समवायांग - १६ १३३. कम्मं कसो भवो वा, कसमातो सिं कसाया तो । कसमाययंति व जतो गमयंति कसं कसायत्ति ॥ ७५ - श्रावश्यक मलयगिरि वृत्ति पृ० ११६ - विशेषावश्यक भाष्य गा० १२२७ १३४. ( क ) अनन्तानुबंधी सम्यग्दर्शनोपघाती । तस्योदयाद्धि सम्यग्दर्शनं नोत्पद्यते । पूर्वोत्पन्नमपि च प्रतिपतति । - तत्त्वार्थ सूत्र ८ । १० भाष्य ( ख ) अनन्तायनुबध्नन्ति यतो जन्मानि भूतये । ततोऽनन्तानुबन्ध्याख्या - क्रोधाद्यषु नियोजिता ॥ १९३५. स्वल्पमपि नोत्सहेद् येषां प्रत्याख्यानमिहोदयात् । अप्रत्याख्यानसंज्ञा तो द्वितीयेषु (ख) अप्रत्याख्यान कषायोदयाद्विरतिर्न भवति -- निवेशिता ।। -तत्त्वार्थ भाष्य ८।१० Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन उदय से सर्वविरति रूप श्रमणधर्म की प्राप्ति नहीं होती । १७६ संज्वलन कषाय के प्रभाव से श्रमण यथाख्यात चारित्ररूप उत्कृष्ट चारित्र प्राप्त नहीं कर सकता । गोम्मटसार में भी ऐसा ही उल्लेख मिलता है। अनन्तानबन्धी चतुष्क की स्थिति यावज्जीवन की, अप्रत्याख्यानी चतुष्क की एक वर्ष की, प्रत्याख्यानी कषाय की चार माह की और संज्वलन कषाय की स्थिति एक पक्ष की है । १३१ जिनका उदय कषायों के साथ होता है या जो कषायों को उत्तजित करते हैं वे नोकषाय हैं ।१४० इन्हें अकषाय भी कहते हैं । १४१ नोकषाय या अकषाय का तात्पर्य कषाय का अभाव नहीं, किन्त ईषत्कषाय है । १४२ नोकषाय के नौ भेद हैं-(१) हास्य, (२) रति, १३६. सर्वसावधविरति : प्रत्याख्यानमुदाहृतम् । तदावरणसंज्ञाऽतस्तृतीयेषु निवेशिता ॥ (ख) प्रत्याख्यानावरणकषायोदयाद्विरताविरतिर्भवत्युत्तमचारित्र लाभस्तु न भवति । तत्त्वार्थ सूत्र ८।१० भाष्य १३७. (क) संज्वलनकषायोदयाद्यथारख्यातचारित्रलाभो न भवति । -तत्त्वार्थ सूत्र ८१० भाष्य १३८. सम्मत्तदेससयलचरित्तजहक्खादचरणपरिणामे । घादंति वा कषाया चउ सोल असंखलोगमिदा ।। -गोम्मटसार जीवकाण्ड २८३ १३६. जाजीववरिसच उमासपक्खगा नरयतिरियनर अमरा, सम्माणुसव्वविरई अहखायचरित्तघायकरा । प्रथम कर्मग्रन्थ गा० १८ १४०. कषायसहवर्तित्वात्, कषायप्रेरणादपि । हास्यादिनवकस्योक्ता नोकषायकषायता ॥ १४१. तत्त्वार्थ राजवार्तिक ८।६।१० १४२. ईषदर्थे नः प्रयोगादीषत्कषायोऽकषाय इति । -सर्वार्थसिद्धि का Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ कर्मवाद : पर्यवेक्षण (३) अरति, (४) भय, (५) शोक, (६) जुगुप्सा१४३, (9) स्त्री वेद, (८) पुरुष वेद (६) नपुंसक वेद ।। इस प्रकार चारित्र मोहनीय की पच्चीस प्रकृतियों में से संज्वलन कषाय चतुष्क और नोकषाय ये अघाती हैं, और शेष बारह प्रकृति सर्वघाती हैं । १४४ मोहनीय कर्म की स्थिजघन्य अन्तमुहूर्त की हैं और उत्कृष्ट सतर कोटाकोटी सागर की है ।१४५ आयुष्कर्म : जीवों के जीवन अवधि का नियामक कर्म आयुष्य है। इस कर्म के अस्तित्व से प्राणी जीवित रहता है और क्षय होने पर मृत्यु का आलिंगन करता है ।१४६ इस कर्म की तुलना कारागृह से की गई है । जैसे न्यायाधीश अपराधी को अपराध के अनुसार नियत समय तक कारागृह में डाल देता है, अपराधी के चाहने पर भी अवधि के पूर्ण हए बिना वह मुक्त नहीं हो सकता। वैसे ही आयुष्कर्म के कारण जीव देह से मुक्त नहीं हो सकता ।१४७ १४३. यदुदयादात्मदोषसंवरणं परदोषाविष्करणं सा जुगुप्सा । -प्राचार्य पूज्यपाद १४४. स्थानाङ्ग २।४।१०५ टीका (ख) गोम्मटसार कर्मकाण्ड ३६ १४५. (क) उदहीसरिसनामाणं, सत्तरि कोडिकोडीओ । मोहणिज्जस्स उक्कोसा, अन्तोमुहुत्तं जहन्निया ।। --उत्तरा ३३।२१ (ख) सप्ततिर्मोहनीयस्य । -तत्त्वार्थ । ६ यद्भाभावाभावयोर्जीवितमरणं तदायुः ॥२॥ यस्य भावात् आत्मनः जीवितं भवति यस्य चालावात् मृत इत्युच्यते तद्भवधारणमायुरित्युच्यते । -तत्त्वार्थ र.जवातिक-८।१०१२ (ख) प्रज्ञापना २३।१ १४७. पडपडिहारासि मज्जहडचित्तकुलालभंडगारीणं । जह एएसि भावा कम्माणि वि जाग तह भावा ॥ -नवतत्व साहित्य संग्रह । अव० वृत्यादिसमेतं, नवत्त्व प्रकरणम् ७४ १४६. Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ धर्म और दर्शन आयुष कर्म का कार्य सुख दुःख देना नहीं, किन्तु नियत अवधि तक किसी एक भव में रोके रखना है ।१४८ आयु कर्म की चार उत्तर प्रकृतियाँ हैं-(१) नरकायु, (२) तिर्यञ्चायु, (३) मनुष्यायु, (४) देवायु ।१४९ अायु दो रूपों में उपलब्ध होती है । अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय । बाह्य निमित्तों से आयु का कम होना अपवर्तन है। किसी भी कारण से प्रायु का कम न होना अनपवर्तन है ।१५० मगर आयु कम हो जाने का अभिप्राय यह नहीं कि आयु कर्म का कुछ भाग बिना भोगे ही नष्ट हो जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि प्रायु कर्म के जो प्रदेश धीरे-धीरे बहुत समय में भोगे जाने वाले थे; वे सब अल्पकाल में-अन्तमुहूर्त में ही भोग लिये जाते हैं। लोकव्यवहार में इसी को अकाल मृत्यु कहते हैं। (ख) जीवस्य अवट्ठाणं करेदि आऊ हडिव्व गरं । -गोम्मटसार-कर्मकाण्ड ११ (ग) सुरनरतिरिनरयाऊ हडिसरिसं । -प्रथम कर्म ग्रन्थ २३ १४८. दुक्खं न देइ आउ नवि य सुहं देइ चउसुवि गईसु । दुक्खसुहाणाहारं धरेइ देहट्ठियं जीयं ।। -ठाणाङ्ग २।४।१०५ टीका १४६. नारकर्तर्यग्योनमानुषदेवानि । -तत्त्वार्थ सूत्र ८।११ (ख) गोयमा ! आउयस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव चउविहे अणुभावे पन्नत्त - तं जहा-नेरइयाउते, तिरियाउते, मणुयाउते, देवाउए। -प्रज्ञापना २३३१ (ग) नेरइयतिरिक्खा, मणुस्सा तहेव य । देवाउयं चउत्थं तु, पाउ कम्मं चउविहं ॥ -उत्तराध्ययन ३३।१२ १५०. तत्वार्थ सूत्र २।५२, पं० सुखलाल जी का विवेचन पृ० ११२-११६ तक। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ कर्मवाद : पर्यवेक्षण आयु कर्म की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है ।१५१ भगवती में उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि त्रिभाग उपरान्त तेतीस सागरोपम वर्ष कही है ।१५२ नाम कर्म : जिस कर्म से जीव गति यादि पर्यायों के अनुभव करने के लिए बाध्य हो वह नाम कर्म है । १५3 अथवा जिस कर्म से जीव में गति आदि के भेद उत्पन्न हो, देहादि की भिन्नता का कारण हो अथवा जिससे गत्यन्तर जैसे परिणमन हों, वह नाम कर्म है।५४ प्रस्तुत कर्म की तुलना चित्रकार से की गई है। जिस प्रकार एक चतुर चित्रकार अपनी कल्पना से मानव, पशु, पक्षी, आदि नाना प्रकार के चित्र चित्रित करता है, ऐसे ही नामकर्म भी नारक, तिर्यञ्च, मानव और देवों के शरीर आदि की रचना करता है। इस प्रकार यह कर्म शरीर, अङ्गोपाङ्ग, इन्द्रिय, आकृति, शरीरगठन, यश, अपयश आदि का निर्माता है । १५५ १५१. तेत्तीस सागरोवमा, उक्कोसेण वियाहिया । ठिइ उ आउकम्मस्स, अन्तोमुहुत्तं जहन्निया ॥ --उत्तराध्ययन ३३।२२ १५२. आउगं..."उक्को, तेत्तीसं सायरोवमाणि पुव्वकोडितिभागब्भहियाणि । -भगवती ६३ १५३. नामयति-गत्यादिपर्यायानुभवनं प्रति प्रवयणति जीवमिति नाम । प्रज्ञापना२३।१।२८८, टीका (ख) विचित्रपर्यायर्नमयति-परिणमयति यज्जीवं तन्नाम । -ठाणाङ्ग २।४।१०५ टीका १५४. गदिआदि जीवभेदं देहादी पोग्गलाण भेदं च । गदियंतरपरिणमनं करेदि णामं अणेयविहं ।। -गोम्मटसार-कर्मकांड १२ ५५५. जह चित्तयरो निउणो अणेगरूवाइ कुणइ रूवाई। सोहणमसोहणाई, चोक्खमचोक्खेहिं वण्णेहिं ।। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन नाम कर्म के भी मुख्य दो भेद हैं- शुभ और अशुभ । १५६ अशुभ नाम पापरूप है और शुभ नाम पुण्यरूप है । ८० नाम कर्म की मध्यम रूप से बयालीस उत्तर प्रकृतियाँ भी होती हैं । १५७ वे इस प्रकार हैं : (१) गतिनाम - जन्म -सम्बन्धी विविधता का निमित्त कर्म । इसके चार उपभेद हैं- (क) नरक गतिनाम, (ख) तिर्यञ्च गतिनाम, (ग) मनुष्य गतिनाम (घ) देवगति नास । (२) जातिनाम - एकेन्द्रियत्व से लेकर पंचेन्द्रियत्व तक का अनुभव कराने वाला कर्म । इसके पांच उपभेद हैं - ( क ) एकेन्द्रिय जातिनाम, (ख) द्वीन्द्रिय जातिनाम, (ग) त्रीन्द्रिय जातिनाम, (घ) चतुरिन्द्रिय जातिनाम, (ङ) पंचेन्द्रिय जाति नाम । 1 (३) शरीर नाम - प्रौदारिक आदि शरीर का निर्माण करने वाला कर्म । इसके पांच उपभेद हैं । (क) श्रदारिक शरीरनाम, (ख) वैक्रिय शरीरनाम, (ग) प्राहारक शरीरनाम, (घ) तैजस शरीर नाम, (ङ) कार्मरण शरीरनाम । १५६. १५७. तह नापि हु कम्मं अगरूवाइ कुणइ जीवस्स । सोहणमसोहणाइ इट्टाणिट्ठाइ लोयस्स || - स्थानाङ्ग २|४|१०५ टीका ( ख ) नवतत्त्व साहित्य संग्रह, अवचूणि वृत्यादिसमेत । नवतत्त्व प्रकरणम् ७४ नामं कम्मं तु दुविहं सुहम पुहंच आहियं । (क) समवायाङ्ग, सम० ४२, ( ख ) प्रज्ञापना २३/२/२६३ (ग) गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्ग निर्माण बन्धनसङ्घातसंस्थान संहननस्पर्शरसगन्धवर्णानुपूर्व्यगुरु लघूपघातपराधातातपोद्योतोच्छ्वासविहा योगतयः प्रत्येकशरीर ससुभगसुस्वरशुभसूक्ष्मपर्याप्तस्थिरादेययशांसि सेतराणि तीर्थकृत्त्वं च । - तत्त्वार्थ सूत्र ८।१२ - उत्तरा० ३३|१३ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण (४) शरीर-अंगोपाङ्ग नाम -शरीर के अवयवों और प्रत्यवयवों का निमित्तभूत कर्म। इसके तीन उपभेद हैं -(क) औदारिक शरीर अंगोपाङ्ग नाम । (ख) वैक्रिय-शरीर अंगोपाङ्ग नाम, (ग) आहारकशरीर अंगोपाङ्ग नाम । तैजस् और कार्मणशरीर के अवयव नहीं होते। __ (५) शरीरबन्धन नाम-पूर्व में ग्रहण किये हुए और वर्तमान में ग्रहण किये जाने वाले शरीरपुद्गलों के परस्पर सम्बन्ध का निमित्तभूत कर्म। इसके पाँच उपभेद हैं—(क) औदारिक शरीर बन्धन नाम, (ख) वैक्रियशरीर बन्धननाम, (ग) आहारक शरीर बन्धन नाम, (घ) तैजसशरीर बन्धन नाम, (ङ) कार्मण शरीर बन्धन नाम । शरीर बन्धन नाम कर्म के कर्मग्रन्थ में विस्तार को विवक्षा से पन्द्रह भेद भी किये हैं : (१) औदारिक-औदारिक बन्धन नाम । (२) औदारिक-तैजस बन्धन नाम । (३) औदारिक-कार्मणबन्धननाम । (४) वैक्रिय-वैक्रियबन्धननाम। (५) वैक्रिय-तैजसबन्धननाम । (६) वैक्रिय-कामरणबन्धननाम । (७) आहारक-याहारकबन्धननाम । (८) आहारक-तैजसबन्धननाम । (8) आहारक-कामरणबन्धननाम । (१०) औदारिक-तैजस कार्मण बन्धन नाम । (११) वैक्रिय-तैजस कार्मण बन्धन नाम । (१२) आहारक-तैजसकार्मण बन्धन नाम । (१३) तैजस-तेजस बन्धन नाम । (१४) तेजस-कार्मणबन्धननाम । (१५) कार्मरण-कार्मणबन्धन नाम । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ धर्म और दर्शन औदारिक, वैक्रिय और अाहारक-इन तीनों के पुद्गलों का परस्पर बन्ध नहीं होता, अतएव यहाँ उनके बन्धन की गणना नहीं की गई हैं। (६) शरीर संघातन नाम-शरीर के द्वारा पूर्वगृहीत और गृह्यमाण पुद्गलों की यथोचित व्यवस्था करने वाला कम। इसके भी पाँच उपभेद हैं- (क) औदारिक शरीर संघातन नाम, (ख) वैक्रिय शरीर संघातन नाम, (ग) आहारक शरीर संघातन नाम, (घ) तेजस शरीर संघातन नाम, (ड) कार्मण शरीर संघातन नाम । (७) संहनन नाम-जिसके उदय से अस्थिबन्ध की विशिष्ट रचना हो। इसके छः उपभेद हैं-(क) वज्रऋषभनाराच संहनन नाम, (ख) ऋषभनाराच संहनन नाम, (ग) नाराच-संहनन नाम, (घ) अर्धनाराच संहनन नाम (ङ) कीलिका-संहनन नाम (च) सेवार्त संहनन नाम । (८) संस्थान नाम-शरीर की विविध प्राकृतियों का जिसके उदय से निर्माण हो । इसके भी छः उपभेद हैं - (१) समचतुरस्र संस्थान, (२) न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान, (३) सादिसंस्थान नाम, (४) वामन संस्थान नाम, (५) कुब्ज संस्थान नाम, (६) हुण्ड संस्थान नाम। (९) वर्णनाम- इस कर्म के उदय से शरीर में रंग का निर्माण होता है । इसके भी पाँच उपभेद हैं—(क) कृष्णवर्ण नाम, (ख) नीलवर्ण नाम, (ग) लोहितवर्ण नाम, (घ) हारिद्रवर्ण नाम (ङ) श्वेतवर्ण नाम । (१०) गन्ध नाम-इस कर्म के उदय से शरीर के गन्ध पर प्रभाव पड़ता है । इसके दो उपभेद हैं—(क) सुरभि-गन्ध नाम, (ख) दुरभिगन्ध नाम। (२१) रसनाम-इस कर्म के उदय से शरीर के रस पर प्रभाव पड़ता है। इसके पाँच उपभेद हैं-(क) तिक्त-रस नाम, (ख) कटु रस नाम (ग) कषाय-रस नाम, (घ) आम्ल-रस नाम, (ङ) मधुर-रस नाम । (१२) स्पर्श नाम-इस क केर्म उदय से शरीर के स्पर्श पर Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण ८३ प्रभाव पड़ता है। इसके आठ उपभेद हैं-(क) कर्कश स्पर्श नाम, (ख) मृदु स्पर्श नाम, (ग) गुरु स्पर्श नाम, (घ) लघु स्पर्श नाम, (अ) स्निग्ध स्पर्श नाम, (च) रुक्ष स्पर्श नाम, (छ) शीत स्पर्श नाम, (ज) उष्ण स्पर्श नाम। (१३) अगुरुलघुनाम-जिसके उदय से शरीर अत्यन्त गुरु या अत्यन्त लघु परिणाम को न पाकर अगुरुलघु रूप में परिणत होता है । (१४) उपघात नाम-इस कर्म के उदय से जीव विकृत बने हुए अपने ही अवयवों से क्लेश पाता है । जैसे प्रतिजिह्वा, चोरदन्त, रसौली आदि। (१५) पराघात नाम-इस कर्म के उदय से जीव अपने दर्शन और वाणी से ही प्रतिपक्षी और प्रतिवादी को पराजित कर देता है। (१६) प्रानुपूर्वी नाम-जन्मान्तर के लिए जाते हुए जीव को आकाश प्रदेश की श्रेणी के अनुसार नियत स्थान तक गमन कराने वाला कर्म। इसके भी चार उपभेद हैं-(क) नरक-प्रानुपूर्वीनाम, (ख) तियंच-पानुपूर्वी नाम, (ग) मनुष्य-प्रानुपूर्वी नान, (घ) देवमानुपूर्वी नाम । (१७) उच्छ वास नाम-इसके उदय से जीव श्वासोच्छवास ग्रहण करता है। (१८) आतप नाम-इस कर्म के उदय से अनुष्ण शरीर में से उष्ण प्रकाश निकलता है ।१५९ (१९) उद्योत नाम-इसके उदय से शरीर शीतप्रकाशमय होता हैं । १६० (२०) विहायोगति नाम-इसके उदय से प्रशस्त और अप्रशस्त गति होती है। इसके भी दो उपभेद हैं-(क) प्रशस्त १५९. प्रस्तुत कर्म का उदय सूर्य-मण्डल के एकेन्द्रिय जीवों में होता है । उनका शरीर शीत होता है पर प्रकाश उष्ण होता है । १६०. देव के उत्तर वैक्रिय शरीर में से, व लब्धिधारी मुनि के वैक्रिय शरीर से तथा चांद, नक्षत्र, तारागणों से निकलने वाला शीतप्रकाश । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन विहायोगति नाम, (ख) प्रशस्त विहायोगति नाम । यहाँ गति का अर्थ चलना है । ८४ (२१) त्रस नाम - जिस कर्म के उदय से गमन करने की शक्ति प्राप्त हो । (२२) स्थावर नाम - जिस कर्म के उदय से इच्छापूर्वक गति न होकर स्थिरता प्राप्त होती है । (२३) सूक्ष्म नाम - जिस कर्म के उदय से जीव को चर्म चक्षुत्रों से अगोचर सूक्ष्म शरीर प्राप्त हो । (२४) बादर नाम - जिस कर्म के उदय से जीव को चर्मचक्षुगोचर स्थूल शरीर की उपलब्धि हो । (२५) पर्याप्त नाम - जिस कर्म के उदय से जीव स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण करे । ( २६ ) अपर्याप्त नाम - जिस कर्म के उदय से जीव स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण न कर सके । (२७) साधारण शरीर नाम - जिस कर्म के उदय से अनन्त जीवों को एक ही साधारण शरीर प्राप्त हो । (२८) प्रत्येक शरीर नाम - जिस कर्म के उदय से जीवों को भिन्न-भिन्न शरीर की प्राप्ति हो । (२६) स्थिर नाम -- जिस कर्म के उदय से हड्डी, दाँत प्रादि स्थिर अवयव प्राप्त हों । (३०) अस्थिर नाम - जिस कर्म के उदय से जिह्वा श्रादि अस्थिर अवयव प्राप्त हों । (३१) शुभ नाम - जिस कार्म के उदय होने से नाभि के ऊपर के अवयव प्रशस्त हों । (३२) अशुभ नाम - जिस कर्म के उदय से नाभि के नीचे के अवयव अशुभ होते हैं । ( ३३ ) सुभग नाम - जिस कर्म के उदय से किसी भी प्रकार का उपकार न करने पर भी और सम्बन्ध न होने पर भी जीव सब के मन को प्रिय लगे । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण (३४) दुर्भग नाम - जिस कर्म के उदय से उपकार करने पर और सम्बन्ध होने पर भी अप्रिय लगे । (३५) सुस्वर नाम - जिसके उदय से जीव का स्वर श्रोता के हृदय में प्रीति उत्पन्न करे । ८५ (३६) दु:स्वर नाम - जिस कर्म के उदय से जीव का स्वर प्रीतिकारी हो । (३७) आदेय नाम - जिस कर्म के उदय से जीव का वचन बहुमान्य हो । (३८) अनादेय नाम - जिस कर्म के उदय से युक्तिपूर्ण वचन भी अमान्य हो । (३६) यशः कीर्तिनाम --- जिस कर्म के उदय से संसार में यश और कीर्ति प्राप्त हो । (४०) प्रयशः कीर्तिनाम - जिस कर्म के उदय से अपयश और अपकीर्ति प्राप्त हो । ( ४१ ) निर्माण नाम - जिस कर्म के उदय से शरीर के अंग-प्रत्यंग व्यवस्थित हों । (४२) तीर्थंकर नाम - जिस कर्म के उदय से धर्मतीर्थ की स्थापना करने की शक्ति प्राप्त हो । प्रज्ञापना १६१ व गोम्मटसार १६२ में नाम कर्म के तिरानवे भेदों का कथन किया गया है और कर्मविपाक में एक सौ तीन १६३ भेदों का वर्णन है । अन्यत्र इकहत्तर प्रकृतियों का उल्लेख है, जिनमें शुभ नाम कर्म की सैंतीस प्रकृतियाँ मानी हैं १६४ और अशुभनाम १६१. प्रज्ञापना २३।२।२६३ १६२. गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) २२ १६३. कर्मविपाक पं० सुखलाल जी हिन्दी अनुवाद पृ० ५८।१०५ १६४. सत्तत्तीसं नामस्स, पयईओ पुन्नमाह ( हु ) ता य इमो । - नवतत्त्वसाहित्य संग्रह : नवतत्त्वप्रकरणम् ७ भाष्य ३७ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन कर्म की चौंतीस१६५ मानी हैं। भेदों की यह विविध संख्याएं संक्षेप विस्तार की दृष्टि से ही हैं । इनमें कोई तात्त्विक भेद नहीं है । ___ नाम कर्म की अल्पतम स्थिति आठ मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति, बीस कोटाकोटी सागरोपम की है ।१६६ गोत्रकर्म : जिस कर्म के उदय से जीव में पूज्यता, अपूज्यता का भाव समुत्पन्न हो वह गोत्र कर्म है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो जिस कर्म के प्रभाव से जीव उच्चावच कहलाता है वह गोत्रकर्म है ।१६७ आजार्य उमास्वाति के शब्दों में उच्चगोत्रकर्म देश, जाति, कुल, स्थान, मान, सत्कार, ऐश्वर्यं प्रभृतिविषयक उत्कर्ष का कारण है, और इससे विपरीत नीचगोत्र कर्म चाण्डाल, नट, व्याध, पारिधि, मत्स्यबन्धक, दास आदि भावों का निवर्तक है ।१६८ इस कर्म के मुख्य दो भेद हैं (१) उच्च गोत्र कर्म-जिस कर्म के उदयसे प्राणी लोकप्रतिष्ठित कुल अादि में जन्म ग्रहण करता है । १६५ मोहछवीसा एसा, एसा पुण होई नाम चउतीसा । -नवतत्त्वसाहित्य संग्रह : नवतत्त्व प्रकरण ८ भाष्य ४६ १६६. उदहीसरिसनामाणं, बीसई कोडिकोडीओ। नामगोत्ताणं उक्कोसा, अट्ठमुहुत्ता जहनिया ॥ -उत्तरा०३३१२३ (ख) नामगोत्रयोविंशतिः । नामगोत्रयोरष्टौ ॥ -तत्त्वार्थ सूत्र प्र०८ । १७-२० १६७. यद्वा कर्मणोऽपादानविवक्षा गूयते-शब्द्यते उच्चावचैः शब्दैरात्मा यस्मात् कर्मणः उदयात् गोत्रं । -प्रज्ञापना २३।१।२८८ टीका १६८. उच्चर्गोत्रं देशजातिकुलस्थानमानसत्कारैश्वर्याद्य त्कर्षनिवर्तकम् । विपरीतं नीचर्गोत्रं चण्डालमुष्टिक व्याधमत्स्यबंधदास्यादिनिर्वर्तकम् ।। तत्त्वार्थ सूत्र ८।१३ भाष्य Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण २७ (२) नीचगोत्रकर्म-जिस कर्म के उदय से प्राणी का जन्म अप्रतिष्ठित एवं असंस्कारी कुल में होता है । १६९ उच्च गोत्र कर्म के भी पाठ उपभेद हैं।- (क) जाति उच्च गोत्र, (ख) कुल उच्च गोत्र, (ग) बल उच्चगोत्र, (घ) रूप उच्चगोत्र, (ङ) तप उच्चगोत्र, (च) श्रत उच्चगोत्र, (छ) लाभ उच्चगोत्र, (ज) (ज) ऐश्वर्य उच्चगोत्र । इनका अर्थ नाम से ही स्पष्ट है। ध्यान रखना चाहिए कि मातृपक्ष को जाति और पितृपक्ष को कुल कहा जाता है। नीच गोत्र कर्म के भी पाठ उपभेद हैं१७१-(क) जातिनीचगोत्रमातृपक्षीय विशिष्टता के अभाव का कारण, (ख) कुलनीच गोत्रपितृपक्षीय विशिष्टता के अभाव का कारण । (ग) बलनीच गोत्र-बलविहीनता का कारण । (घ) रूपनीचगोत्र-रूपविहीनता का कारण (ङ) तप नीचगोत्र-तपविहीनता का कारण (च) श्र त-नीचगोत्रश्रतविहीनता का कारण, (छ) लाभनीचगोत्र-लाभविहीनता का कारण, (ज) ऐश्वर्य-नीचगोत्र-ऐश्वर्यविहीनता का कारण । ___ इस कर्म की तुलना कुम्हार से की गई है। कुम्हार अनेक प्रकार के घड़ों का निर्माण करता है। उनमें से कितने ही घड़े ऐसे होते हैं जिन्हें लोग कलश बनाकर अक्षत, चन्दन आदि से चचित करते हैं, और कितने ही ऐसे होते हैं जो मदिरा रखने के कार्य में आते हैं और इस कारण निम्न माने जाते हैं। उसी प्रकार जिस कर्म के कारण जीव का व्यक्तित्व श्लाघ्य एवं अश्लाघ्य बनता है७२ वह गोत्र कर्म कहलाता है। १६६. गोयं कम्मं तु दुविहं, उच्च नीयं च आहियं । -उत्तर ध्ययन ३३।१४ १७०. उच्चं अट्ठविहं होइ, एवं नीयं पि आहियं । -उत्तरा० ३३।१४ १७१. प्रज्ञापना-२३।१, २६२; २३।२।२६३ १७२. (क) जह कुभारो भंडाइ कुणइ पुज्जेयराइ लोयस्स । इय गोयं कुण इ जियं, लोए पुज्जेयरानत्थं ।। -ठाणाङ्ग २।४।१०५ टीका Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ धर्म और दर्शन गोत्र कर्म की जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति बीस कोटाकोटी सागरोपम की है । अन्तराय कर्म : जिस कर्म के उदय से देने, लेने में, तथा एकबार या अनेक बार भोगने और सामर्थ्य प्राप्त करने में अवरोध उपस्थित हो वह अन्तराय कर्म है ।१७४ इस कर्म की तुलना राजा के भंडारी से की गई है। राजा का भण्डारी राजा के द्वारा आदेश देने पर भी दान देने में आनाकानी करता है, विघ्न डालता है, वैसे ही यह कर्म दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में बाधा उपस्थित करता है ।१७५ अन्तराय कर्म की पाँच उत्तर प्रकृतियाँ हैं (१) दान-अन्तराय कर्म-इस कर्म के उदय से जीव दान नहीं दे सकता। (२) लाभ-अन्तराय कर्म-इस कर्म के उदय से उदार दाता की उपस्थिति में भी दान का लाभ प्राप्त नहीं हो सकता, अथवा पर्याप्त सामग्री के रहने पर भी जिसके कारण अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति न हो। (ख) गोयं दुहुच्चनीयं कुलाल इव सुघडभुभलाईयं । -प्रथम कर्मग्रन्थ, ५२ १७३. उत्तराध्यन ३३१२३ (ख) तत्त्वार्थ सूत्र० अ० ८।१७-२० १७४. अस्ति जीवस्य वीर्याख्योऽस्त्येकस्तदादिवत् । तदन्तरयतीहेदमन्तरायं हि कर्म तत् ।। -पंचाध्यायो २।१००७ १७५. जीवं चार्थसाधनं चान्तरा एति-पततीत्यन्तरायम् । इदं चैवं जह राया दाणाइ ण कुणइ भंडारिए विकूलंमि । एवं जेणं जीवो, कम्मं तं अन्तरायं ति । -ठाणांग-२।४।१०५ टीका Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण (३) भोग-अन्त राय कर्म-जो वस्तु एक बार भोगी जाय वह भोग है । जैसे खाद्य-पेय आदि । इस कर्म के उदय से भोग्य पदार्थ सामने होने पर भी भोगे नहीं जा सकते । जैसे पेट की खराबी के कारण सरस भोजन तैयार होने पर भी खाया नहीं जा सकता। (४) उपभोग-अन्तराय कर्म-जो वस्तु वार-बार भोगी जा सके वह उपभोग है। जैसे-भवन, वस्त्र, आभूषण आदि । इस कर्म के उदय से उपभोग्य पदार्थ होने पर भी भोगे नहीं जा सकते। (५) वीर्य अन्तराय कर्म-जिसके उदय से सामर्थ्य का प्रयोग नहीं किया जा सके और जिसके प्रभाव से जीव के उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषाकार पराक्रम क्षीण होते हैं । यह अन्तराय कर्म दो प्रकार का है : (१) प्रत्युत्पन्नविनाशी अन्त राय कर्म-जिसके उदय से प्राप्त वस्तु का विनाश होता है। (२) पिहित-आगामिपथ अन्तराय कर्म-भविष्य में प्राप्त होने वाली वस्तु की प्राप्ति का अवरोधक । १७६ ___ अन्तराय कर्म की जघन्य स्थिति अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटी सागरोपम की है । ७७ जैसे तूबा स्वभावतः जल की सतह पर तैरता है; उसी प्रकार जीव स्वभावतः ऊर्ध्वगतिशील है, पर मृत्तिकालिप्त तूबा जैसे जल में नीचे जाता है, वैसे ही कर्मों से बद्ध आत्मा की अधोगति होती है। वह भी नीचे जाती है ।१८ कर्म बन्ध : पूर्व में यह बताया जा चुका है कि इस संसार में ऐसा कोई स्थान नहीं, जहाँ कर्मवर्गणा के पुद्गल न हों। प्राणी मानसिक, वाचिक १७६. अन्तराइए कम्मे दुविहे पं० तं० पडुप्पन्नविणासिए चेव पिहितआगामिपहं । -स्थानाङ्ग २।४।१०५ १७७. उत्तराध्यन ३३॥१६ १७८. ज्ञातासूत्र Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० और कायिक प्रवृत्ति करता है और कषाय के है, अतः वह कर्मयोग्य पुद्गलों को सर्व है | आगमों में स्पष्ट निर्देश है कि एकेन्द्रिय छहों दिशाओं से कर्म ग्रहण करते हैं, व्याघात होने पर कभी तीन, कभी चार और कभी पाँच दिशाओं से ग्रहण करते हैं, किन्तु शेष जीव नियम से सर्व दिशाओं से पुद्गल ग्रहण करते हैं । १७९ किन्तु क्षेत्र के सम्बन्ध में यह मर्यादा है कि जिस क्षेत्र में वह स्थित है उसी क्षेत्र में स्थित कर्म योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है । अन्यत्र स्थित पुद्गलों को नहीं । १° यह भी विस्मरण नहीं होना चाहिये कि जितनी योगों की चंचलता में तरतमता होगी उसी के अनुसार न्यूनाधिक रूप में जीव कर्म पुद्गलों को ग्रहण करेगा । योगों की प्रवृत्ति मन्द होगी तो परमाणुत्रों की संख्या भी कम होगी । श्रागमिक भाषा में इसे ही प्रदेश बंध कहते हैं । दूसरे शब्दों में कहा जाय तो आत्मा के प्रसंख्यात प्रदेश होते हैं, उन असंख्य प्रदेशों में से एक-एक प्रदेश पर अनन्तानन्त कर्मप्रदेशों का बन्ध होना प्रदेश बन्ध है । अर्थात् जीव के प्रदेशों और कर्म पुदुगलों के प्रदेशों का परस्पर बद्ध होजाना प्रदेश बन्ध हैं । १८१ १७६. सम्बजीवाण कम्मं तु संगहे छद्दिसागयं । सव्वेसु वि पएसेसु सव्वं सव्वेण बद्धगं ॥ (ख) भगवती शतक १७ उद्द े० ४ O धर्म और दर्शन उत्ताप से उत्तप्त होता दिशाओं से ग्रहण करता जीव व्याघात न होने पर (ख) प्रदेशो दलसंचयः । (ग) नतत्त्वसाहित्य संग्रह : अव० गा० ७१ की वृत्ति - १८०. गेण्हति तज्जोगं चिय रेणु पुरिसो जहा कयब्भंगो । एग तो गाढं जीवो पहं ॥ • उत्तराध्ययन ३३।१८ - विशेषावश्यक भाष्य गा० १९४१ पृ० ११७ द्वि० भा० ( ख ) एगपए सोगाढं सव्वपएसेहि कम्मुणो जोगं । जहुत्त हेउ साइयमणाइयं बंध वावि ॥ - पंचसंग्रह - २८४ १८५१. प्रदेशाः कर्मपुद्गलाः जीवप्रदेशेष्वोतप्रोताः, तद्रूपं कर्म प्रदेश कर्म । - भगवती १/४/४० वृत्ति वृत्यादिसमेतं नवतत्त्वप्रकरण Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण गणधर गौतम ने महावीर से पूछा-भगवन् ! क्या जीव और पुद्गल अन्योन्य- एक दूसरे से बद्ध, एक दूसरे से स्पृष्ट, एक दूसरे में अवगाढ, एक दूसरे में स्नेह-प्रतिबद्ध हैं और एक दूसरे में एकमेक होकर रहते हैं ? उत्तर में महावीर ने कहा-हे गौतम, हाँ, रहते हैं। हे भगवन् ! ऐसा किस हेतु से कहते हैं ? हे गौतम ! जैसे एक ह्रद हो, जल से पूर्ण, जल से किनारे तक भरा हुआ, जल से लबालब, जल से ऊपर उठा हुआ और भरे हुए घड़े की तरह स्थित । अब यदि कोई पुरुष उस ह्रद में एक बड़ी, सौ आस्रव-द्वार वाली, सौ छिद्र वाली नाव छोड़े तो हे गौतम ! वह नाव उन प्रास्रव-द्वारों-छिद्रों द्वारा भरती-भरती जल से पर्ण ऊपर तक भरी हुई, बढ़ते हुए जल से ढंकी हुई होकर, भरे घड़े की तरह होगी या नहीं? हे भगवन् ! होगी। हे गौतम ! उसी हेतु से मैं कहता हूँ कि जीव और पुद्गल परस्पर बद्ध, स्पृष्ट, अवगाढ़ और स्नेह-प्रतिबद्ध हैं और परस्पर एकमेक होकर रहते हैं । १८२ यही प्रात्म-प्रदेशों और कर्म पुद्गलों का सम्बन्ध प्रदेशबन्ध है । योगों की प्रवृत्ति द्वारा ग्रहण किये गये कर्मपरमाणु ज्ञान को प्रावत करना, दर्शन को आच्छन्न करना, सुख-दुःख का अनुभव कराना आदि विभिन्न प्रकृतियों के रूप में परिणत होते हैं। आत्मा के साथ बद्ध होने से पूर्व कार्मण वर्गणा के जो पुद्गल एक रूप थे, बद्ध होने के साथ ही उनमें नाना प्रकार के स्वभाव उत्पन्न हो जाते हैं । इसे आगम की भाषा में प्रकृति बन्ध कहते हैं । १८3 (घ) नवतत्त्वसाहित्य संग्रह : देवानन्दतरिकृत सप्ततत्त्वप्रकरण अ० ४ १८२. भगवती ।११६ १८३: प्रकृति स्वभावः प्रोक्तः । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन प्रकृति बन्ध, और प्रदेश बन्ध ये दोनों योगों की प्रवृत्ति से होते हैं । १८४ केवल योगों की प्रवृत्ति से जो बन्ध होता है वह सूखी दीवार पर हवा के झोंके के साथ आने वाली रेती के समान है। ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुण स्थान में कषायाभाव के कारण कर्म का बन्धन इसी प्रकार का होता है। कषायरहित प्रवृत्ति से होने वाला कर्मबन्ध निर्बल, अस्थायी और नाममात्र का होता है, इससे संसार नहीं बढ़ता। __ योगों के साथ कषाय की जो प्रवृत्ति होती है उससे अमुक समय तक आत्मा से पृथक् न होने की कालिक मर्यादा पुद्गलो में निर्मित होती है । यह काल मर्यादा ही आगम की भाषा में स्थिति बन्ध है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो आत्मा के द्वारा ग्रहण की गई ज्ञानावरण आदि कर्म पुद्गलों की राशि कितने काल तक आत्मप्रदेशों में रहेगी, उसकी मर्यादास्थि तिबन्ध है ।१८५ जीव के द्वारा ग्रहण की हुई शुभाशुभ कर्मों की प्रकृतियों का तोब मन्द आदि विपाक अनुभागबन्ध है। कर्म के शुभ या अशुभ फल की तीब्रता या मन्दता रस है। उदय में आने पर कर्म का अनुभव तीव्र या मन्द कैसा होगा, यह प्रकृतिप्रभृति की तरह कर्मबन्ध के समय ही नियत हो जाता है । इसे अनुभागबन्ध कहते हैं । १८६ जिन कर्मो का आत्मा ने बन्ध कर लिया है वे अवश्य ही उदय में आते हैं, और जब उदय में आते हैं तब उनका फल भोगना पड़ता १८४. जोगा पयडिपएसं । -पंचम कर्मग्रन्थ, गा ६६ (ख) ठाणाङ्ग २।४।६६ टीका १८५. स्थिति : कालावधारणम् । १८६. अनुभागः तेषामेव कर्मप्रदेशानां संवेद्यमानताविषयो रसः तद्र पकर्मोऽनुभाग-कर्म । -भगवती १।४।४० बृत्ति (ख) अनुभागो रसो ज्ञेयः । (ग) विपाकोऽनुभावः। -तत्त्वार्थ० ८।२२ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण है। किन्तु अनुकूल निमित्त कारण न हो तो बहुत-से कर्म-प्रदेशों से ही उदय में आकर-फल दिये बिना ही पृथक् हो जाते हैं । जब तक फल देने का समय नहीं पाता तब तक बद्ध कर्मों के फल की अनुभूति नहीं होती । कर्मों के उदय में आने पर ही उनके फल का अनुभव होता है । बन्ध और उदय के बोच का काल अबाधा काल कहलाता है । बंधे हुए कर्म यदि शुभ होते हैं तो उन कर्मों का विपाक सुखमय होता है । बंधे हुए कर्म यदि अशुभ होते हैं तो उदय में आने पर उन कर्मो का विपाक दुःखमय होता है ।। उदय में आने पर कर्म अपनी मूलप्रकृति के अनुसार ही फल प्रदान करते हैं । ज्ञानावरणीय कर्म अपने अनुभाव-फल देने की शक्ति के अनुसार ज्ञान का आच्छादन करता है, दर्शनावरणीय कर्म दर्शन को आवत करता है । इसी प्रकार अन्य कर्म भी अपनी प्रकृति के अनुसार तीब या मन्द फल प्रदान करते हैं। उनकी मूल प्रकृति में उलट फेर नहीं होता। पर उत्तर-प्रकृतियों के सम्बन्ध में यह नियम पूर्णतः लागू नहीं होता। एक कर्म की उत्तर प्रकृति उसी कर्म की अन्य उत्तर प्रकृति के रूप में परिवर्तित हो सकती है। जैसे मतिज्ञानावरण कर्म श्रु तज्ञानावरण कर्म के रूप में परिणत हो सकता है। फिर उसका फल भी श्र तज्ञानावरण के रूप में ही होगा। किन्तु उत्तर प्रकृतियों में भी कितनी ही प्रकृतियाँ ऐसी हैं जो सजातीय होने पर भी परस्पर संक्रमण नहीं करतीं, जैसे दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय । दर्शन मोहनीय, चारित्र मोहनीय के रूप में और चारित्र मोहनीय दर्शन मोहनीय के रूप में संक्रमण नहीं करता। इसी प्रकार सम्यक्त्व वेदनीय और मिथ्यात्व वेदनीय उत्तर प्रकृतियों का भी संक्रमण नहीं होता । आयुष्य की उत्तर प्रकृतियों का भी परस्पर सक्रमण नहीं होता। जैसे नारक अायुष्य तिर्यंच आयुष्य के रूप में या अन्य प्रायुष्य के रूप में नहीं बदल सकता। इसी प्रकार अन्य आयुष्य भी।१८७ १८७. उत्तरप्रकृतिषु सर्वासु मूलप्रकृत्यभिन्नासु न तु मूलप्रकृतिषु संक्रमो Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन प्रकृति-संक्रमण की तरह बन्धकालीन रस में भी परिवर्तन हो सकता है । मन्द रस वाला कर्म, बाद में तीब्र रस वाले कर्म के रूप में बदल सकता है और तीन रस, मन्द रस के रूप में हो सकता है। गणधर गौतम ने महावीर से पछा-भगवन् ! अन्य यूथिक इस प्रकार कहते हैं कि 'सब जीव एवंभूत-वेदना (जैसा कर्म बाँधा है वैसे ही) भोगते हैं- यह किस प्रकार है ? महावीर ने कहा-गौतम ! अन्य यूथिक जो इस प्रकार कहते हैं वह मिथ्या है। मैं इस प्रकार कहता है-कि कई जीव एवं भूत वेदना भोगते हैं और कई अन्-एवंभूत वेदना भी भोगते हैं । जो जीव किये हुए कर्मों के अनुसार ही वेदना भोगते हैं वे एवंभूत वेदना भोगते हैं और जो जीव किए हुए कर्मों से अन्यथा भी वेदना भोगते हैं, वे अन्-एवंभूत वेदना भोगते हैं ।१८८ __ स्थानाङ्ग में चतुर्भङ्गी है-(१) एक कर्म शुभ है और उसका विपाक भी शुभ है, (२) एक कर्म शुभ है किन्तु विपाक अशुभ है, (३) एक कर्म अशुभ है पर उसका विपाक शुभ है, (४) एक कर्म अशुभ है और उसका विपाक भी अशुभ है ।१८९ विद्यते,..."उत्तरप्रकृतिषु च दर्शनचारित्रमोहनीययोः सम्यग्मिथ्यात्ववेदनीयस्यायुष्कस्य च"..." -तत्त्वार्थ सूत्र ८।२२ भाष्य (ख) अनुभवो द्विधा प्रवर्तते स्वमुखेन परमुखेन च । सर्वासां मूलप्रकृतिनां स्वमुखेनैवानुभवः । उत्तरप्रकृतीनां तुल्यजातीयानां परमुखेनापि भवति । आयुदर्शनचारित्रमोहवर्जानाम् । न हि नरकायुमुखेन निर्यगायुर्मनुष्यायुर्वा विपच्यते । नापि दर्शनमोहश्चारित्रमोहमुखेन चारित्रमोहो वा दर्शनमोहमुखेन । -तत्त्वार्थ : ८२२ सर्वार्थ सिद्धि (ग) तत्त्वार्थ सूत्र० पं० सूखलाल जी हिन्दी द्वि० सं० पृ० २६३ मोत्तणं आउयं खलु, दंसणमोहं चरित्तमोहं च । सेसाणं पयडीणं, उत्तरविहिसंकमो भज्जो । -विशेषावश्यक भाष्य-गा० १९३८ १८८. भगवती २५ १८६. स्थानाङ ४:४।३१२ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण जिज्ञासा हो सकती है कि इसका मूल कारण क्या है ? जैन कर्मसाहित्य समाधान करता है कि कर्म को विभिन्न अवस्थाए हैं। मुख्य रूप से उन्हें ग्यारह भेदों में विभक्त कर सकते हैं१९०--(१) बन्ध, (२) सत्ता, (३) उद्वर्तन-उत्कर्ष, (४) अपवर्तन-अपकर्ष, (५) संक्रमण, (६) उदय, (७) उदीरणा, (८, उपशमन, (९) निधत्ति, (१०) निकाचित और (११) अबाधा-काल । (१) बन्ध :-- प्रात्मा के साथ कर्म परमाणुत्रों का सम्बन्ध होना, क्षीर-नीरवत् एकमेक हो जाना बन्ध है । ११ बन्ध के चार प्रकार हैं । इनका वर्णन पूर्व किया जा चुका है। स्थानाङ्ग की तरह बौद्ध साहित्य में उल्लेख है :(१) कितने ही कर्म ऐसे होते हैं जो कृष्ण होते हैं और कृष्ण-विपाकी होते हैं। (२) कितने ही कर्म ऐसे होते हैं जो शुक्ल होते हैं और शुल्क विपाकी होते हैं। (३) कितने ही कर्म कृष्ण-शुक्ल मिश्र होते हैं और वैसे ही विपाक वाले होते हैं। (४) कितने ही कर्म अकृष्ण-शुक्ल होते हैं और अकृष्ण-शुक्ल विपाकी होते हैं। -अंगुत्तर विकाय ४।२३२-२३३ १६०. द्रव्य संग्रह टीका गा० ३३ (ख) आत्म मीमांसा-पं० दलसुख मालवणिया पृ० १२८ (ग) जैन दर्शन (घ) श्री अमर भारती वर्ष १ १६१. आत्मकर्मणोरन्योऽन्यप्रदेशानुप्रवेशात्मको बन्धः । -तत्त्वार्थ सूत्र १४ सर्वार्थ सिद्धि (ख) बंश्च-जीवकर्मणो : संश्लेषः -उत्तराध्ययन २८।१४ नेमिचन्द्रीय टीका (ग) बंधनं बन्धः सकषायत्वात् जीवः कर्मणो-योग्यान् पुद्गलान् आदत्त यः स बन्धः इति भावः । - स्थानाङ्ग १।४।६ टीका Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन ( २ ) सत्ता - प्राबद्ध कर्म अपना फल प्रदान कर जब तक आत्मा से पृथक नहीं हो जाते तब तक वे आत्मा से ही सम्बद्ध रहते हैं, इसे जैन दार्शनिकों ने सत्ता कहा है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो बन्ध होने और फलोदय होने के बीच कर्म ग्रात्मा में विद्यमान रहते हैं, वह सत्ता है । उस समय कर्मों का अस्तित्व रहता है, पर वे फल प्रदान नहीं करते । ६६ (३) उद्वर्तन - उत्कर्ष - आत्मा के साथ आबद्ध कर्म की स्थिति और अनुभाग बन्ध तत्कालीन परिणामों में प्रवहमान कषाय की तीव्र एवं मन्दधारा के अनुरूप होता है । उसके पश्चात् की स्थिति - विशेष अथवा भाव विशेष के कारण उस स्थिति एवं रस में वृद्धि होना उद्वर्तन उत्कर्ष है । (४) अपवर्तन - अपकर्ष - पूर्व बद्ध कर्म की स्थिति एवं अनुभाग को कालान्तर में नूतन कर्म-बन्ध करते समय न्यून कर देना अपवर्तनअपकर्ष है । इस प्रकार उद्वर्तन उत्कर्ष से विपरीत अपवर्तनअपकर्ष है । उद्वर्तन और अपवर्तन की प्रस्तुत विचारधारा यह प्रतिपादित करती है कि आबद्ध कर्म की स्थिति और इसका अनुभाग एकान्ततः (घ) सकषायतया जीवः कर्मयोग्यांस्तु पुद्गलान् । यदादत्त े स बन्धः स्याज्जीवास्वातन्त्र्यकारणम् ॥ नवतत्त्व साहित्य संग्रहः; सप्ततत्त्वप्रकरण गा० १३३ (ङ) बज्झदि कम्मं जेण दु चेदणभावेण भावबन्धो सो, कम्मादपसरणं अणोपवेस इदरो । - द्रव्यसंग्रह - २१३२, नेमिचन्द्र सि० चक्रवर्ती (च) द्रव्यतो बन्धो निगडादिभिर्भािवतः कर्म्मणा । -ठाणाङ्ग ११४१६ टीका (छ) ननु बन्धो जीवकर्मणोः संयोगोऽभिप्रेतः (ज) मिथ्यात्वादिभिर्हेतुभिः कर्मयोग्यवर्गणापुद्गलैरात्मनः क्षीरनीरवद्वन्ह्ययःपिण्डवद्वान्योन्यानुगमाभेदात्मकः सम्बन्धो बंधः । -नवतत्त्व साहित्य संग्रहः वृत्यादिसमेत नवतत्त्व प्रकरणम् गाथा ७१ की प्राकृत श्रवचूर्णि -- Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण नियत नहीं है, उसमें अध्यवसायों की प्रबलता से परिवर्तन भी हो सकता है । कभी-कभी ऐसा होता है कि प्रारणी अशुभ कर्म का बंध करके शुभ कार्य में प्रवृत्त हो जाता है । उसका असर पूर्व बद्ध अशुभ कर्मों पर पड़ता है जिससे उस लम्बी कालमर्यादा और विपाक शक्ति में न्यूनता हो जाती है । इसी प्रकार पूर्व में श्रेष्ठ कार्य करके पश्चात् निकृष्ठ कार्य करने से पूर्वबद्ध पुण्य कर्म की स्थिति एवं अनुभाग में मन्दता श्रा जाती है । सारांश यह है कि संसार को घटाने-बढ़ाने का प्राधार पूर्वकृत कर्म की अपेक्षा वर्तमान अध्यवसायों पर विशेष प्राधत है । (५) संक्रमण - एक प्रकार के कर्म परमाणुओंों की स्थिति आदि का दूसरे प्रकार के कर्म-परमाणुओं की स्थिति आदि के रूप में परि वर्तित हो जाने की प्रक्रिया को संक्रमण कहते हैं । इस प्रकार के परिवर्तन के लिए कुछ निश्चित मर्यादाएँ हैं, जिनका उल्लेख पूर्व किया जा चुका है । संक्रमण के चार प्रकार हैं - ( १ ) प्रकृति - संक्रमण, (२) स्थिति-संक्रमण, (३) अनुभाव - संक्रमण, (४) प्रदेश संक्रमण । १९२ (५) उदय - कर्म का फलदान उदय है । यदि कर्म अपना फल देकर निजीर्ण हो जाय तो फलोदय है और फल को दिये बिना हो नष्ट हो जाय तो प्रदेशोदय है । 4 (७) उदीरणा - नियत समय से पूर्व कर्म का उदय में आना उदीरणा है । जैसे समय के पूर्व ही प्रयत्न से ग्राम आदि फल पकाये जाते हैं वैसे ही साधना से आबद्ध कर्म का नियत समय से पूर्व भोग कर क्षय किया जा सकता है । सामान्यतः यह नियम है कि जिस कर्म का उदय होता है उसी के सजातीय कर्म की उदीरणा होती है। ६७ (८) उपशमन - कर्मों के विद्यमान रहते हुए भी उदय में आने के लिए उन्हें अक्षम बना देना उपशम है । अर्थात् कर्म की वह अवस्था जिसमें उदय अथवा उदीररणा संभव नहीं किन्तु उवर्तन, अपवर्तन, और संक्रमण की संभावना हो वह उपशमन है । जैसे अंगारे को राख से इस प्रकार आच्छादित कर देना जिससे वह अपना कार्य न कर १६२. स्थानाङ्ग ४॥२१६ 10 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन सके । वैसे ही उपशमन-क्रिया से कर्म को इस प्रकार दबा देना जिससे वह अपना फल नहीं दे सके। किन्तु जैसे प्रावरण के हटते ही अंगारे जलाने लगते हैं, वैसे ही उपशम भाव के दूर होते ही उपशान्त कर्म उदय में आकर अपना फल देना प्रारम्भ कर देते हैं। (६) निधत्ति--जिसमें कर्मों का उदय और संक्रमण न हो सके 'किन्तु उद्वर्तन-अप पर्तन की संभावना हो वह निधत्ति है ।९३ यह भी चार प्रकार९४ वा है। (१) प्रकृति निधत्त (२) स्थिति निधत्त (३) अनुभाव निधत्त (४) प्रदेश निधत्त । (१०) निकाचित्त-जिसमें उद्वर्तन, अपवर्तन संक्रमण एवं उदीरणा इन चारों अवस्थाओं का अभाव हो वह निकाचित है। अर्थात् आत्मा ने जिस रूप में कर्म बांधा है प्रायः उसी रूप में भोगे बिना उसकी निर्जरा नहीं होती। वह भी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, और प्रदेश रूप में चार प्रकार का है ।१९५ (११) अबाधाकाल-कर्म बंधने के पश्चात् अमुक समय तक किसी प्रकार फल न देने की अवस्था का नाम अबाध-अवस्था है । अबाधाकाल को जानने का प्रकार यह है कि जिस कर्म की स्थिति जितनेसागरोपम की है उतने ही सौ वर्ष का उसका अबाधा काल होता है । जैसे ज्ञानावरणीय की स्थिति तीन कोटाकोटि सागरोपम की है तो अवाधाकाल तीस सौ (तीन हजार) वर्ष का है । भगवती में अष्टकर्म प्रकृतियों का अबाधा काल बताया है१९६ और प्रज्ञापना१९७ में अष्टकर्म प्रकृतियों की उत्तर प्रकृतियों का भी अबाधाकाल उल्लिखित है, विशेष जिज्ञासुओं को मूल ग्रन्थ देखने चाहिए । ___ जैन कर्म साहित्य में इन कर्मों की अवस्थाओं एवं प्रक्रियाओं का जैसा विश्लेषण है वैसा अन्य दार्शनिकों के साहित्य में दृग्गोचर नहीं १९३. कर्म प्रकृति गा० २ १६४. स्थानांग ४।२६६ १६५. स्थानांग ४।२६६ १६६. भगवती २।३ १६७. प्रज्ञापना २३।२।२१-२६ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण होता। हाँ, योग-दर्शन में नियतविपाकी, अनियतविपाकी; और आवापगमन के रूप में कर्म की विविध दशा का उल्लेख किया है। नियतविपाकी कर्म का अर्थ है-जो नियत समय पर अपना फल प्रदान कर नष्ट हो जाता है। अनियतविपाकी कर्म का अर्थ है-जो कर्म बिना फल दिये ही प्रात्मा से पृथक् हो जाते हैं । और पावापगमन कर्म का अर्थ है-एक कर्म का दूसरे में मिल जाना ।१९८ योगदर्शन की इन त्रिविध अवस्थामों की तुलना क्रमशः निकाचित, प्रदेशोदय, और संक्रमण के साथ की जा सकती है। कर्म बंधन से मुक्ति का उपाय : ___ भारतीय कर्म साहित्य में जैसे कर्म बंध और उनके कारणों का विस्तार से निरूपण है उसी प्रकार उन कर्मों से मुक्त होने का साधन भी प्रतिपादित किया गया है । प्रात्मा नित नये कर्मो का बन्धन करता है, पुराने कर्मों को भोग कर नष्ट करता है। ऐसा कोई समय नहीं है जिस समय वह कर्म नहीं बाँधता हो । तब प्रश्न हो सकता है कि वह कर्मों से मुक्त कैसे होगा? उत्तर है-तप और साधना मे । जैसे खान में सोना और मिट्टी दोनों एकमेक होते हैं, किन्तु ताप आदि के द्वारा जैसे उन्हें अलग-अलग कर दिया जाता है, वैसे ही आत्मा और कर्मो को भी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र से पृथक किया जाता है । जैनदर्शन ने एकान्त रूप से न्याय-वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त, महायान (बौद्ध) की तरह ज्ञान को प्रमुखता नहीं दी है और न एकान्त रूप से मीमांसक दर्शन की तरह क्रिया-काण्ड पर ही बल दिया है। किन्तु ज्ञान और क्रिया इन दोनों के समन्वय को ही मोक्ष मार्ग माना है । १९९ चारित्रयुक्त अल्पज्ञान भी मोक्ष का हेतु है और विराट् ज्ञान भी, यदि चारित्र रहित है तो, मोक्ष का कारण नहीं १६८. योगदर्शन, व्यास भाष्य २०१३ १६६. सुयनाणम्मि वि जीवो, वट्टन्तो सो न पाउणइ मोक्खं । जो तव-संजममइए, जोगे न चएइ वो? जे । -आवश्यक नियुक्ति गा० ६४ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० धर्म और दर्शन है ।२०° प्राचार्य भद्रबाहु के शब्दों में चारित्रहीन श्रु तवेत्ता चन्दन का भार ढोने वाले गधे के समान है ।२०१ सारांश यह है कि सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्ष का हेतु है। जहाँ ये दोनों सम्यक् होते हैं वहाँ सम्यग् दर्शन अवश्य होता है, अतः आचार्यों ने तीनों को मोक्ष का मार्ग कहा है । २०२ आगमों में ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप को मोक्षमार्ग रूप में स्वीकार किया है ।२०3 किन्तु यह शाब्दिक अन्तर है, वास्तविक नहीं । कहीं पर दर्शन को ज्ञान के अन्तर्गत गिनकर ज्ञान और क्रिया को मोक्ष का कारण बताया है, और कहीं पर तप को चारित्र से गर्भित कर ज्ञान, दर्शन, और चारित्र को मोक्षमार्ग कहा है। बद्ध कर्मों से मुक्त होने के लिए सर्व प्रथम साधक संवर की साधना २००. अप्पंपि सुयमहीयं, पगासयं होइ चरणजुत्तस्स । । एक्कोऽवि जह पईवो, सचक्खुयस्स पयासेइ । -आवश्यक नियुक्ति गा० ६६ २०१. जहा खरो चन्दणभारवाही, __ भारस्सभागी न हु चंदणस्स । एवं खु नाणी चरणेण हीणो, नाणस्स भागी न हु सुग्गईए । -प्रावश्यक नियुक्ति गा० १०० २०२. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । -तत्त्वार्थ सूत्र १११ (ख) नाणं पयासयं सोहओ तवो, संजमो य गुत्तिकरो। तिण्हपि समाओगे, मोक्खो जिणसासणे भणिओ। आवश्यक नियुक्ति गा० १०३ २०३. नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा। एस मग्गु त्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं ।। नाणं च दंसरणं चेव, चरित्तं च तवो तहा। एयमग्गमणुप्पत्ता, जीवा गच्छन्ति सोग्गइ । -उत्तराध्ययन प्र० २८ गा० २-३ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण १०१ से नवीन कर्मों के आगमन को रोकता है । २०४ आचार्य श्री हेमचन्द्र के शब्दों में-'जिस तरह चौराहे पर स्थित बह-द्वारवाले गृह में द्वार बंद न न होने पर निश्चय ही रज प्रविष्ट होती है और चिकनाई के योग से वहीं चिपक जाती है, और यदि द्वार बन्द हो तो रज प्रविष्ट नहीं होती और न चिपकती है, वैसे ही योगादि प्रास्रवों को सर्वतः अवरुद्ध कर देने पर संवृत जीव के प्रदेशों में कर्मद्रव्य का प्रवेश नहीं होता।" ___"जिस तरह तालाब में सर्वद्वारों से जल का प्रवेश होता है, पर द्वारों को प्रतिरुद्ध कर देने पर थोड़ा भी जल प्रविष्ट नहीं होता, वैसे ही योगादि प्रास्रवों को सर्वतः अवरुद्ध कर देने पर संवृत जीव के प्रदेशों में कर्मद्रव्य का प्रवेश नहीं होता है।" "जिस तरह नौका में छिद्रों से जल प्रवेश पाता है और छिद्रों को रोक देने पर थोड़ा भी जल प्रविष्ट नहीं होता, वैसे ही योगादि प्रास्रवों को सर्वतः अवरुद्ध कर देने पर संवृत जीव के प्रदेशों में कर्मद्रव्य का प्रवेश नहीं होता ।२५ २०४. शुभाशुभकर्मागमद्वाररूप प्रास्रवः । आस्रवनिरोधलक्षणः संवरः । -तत्वार्थ० ११४ सर्वार्थ सिद्धि २०५. यथा चतुष्पथस्थस्य, बहुद्वारस्य वेश्मनः । अनावृतेषु द्वारेषु, रजः प्रविशति ध्र वम् ॥ प्रविष्टं स्नेहयोगाच्च, तन्मयत्वेन बध्यते । न विशेन च बध्येत, द्वारेषु ऑगतेषु च ॥ यथा वा सरसि क्वापि, सर्वैद्वारैविशेज्जलम् । तेषु तु प्रतिरुद्ध षु, प्रविशेन्न मनागपि ।। यथा वा यानपात्रस्य, मध्ये रन्ध्रौविशेज्जलम् । कृते रुन्ध्रपिधाने तु, न स्तोकमपि तद्विशेत् ।। योगादिष्वास्रवद्वारेष्वेवं रुद्ध षु सर्वतः । कर्मद्रव्यप्रवेशो न, जीवे संवरशालिनि ।। -नवतत्त्व साहित्य संग्रह : श्री हेमचन्द्र सूरिकृत सप्ततत्व प्रकरणम् ११८-१२२ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ धर्म और दर्शन इस प्रकार साधक संवर से प्रागन्तुक कर्मों को रोकने के साथसाथ निर्जरा की साधना से पूर्वसंचित कर्मों को क्षय करता है ।२०६ कर्मों का एक देश से आत्मा से छूटना निर्जरा है२०७ और जब सम्पूर्ण कर्मों को सर्वतोभावेन नष्ट कर देता हैं तब अात्मा सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाता है ।२०८ जब आत्मा एक बार पूर्ण रूप से कर्मों से विमुक्त हो जाता है तो फिर वह कभी कर्म बद्ध नहीं होता। क्योंकि उस अवस्था में कर्म बन्ध के कारणों का सर्वथा अभाव हो जाता है। जैसे बीज के जल जाने पर उससे पुनः अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती वैसे ही कर्म रूपी बीज के सम्पर्ण जल जाने पर संसार रूपी अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती ।२०९ इससे स्पष्ट है कि जो आत्मा कर्मों से बंधा हो, वह एक दिन उनसे मुक्त भी हो सकता है । अपूर्व देन : __ कर्मवाद का सिद्धान्त भारतीय दर्शन की और विशेष रूप से जैन दर्शन की विश्व को एक अपर्व और अलौकिक देन है। इस सिद्धान्त ने मानव को अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति में दीपक की लौ की तरह नहीं अपितु ध्रव की तरह अटल रहने की प्रेरणा दी है। जन-जन २०६. नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे । चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झई ॥ -उत्तरा० २८।३५ २०७. एकदेशकर्मसंक्षयलक्षणा निर्जरा। । --तत्वार्थ १।४ सर्वार्थ सिद्धि २०८. कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः । -तत्वार्थ० १०३ (ख) मोक्षस्य न हि वासोऽस्ति न नामान्तरमेव च । अज्ञान- हृदय ग्रन्थिनाशो, मोक्ष इति स्मृतः ।। -शिवगीता१३-३२ २०६. दग्धे बाजे यथात्यन्तं, प्रादुर्भवति नाङ कुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवांकुरः ।। -तत्वार्थ भाष्यगत अन्तिम कारिका ८ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण मन में से श्वानवृत्ति को हटाकर सिंह वृत्ति जागृत की है । कर्मवाद की महत्ता के सम्बन्ध में एतदर्थ ही डाक्टर मेक्समूलर ने कहा है "यह तो निश्चित है कि कर्ममत का असर मनुष्य जीवन पर बेहद हुआ है। यदि किसी मनुष्य को यह मालूम पड़े कि वर्तमान अपराध के सिवाय भी मुझको जो कुछ भोगना पड़ता है, वह मेरे पूर्व जन्म के कर्म का ही फल है, तो वह पुराने कर्ज को चुकाने वाले मनुष्य की तरह शान्त भाव से उस कष्ट को सहन कर लेगा और वह मनुष्य इतना भी जानता हो कि सहनशीलता से पुराना कर्ज चुकाया जा सकता है तथा उसी से भविष्य के लिए नीति की समृद्धि इकट्ठी की जा सकती है तो उसको भलाई के रास्ते पर चलने की प्रेरणा आप ही आप होगी। अच्छा या बुरा कोई भी कर्म नष्ट नहीं होता, यह नीतिशास्त्र का मत और पदार्थ शास्त्र का बल-संरक्षण सम्बन्धी मत समान ही है । दोनों मतों का प्राशय इतना ही है कि किसी का नाश नहीं होता । किसी भी नीतिशिक्षा के अस्तित्व के सम्बन्ध में कितनी ही शंका क्यों न हो पर यह निर्विवाद सिद्ध है कि कर्ममत सबसे अधिक जगह माना गया है। उससे लाखों मनुष्यों के कष्ट कम हुए हैं और उसी मत से मनुष्यों को वर्तमान संकट झेलने की शक्ति पैदा करने तथा भविष्य जीवन को सुधारने में उत्तेजन मिला है । २१० जो सत्य के अन्वेषी सुधी और धैर्यवान् पाठक हैं उन्हें यह सत्य - तथ्य अनुभव हुए बिना नहीं रहेगा कि भारतीय दर्शन का कर्मवाद सिद्धान्त अद्भुत अनन्य और अपराजेय है । इस वैज्ञानिक युग में भी यह एक चिरन्तन ज्योति के रूप में मानव मात्र के पथ को आलोकित कर सकता है । २१०. दर्शन और चिन्तन, द्वि० खण्ड पृ० २१६ । १०३ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार स्याद्वाद क्या है ? दार्शनिक जगत् को जैन दर्शन ने जो मौलिक एवं असाधारण देन दी है, उसमें अनेकान्तवाद का सिद्धान्त सर्वोपरि है । अनेकान्तवाद जैन परम्परा की एक विलक्षण सूझ है, जो वास्तविक सत्य का साक्षात्कार करने में सहायक है । अनेकान्त का प्रतिपादक वाद स्याद्वाद कहलाता है । स्याद्वाद 'स्याद्वाद' पद में दो शब्द हैं- स्यात् और वाद । 'स्यात्' शब्द तिङन्त पद जैसा प्रतीत होता है, किन्तु वास्तव में यह एक अव्यय है जो "कथंचित्, किसी अपेक्षा से, प्रमुक दृष्टि से इस अर्थ का द्योतक है' | 'वाद' शब्द का अर्थ सिद्धान्त, मत या प्रतिपादन करना होता है। इस प्रकार स्याद्वाद पद का अर्थ हुआ - सापेक्ष - सिद्धान्त, अपेक्षावाद, कथंचित्वाद या वह सिद्धान्त जो विविध दृष्टि बिन्दुओं से वस्तुतत्त्व का निरीक्षण-परीक्षण करता है । १. स्यादिति शब्दो अनेकान्तद्योती प्रतिपत्तव्यो न पुनविधि विचार प्रश्नादिद्योती, तथा विवक्षापायात् । - प्रष्टसहस्त्री पु० २९६ सर्वथात्वनिषेधकोऽनेकान्तताद्योतकः कथञ्चिदर्थे स्याच्छन्दो निपातः । - पञ्चास्तिकाय टीका, श्री अमृतचन्द्र Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद १०५ जैनाचार्यों ने स्याद्वाद को ही अपने चिन्तन का आधार बनाया है। चिन्तन की यह पद्धति हमें एकांगी विचार और निश्चय से बचाकर सर्वाङ्गीण विचार के लिए प्रेरित करती है और इसका परिणाम यह होता है कि हम सत्य के प्रत्येक पहलू से परिचित हो जाते हैं। वस्तुतः समग्र सत्य को समझने के लिए स्याद्वाद दृष्टि ही एकमात्र साधन है । स्याद्वाद पद्धति को अपनाए बिना विराट सत्य का साक्षात्कार होना सम्भव नहीं। जो विचारक वस्तु के अनेक धर्मों को अपनी दृष्टि से ओझल करके किसी एक ही धर्म को पकड़कर अटक जाता हैं वह सत्य को नहीं पा सकता । इसीलिए आचार्य समन्तभद्र ने कहा है—'स्यात्' शब्द सत्य का प्रतीक है । और इसी कारण जेनाचार्यो का यह कथन है कि जहाँ कहीं स्यात् शब्द का प्रयोग न दृष्टिगोचर हो वहाँ भी उसे अनुस्यूत ही समझ लेना चाहिए। ___ स्याद्वाद-दृष्टि विविध अपेक्षानों से एक ही वस्तु में नित्यता, अनित्यता, सदृशता, विसदृशता, वाच्यता, अवाच्यता, सत्ता, असत्ता आदि परस्पर विरुद्ध-से प्रतीत होने वाले धर्मों का अविरोध प्रतिपादन करके उनका सुन्दर एवं बुद्धिसंगत समन्वय प्रस्तुत करती है। साधारणतया स्याद्वाद को ही अनेकान्तवाद कह दिया जाता है, किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर प्रतीत होता है कि दोनों में प्रतिपाद्य-प्रतिपादक सम्बन्ध है । अनेकान्तात्मक वस्तु को भाषा द्वारा २. एयन्ते निरवेक्खे नो सिज्झइ विविहयावगं दव्वं । ३. स्यात्कारः सत्यलाञ्छनः । ४. सोऽप्रयुक्तोऽपि सर्वत्र स्यात्कारोऽर्थात्प्रतीयते । -लघीयस्त्रय, श्लो० २२ ५. स्यान्नाशि नित्यं सदृशं विरूपं, वाच्यं न वाच्यं सदसत्तदेव ।। -अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका, श्लोक २५ प्राचार्य हेमचन्द्र Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ धर्म और दर्शन प्रतिपादित करने वाला सिद्धान्त स्याद्वाद कहलाता है । इस प्रकार स्याद्वाद त है और अनेकान्त वस्तुगत तत्त्व है । दोनों ही वस्तुतत्त्व के प्रकाशक हैं । वस्तुका साक्षात् ज्ञान कराता है श्रसाक्षात् ज्ञान कराता है । आचार्य समन्तभद्र ने स्पष्ट किया है - स्याद्वाद और केवलज्ञान भेद इतना ही है कि केवलज्ञान जब कि स्याद्वाद श्रुत होने से ७ समन्वय का श्रेष्ठ मार्ग : जगत् की विभिन्न दार्शनिक परम्परानों में जो परस्पर विरुद्ध विचार प्रस्तुत किए हैं, उनका अध्ययन करने पर जिज्ञासु को घोर निराशा होना स्वाभाविक है। उन विचरों में एक पूर्व की ओर जाता है तो दूसरा पश्चिम की ओर। ऐसी स्थिति में जिज्ञासु अपनी आस्था स्थिर करे तो किस पर ? किसे वास्तविक और किसे अवास्तविक स्वीकार करे ? आखिर ये दार्शनिक किसी भी विषय में य का होते । श्रात्मा जैसे मूलतत्त्व के सम्बन्ध में भी इनके हरिणा म आकाश-पाताल का अन्तर है । चार्वाकदर्शन ग्रात्मतत्त्व की सत्ता को ही अस्वीकार करता है । जो दर्शन उसे स्वीकार करते हैं उनमें भी एकमत नहीं । सांख्यदर्शन आत्मा को कूटस्थनित्य एवं अविकारी कहता है । उसके मन्तव्य के अनुसार आत्मा प्रकर्त्ता है, निर्गुण है । नैयायिक-वैशेषिकों ने परिवर्तन तो माना, पर उसे गुणों तक ही सीमित रखखा । मीमांसक अवस्थाओं में परिवर्तन मान कर भी द्रव्य को नित्य मानते हैं । बुद्ध के समक्ष जब श्रात्मा विषयक प्रश्न उपस्थित किया गया तो उन्होंने उसे अव्याकृत प्रश्न कह कर मौन धारण कर लिया । ६. अनेकान्तात्मकार्थकथनं स्याद्वादः । स्याद्वादकेवलज्ञाने वस्तुतत्त्वप्रकाशने । भेदः साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यत्तमं भवेत् ॥ ७. ८. ε. अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकरूपं नित्यम् । मज्झिमनिकाय, चूल मालुक्य सुत्त ६३ । - लघीयस्त्रय ०६२ कलंक - प्रप्तमीमांसा, १०५ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याहार १०७ इसी प्रकार जब आत्मा के परिमारण के विषय में विचार किया गया तो किसी ने उसे आकाश को भाँति सर्वव्यापी माना, किसी ने अरण परिमाण, किसी ने अंगूष्ठ परिमाण तो किसी ने श्यामाक के बराबर कहा। एक कहता है-चेतना भूतों से उत्पन्न होती या व्यक्त होती है। दूसरे का कथन है कि चेतना आत्मा का धर्म नहीं, जड़ प्रकृति से प्रादुर्भूत तत्त्व है। तीसरा दर्शन विधान करता है कि चेतना अात्मा का गुण तो नहीं है, किन्तु समवाय संबंध से आत्मा में रहती है। • इस प्रकार जब आत्मा जैसे तत्त्व के विषय में भी ये विचारक किसी एक तथ्य पर नहीं टिक पाते तो अन्य पदार्थों के विषय में क्या कहा जाय। दर्शनों और दार्शनिकों की बात जाने दीजिए और अपनी ही विचारों को जरा गहराई से देखिए। जब हमारा दृष्टिकोण अभे रा होता है तो प्रत्येक प्राणी में चेतना की दृष्टि से समानता प्रतीत होता है, और चेतना से आगे बढ़ कर जब सता को प्राधार बताते हैं तो चेतन और अचेतन सभी विद्यमान पदार्थ सत्स्वरूप में एकाकार भासित होने लगते हैं। इसके विपरीत, जब हमारे दृष्टिकोण में भेद की प्रधानता होती है तो अधिक से अधिक सदृश प्रतीत हो रहे दो पदार्थों में भी भिन्नता प्रतीत हुए बिना नहीं रहती। इस प्रकार हम स्वयं अपने ही विरोधी विचारों में खो जाते हैं और सोचने लगते हैं- सत्य अज्ञय हैं, उसका पता लगना असम्भव है। इस निराशापूर्ण भावना ने ही अज्ञेयवादी दर्शन को जन्म दिया है। अनेकान्तवाद का आलोक हमें निराशा के इस अन्धकार से बचाता है । वह हमें एक ऐसी विचारधारा की ओर ले जाता है, जहाँ सभी प्रकार के विरोधों का उपशमन हो जाता है। अनेकान्तवाद समस्त दार्शनिक समस्याओं, उलझनों और भ्रमणाओं के निवारण का समाधान प्रस्तुत करता है। अपेक्षा विशेष से पिता को पूत्र, पत्र को भी पिता, छोटे को भी बड़ा, बड़े को भी छोटा यदि कहा जा सकता है तो अनेकान्तवाद का आश्रय लेकर ही। अनेकान्तवाद वह न्यायाधीश है जो परस्पर विरोधी दावेदारों का फैसला बड़े ही सुन्दर Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ धर्म और दर्शन ढंग से करता है और जिससे वादी और प्रतिवादी दोनों को ही न्याय मिलता है पूर्व कालीन महान् दार्शनिक समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलंक हरिभद्र आदि ने अनेकान्तदृष्टि का अवलम्बन करके ही सत्त्व-असत्त्व, नित्यत्त्व अनित्यत्त्व, भेद-अभेद, द्वैत-अद्वत, भाग्य, पुरुषार्थ आदि विरोधी वादों का तर्क संगत समन्वय किया और विचार की एक शुद्ध, व्यापक, बुद्धिसंगत और निष्पक्ष दृष्टि प्रदान की। इस दृष्टि से देखने पर खंडित एवं एकांगी वस्तु के स्थान पर हमें सर्वागीण परिपूर्ण वस्तु दृष्टिगोचर होने लगती है। अनेकान्त दृष्टि विरोध का शमन करने वाली है, इसी कारण वह पूर्ण सत्य की ओर ले जाती है। अनेकान्तवाद की इस विशिष्टता को हृदयंगम करके ही जैनदार्शनिकों ने उसे अपने विचार का मूलाधार बनाया है । वस्तुतः वह समस्त दार्शनिकों का जीवन है, प्राण है। जैनाचार्यों ने अपनी समन्वयात्मक उदार भावना का परिचय देते हुए कहा है-एकान्त वस्तुगत धर्म नहीं, किन्तु बुद्धिगत कल्पना है। जब बुद्धि शुद्ध होती है तो एकान्त का नामनिशान नहीं रहता । दार्शनिकों की भी समस्त दृष्टियां अनेकान्त दृष्टि में उसी प्रकार विलीन हो जाती हैं जैसे विभिन्न दिशाओं से आने वाली सरिताएं सागर में एकाकार हो जाती है। प्रसिद्ध विद्वान् उपाध्याय यशोविजयजी के शब्दों में कहा जा सकता है-'सच्चा अनेकान्तवादी किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं कर सकता। वह एकनयात्मक दर्शनों को इस , प्रकार वात्सल्य की दृष्टि से देखता है जैसे कोई पिता अपने पुत्रों को देखता है । अनेकान्त वादी न किसी को न्यून और न किसी को अधिक समझता है-उसका सबके प्रति समभाव होता है। वास्तव में सच्चा शास्त्रज्ञ कहलाने का अधिकारी वही है जो अनेकान्तवाद का अवलम्बन लेकर समस्त दर्शनों पर समभाव रखता हो। मध्यस्थभाव रहने पर शास्त्र के एक पद १०. उदधाविव सर्वसिन्धवः, समुदीर्णास्त्वयि नाथ ! दृष्टयः । न च तासु भवान् प्रदृश्यते, अविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः । -सिद्धसेन Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद १०६ का ज्ञान भी सफल है, अन्यथा कोटि-कोटि शास्त्रों को पढ़ लेने पर भी कोई लाभ नहीं ।११ हरिभद्र सूरि ने लिखा है-'आग्रहशील व्यक्ति युक्तियों को उसी जगह खींचतान करके लेजाना चाहता है जहाँ पहले से उसकी बुद्धि जमी हुई है, मगर पक्षपात से २ हिा मध्यस्थ पुरुष अपनी बुद्धि का निवेश वहीं करता है जहाँ युक्तियाँ उसे ले जाती है ।१२ अनेकान्त दर्शन यही सिखाता है कि युक्ति-सिद्ध वस्तुस्वरूप को ही शुद्ध बुद्धि से स्वीकार करना चाहिए । बुद्धि का. यही वास्तविक फल है । जो एकान्त के प्रति आग्रहशील है और दूसरे सत्यांश को स्वीकार करने के लिए तत्पर नहीं है, वह तत्त्व रूपी नवनीत नहीं पा सकता।" ___“गोपी नवनीत तभी पाती है जब वह मथानी की रस्सी के एक छोर को खींचती और दूसरे छोर को ढीला छोड़ती है । अगर वह एक ही छोर को खींचे और दूसरे को ढीला न छोड़े तो नवनीत नहीं निकल सकता। इसी प्रकार जब एक दृष्टिकोण को गौण करके दूसरे दृष्टिकोण को प्रधान रूप से विकसित किया जाता है, तभी सत्य का अमृत हाथ लगता है।"13 अतएव एकान्त के गंदले पोखर से दूर रहकर ११. यस्य सर्वत्र समता नयेषु तनयेष्विव । तस्याऽदनेकान्तवादस्या क्व न्यूनाधिकशेमुषो ।। तेन स्याद्वादमालम्ब्य सर्वदर्शनतुल्यताम् । मोक्षोदेशा विशेषेण, यः पश्यति स शास्त्रवित् ॥ माध्यस्थ्यमेव शास्त्रार्थो येन तच्चारु सिद्ध यति । स एव धर्मवादः स्यादन्यद् बालिशवल्गनम् ।। माध्यस्थसहितं ह्यकपदज्ञानमपि प्रमा। शास्त्रकोटिवृथवान्या तथा चोक्तं महात्मना ।। -ज्ञानसार उपाध्याय यशोविजय १२. आग्रही वत निनीषति युक्ति, यत्र तत्र मतिरस्य निविष्टा । पक्षपातरहितस्य तु युक्तिः , यत्र तत्र मतिरेति निवेशम् ।। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन अनेकान्त के शीतल स्वच्छ सरोवर में अवगाहन करना ही उचित है। स्याद्वाद का उदार दृष्टिकोण अपनाने से समस्त दर्शनों का सहज ही समन्वय साधा जा सकता है । अन्य दर्शनों पर अनेकान्त की छाप : अनेकान्तवाद सत्य का पर्यायवाची दर्शन है । यद्यपि कतिपय भारतीय दार्शनिकों ने अपनी एकान्त विचारधारा का समर्थन करते हुए अनेकान्तवाद का विरोध भी किया है, मगर यह निस्सन्देह कहा जा सकता है कि सभी भारतीय दर्शनों पर उसकी छाप न्यूनाधिक रूप में अंकित हुई है । असल में यह इतना तर्कयुक्त और बुद्धिसंगत सिद्धान्त है कि इसकी सर्वथा उपेक्षा की ही नहीं जा सकती। ईशावास्योपनिषद् में प्रात्मा के सम्बन्ध में कहा गया है-'तदेजति, तन्नेजति, तद् दूरे, तदन्तिके, तदन्तरस्यसर्वस्य, तद् सर्वस्यास्य बाह्यतः ।' अर्थात् प्रात्मा चलती भी है और नहीं भी चलती है, दूर भी है, समीप भी है, वह सब के अन्तर्गत भी है, बाहर भी है। ____ क्या ये उद्गार स्याद्वाद से प्रभावित नहीं हैं ? भले ही शंकराचार्य और रामानुजाचार्य एक वस्तु में अनेक धर्मों का अस्तित्व असम्भव कहकर स्याद्वाद का विरोध करते हैं, मगर जब वे अपने मन्तव्य का निरूपण करने चलते हैं तब स्याद्वाद के असर से वे भी नहीं बच पाते । उन्हें भी अनन्यगत्या स्याद्वाद का आधार लेना पड़ता है। ब्रह्म के पर और साथ ही अपर रूप की कल्पना में अनेकान्त का प्रभाव स्पष्ट है। उन्होंने सत्य की परमार्थसत्य, व्यवहारसत्य और प्रतिभाससत्य के रूप में जो व्याख्या प्रस्तुत की है, उससे अनेकान्त की पुष्टि ही होती है। वे कहते हैं-'दृष्टं किमपि लोकेऽस्मिन् न निर्दोषं न निर्गुणम् ।' अर्थात् इस लोक में दिखाई देने वाली कोई भी वस्तु न निर्दोष है और न निर्गुण है । १३. एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण । अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद १११ आशय यह हुआ कि प्रत्येक वस्तु में किसी अपेक्षा से दोष हैं तो किसी पेक्षा से गुण भी हैं । यह अपेक्षावाद, अनेकान्तवाद का रूप नहीं तो क्या है ? स्वामी दयानन्द सरस्वती से पूछा गया - 'आप विद्वान् हैं या अविद्वान् ?' स्वामी जी ने कहा - ' दार्शनिक क्षेत्र में विद्वान् और व्यापारिक क्षेत्र में विद्वान् ।' यह अनेकान्तवाद नहीं तो क्या है ? बुद्ध का विभज्यवाद एक प्रकार का अनेकान्तवाद है । उनका मध्यममार्ग भी अनेकान्त से प्रतिफलित होने वाला वाद ही है । सांख्य एक ही प्रकृति को सतोगुण, रजोगुण और तमोगुणमयी मानकर अनेकान्त को ही अंगीकार करते हैं । पाश्चात्य दार्शनिक प्लेटो आदि ने समस्त विश्ववर्ती पदार्थों को और असत् इन दो में समाविष्ट करके समन्वय की महत्ता बतलाते हुए जगत् की विविधता सिद्ध की है । सत् आइन्स्टीन का सापेक्षसिद्धान्त स्याद्वाद की विचारधारा का अनुसरण करता है । इन कतिपय उदाहरणों से पाठक समझ सकेंगे कि अनेकान्तवाद एक ऐसा व्यापक दृष्टिकोण है कि दार्शनिक जगत् में उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती । किसी न किसी रूप में प्रत्येक दर्शन को उसका आश्रय लेना ही पड़ता है । सामान्य रूप से अनेकान्त के सम्बन्ध में इतना ही जान लेने के पश्चात् अब हमें अनेकान्त के प्रकाश में प्रतिफलित होने वाले कतिपय मुख्यवादों का विचार भी कर लेना चाहिए। वे वाद इस प्रकार हैं । नित्यानित्यता कान्तवादी दृष्टिकोण के अनुसार प्रत्येक वस्तु नित्यानित्य है । द्रव्य और पर्याय का सम्मिलित रूप वस्तु हैं, या यों कहा जा सकता है कि द्रव्य और पर्याय मिलकर ही वस्तु कहलाते हैं । पर्यायों के अभाव में द्रव्य का और द्रव्य के अभाव में पर्याय का कोई अस्तित्व सम्भव नहीं है । जहाँ जीवद्रव्य है वहाँ उसके Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ धर्म और दर्शन कोई न कोई पर्याय भी अवश्य होते हैं। जो जीव है वह मनुष्य, पशु, पक्षी, स्थावर अथवा सिद्ध में से कुछ अवश्य होगा और जो मनुष्य आदि किसी पर्याय के रूप में दृष्टिगोचर होता है वह जीव अवश्य होता है। द्रव्य नित्य और पर्याय अनित्य है, क्योंकि जीव द्रव्य का कभी विनाश नहीं हो सकता, मगर पर्यायों का परिवर्तन सदैव होता रहता है। इस दृष्टि में ध्यान देने योग्य बात यह है कि इससे शाश्वतवाद और उच्छेदवाद-दोनों का समन्वय हो जाता है। प्रत्येक द्रव्य शाश्वत है किन्तु उसके पर्यायों का उच्छेद होता रहता है। यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि द्रव्य और उसके पर्याय पृथक्पृथक् दो वस्तुएं नहीं हैं। उनमें वस्तुगत कोई भेद नहीं है, केवल विवक्षाभेद है। अनेकान्तदर्शन के अनुसार प्रत्येक सत् पदार्थ उत्पादव्यय-ध्रौव्यात्मक है, अर्थात् पर्याय से उत्पन्न और विनष्ट होता हुआ भी द्रव्य से ध्रुव है। कोई भी वस्तु इसका अपवाद नहीं है ।१४ जब कभी कोई पूर्व परिचित व्यक्ति हमारे समक्ष उपस्थित होता है तब हम कहते हैं 'यह वही है।' वर्षा होते ही भूमि शश्यश्यामला हो जाती है, तब हम कहते हैं हरियाली उत्पन्न हो गई । हमारे हाथ में कपूर है यह देखते-ही-देखते उड़ जाता है, तब हम कहते हैं वह नष्ट हो गया। यह वही है'-यह नित्यता का सिद्धान्त है । 'हरियाली उत्पन्न हो गई-यह उत्पत्ति का सिद्धान्त है और वह नष्ट हो गया-यह विनाश का सिद्धान्त है । द्रव्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में परिणामवाद, प्रारम्भवाद और समूहवाद आदि अनेक विचार हैं। उसके विनाश के सम्बन्ध में भी रूपान्तरवाद, विच्छेदवाद आदि अनेक अभिमत हैं । सांख्यदर्शन परिणामवादी है, वह कार्य को अपने कारण में सत् मानता है । सत् कर्मवाद के अभिमतानुसार जो असत् है उसकी उत्पत्ति नहीं होती और जो सत् है उसका विनाश नहीं होता, किन्तु केवल रूपान्तर १४. सद् द्रव्य लक्षणम् । उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । -तत्त्वार्थ सूत्र १०५ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद ११३ होता है । उत्पत्ति का तात्पर्य है - सत् की अभिव्यक्ति और विनाश का तात्पर्य है - सत् की व्यक्ति । न्याय-वैशेषिक दर्शन आरम्भवादी है । वह कार्य को अपने कारण में सत् नहीं मानता । असत् कार्यवाद के मतानुसार प्रसत् की उत्पत्ति होती है और सत् का विनाश होता है । एतदर्थ ही नैयायिक ईश्वर को कूटस्थ नित्य और दीपक को सर्वथा अनित्य मानते हैं । बौद्धदर्शन के अनुसार स्थूलद्रव्य सूक्ष्म अवयवों का समूह है, तथा द्रव्य क्षणविनश्वर है । उनके विचारानुसार कुछ भी स्थिति नहीं है । जो दर्शन एकान्त नित्यवाद को मानते हैं वे भी जो हमारे प्रत्यक्ष है. उस परिवर्तन की उपेक्षा नहीं कर सकते। और जो दर्शन एकान्त नित्यवाद को मानते हैं वे भी जो हमारे प्रत्यक्ष हैं उस स्थिति की उपेक्षा नहीं कर सकते । एतदर्थ ही नैयायिकों ने दृश्य वस्तुओं को ग्रनित्य मानकर उनके परिवर्तन की विवक्षा की और बौद्धों ने सन्तति मानकर उनके प्रवाह की विवेचना की । आधुनिक वैज्ञानिक रूपान्तरवाद के सिद्धान्त को एक मत से स्वीकार करते हैं । जैसे एक मोमबत्ती है, जलाने पर कुछ ही क्षणों में उसका पूर्ण नाश हो जाता है । प्रयोगों के द्वारा यह सिद्ध किया जा चुका है कि मोमबत्ती के नाश होने पर अन्य वस्तुओं की उत्पत्ति होती है । इसी प्रकार पानी को एक वर्तन में रखा जाये, और उस बर्तन में दो छिद्र कर तथा उनमें कार्क लगाकर दो प्लेटिनम की पत्तियाँ उस पानी में खड़ी कर दी जायें और प्रत्येक पत्ती पर एक काँच का ट्यूब लगा दिया जाय तथा प्लेटिनम की पत्तियों का सम्बन्ध तार से बिजली की बैटरी के साथ कर दिया जाये तो कुछ ही समय में पानी गायब हो जायेगा । साथ ही उन प्लेटिनम की पत्तियों पर अवस्थित ट्यूबों पर ध्यान केन्द्रित किया जायेगा तो दोनों में एक-एक तरह की गैस १५. · A text book of Inorganic Chemistry by J. R. Parting. N.P. 15 १६. A text Book of Inorganic Chemistry by. G. S.-Neuth, P. 237 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ धर्म और दर्शन प्राप्त होगी, जो आक्सीजन और हाइड्रोजन के नाम से पहचानी जाती है । १६ वैज्ञानिक अनुसन्धान के द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि पुद्गल शक्ति में और शक्ति पुद्गल में परिवर्तित हो सकती है ।" सापेक्षवाद की दृष्टि से पुद्गल के स्थायित्व के नियम व शक्ति के स्थायित्व के नियम को एक ही नियम में समाविष्ट कर देना चाहिए। उसकी संज्ञा 'पुद्गल और शक्ति के स्थायित्व का नियम' इस प्रकार कर देनी चाहिए । १८ स्याद्वाद की दृष्टि से सत् कभी विनष्ट नहीं होता और असत् की कभी उत्पत्ति नहीं होती " । ऐसी कोई स्थिति नहीं जिसके साथ उत्पाद और विनाश न रहा हो अर्थात् जिनकी पृष्ठ भूमि में स्थिति है उनका उत्पाद और विनाश अवश्य होता है । सभी द्रव्य उभय-स्वभावी हैं। उनके स्वभाव की विवेचना एक ही प्रकार की नहीं हो सकती । असत् की उत्पत्ति नहीं होती और सत् का कभी नाश नहीं होता । इस द्रव्य नयात्मक सिद्धान्त से द्रव्यों की ही विवेचना हो सकती है, पर्यायों की नहीं। उनकी विवेचनाअसत् की उत्पत्ति और सत् का विनाश होता है - इस पर्यायनयात्मक सिद्धान्त के द्वारा ही की जा सकती है। इन दोनों को एक शब्द में परिणामी - नित्यवाद या नित्यानित्यवाद कहा जा सकता है । इसमें स्थायित्व र परिवर्तन की सापेक्ष रूप से विवेचना है । इस विश्व में ऐसा द्रव्य नहीं जो सर्वथा ध्रुव हो, और ऐसा भी द्रव्य नहीं है जो सर्वथा परिवर्तनशील ही हो । दीपक, जो परिवर्तनशील है, वह भी स्थायी है और जीव जो स्थायी है, वह भी परिवर्तनशील है । स्थायित्व १७. General Chemistry by finus Pauling P P. 4-5 १८. General and Inorganic Chemistry for by P. J. durrant 18. भावस्स णत्थि १६. नासो, णत्थि अभावस्स उप्पादो । - पंचास्तिकाय, १५ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद और परिवर्तनशीलता की दृष्टि से जोव और दीपक में कोई अन्तर नहीं है ।२० - केवल स्थिति ही होती तो सभी द्रव्यों का एक ही रूप रहता, उनमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता। केवल उत्पाद और व्यय ही होता तो केवल उनका क्रम होता किन्तु स्थायी आधार के अभाव में उनका कुछ भी रूप नहीं होता । कर्तृत्व, कर्म और परिणामी की कोई विवेचना नहीं होती। स्याद्वाद की दृष्टि से परिवर्तन भी है और उसका आधार भी है। परिवर्तनरहित किसी भी प्रकार का स्थायित्व नहीं है । और स्थायित्व रहित किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं है। अर्थात् परिवर्तन स्थायी में होता है और स्थायी वही हो सकता है जिसमें परिवर्तन हो। सारांश यह है कि निष्क्रियता और सक्रियता, स्थिरता और गतिशीलता का जो सहज समन्वित रूप है उसे ही द्रव्य कहा गया है। अपने केन्द्र में प्रत्येक द्रव्य ध्र व, स्थिर और निष्क्रिय है। उसके चारों ओर परिवर्तन की एक शृङ्खला है जिसे हम परमाणु की रचना से समझ सकते हैं । विज्ञान के अनुसार अणु की रचना तीन प्रकार के कणों से मानी गई है-(१) प्रोटोन (२) इलेक्ट्रोन (३) न्यूट्रोन । धनात्मक करण प्रोटोन है। परमाणु का वह मध्यबिन्दु होता है। ऋणात्मक कण इलेक्ट्रोन है। यह धनाणु के चारों ओर परिक्रमा करता है । उदासीन कण न्यूट्रोन है। आत्मा का शरीर से भेदाभेद : आत्मा शरीर से भिन्न है अथवा अभिन्न है, इस विषय में भी दर्शनशास्त्रों के मन्तव्य विविध प्रकार के उपलब्ध होते हैं। चार्वाक दर्शन आत्मा को शरीर से भिन्न स्वीकार नहीं करता। वह शरीर से ही चेतना २०. आदीपमाव्योमसमस्वभावं ___ स्याद्वादमुद्राऽनतिभेदि वस्तु । तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्यदिति त्वदाज्ञाद्विषतां प्रलापाः ॥ अन्ययोग व्यबच्छेदिका, श्लो० ५ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ धर्म और दर्शन की उत्पत्ति मानता है और शरीर का विनाश होने पर चेतना का भी विनाश हो जाना स्वीकार करता है ।२१ सूत्रकृतांग सूत्र में तज्जीवतच्छरीरवाद का उल्लेख मिलता है। वह चार्वाक मत से किचित् भिन्न होता हया भी एक ही वस्तु को जीव और शरीर के रूप में स्वीकार करता है ।२२ अनेक दर्शन प्रात्मा का शरीर से एकान्त भिन्नत्व स्वीकार करते हैं। इस समस्या को सुलझाते हुए भगवान् महावीर ने कहा-आत्मा कथंचित् शरीर से भिन्न भी है और अभिन्न भी है ।२३ अात्मा को शरीर से भिन्न तत्त्व न माना जाय और दोनों का एकत्व स्वीकार किया जाय तो शरीर के नाश के साथ आत्मा का भी नाश मानना होगा और उस स्थिति में पुनर्जन्म एवं मुक्ति की कल्पना निराधार हो जायगी। किन्तु युक्ति और आगम आदि प्रमाणों से पुनर्जन्म आदि की सिद्धि होती है, अतः आत्मा को शरीर से पृथक् मानना ही समीचीन है। साथ ही, अनादि काल से आत्मा शरीर के साथ ही रहा हुआ है और कृत कर्मो का फलोपभोग शरीर के द्वारा ही होता है। शरीर पर प्रहार होता है तो दुःख की अनुभूति आत्मा को होती है। देवदत्त पर प्रहार किया जाय तो जिनदत्त को दुःखानुभव नहीं होता, क्योंकि देवदत्त के शरीर से जिनदत्त की आत्मा भिन्न है। इसी प्रकार यदि देवदत्त की प्रात्मा देवदत्त के शरीर से भी सर्वथा भिन्न हो तो उसे भी दुःख का अनुभव नहीं होना चाहिये । इससे स्पष्ट हो जाता है कि जैसे देवदत्त के शरीर और जिनदत्त की आत्मा में भेद है, वैसा भेद देवदत्त के शरीर और देवदत्त की आत्मा में नहीं है। यही देह और आत्मा का अभेद है। २१. भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ? २२. पत्तेयं कसिणे आया, जे बाला जे अ पंडिया । सन्ति पिच्चा न ते सन्ति, नत्थि सत्तोववाइया । -सूत्रकृतांग, १।१।११ २३. आया भन्ते ! काये, अन्ने काये ? गोयमा ! आया वि काये, अन्ने वि काये। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद सत्ता और असत्ता : जब यह निश्चित हो जाता है कि वस्तुतत्त्व सापेक्ष है और स्याद्वादपद्धति से ही उसका ठीक प्रतिपादन हो सकता है, तो वस्तु के अस्तित्व और नास्तित्व के विषय में भी हमें अनेकान्त को लागू करके देखना होगा। जैन दार्शनिकों ने बड़ी ही खूबी के साथ इस विषय पर ऊहापोह किया है और स्वचतुष्टय और परचतुष्टय के द्वारा अस्तित्व नास्तित्व की समस्या का समाधान खोजा है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, ये चारों चतुष्टय कहलाते हैं। प्रत्येक वस्तु स्वचतुष्टय की अपेक्षा अस्तित्ववान् है और परचतुष्टय की अपेक्षा नास्तिरूप है ।२४ ___ उदाहरण के लिए एक स्व गंधट को लीजिए । वह स्वर्ण का बना है, यह स्वद्रव्य की अपेक्षा अस्तित्व है। वह जिस क्षेत्र अर्थात् स्थान में रक्खा है, उस क्षेत्र की अपेक्षा से है । जिस काल में उसकी सत्ता है, उस काल की अपेक्षा से है । उसमें जो पीतवर्ण आदि अनेक पर्याय विद्यमान हैं, उनकी अपेक्षा से है । किन्तु वही घट मृत्तिकाद्रव्य को अपेक्षा से नहीं है। अन्य क्षेत्र की अपेक्षा से भी नहीं है। कालान्तर की अपेक्षा से भी नहीं है । कृष्णवर्ण आदि पर्यायों से भी उसमें अस्तित्व नहीं है । इसी प्रकार स्वर्णघट सोने का है, मृत्तिका आदि का नहीं है । अमुक क्षेत्र में है अन्य क्षेत्र में नहीं है। जिस काल में है उसके अतिरिक्त अन्य काल की अपेक्षा से नहीं है। वह अपने स्वपर्यायों से है, पर पर्यायों से नहीं है, इस प्रकार स्वचतुष्टय और परचतुष्टय की अपेक्षा उसमें अस्तित्व और नास्तित्व सहज ही घटित होते हैं। कई लोग अस्तित्व और नास्तित्व को विरोधी धर्म समझ कर एक ही वस्तु में दोनों का समन्वय असंभव मानते हैं मगर वे भूल जाते हैं कि एक हो अपेक्षा से यदि अस्तित्व और नास्तित्व का विधान किया जाय तभी उनमें विरोध होता है, विभिन्न अपेक्षाओं से विधान २४. सदेव सर्व को नेच्छेत्, स्वरूपादिचतुष्टयात् । ___ असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ।। ~प्राप्तमीमांसा, श्लोक १५ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ धर्म और दर्शन करने में कोई विरोध नहीं होता। किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में यह कहना कि यह मनुष्य है, मनुष्येतर नहीं है; भारतीय है, पाश्चात्य नहीं है। वर्तमान में है, सदा से या सदा रहने वाला नहीं है, विद्वान् है मूर्ख नहीं है तो क्या हम उस व्यक्ति के विषय में परस्परविरुद्ध विधान करते हैं ? नहीं । यह विधान न केवल तर्कसंगत है, अपितु व्यवहारसंगत भी है। हम प्रतिदिन इसी प्रकार व्यवहार करते हैं। ऐसा व्यवहार किए विना किसी वस्तु का निश्चय हो भी नहीं सकता। 'यह पुस्तक है' ऐसा निश्चय तो तभी संभव है, जब हम यह जान लें कि यह पुस्तक के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। इन उदाहरणों से प्रत्येक पदार्थ सत् और असत् किस प्रकार है, यह समझ में आ जाता है । मगर जैनाचार्यों ने इस विचार को सुस्पष्ट करने के लिए सप्तभंगी का विधान किया है, जिससे वस्तु में प्रत्येक धर्म की संगति एकदम निर्विवाद हो जाती है। सप्तभंगी: प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। उन अनन्त धर्मों में से प्रत्येक धर्म की ठीक-ठीक संगति बिठलाने के लिए विधि, निषेध आदि की विवक्षा से सात भंग होते हैं। यही सप्तभंगी है।२५ ये सात भंग प्रत्येक धर्म पर घटित किए जा सकते हैं, किन्तु उदाहरण के रूप में सत्ताधर्म को लेकर यहाँ उनका उल्लेख किया जाता है। वे निम्न लिखित हैं (१) स्यादस्ति-स्वकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व है। (२) स्यान्नास्ति-परकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से प्रत्येक वस्तु नहीं है। (३) स्यादस्ति-नास्ति-स्वकीय तथा परकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से वस्तु है और नहीं है । २५. सप्तभिः प्रकारैर्वचन-विन्यासः सप्तभङ्गीतिगीयते । -स्याद्वाद मंजरी, का० २३ टीका Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाद्वाद ११६ (४) स्यादवक्तव्य-युगपद् कथन की अपेक्षा से वस्तु अनिर्वचनीय है, अर्थात् सत्ता और असत्ता को एक साथ कहा नहीं जा सकता। (५) स्यादस्ति-प्रवक्तव्य - वस्तु स्वचतुष्टय से सत् होने पर भी, एक साथ स्व-पर चतुष्टय की अपेक्षा से प्रवक्तव्य है। (६) स्यान्नास्ति-प्रवक्तव्य --पर चतुष्टय से असत् होते हुए भी एक साथ स्व-पर चतुष्टय से अवक्तव्य है। (७) स्यादस्ति-नास्ति-प्रवक्तव्य- स्वचतुष्टय से सत्, पर चतुष्टय से असत् होते हुए भी एक साथ स्व-पर चतुष्टय से अनिर्वचनीय हैं । ___इसी प्रकार नित्यत्व, एकत्व आदि उभी धर्मों के विषय में यह सप्तभंगी लागू होती है । यह सात भंग वन-प्रथम और द्वितीय भंग के ही व्यापक स्वरूप हैं। पाठक समझ सकेंगे कि स्याद्वाद सिद्धान्त में स्तुस्वरूप की विवे. चना सापेक्ष दृष्टि से की गई है। उक्त सातों भंगों का आधार काल्पनिक नहीं वरन् वस्तु का विराट और विविधरूप स्वरूप ही है। स्याद्वाद सिद्धान्त की चमत्कारिक शक्ति और व्यापक प्रभाव को हृदयंगम करके डाँ० हर्मन जैकोबी ने कहा था-'स्याद्वाद से सब सत्यविचारों का द्वार खुल जाता है।' __अभी हाल में ही में अमेरिका के विश्रु त दार्शनिक प्रोफेसर प्राचि० जे० बह्न ने स्याद्वाद का अध्ययन करके जैनों को ये प्रेरणाप्रद शब्द कहे हैं-विश्वशान्ति की स्थापना के लिए जैनों को अहिंसा की अपेक्षा स्याद्वाद सिद्धान्त का अत्यधिक प्रचार करना उचित है। महात्मा गाँधी को भी यह सिद्धान्त बड़ा प्रिय था और प्राचार्य विनोबा जैसे शान्तिप्रसारक सन्त इसके महत्त्व को मुक्त कंठ से स्वीकार करते हैं। भ्रम निवारण : सप्तभंगी सिद्धान्त के विषय में कतिपय पाश्चात्य और कुछ भारतीय विद्वानों को जो गलत धारण है, उसका उल्लेख यहाँ कर देना अनुचित न होगा। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० धर्म और दर्शन प्राचीन जैन आगमों में सप्तभंगी बीज रूप में उपलब्ध होती है ।२६ प्राचार्य कुन्दकुन्द ने कुछ ही भंगों का उल्लेख किया है ।२७ किन्तु इनके पश्चाद्वर्ती प्राचार्य समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलंक, विद्यानन्द, हेमचन्द्र, वादिदेव आदि ने उसका स्पष्ट और विस्तृत विवेचन किया है। इस प्रतिपादन क्रम को कुछ विद्वानों ने स्याद्वाद या सप्तभंगो का विकासक्रम समझ लिया है किन्तु तथ्य यह है कि जैन तत्त्वज्ञान सर्वज्ञमूलक है। सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थङ्करों के ज्ञान में जो तत्त्व प्रतिभासित होता है, उसी को उनके प्रधान शिष्य शब्दबद्ध करते हैं और फिर उनके शिष्य प्रशिष्य उसके एक-एक अंग का प्राधार लेकर युग की स्थिति के अनुसार विभिन्न ग्रन्थों की रचना करते हैं । इा . तत्त्वविवेचन का क्रम आगे बढ़ता है। इस विवे व का विकासक्रम समझ लेना युक्तिसंगत नहीं है। ____इस युग में प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव हुए हैं। उन्होंने जो उपदेश किया वही उनके पश्चात् होने वाले तेईस तीर्थङ्करों ने किया। वही उपदेश कालक्रम से उनके अनुयायी विभिन्न प्राचार्यों द्वारा जैन साहित्य में लिपिबद्ध किया गया है । किसी भी विषय का संक्षिप्त या विस्तृत विवेचन उसके लेखक की संक्षेपरुचि अथवा विस्तार रूचि पर निर्भर करता है । इसके अतिरिक्त युग की विचारधारा भी उसे प्रभावित करती है । खासतौर से दार्शनिक साहित्य में ऐसा भी होता है कि कोई लेखक जब किसी विषय के ग्रन्थ की रचना करता है तो अपने समय तक के विरोधी विचारों का उसमें उल्लेख करता है २६. जीवा रणं भंते ! किं सासया, असासया ? गोयमा ! जीवा सिय सासया, सिय असासया। दव्वट्ठयाए सासया, भावट्ठयाए असासया। -भगवती, ७।२६७७३ २७. सिय अस्थि णस्थि उहयं -पंचास्तिकाय, प्रवचनसार २८. अत्थं भासइ अरहा, सुत्तगुथति गणहरा निउरणं । -भद्रबाहु। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद और अपने दृष्टिकोण के अनुसार उनका निराकरण भी करता है ।. जैन दार्शनिक साहित्य में भी यह प्रवृत्ति स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है । इस प्रतिपादन क्रम को अगर कोई मूल तत्त्व का विकासक्रम समझ बैठे तो यह उसकी भूल ही कही जाएगी । अमरीकी विद्वान प्राचि० जे० बह्र इसी भूल के शिकार हुए हैं । उन्होंने स्याद्वाद के निरूपणक्रम को स्याद्वाद का विकासक्रम समझ लिया है। एक भूल अनेक भूलों की सृष्टि कर देती है । जब उन्होंने स्याद्वाद के क्रमविकास की भ्रान्त कल्पना की तो दूसरी भूल यह हो गई कि वे सप्तभंगी को बौद्धों के चतुष्कोटिनिषेध का अनुकरण अथवा विकास समझने लगे, यद्यपि उन दोनों में बहुत अधिक अन्तर है । 4 १२१ सर्वप्रथम हमें इतिहास द्वारा निर्णीत इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि जैनधर्म, बौद्धधर्म से बहुत प्राचीन है । 23 महात्मा बुद्ध से पहले तेईस तीर्थकर हो चुके थे । तेईसवें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ उनसे लगभग २५० वर्ष पूर्व हुए थे । उन्होंने स्याद्वाद सिद्धान्त का निरूपण किया था । संजय वेलट्ठपुत्त, जो बुद्ध के पूर्ववर्ती हैं, उन्होंने स्याद्वाद को ठीक तरह न समझ कर संशयवाद की प्ररूपणा की थी । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि स्याद्वाद सिद्धान्त का बुद्ध से पहले ही अस्तित्व था । ऐसी स्थिति में यह समझना कि सप्तभंगी सिद्धान्त बौद्धों के चतुष्कोटिप्रतिषेध का विकसित रूपा - न्तर है, सर्वथा निराधार है । चतुष्कोटिप्रतिषेध का सिद्धान्त तो बुद्ध के भी बाद में प्रचलित हुआ है। इसके अतिरिक्त सप्तभंगी और चतुष्कोटिप्रतिषेध के आशय में भी बहुत अन्तर है । बौद्धों का चतुष्कोटि-प्रतिषेध यों है १ - वस्तु है, ऐसा नहीं है । २ - वस्तु नहीं है, ऐसा भी नहीं है । ३- वस्तु है और नहीं है, ऐसा भी नहीं है । २६. देखिए, डा० हर्मन जैकोबी द्वारा लिखित जैन सूत्राज़ की भूमिका । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ धर्म और दर्शन ४-वस्तु है और नहीं है, ऐसा नहीं है, यह भी नहीं है । सप्तभंगी के स्वरूप का उल्लेख पहले किया जा चुका है । सप्तभंगी में और प्रस्तुत चतुष्कोटि प्रतिषेध में वस्तुतः कोई समानता नहीं है । सप्तभंगी में वस्तु के अस्तित्व और नास्तित्व प्रादि का प्रतिपादन है, जब कि इस प्रतिषेध में अस्तित्व को कोई स्थान नहीं है, केवल नास्तित्व का ही निरूपण पाया जाता है। सप्तभंगी में जो अस्तित्व और नास्तित्व का विधान है, वह स्वचतुष्टय और परचतुष्टय के आधार पर है और क्षण-क्षण में होने वाला हमारा अनुभव उसका समर्थन करता है । सप्तभंगी के अनुसार मनुष्य मनुष्य है, पशु-पक्षी आदि मनुष्येतर नहीं है। किन्तु चतुष्कोटि प्रतिषेध का कहना है कि कि मनुष्य मनुष्य नहीं है, मनुष्येतर भी नहीं है; उभय रूप भी नहीं है, अनुभव रूप भी नहीं है। वह कुछ भी नहीं है और वह कुछ भी नहीं है, ऐसा भी नहीं है । इस प्रकार यहाँ न कोई अपेक्षाभेद है और न अस्तित्व का कोई स्थान ही है। सप्तभंगी में पदार्थो के अस्तित्व से इन्कार नहीं किया गया है, सिर्फ उसके स्वरूप की नियतता प्रदर्शित करने के लिए यह दिखलाया गया है कि वह पर-रूप में नहीं है। सप्तभंगोवाद हमें सतरंगी पूष्पों से सुशोभित विचारवाटिका में विहार कराता है, तो बौद्धों का निषेधवाद पदार्थों के अस्तित्व को अस्वीकार कर के शुन्य के घोर एकान्त अन्धकार में ले जाता है। अनुभव उसको कोई आधार प्रदान नहीं करता है । अतएव यह स्पष्ट है कि सप्तभंगी का बौद्धों के चतुष्कोटिनिषेध के साथ लेशमात्र भी सरोकार नहीं है। स्याद्वाद संशयवाद नहीं : जैनदर्शन की यह मान्यता है कि प्रत्येक पदार्थ अनन्त धर्मात्मक है।३१ अनन्त धर्मात्मकला के बिना किसी पदार्थ के अस्तित्व की कल्पना ३०. नासन्नसन्न सदसन्न नाप्यनुभयात्मकम् । चतुष्कोटिविनिमुक्तं, तत्त्वं माध्यमिका विदुः ॥ ३१. अनन्तधर्मात्मकमेव तत्त्वं, ___ अतोऽन्यथा सत्त्वमसूपपादम् । -अन्ययोग व्यवच्छेद द्वा०, त्रिंशिका Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद १२३ ही सम्भव नहीं है । किन्तु एक साथ अनन्त धर्मों का निर्वचन नहीं हो सकता। दूसरे धर्मों का विधान और निषेध न करते हुए किसी एक धर्म का विधान करना ही स्याद्वाद है। अनेकान्त वाच्य और स्याद्वाद वाचक है । अमुक अपेक्षा से घट सत् ही है और अमुक अपेक्षा से घट असत् ही है, यह स्याद्वाद है । इसमें यह प्रदर्शित किया गया है कि स्वचतुष्टय से घट की सत्ता निश्चित है और परचतुष्टय से घट की असत्ता निश्चित है। इस कथन में संशय को कोई स्थान नहीं है। किन्तु 'स्यात्' शब्द के प्रयोग को देखकर, स्याद्वाद की गहराई में न उतरने वाले कुछ लोग, यह भ्रमपूर्ण धारणा बना लेत हैं कि स्थाद्वाद अनिश्चय की प्ररूपणा करता है । वस्तुतः 'स्यात्' शब्द का अर्थ न 'शायद' है, न 'सम्भवतः' है और न 'कदाचित्' जैसा ही है। वह तो एक सुनिश्चित सापेक्ष दृष्टिकोण का द्योतक है। प्रो० बलदेव उपाध्याय ने लिखा है'अनेकान्तवाद संशयवाद नहीं है।' परन्तु वे उसे 'सम्भवतः' अर्थ में प्रयुक्त करना चाहते हैं, मगर यह भी संगत नहीं है। शंकराचार्य ने अपने भाष्य में स्याद्वाद को संशयवाद कहकर जो भ्रान्त धारणा उत्पन्न को थी, उसकी परम्परा अब भी बहुत अंशों में चल रही है। किन्तु प्रोफेसर फणिभूषण अधिकारी ने आचार्य शंकर की धारणा के सम्बन्ध में लिखा है-"जैनधर्म के स्याद्वाद सिद्धान्त को जितना गलत समझा गया है, उतना अन्य किसी भी सिद्धान्त को नहीं । यहाँ तक कि शंकराचार्य भी इस दोष से मुक्त नहीं है । उन्होंने भी इस सिद्धान्त के प्रति अन्याय ही किया है। यह बात अल्पज्ञ पुरुषों के लिए क्षम्य हो सकती थी, किन्तु यदि मुझे कहने का अधिकार है तो मैं भारत के इस महान् विद्वान के लिए तो अक्षम्य ही कहूँगा, यद्यपि मैं इस महर्षि को अतीव आदर की दृष्टि से देखता हैं। ऐसा जान पड़ता है कि उन्होंने इस धर्म के दर्शनशास्त्र के मूल ग्रन्थों के अध्ययन की परवाह नहीं की।" ___स्पष्ट है कि स्याद्वाद संशयवाद नहीं है । सभी दर्शन किसी न किसी रूप में इसे स्वीकार करते हुए भी इसका नाम लेने में हिचकते हैं। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ धर्म और दर्शन पाश्चात्य विद्वान् थामस का यह कथन ठीक ही है कि-"स्याद्वाद सिद्धान्त बड़ा गम्भीर है । यह वस्तु की भिन्न-भिन्न स्थितियों पर अच्छा प्रकाश डालता है । स्थाद्वाद का अमर सिद्धान्त दार्शनिक जगत् में बहुत ऊँचा सिद्धान्त माना गया है । वस्तुतः स्याद्वाद सत्य ज्ञान की कुञ्जी है । दार्शनिक क्षेत्र में स्याद्वाद को सम्राट् का रूप दिया गया है। स्यात् शब्द को एक प्रहरी के रूप में स्वीकार करना चाहिए, जो उच्चारित धर्म को इधर-उधर नहीं जाने देता है । यह अविवक्षित धर्मों का संरक्षक है, संशयादि शत्रुओं का संरोधक व भिन्न दार्शनिकों का संपोषक है। जिन दार्शनिकों की भाषा स्याद्वादानुगत है, उन्हें कोई भी दर्शन भ्रमजाल के चक्र में नही फंसा सकता। एकबार भगवान् महावीर के समक्ष प्रश्न उपस्थित हुआ, साधु को किस प्रकार की भाषा का प्रयोग करना चाहिए ? उत्तर में भगवान ने कहा-साध को विभज्यवाद३२ का प्रयोग करना चाहिए । टीकाकार ने विभज्यवाद का अर्थ स्याद्वाद किया है । क्या संशयात्मक वाणी का प्रयोग करके कोई दर्शन जीवित रह सकता है ? विरोध का निराकरण : शंकराचार्य ने अपने शांकरभाष्य में स्याद्वाद के निरसन का प्रयत्न करते हुए यह भी कहा है-शीत और उष्ण की तरह एक धर्मी में परस्पर विरोधी सत्त्व और असत्त्व आदि धर्मो का एक साथ समावेश नहीं हो सकता। किन्तु स्याद्वाद के स्वरूप को जिसने समझ लिया है, उसके समक्ष यह आरोप हास्यास्पद ही ठहरता है। प्राचार्य से यदि प्रश्न किया गया होता-'आप कौन हैं ?' तो वे ३२. भिक्खू विभज्जवायं च वियागरेज्जा । -सूत्रकृतांग, १।१४।२२ ३३. न हि एकस्मिन् धर्मिणि युगपत् सदसत्त्वादिविरुद्धधर्मसमावेशः सम्भवति शीतोष्णवत् । -शांकरभाष्य, Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद १२५ उत्तर देते–'मैं संन्यासी हूँ।' पुनः प्रश्न किया जाता-'आप गृहस्थ हैं या नहीं ?' तो वे कहते- 'मैं गृहस्थ नहीं हैं।' अब तीसरा प्रश्न उनसे यह किया जाता-- पाप हूँ' भी और 'नहीं हूँ' भी कहते हैं, इस परस्पर विरोधी कथन का क्या आधार है ? तब प्राचार्य को अनन्यगत्या यही कहना पड़ता- संन्यासाश्रम की अपेक्षा हूँ, गृहस्थाश्रम की अपेक्षा नहीं है, इस प्रकार अपेक्षाभेद के कारण मेरे उत्तरों में विरोध नहीं है। बस, यही उत्तर स्याद्वाद है। सत्त्व और असत्त्व धर्म यदि एक ही अपेक्षा से स्वीकार किये जाएँ तो परस्पर विरोधी होते हैं, किन्तु स्वरूप से सत्त्व और पररूप से असत्त्व स्वीकार करने में किसी प्रकार का विरोध नहीं है, जैसे-मैं संन्यासी हूँ और संन्यासी नहीं हैं, यह कहना विरुद्ध है, किन्तु मैं संन्यासी हूँ, गृहस्थ नहीं हूँ, ऐसा कहने में कोई विरोध नहीं है। नयवाद : नयवाद को स्याहाद का एक स्तम्भ कहना चाहिए। स्याद्वाद जिन विभिन्न दृष्टिकोणों का अभिव्यंजक है, वे दृष्टिकोण जैन परिभाषा में नय के नाम से अभिहित होते हैं। पहले कहा जा चुका है कि प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। वस्तु के उन अनन्त धर्मों में से किसी एक धर्म का बोधक अभिप्राय या ज्ञान नय है । प्रमाण वस्तु के अनेक धर्मों का ग्राहक होता है और नय एक धर्म का । किन्तु एक धर्म को ग्रहण करता हुअा भी नय दूसरे धर्मों का न निषेध करता है और न विधान ही करता है । निषेध करने पर वह दुर्नय हो जाता है ।३५ विधान करने पर प्रमाण की कोटि में परिगणित हो जाता है । नय, प्रमाण और अप्रमाण दोनों से भिन्न प्रमाण का एक अंश है, जैसे समुद्र का अंश न समुद्र है, न असमुद्र है, ३४. अर्थस्यानेकरूपस्य धीः प्रमाणं तदंशधीः । नयो धर्मान्तरापेक्षी, दुर्नयस्तन्निराकृतिः ।। ३५. स्वाभिप्रेतादशादितरांशापलापी पुनर्नयाभासः । -प्रमाणनयतत्त्वालोक, वाविदेव । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन वरन् समुद्रांश है । 3 नय का ग्राह्य भी वस्त्वंश ही होता है । विश्व के सभी एकान्तवादी दर्शन एक ही नय को अपने विचार का आधार बनाते हैं । उनका दृष्टिकोण एकांगी होता है । वे भूल जाते हैं कि दूसरे दृष्टिकोण से विरोधी प्रतीत होने वाला विचार भी संगत हो सकता है । इसी कारण वे एकांगी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हैं और वस्तु के समग्र स्वरूप को स्पर्श नहीं कर पाते । वे सम्पूर्ण सत्य के ज्ञान से वंचित रह जाते हैं । नयवाद अनेक दृष्टिकोणों से वस्तु को निरखने परखने की कला सिखलाता है । बौद्धदर्शन वस्तु के अनित्यत्व धर्म को स्वीकार करके द्रव्य की अपेक्षा पाये जाने वाले नित्यत्व धर्म का निषेध करता है । सांख्यदर्शन नित्यत्व को अंगीकार करके पर्याय की दृष्टि से विद्यमान प्रनित्यत्व धर्म का अपलाप करता है। इस प्रकार ये दोनों दर्शन अपने-अपने एकान्त पक्ष के प्रति प्राग्रहशील होकर एक-दूसरे को मिथ्या कहते हैं । वे नहीं जानते कि दूसरे को मिथ्यावादी कहने के कारण वे स्वयं मिथ्यावादी बन जाते हैं । अगर उन्होंने दूसरे को सच्चा माना होता तो वे स्वयं सच्चे हो जाते, क्योंकि वस्तु में द्रव्यतः नित्यत्व और पर्यायतः अनित्यत्व धर्म रहता है । १२६ इस प्रकार नयवाद द्वीत प्रत, निश्चय व्यवहार, ज्ञान-क्रिया, काल-स्वभाव-नियति यदृच्छा - पुरुषार्थ आदि वादों का सुन्दर और समी चीन समन्वय करता है । नयवाद दुराग्रह को दूर करके दृष्टि को विशालता और हृदय को को उदारता प्रदान करता है । वह वस्तु के विविध रूपों का विश्लेषण हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है । आचार्य समन्तभद्र ने कहा है- "हे जिनेन्द्र ! जिस प्रकार विविध रसों द्वारा सुसंस्कृत लोह स्वर्ण आदि धातु पौष्टिकता और स्वास्थ्य आदि अभीष्ट फल प्रदान करती हैं, उसी प्रकार 'स्यात्' पद से अंकित आपके नय ३६. नासमुद्रः समुद्रो वा समुद्रांशो यथैव हि । नायं वस्तु न चावस्तु, वस्त्वंशो कथ्यते बुधैः ।। - श्लोकवात्तिक, विद्यानन्द, Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद १२७ मनोवांछित फल के प्रदाता हैं, अतएव हितैषी आर्य पुरुष प्रापको नमस्कार करते हैं। कहा जा चुका है कि प्रत्येक पदार्थ में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की प्रक्रिया निरन्तर चालू है। स्वर्णपिण्ड से एक कलाकार घट बनाता है। फिर उस स्वर्णघट को तोड़कर मुकुट बनाता है । यहाँ प्रथम पिण्ड के विनाश से घट की और घट के विनाश से मुकूट की उत्पत्ति होती है, मगर स्वर्णद्रव्य सब अवस्थानों में विद्यमान रहता है। यह द्रव्य से नित्यता और पर्याय से अनित्यता है। जिसने दूध ही ग्रहण करने का नियम अंगीकार किया है वह दधि नहीं खाता । दधि खाने का नियम लेने वाला दूध का सेवन नहीं करता। किन्तु गोरस का त्याग कर देने वाला दोनों का सेवन नहीं करता। इससे स्पष्ट है कि दुग्ध का विनाश, दधि की उत्पत्ति और गोरस की स्थिरता होने से वस्तू का पर्याय से उत्पाद-विनाश होने पर भी द्रा से ध्रौव्य रहता है। इस उदाहरण से वस्तु की सामान्य विशेषात्मकता भी प्रमाणित हो जाती है। प्राशय यह है कि प्रत्येक वस्तु के दो मुख्य अंश हैं--द्रव्य और पर्याय । अतएव द्रव्य को प्रधान रूप से ग्रहण करने वाला दृष्टिकोण द्रव्यार्थिक नय और पर्याय को ग्रहण करने बाला पर्या धार्थिक नय कहलाता है। यद्यपि वस्तगत अनन्त धर्मों को ग्रहण करने वाले अभिप्राय भी अनन्त होते हैं, और इस कारण नयों की संख्या का अवधारण नहीं किया जा सकता, तथापि उन सब का समावेश ३७. घटमौलिसुवर्णार्थी, नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यं, जनो याति सहेतुकम् ॥ -प्राचार्य समन्तभद्र, ३८. पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोत्ति दधिव्रतः । अगोरसवतो नोभे, तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् ।। ---प्राचार्य समन्तभद्र, ३६. जावइया वयणपहा, तावइया चेव हुति नयवाया। --सन्मतितर्क, प्राचार्य सिद्ध सेन Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ धर्म और दर्शन ४० द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक, इन दो नयों में ही हो जाता है । जिस कोण में द्रव्य की प्रधानता हो वह द्रव्यार्थिक नय कहलाता है और जिसमें पर्याय की मुख्यता हो वह पर्यायार्थिक नय है । जैन साहित्य में नयविषयक अनेक ग्रन्थों का निर्माण हुआ है। अधिक जानकारी के लिए पाठकों को उन ग्रन्थों का अवलोकन करना चाहिए। विस्तारभय से यहां अधिक नहीं लिखा गया है । ४०. व्यासतोऽनेकविकल्पः । समासतस्तु द्विभेदो द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च । - प्रमाणनयतत्त्वालोक श्र० ७१४१५ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँच धर्म का मूल : सम्यग्दर्शन धर्म का मल क्या है ? यह एक गम्भीर प्रश्न रहा है, और इस प्रश्न का उत्तर विभिन्न दृष्टियों से विभिन्न विचारकों ने दिया है। कहीं पर दया को धर्म का मूल बताया है। कहीं पर विनय को धर्म का मूल कहा है । और कहीं पर दर्शन को धर्म का मूल कहा है। अपेक्षा दृष्टि से सभी कथन सत्य हैं। दया में चारित्रसम्बन्धी सभी नियमों का समावेश हो जाता है। विनय का अर्थ यहाँ नम्रता नहीं किन्तु सदाचार ही है। सदाचार सम्यग्दर्शनमलक होता है। इस प्रकार धर्म के मूल में शब्दभेद होने पर भी प्राशयभेद नहा है । तथापि गहराई से चिन्तन किया जाय तो यह स्पष्ट हुए विना । १. दयामूलो भवेद्धर्मो, दयाप्राण्यनुकम्पनम् । -महापुराण-जिनसेन २१३२६२ (ख) दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिान ।। -संत तुलसीदास २. एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो से मोक्खो । -दशवकालिक हारा२ कि मूलए धम्मे ? सुदंसणा, विणयमूले धम्मे। -ज्ञातासूत्र ५ ३. दंसणमूलो धम्मो। -कुन्दकुन्दाचार्य Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० धर्म और दर्शन रहेगा कि धर्म का मूल वस्तुतः सम्यग् दर्शन ही है, क्यों कि सम्यग्दर्शन के अभाव में दया सही दया नहीं है और विनय सही विनय नहीं है। सम्यग्दर्शन का अर्थ है विशुद्धदृष्टि । पाश्चात्य विचारक आर० विलियम्स के शब्दों में जिन द्वारा बताए गए मोक्ष मार्ग में श्रद्धा सम्यकत्त्व है।" प्राचार्य वसुनन्दिन् के अनुसार प्राप्त, आगम और तत्त्वपदार्थ इन तीनों में श्रद्धा रखना सम्यक्त्त्व है। पूर्ण ज्ञानी और पूर्ण वीतराग पुरुष प्राप्त कहलाता है । उसकी वाणी आगम और उसके द्वारा उपदिष्ट पदार्थ-तत्त्व हैं । श्रावकपंचाचार वृत्ति के अनुसार-तीर्थंकरों के द्वारा उपदिष्ट सत्यों में श्रद्धा सम्यक्त्त्व है। प्राचार्य हेमचन्द्र के अनुसार-सुदेव, सुगुरु और सुधर्म में श्रद्धा सम्यक्त्व है। आचार्य कुन्दकुन्द के शब्दों में 'व्यवहार नय से जीवादि तत्त्वों का ४. नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विना न हुति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निवारणं । -उत्तराध्ययन २८३० आर० विलियम्सः 'जैन योग', प्रकाशक ओ० यू० प्रेस लन्दन १९६३ पृ० ४१ । अत्तागमतच्चाणं, जं सद्दहणं सुणिमल होइ। संकाइदोसरहियं, तं सम्मत्त मुणेयव्वं ॥ -वसुनन्दिश्रावकाचार गा० ६ ७. सव्वाइ जिणेसरभासिआई, वयणाइ नन्नहा हुति । इअ बुद्धि जस्स मणे सम्मत्तं निच्चलं तस्स । -श्रावक पंचाचार वृत्ति, गा० ३ ८. या देवे देवताबुद्धि, गुरौ च गुरुतामतिः । धर्मं च धर्मधीः शुद्धा, सम्क्त्व मिदमुच्यते । -योगशास्त्र, प्र० ३।२ श्लोक Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का मूल : सम्यग्दर्शन १३१ का श्रद्धान करना सम्यक्त्त्व है, किन्तु निश्चय नय से आत्मा का श्रद्धान ही सम्यक्त्व है। उमास्वाति के शब्दों में 'तत्त्वरूप पदार्थों की श्रद्धा अर्थात् दृढ़ प्रतीति सम्यग्दर्शन है ।१० आधारभूत तथ्य को तत्त्व कहते हैं । स्थानाङ्ग और उत्तराध्ययन२ आदि में तत्त्व के नौ भेद किये हैं--(१) जीव (२) अजीव (३) पुण्य, (४) पाप (५) आस्रव (६) संवर (७, निर्जरा (८) बंध () मोक्ष। उमास्वाति व प्राचार्य हेमचन्द्र ने तत्त्व के सात भेद किये हैं(१) जीव (२) अजीव (३) आस्रव (४) बन्धः (५) संवर (६) निर्जरा (७) और मोक्ष । पुण्य और पाप को उन्होंने आस्रव के अन्तर्गत गिना है। १२० ६. जीवादीसद्दहणं सम्मत्तं, जिणवरेहिं पण्णत्तं । _ववहाराणिच्छयदो; अप्पाणं हवइ सम्मत्त ।। -दर्शन पाहुड २० १०: तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । -तत्त्वार्थ सूत्र ११२ (ख) उत्तराध्ययन २८.१५ ११. स्थानाङ्ग ६६५ जीवा-जीवा य बंधो य, पुण्णं पावाऽसवो तहा । संवरो निज्जरा मोक्खो, संतेए तहिया नव ॥ -उत्तराध्ययन २८।१४ (ख) जीवाजोवा भावा, पुण्णं पावं च आसवं तेसि । संवरणिज्जरबंधो, मोक्खो य हवति त अट्ठा ॥ -पंचास्तिकाय २।१०८ १३. जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् । -तत्त्वार्थसूत्र १४ (ख) जीवाजीवाश्रवाश्चैव, संवरो निर्जरा तथा । बंधो मोक्षश्चेति सप्त, तत्त्वान्याहुर्मनीषिणः॥ -सप्ततत्त्वप्रकरणम्-प्राचार्य हेमचन्द्र Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन संक्षेप दृष्टि से तत्त्व के दो भेद हैं। एक जीव और दूसरा प्रजीव । १४ जीव का लक्ष्य शिव है, किन्तु उसका बाधक तत्त्व जीव है । जीव शिव बनना चाहता है, पर अजीव तत्त्व जीव में पय-पानीवत् घुलमिल जाने के कारण जीव अपना शुद्ध स्वरूप पहचान नहीं पाता । वह अनादि अनन्त काल से अपने अशुद्ध रूप को ही शुद्ध रूप समझने की भयंकर भूल कर रहा है । अपने आपको शुद्ध चैतन्यस्वरूप न मान कर शरीर से, इन्द्रियों से, मन से, कर्मोदयजनित मनुष्यपर्याय आदि से प्रभिन्न समझना मिथ्या है । १३२ इसे ही जैन दार्शनिकों ने मिथ्यात्व कहा है ।" रात्रिसंबंधी अन्धकार को दूर किये विना जैसे सहस्ररश्मि सूर्य उदित नहीं होता वैसे ही मिथ्यात्व रूपी अन्धकार को नष्ट किये विना सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं होता ।१६ जब अत्मा में सम्यग्दर्शन का प्रादुर्भाव होता है तब वह आत्मा जीव और जीव का पृथक्त्त्व समझता है । मैं जड़ नहीं चेतन ! मेरा स्वरूप शुद्ध चेतना है । मुझ में राग, द्व ेष आदि की जो विकृति वह जड़ के संसर्ग से हैं। मैं सम्प्रति कर्मों से बद्ध हूँ, किन्तु कर्मों को १४. (क) जीवरासी चैव प्रजीवरासी चेव । १५. १६. - स्थानाङ्ग २/४/६५ (ख) दुवे रासी पन्नत्ता, तं जहा जीवरासी चेव अजीवरासी चेव । - समवायांग २।१४६ (ग) जीवा चेवा अजीवा यं, एस लोए वियाहिए || W - उत्तराध्ययन (घ) पन्नवणा दुविहा पन्नत्ता - तं जहा जीवनवणा य जीवपन्नवणा य || मिथ्या विपरीता दृष्टिर्यस्य स मिथ्यादृष्टि: निद्धय तमो नैशं; यथा नोदयतेंऽशुमान् । तथानुद्भिद्य मिथ्यात्वतमो नोदेति दर्शनम् ।। -पनवणा-१ - कर्मग्रन्थ टीका० २ - महापुराण, ११६/६/२०० Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का मूल : सम्यग्दर्शन नष्ट कर एक दिन मैं अवश्य ही मुक्त बनूगा।' इस प्रकार की निष्ठा उसके अन्तर्मानस में जागृत होती है। सम्यग्दर्शन प्राप्ति के दो कारण हैं- एक नैसर्गिक और दूसरा आधिगामिक ।१७ निसर्ग का अर्थ स्वभाव है । जब कर्मों की स्थिति कम होते-होते एक कोटाकोटी सागरोपम से भी कम रह जाती है और दर्शनमोह की तीव्रता में कमी आ जाती है, तब परोपदेश के विना ही जो तत्त्वरुचि उत्पन्न होती है-यथार्थ दर्शन होता है, वह नैसर्गिक सम्यग्दर्शन है । श्रवण, मनन, अध्ययनं या परोपदेश से सत्य के प्रति जो निष्ठा जागृत होती है, वह आधिगमिक सम्यग्दर्शन है। प्रस्तुत भेद बाह्य निमित्तविशेष के कारण ही है। दर्शनमोह का विलय जो अन्तरंग कारण है, वह दोनों प्रकार के सम्यग्दर्शन में अनिवार्य है। एक यात्री यात्रा के लिए चला । पथभ्रष्ट हो गया · इतस्ततः परिभ्रमण करता हुआ स्वतः पथ पर आगया, यह नैसर्गिक पथलाभ हुआ। दूसरा यात्री यात्रा के लिए चला। पथभ्रष्ट होकर इधर उधर भटकता रहा । पथदर्शक से पथ पूछ कर पथ पर आरूढ़ हा, यह आधिरमिक पथ-लाभ हुआ । ठीक इसी प्रकार नैसर्गिक और आधिगमिक सम्यग्दर्शन है। प्राचार्य जिनसेन के अभिमतानुसार देशनालब्धि और काललब्धि सम्यगदर्शन की उपलब्धि के बहिरंग कारण हैं, तथा करण लब्धि अन्तरंग कारण है । जब दोनों की प्राप्ति होती है तभी भव्य जीव सम्यग्दर्शन का धारक होता है ।१८ १७. तन्निसर्गादधिगमाद्वा । -तत्वार्थ सूत्र ११३ १८. देशनाकाललब्ध्यादि, बाह्यकारणसम्पदि । अन्तः करणसामग्र यां, भव्यात्मा स्याद् विशुद्धिकृत् ॥ - महापुराण, जिनसेन ११६।६।१६६ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ धर्म और दर्शन __ जब दर्शन मोह के परमाणुओं का पूर्ण उपशमन होता है तब औपशमिक सम्यक्त्व होता है । केवल विपाकोदय रुक कर प्रदेशोदय होने पर क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है और पूर्ण विलय (क्षय) होने पर क्षायिक सम्यक्त्त्व होता है। यद्यपि प्राप्ति-क्रम के सम्बन्ध में कोई निश्चित मत नहीं है, तथापि यह स्पष्ट है कि सैद्धान्तिक दृष्टि से सर्व प्रथम क्षायोपशमिक सम्यगदर्शन उत्पन्न होता है । महापुराण' और कर्मग्रन्थ के अनुसार औपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। कितने ही प्राचार्य दोनों विकल्पों को मान्य करते हैं और कितने ही प्राचार्यों का यह भी अभिमत है कि क्षायिक सम्यक्दर्शन भी पहले पहल प्राप्त हो सकता है। सम्यग्दर्शन का सादि अनन्त विकल्प इसका आधार है। तत्त्वों के सही श्रद्धान से मिथ्यात्व का नाश होता है और सम्यक्त्व की उपलब्धि होती है। जो आत्मविकास का प्रथम सोपान है जिससे श्रावक-धर्म या श्रमण-धर्म को ग्रहण करने के लिए कदम आगे बढ़ते हैं।२१ सम्यग्दर्शन जीवन की अमूल्य निधि है । जिसे यह अमूल्य निधि प्राप्त हो जाती है वह भंगी भी देव है। तीर्थंकरों ने उसे देव कहा १६. क्षयाद् दर्शनमोहस्य, सम्यक्त्वादानमादितः । जन्तोरनादिमिथ्यात्वकलङ्ककलिलात्मनः ॥ ' -महापुराण, ११७।६।२०० २०. मोख महल की परथम सीढ़ी, या विन ज्ञान चरित्रा। __ सम्यक्ता न लहै सो दर्शन, जानो भव्य पवित्रा । -पं० दौलतराम, छहढाला (ख) दर्शनं ज्ञानचारित्रात्साधिमानमुपाश्नुते, दर्शनं कर्णधारं तन्मोक्षमार्गे प्रचक्षवे । -समन्तभद्र, रत्नकरण्डश्रावकाचार २१. नत्थि चरित्त सम्मत्तविहूर्ण, दंसरणे उ भइयव्वं । सम्मत्तचरित्ताइ, जुगवं पुव्वं व सम्मत्त ॥ --उत्तराध्ययन, अध्य० २८ गा० २६ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का मूल : सम्यग्दर्शन है। राख से आच्छादित अग्नि का तेज तिमिर नहीं बनता, वह ज्योतिपुञ्ज ही रहता है ।२२ मानवता का सार ज्ञान है और ज्ञान का प्राधार सम्यग्दर्शन है ।२३ कहा जाता है कि श्रीकृष्ण के पास सुदर्शन चक्र था, जिससे सम्पूर्ण शत्रुओं को पराजित करके त्रिखण्ड के अधिपति बन गये। प्रात्मारूपी कृष्ण के पास भी यदि सम्यग्दर्शनरूपी सुदर्शन चक्र है तो वह भी कषाय रूपी शत्रुओं को पराजित कर एक दिन त्रिलोकीनाथ बन सकता है। ___ महापुरुषों के विचारों का यह निथरा हुआ निचोड़ है-धर्मरूपी मोती सम्यग्दर्शन रूपी सीपी में ही पनपता है । २२. सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातंगदेहजम् । देवा देवं विदुर्भस्म-गूढांगारान्तरौजसम् ॥ -रत्नकरण्डश्रावकाचार २८ २३. नाणं नरस्स सारं, सारो वि नाणस्स होइ सम्मत्त । -दर्शन पाहुड-गा० ३१ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह साधना का मूलाधार अध्यात्मसाधना में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक् चारित्र'- इन तीनों का गौरवपूर्ण स्थान है। दृष्टि की विशुद्धि से ज्ञान विशुद्ध होता है और ज्ञान की विशुद्धि से ही चारित्र निर्मल होता है। अतः सन्त-संस्कृति के प्राण-प्रतिष्ठापक भगवान् महावीर ने साधना के कठोर कण्टकाकीर्ण महामार्ग पर बढ़ने के पूर्व दृष्टिविशुद्धि की प्रबल प्रेरणा प्रदान की है। साधना की दष्टि से सम्यग्दर्शन का प्रथम स्थान है, सम्यग्ज्ञान का द्वितीय और सम्यक् चारित्र का तृतीय है। सम्यग्दर्शन : आत्मा को आत्मविस्मृति के गहन अन्धकार से निकालकर १. तिविहे सम्मे पण्णत्ते, तं जहा-णाणसम्मे, दंसणसम्मे चरित्तसम्मे । -स्थानाङ्ग ३।४।११४ २. नादंसणिस्स नाणं, -उत्तराध्ययन २८॥३० ३. नाणेण विना न हुति चरणगुणा । -उत्तराध्ययन २८१३० ४. जेयाऽबुद्धा महाभागा, वीरा असमत्तदंसिणो । असुद्ध तेसिं परक्कतं, सफलं होई सव्वसो ॥ -सूत्रकृताङ्ग प्र०८ गा० २२ सम्म(सरणं पढम, सम्मनाणं बिइज्जियं, तइयं च सम्म चारित्तं, एगभूयमिमं तिगं। -महानिशीथ, २ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना का मूलाधार आत्म-भाव के आलोक से आलोकित करने वाली विवेकयुक्त दृष्टि ही True Faith सम्यग्दर्शन है । दूसरे शब्दों में कहा जाय तो आत्मविकास की दृष्टि से किया गया जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आसव संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष प्रादि तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। श्रद्धा जीवन का सम्बल है । व्यावहारिक दृष्टि से 'जिन' की वाणी में, जिनके उपदेश में, जिसको दृढ़ निष्ठा है, वही सम्यग्दर्शी है। धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है ।" यदि मूल में भूल है, सम्यग्दर्शन का प्रभाव है, तो सभी क्रियाएँ संसार का क्षय न कर अभिवृद्धि ही करती हैं ।" सम्यग्दर्शी पाप का अनुबन्धन नहीं करता । " जो सम्यग्दर्शन से संपन्न है वह कर्म से बद्ध नहीं होता और जो सम्यग्दर्शनविहीन है वही संसार में परिभ्रमण करता है | १२ चारित्र ६. ७. ८. ६. १०. स्थानाङ्ग, C ( क ) तहियाणं तु भावाणं, सब्भावे उवएसणं । भावेण सद्दहंतस्स सम्मत्तं तं वियाहियं ॥ १२. (ख) तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं । ११. सम्मत्तदंसी न करेइ पावं । (ख) णिग्गंथे पावयणे अट्टे, अयं परमठुट्टे, सेसे अणट्ठे । दंसणमूलो धम्मो । नत्थि चरितं सम्मत्तविहूणं । १३७ सम्यग्दर्शनसम्पन्नः कर्मभि र्न निबद्ध यते । दर्शनेन विहीनस्तु संसारं प्रतिपद्यते ॥ , - उत्तराध्ययन २८ । १५ -- तत्त्वार्थ सूत्र १।२ - श्राचारांग, ५।१६३ उद्द े० ५ - भगवती २५ - उत्तराध्ययन श्र० २८ गा० २६ -दर्शन पाहुड - श्राचारांग ११३०२ - मनुसंहिता, ६।७४ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन से भ्रष्ट व्यक्ति का निर्वाण सम्भव है, पर सम्यग्दर्शन से चलित श्रात्मा का निर्वाण असम्भव है । ३ १३८ आध्यात्मिक क्षेत्र में सम्यग्दर्शन की अपार महिमा गाई गई है । ज्ञातृ धर्मकथा में इसे रत्न की उपाधि प्रदान को गई है । १४ जिस साधक को इस 'चिन्तामणि' दिव्यरत्न की समुपलब्धि हो जाती है वह चाण्डाल भी देव है । तीर्थङ्करों ने उसे देव माना है । राख से प्राच्छादित प्राग की तरह उसके अन्तरतर में ज्योतिपुञ्ज जाज्ज्वल्यमान रहता है । " सम्यग्दर्शी साधक आत्म-अभ्युदय के पथ पर निरन्तर अग्रसर होता रहता है । वह कभी परिश्रान्ति का अनुभव नहीं करता । वह यथार्थ द्रष्टा होता है । उसके अन्तर्मानस में सत्य की जगमगाती ज्योति निरन्तर जलती रहती है । सत्य ही लोक में सारभूत है ", सत्य ही भगवान् है ।" सत्य भगवान् की आराधना साधना ही उसके जीवन का ध्येय होता है । सत्य की पर्युपासना करने वाले सम्यग्दृष्टि के लिए मिथ्या त भी सम्यक् श्रत बन जाते हैं । " सत्य १३. दंसणभट्ठा भट्ठा, दंसणभट्ठस्स णत्थि णिव्वाणं । सिज्यंति चरियभट्ठा, दंसणभट्ठा ण सिज्भंति ॥ १४. अपडिलद्धसम्मत्तरयणपडिलंभेणं..... १५. सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि देवा देवं विदुर्भस्मगूढांगारान्तरौजसम् ॥ सच्चं लोगम्मि सारभूयं । १७, सच्चं खु भगवं । १८. सम्मदिट्ठिस्स सुअं सुयनाणं, मिच्छादिट्ठिस्स सु सुअ- अन्नाणं, १६. -ज्ञातृ धर्मकथा, श्र० १ सू० ४५ मातंगदेहजम् । - षट्प्राभृत -रत्नकरण्ड श्रावकाचार २८ - प्रश्नव्याकरण सूत्र -- प्रश्नव्याकरण सूत्र - नन्दीसुतं Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना का मूलाधार १३६ साधक राग-द्वेषात्मक संसार से पार हो जाता है । वह देवगति के सिवाय अन्य किसी भी गति का आयु बन्ध नहीं करता ।२° वह अवर्णनीय और अचिन्त्य आध्यात्मिक आनन्द का अनुभव करता है। एक प्राचार्य के शब्दों में सम्यग्दर्शन यथार्थ में बहुत सूक्ष्म है और वह वाणी से परे है ।२१ सम्यग्दर्शन शब्द में विराट् अर्थ सन्निहित है । सम्यक्त्व, सच्चाई, हक़ीकत, रास्ती, ट्रथ, ऋत, समत्व, योग, श्रद्धा आदि शब्दों से जो प्राशय निकलता है, उस सबका समावेश इसमें हो जाता है। प्रायः सभी दर्शनों और विचारकों ने सम्यग्दर्शन को अपनी-अपनी परम्परा के अनुसार महत्त्व प्रदान किया है और उसे मुक्ति का मुख्य कारण माना है। समन्वयदृष्टि से चिन्तन करने पर सूर्य के उजाले की भाँति स्पष्ट परिज्ञान होता है कि भाषा में अन्तर होने पर भी उनका भाव समान ही है। गीता ने योग२२ को सम्यग्दर्शन कहा है तो न्यायदर्शन२3 ने . तत्त्वज्ञान को। सांख्यदर्शन२४ ने भेदज्ञान को सम्यग्दर्शन माना है तो योगदर्शन२५ ने विवेकख्याति को। बौद्धदर्शन ने क्षणभंगुरता और चार आर्य सत्यों का ज्ञान सम्यग्दर्शन स्वीकार किया है२६ तो वेदों ने ऋत को। १६. सच्चस्स प्राणाए उवट्ठिओ मेहावी मारं तरइ । --प्राचारांग २०. भगवती ३०१ २१. सम्यक्त्वं वस्तुतः सूक्ष्ममस्ति वाचामगोचरम् । २२. समत्त्वं योग उच्यते । -गीता २१४८ २३. न्यायसूत्र ४।१।३०६ २४. सांख्य कारिका ६४ २५. योग दर्शन १११३ २६. बौद्ध दर्शन Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० धर्म और दर्शन सम्यग्दर्शन जीवन की श्रेष्ठ कला है । प्रात्मा को सहज अभिव्यक्ति है। एतदर्थ ही जैन संस्कृति के इस मौलिक तत्त्व को सभी विचारकों ने अपने यहाँ स्थान दिया है। सम्यग्ज्ञान : ज्ञान आत्मा का निज गुण है। ज्ञान के अभाव में आत्मा की कल्पना करना संभव नहीं। न्याय वैशेषिक दर्शन की तरह जैन दर्शन ने ज्ञान को औपाधिक या आगन्तुक नहीं माना, किन्तु प्रात्मा का मौलिक गुण माना है । ज्ञान प्रात्मा ही है, अात्मा से अभिन्न है ।२७ जो आत्मा है वह विज्ञाता है और जो विज्ञाता है वह आत्मा है ।२८ व्यवहार नय से ज्ञान और आत्मा में भेद है, किन्तु निश्चयनय से प्रात्मा और ज्ञान में कोई भेद नहीं है ।२९ अनन्त ज्ञानशक्ति आत्मा में स्वभाव से ही विद्यमान है किन्तु ज्ञानावरण कर्म से आच्छादित होने के कारण उसका पूर्ण प्रकाश प्रकट नहीं होने पारहा है। ज्यों ज्यों आवरण हटता जाता है त्यों-त्यों ज्ञानप्रकाश भी बढ़ता जाता है, पर प्रात्मा की ऐसी अवस्था कभी नहीं होती कि उसमें किंचित् भी ज्ञान का आलोक न हो। किन्तु सम्यग्दर्शन-सहचरित न होने से वह ज्ञान अज्ञान अर्थात् मिथ्याज्ञान कहलाता है । आत्मा क्या है ? कर्म क्या है ? बंधन क्या है ? कर्म प्रात्मा के साथ क्यों बद्ध होते है ? आदि विषयों का यथार्थ रूप से परिज्ञान ही True knowledge सम्यग्ज्ञान है। अयथार्थ बोध मिथ्याज्ञान है।३१ २७.. गाणे पुण णियमं आया । -~भगवती १२।१० २८. जे आया से विणाया, जे विण्णाया से आया। __ -आचारांग, ५२५२१६६ २६. समयसार-६।७ ३०. सव्वजीवाणंपि य णं अक्खरस्स अणंतभागो निच्चुग्घाडियो । -नन्दी सूत्र ४३ ३१. द्रव्य संग्रह Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना का मूलाधार १४१ दूसरे शब्दों में कहा जाय तो प्रत्येक द्रव्य का उनकी अनन्त गुण पर्यायों सहित और अपने विशुद्ध आत्मस्वरूप का यथार्थ ज्ञान सम्यग्ज्ञान है ।३२ ज्ञान उस तृतीय नेत्र के समान है जिसके अभाव में जीव शिव नहीं बन सकता, आत्मा भवबन्धनों से विमुक्त नहीं हो सकता। महान् विचारक शेक्सपियर के शब्दों में 'ज्ञान वह पंख है जिससे हम स्वर्ग में उड़ते हैं। 33 कन्फ्यूशियस ने ज्ञान को आनन्दप्रदाता माना है।४ वस्तुतः सम्यग्ज्ञाच ही सच्चे सुख का कारण है । जब तक सम्यग्ज्ञान नहीं होता तब तक विकारों का विनाश होकर विचारों का विकास नहीं होता। वैदिक दार्शनिकों ने भी सम्यग्ज्ञान को महत्त्व दिया है और उसे 'ब्रह्मविद्या' कहा है । 'अध्यात्मविद्या' ही समस्त विद्याओं की प्रतिष्ठा है। वही उन सब में प्रमुख है । उनको दीपक के समान आलोक दिखाने वाली है।८ और परिपूर्णता प्राप्त करानेवाली है। ३२. जं जह थक्कउ दव, जिय तं तह जाणइ जोजि । अप्पह केरउ भावडउ णाणु सुणिज्जहि सोजि ॥ -परमात्म प्रकाश २०२६ ३३. ज्ञानगंगा, अयोध्याप्रसाद गोयलीय ३४. अमर वाणी ३५. सत्येन लभ्यस्तपसा ह्यष आत्मा, सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम् । -मुण्डकोपनिषद् ३६. ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठाम् । -मुण्डकोपनिषद् १११ ३७. सर्वेषामपि चैतेषामात्मज्ञानं परं स्मतम् । तद्ध्वग्र यं सर्वविद्यानां प्राप्यते ह्यमृतं ततः ॥ -- मनुस्मृति १२-८५ ३८. प्रदीपः सर्वविद्यानामुपायः सर्वकर्मणाम् । आश्रयः सर्वधर्माणां, शश्वदान्वीक्षिकी मता ॥ -कौटिलीय अर्थशास्त्र ११२ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ 138 इस एक का ४' 1 यही सर्वोत्कृष्ट धर्म है और ज्ञानों में श्रेष्ठ ज्ञान है परिज्ञान होने पर कुछ भी ज्ञातव्य नहीं रह जाता। इस आत्मविद्या के द्वारा राग-द्व ेष की प्रहारिण की जाती है । और यही सर्वोत्तम राजविद्या है | ४२ न्यायदर्शन मिथ्याज्ञान, मोह आदि को संसार का मूल मानता है और सांख्य दर्शन विपर्यय को ।४४ बौद्ध दर्शन विद्या, राग-द्वेष को संसार का प्रधान कारण स्वीकारता है । ४५ जैन दृष्टि से साधना के क्षेत्र में सम्यग्ज्ञान का वही महत्त्व हैं जैसा सम्यग्दर्शन का है। ज्ञान प्रकाशक है । ४६ प्रथम ज्ञान और फिर चारित्र प्रादुर्भूत होता है । ४७ सम्यक् चारित्र : आत्मस्वरूप में रमण करना और जिनेश्वरदेवों के वचनों पर ३६. (क) अयं तू परमो धर्मः यद्योगेनात्मदर्शनम् । ४०. (ख) आत्मज्ञानं परं ज्ञानम् । यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यत् ज्ञातव्यमवशिष्यते । ४१. आन्वीक्षिक्यात्मविद्या, स्यादीक्षणात् सुखदुःखयोः । ईक्षमाणस्तया तत्त्वं, हर्षशोकौ व्युदस्यति ॥ ४२. राजविद्याराजगुह्य ं पवित्रमिदमुत्तमम् । 9 ४३. न्यायसूत्र ४।१-३-६ ४४. सांख्य कारिका ६४।३ ४५. बुद्ध बचन ४६. णाणं पयासयं । ४७. पढमं णाणं तओ दया । धर्म और दर्शन - याज्ञवल्क्य १ ।११८ - महाभारत, शान्तिपर्व - गीता ७।२ - शुक्रनीति १११५२ - गीता हार - महानिशीथ ७ - दशवेकालिक ४ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना का मूलाधार पूर्ण आस्था रखते हुए अच्छी तरह उन्हीं के अनुरूप आचरण करना True Conduct सम्यक् चारित्र है । ज्ञान नेत्र है, चारित्र चरण है । पथ का अवलोकन तो चरण उस प्रोर नहीं बढ़े तो अभीप्सित लक्ष्य की प्राप्ति स्विनाँक ने लिखा है - 'विना चारित्र के ज्ञान शीशे की आँख की तरह है, सिर्फ दिखलाने के लिए और एक दम उपयोगितारहित ।" ज्ञान का फल विरक्ति है । ४८ ज्ञान होने पर भी यदि विषयों में अनुरक्ति बनी रही तो वह वास्तविक ज्ञान नहीं है । ४८. ४६. ५०. सम्यक् चारित्र जैन साधना का प्रारण है । विभावगत आत्मा को पुनः शुद्ध स्वरूप में अधिष्ठित करने के लिए सत्य के परिज्ञान के साथ जागरूक भाव से सक्रिय रहना आचार-आराधना है । चारित्र एक ऐसा चमकता हीरा है जो हर किसी पत्थर को घिस सकता है । जीवन का लक्ष्य सुख नहीं, चारित्र है ।" उत्तम व्यक्ति शब्दों से सुस्त और चारित्र से चुस्त होता है ।° बौद्ध साहित्य में सम्यक् चारित्र को सम्यक् व्यायाम कहा है । समन्वय : सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र - ये साधना के तीन अंग हैं | अन्य दर्शनकार केवल साधना के एक-एक अंग को प्रमुखता देते हैं - किन्तु जैन दर्शनकार तीनों के समन्वय को । भगवान् श्री महावीर ने चार प्रकार के पुरुष बताए हैं: एक शीलसम्पन्न है, दूसरा श्रुतसम्पन्न हैं, तीसरा शील सम्पन्न है, और श्रुत सम्पन्न है । चौथा न शील सम्पन्न है, न त सम्पन्न है । ज्ञानस्य फलं विरतिः बीचर कन्फ्यूशियस श्रुतसम्पन्न नहीं | शीलसम्पन्न नहीं । १४३ किया, पर संभव है । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ धर्म और दर्शन प्रथम व्यक्ति मोक्षमार्ग का देश आराधक है ।५१ दूसरा देश विराधक है ।५२ तीसरा सर्व आराधक है६३, और चौथा सर्व विराधक है।५४ इस चतुर्भङ्गी में भगवान् ने बताया कि कोरा शील कल्याण की एकांगी आराधना है । कोरा ज्ञान भी इसी प्रकार का है । शोल और ज्ञान दोनों ही नहीं हैं तो वह कल्याण की आराधना है ही नहीं। शील और ज्ञान दोनों की संगति है तो वह कल्याण की सर्वाङ्गीण आराधना है ।५५ सम्यग्दर्शन की प्राप्ति चतुर्थ गुणस्थान में हो जाती है। सातवें गुणस्थान तक वह अवश्य ही वह पूर्णता प्राप्त कर लेता है । सम्यग्ज्ञान की पूर्णता तेरहवें में और सम्यक् चारित्र को पूर्णता चौदहवें गुणस्थान में होती है। जब तीनों पूर्ण होते हैं तभी साध्य की सिद्धि होती है, अचिन्त्य अविनाशी मोक्ष पद की प्राप्ति होती है ।५६ पूर्ण विद्या और चारित्र का समन्वय ही मोक्ष है ।५७ ५१. भगवती ८.१० १२. भगवती ८।१० ५३. भगवती ८।१० ५४. भगवती ८।१० ५५. भगवती ८.१० ५६. सदृष्टिज्ञानचारित्रत्रयं यः सेवते कृती। रसायनमिवातयं सोऽमृतं पदमश्नुते ॥ -महापुराण, पर्व ११ श्लोक० ५६ ५७. आहेसु विज्जाचरणं पमोक्खं । -सूत्रकृताङ्ग १।१२।११ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सात श्रमणसंस्कृति और तप श्रमण संस्कृति तपः प्रधान संस्कृति है । तप श्रमण संस्कृति का प्राण-तत्त्व है। जीवन की कला है। प्रात्मा की अन्तःस्फूर्त पवित्रता है, जीवन का आलोक है । तप की महिमा और गरिमा का जो गौरवगान श्रमण संस्कृति ने गाया है, वह अनूठा है, अपूर्व है । श्रमण संस्कृति का आधार श्रमण है। जैनागमों में अनेक स्थलों पर'समरण' शब्द व्यवहृत हुआ है, जिसका अर्थ साधु है। 'श्रमरण' शब्द के तीन रूप होते हैं-'श्रमण' 'समन' और 'शमन' । श्रमण शब्द श्रम धातु से निष्पन्न होता है जिसका अर्थ है-श्रम करना। __ दशवकालिक वृत्ति में आचार्य हरिभद्र ने तप का अपर नाम श्रम भी दिया है । श्रमण का अर्थ तपस्या से खिन्न, क्षीण काय तपस्वी किया है । जो व्यक्ति अपने ही श्रम से उत्कर्ष की प्राप्ति करता है वह श्रमण है। १. श्राम्यन्तीति श्रमणाः तपस्यन्तीत्यर्थः । -दशवकालिक वृत्ति २३ २. श्रम तपसि खेदे । ३. श्राम्यति तपसा खिद्यत इति कृत्वा श्रमणः । -सूत्रकृताङ्ग १।१६।१ शोलाङ्क टोका, पत्र २६३ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन श्रमण संस्कृति ने तप को धर्म माना है। स्थानाङ्ग", समवायाङ्ग में दश विध धर्म का जो उल्लेख है उसमें तप भी एक है। मोक्ष मार्ग की साधना करने वाले साधक के लिए तप की साधना अनिवार्य है। ___ आगम साहित्य का पर्यवेक्षण करने पर ज्ञात होता है कि श्रमण संस्कृति का श्रमरण श्रमणत्व को स्वीकार कर तपः कर्म का प्राचरण करता है। सभी तीर्थ कर तप के साथ ही प्रव्रज्या लेते हैं। क्योंकि ४. धम्मो मंगलमुक्किट्ठ', अहिंसा संजमो तवो । -दशवकालिक ११ ५. खंती मुत्ती प्रज्जवे मद्दवे लाघवे सच्चे। संजमे तवे चियाए बंभचेरवासे । -स्थानाङ्ग ७१२ ६. खंती य मद्दवज्जव, मुत्ती तव संजमे य बोद्धव्वे । सच्चं सोयं आकिंचणं च, बंभं च जइ-धम्मो ।। -समवायाङ्ग १० ७. नाणं च दंसरणं चेव, चरित्तच तवो तहा। एयं मग्गमणुप्पत्ता, जीवा गच्छन्ति सोग्गई॥ --उत्तराध्ययन २८।३ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता एवं जहा उसभदत्तो तहेव पव्वलओ, णवरं पंचहिं पुरिससएहिं सद्धिं तहेव जाव सामाइयमाइयाइएक्कारसभंगाई अहिज्जइ, अहिज्जइत्ता बहूहिं चउत्थ छट्टट्ठ मजाव मासद्धमासक्खमणेहिं विचित्तहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । ___ -भगवती ६।३३ (ख) भगवती २।११९०६ ६. सुमइत्थ णिच्चभत्तण, णिग्गओ वासुपुज्ज चोत्थेणं । पासो मल्ली य अट्ठमेण सेसा उ छ?रेणं ॥ __ --समवायाङ्ग सूत्र १६८ (ख) सुमइत्थ निच्चभत्तण, निग्गतो वासुपुज्ज जिण चउत्थेण । पासो मल्लीवि य अट्टमेण सेसा उ छठेणं ॥ -अावश्यक नियुक्ति गा० २५० Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमणसंस्कृति और तप १२ तप मंगल ही नहीं, उत्कृष्ट मंगल है ।" भगवान् श्री ऋषभदेव ने एक हजार वर्ष तक छद्मस्थावस्था में तप की साधना की ।" भगवान् श्री महावीर ने भी बारह वर्ष और तेरह पक्ष तक उग्र तप तपा ।" इस लम्बी अवधि में उन्होंने केवल तीन सौ उनपचास दिन आहार ग्रहण किया । शेष दिन वे निर्जल और निराहार रहे। आचारांग, आवश्यक नियुक्ति, श्रावश्यक चूरिण, आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति, आवश्यक मलयगिरिवृत्ति त्रिषष्ठिशलाकापुरुष चरित्र, महावीर चरियं प्रभृति ग्रन्थों में भगवान् श्री महावीर के उग्र तप का जो रोमांचकारी वर्णन किया है उसे पढकर पाठक विस्मित हो जाता है । आचार्य भद्रबाहु " १४ के शब्दों में अन्य तीर्थङ्करों की ग्रपेक्षा महावीर का तपः कर्म प्रत्युग्र था । १०. ११. १२. १३. १४. दिगम्बर आचार्य गुणभद्र के अभिमत से सुमतिनाथ ने भी बेला के तप से दीक्षा ग्रहण की थी : दीक्षां षष्ठोपवासेन सहेतुकवनेऽगृहीत् । सिते राज्ञां सहस्र ेण सुमतिर्नवमीदिने || - उत्तर पुराण, पर्व ९१, दशकालिक १|१ उसमे जाव अप्पा १४७ अरहा कोसलिए एगं वाससहस्सं निच्च वोसट्टकाये चियत्तदेहे भावेमाणस्स एक्कं वाससहस्सं विक्कतं । (ख) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सू० ४०-४१ पृ० ८४ । आवश्यक नियुक्ति गा० ५२६ से ५३५ (ख) आवश्यक हारिभद्री मावृत्ति १० २२७ - २२६ (ग) त्रिषष्ठिशलाकापुरुष चरित्र १०।४।६५२ - ६५७ (घ) महावीर चरियं, गुणचन्द्र ७११-८, १० २५० तिम्नि सए दिवसारणं अउणापन्ने य वारणाकालो । इलो० ७० पृ० ३० - कल्पसूत्र सू० १९६ पृ० ५८ ( पुण्यविजय जी द्वारा सम्पादित) उग्गं च तवो कम्मं, विसेसओ वद्धमाणस्स । - श्रावश्यक नियुक्ति ५३४ - श्रावश्यक नियुक्ति गा० २४० Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ धर्म और दर्शन भगवान् महावीर के जीवन का तलस्पर्शी अध्ययन करने पर निःसंकोच कहा जा सकता है कि वे तपोविज्ञान के अद्वितीय आचार्य थे। उन्होंने अपने समय में प्रचलित देहदमनरूप बहिमुख तप का आन्तरिक साधना के साथ सामंजस्य स्थापित किया और उसे आन्तरिक एवं व्यापक स्वरूप प्रदान किया। इस प्रकार वे तपः साधना के महान् संस्कर्ता और साथ ही पुरस्कर्ता भी हुए। उनकी अनेक बहुमूल्य देनों में तपविषयक देन भी कम महत्त्व की नहीं है। ____जैनागमों की तरह बौद्ध वाङ्मय में भी अनेक स्थलों पर महावीर के शिष्यों के लिए निगंठ' के साथ 'तपस्सी' 'दिग्घ तपस्सी' विशेषण प्रयुक्त हुए हैं। इससे भी स्पष्ट है कि महावीर स्वयं कितने उग्र तपस्वी रहे होंगे । अनुत्तरोपपातिक", अन्तकृत् दशा", भगवती" आदि आगमों में महावीर के शिष्य और शिष्याओं का वर्णन है । उन्होंने रत्नावली, कनकावली, मुक्तावली लघुसिंहनिष्क्रीडित, भिक्षु प्रतिमा, लघु सर्वतोभद्र, महासर्वतोभद्र, भद्रोत्तर प्रतिमा, आयंबिल वर्धमान, गुणरत्न संवत्सर, चन्द्र प्रतिमा, संलेखना आदि महान् तप करके देह को जर्जरित बनाया था।° “तवसूरा अरणगारा"+ अनगार तप में शूर होते हैं, यह जैन परम्परा का प्रसिद्ध वाक्य है। १५. १७. उग्गतवे, दित्ततवे, तत्ततवे, महातवे, ओराले घोरे घोरगुणे घोर तवस्सी । , -भगवती शतक १ उद्दे० ३ मज्झिमनिकाय ५६ उपालिसुत्त २।१।६ अनुत्तरौपपातिक वर्ग ३ अन्तकृत्दशा वर्ग ६, अ० ३, वर्ग ८, अ० १-१० भगवती २१ अन्तकृतदशा। + खंतिसूरा अरिहन्ता, तवसूरा अणगारा । दाणसूरे वेसमणे, जुद्धसूरे वासुदेवे ।। -ठाणाङ्ग ४।३।३६३ २०. Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमणसंस्कृति और तप १४६ जैन श्रमण के लिए जहाँ ज्ञान-दर्शन-चारित्रसम्पन्न विशेषण प्रयुक्त हुए है वहाँ उसे तपसम्पन्न भी कहा गया है ।२१ ___ तप जीवनोत्थान का प्रशस्त पथ है । तप की उत्कृष्ट अाराधनासाधना से तीर्थकर पद प्राप्त होता है। सभी तीर्थङ्करों ने अपने पूर्व भवों में तप की साधना की । श्रमण भगवान् श्री महावीर के जीव ने 'नन्दन' के भव में एक लक्ष वर्ष तक निरन्तर मासखमण की तपस्या की ।२२ उन मासखमणों की संख्या ग्यारह लाख साठ हजार थी। वैदिक संस्कृति ने भी साधक के लिए तप को साधना आवश्यक मानी है ।२3 योग दर्शन ने तप को क्रियायोग में स्थान दिया है ।२४ २१. भगवती। २२. सयसहस्स सम्वत्थ मासभत्तेणं । -आवश्यक नियुक्ति गा० ४५० (ख) एक्कारस अंगाइ अहिज्जित्ता तत्थ मासं मासेणं खममाणो एगं बाससहस्सं परियागं पाउणित्ता -प्रावश्यक चूणि पृ० २३५ जिनदासगणी महत्तर (ग) सयसहस्स त्ति वर्षशतसहस्र यावदिति । कथं ? सर्वत्र मासभक्तेनेति अनवरतमासोपवासेनेति । -प्रावश्यक मलयगिरिवृत्ति प० २५२ (घ) तत्र वर्षलक्षं सर्वदा मासक्षपणेन तपस्तप्त्वा । -समवायाङ्ग, अभयदेव वृत्ति १३६ (ङ) मासोपवास: सततः श्रामण्यं स प्रकर्षयन् । व्यहार्षीद्गुरुणा सार्धं ग्रामाकरपुरादिषु । -त्रिषष्ठि० १०११।२२१ २३. शौचसन्तोषतपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः । -योगदर्शन २।३२ २४. तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः । -योगदर्शन २११ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० धर्म और दशन उपनिषद्,२५ गीता,२६ और मनुस्मृति२७ ने भी तप और स्वाध्याय पर पर बल दिया है। किन्तु यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि वैदिक संस्कृति की तपः साधना में और जैन संस्कृति की तपः साधना में महान् अन्तर है। ___जैन संकृति ने तप को दो भागों में विभक्त किया है-एक बाह्य तप और दूसरा आभ्यन्तर तप ।२८ २५. स तपोऽतप्यत । -बृहदारण्यक १।२।६ (ख) तपस्तप्यते बहूनि वर्षसहस्राणि । -बृहदारण्यक ३।८१० (ग) यज्ञेन दानेन तपसा। -बृहदारण्यक ४।४।२२ (घ) तपश्च स्वाध्यायप्रवचने च -तैत्तिरीय उपनिषद् १६१ २६. श्रद्धया परया तप्तं तपः -गीता १७।१७ २७. क्षान्त्या शुद्ध यन्ति विद्वांसो, दानेनाऽकार्यकारिणः । प्रच्छन्नपापा जप्येन तपसा वेदवित्तमाः ।। -मनुस्मृति ५।१०६ (ख) अद्भिर् गात्राणि शुद्ध यन्ति, मनः सत्येन शुध्यति । विद्यातपोभ्यां भूतात्मा, बुद्धिमेन शुध्यति । -मनुस्मृति ५।१०८ (ग) तपश्चरणश्चोग्र : साधयन्तीह तत्पदम् ।। --मनुस्मृति ६७५ (घ) तपो विद्या च विप्रस्य, निःश्रेयसकरं परम् । तपसा किल्विषं हन्ति, विद्ययाऽमृतमश्नुते ॥ -वहीं १२।१०४ २८. सो तवो दुविहो वुत्तो, बाहिरन्भन्सरो तहा । बाहिरो छविहो वुत्तो, एवमभंतरो तवो ॥ ----उत्तरा०३०१७ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमणसंस्कृति और तप १५१ जिस तप में शारीरिक क्रिया की प्रधानता होती है और जो बाह्य द्रव्यों की अपेक्षायुक्त होने से दूसरों को दृष्टिगोचर होता है वह बाह्य तप है । और जिस तप में मानसिक क्रिया की प्रधानता होती है, अन्तर्वत्तियों की परिशुद्धि मुख्य होती है और जो मुख्य रूप से बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा न रखने के कारण दूसरों को भी नहीं दीखता है, वह आभ्यन्तर तप है ।२९ बाह्य तप के छह भेद हैं (१) अनशन-आहार, जल आदि का एक दिन, या अधिक दिन अथवा जीवन पर्यन्त के लिए त्याग करना अनशन है। इत्वरिकअल्पकालिक और यावत्कथिक-यावज्जीवित, ये मुख्य रूप से दो भेद बाह्यतपः-बाह्यशरीरस्य परिशोषणेन कर्मक्षपणहेतुत्वादिति, आभ्यन्तरं-चित्तनिरोधप्राधान्येन कर्मक्षपणहेतुत्वादिति । -समवायाङ्ग सम० ६ को अभयदेव वत्ति (ख) अभितरए-अभ्यन्तरम् -आन्तरस्यैव शरीरस्य तापना त्सम्यग्दृष्टिभिरेव तपस्तया प्रतीयमानत्वाच्च, 'बाहिरए' त्ति बाह्यस्यैव शरीरस्य तापनान्मिथ्यादृष्टिभिरपि तपस्तया प्रतीयमानत्वाच्चेति । -औपपातिक सूत्र ३० को अभयदेव वृत्ति (ग) बाह्यद्रव्यापेक्षत्वात्परप्रत्यक्षत्वाच्च बाह्यत्वम् कथमस्याभ्यन्तरत्वम् ? मनोनियमनार्थत्वात् । -तत्त्वार्थसूत्र ६।१६-२०, सर्वार्थसिद्धि अणराणमूणोयरिया, भिक्खायरिया य रसपरिच्चाओ। कायकिलेसो संलीणया, य बज्झो तवो होइ । ---उत्तराध्ययन ३०८ (ख) अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनका - यक्लेशा बाह्य तपः । ___-तत्त्वार्थसूत्र० प्र० ६, सू० १६ (ग) मूलाचार-बट्टकेर ३४६ (घ) ठाणाङ्ग ६ । सू० ५११ (ङ) प्रवचनसारोद्धार गाथा २७०-२७२ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ धर्म और दर्शन है । इत्वरिक तप अवकांक्षासहित होता है और यावत्कथिक अवकांक्षा रहित होता है। इन दोनों के भी अनेक भेद प्रभेद हैं। (२) ऊनोदरिका-आगम साहित्य में ऊनोदरिका, अवमोदरिका33 और अवमौदर्य ये तीन नाम उपलब्ध होते हैं । आहार की मात्रा से कम खाना, कुछ भूखा रहना, कषायों को कम करना, उपकरणों को कम करना ऊनोदरिका है। मुख्य रूप से ऊनोदरिका तप के तीन भेद हैं-(१) उपकरण अवमोदरिका, (२) भक्त पान अवमोदरिका (३) और भाव अवमोदरिका ।३५ इन तीनों के भी अनेक भेद प्रभेद प्रतिपादित किये गये हैं ।३६ (३) भिक्षाचर्या-स्थानाङ्ग, भगवती, उत्तराध्ययन और प्रोपपातिक में प्रस्तुत नाम प्राप्त हैं और समवायांग, व तत्त्वार्थ सूत्र में ३१. इत्तरिय मरणकाला य, अणसणा दुविहा भवे । इत्तरिय सावकंखा निरवकंखा उ बिइज्जिया ॥ -उत्तराध्ययन ३०९ .३२४. समवायाङ्ग सम० ६ (ख) भगवती २५७ (ग) उत्तराध्ययन ३०१८ ३३. (क) स्थानाङ्ग ३।३।१८२ (ख) औपपातिक ३० (ग) भगवती २५७ ३४. (क) उत्तराध्ययन ३०।१४,२३ (ख) तत्त्वार्थ सूत्र ६१६ तिविहा प्रोमोयरिया पं० तं० उवगरणोमोयरिया, भत्तपाणोमोदरिता, भावोमोदरिता। --स्थानाङ्ग ३॥३॥१८२ औपपातिक ३० (ख) भगवती २५७ (ग) ठाणाङ्ग ३।३।१८२ (घ) उत्तराध्ययन ३० समवायाङ्ग, सम०६ ३८. सत्त्वार्थ सूत्र १९१६ ३५. ३६. Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण संस्कृति और तप १५३ इसे 'वृत्ति संक्षेप' और 'वृत्तिपरिसंख्यान' कहा है। अभिग्रह पूर्वक भिक्षा का कम करना वृत्तिसंक्षेप है।३९ अर्थात् जीवन निर्वाह के साधनों का संयम करना। औपपातिक और भगवती में इसके तीस भेदों का उल्लेख है । स्थानाङ्ग४२ में उनके अतिरिक्त दो भेदों का और उल्लेख किया है तथा उत्तराध्ययन3 में भी अन्य भेदों का निरूपण है। (४) रसपरित्याग-घृत, दूध, दही, मक्खन आदि रसों का परित्याग करना,४४ तथा प्रणीत पान भोजन का वर्जन करना। उमास्वाति ने मद्य, मांस, मधु और मक्खन आदि जो रस विकृतियाँ हैं उनका प्रत्याख्यान तथा विरस आदि का अभिग्रह रस (ख) दशवकालिक नियुक्ति गा० ४७ ३६. भिक्षाचर्या सर्व तपो निर्जराङ्गत्वादनशनवद् अथवा सामान्योपादानेऽपि विशिष्टा विचित्राभिग्रहयुक्तत्वेन वृत्तिसंक्षेपरूपा सा ग्राह्या। ठाणाङ्ग ५।३।५१ वृत्ति ४०. औपपातिक सम० ३० ४१: भगवती २५७ ४२. ठाणाङ्ग ५।११३६६ ४३. अट्ठविहगोयरग्गं तु तहा सत्तेव एसणा । अभिग्गहा य जे अन्ने भिक्खायरियमाहिया ।। -उत्तरा० ३०१२५ ४४. खीरदहिसप्पिमाई पणीयं पाणभोयणं, परिवज्जणं रसाणं तु भणियं रसविवज्जणं । -उत्तरा० ३०१२६ (ख) घृतादिवृष्यरसपरित्यागश्चतुर्थ तपः। -तत्त्वार्थ० ६।१६ सर्वार्थसिद्धिः Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन परित्याग तप माना है ।४५ इसके भी औपपातिक में नौ भेद बताये हैं।४६ (५) कायक्लेश-आसन, आतापना, विभूषा-वर्जन और परिकर्म के द्वारा शरीर को स्थिर करना कायक्लेश तप है। इसके आगमों में कहीं पर सात,४८ कहीं पर दस९ और कहीं पर बारह भेद निरूपित किये गये हैं। (६) प्रतिसंलीनता- मन और इन्द्रियों को अपने विषयों से हटाकर अन्तमुख करना, अनुदीर्ण क्रोधादि कषायों का निरोध करना तथा उदय में आये हुए को विफल करना, और स्त्रीपशु नपुंसक रहित एकान्त शान्त स्थान में निवास करना प्रतिसंलीनता तप है। यह (१) इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता (२) कषाय प्रति संलीनता, (३) योग ४५. रसपरित्यागोऽनेकविधः । तद्यथा-मांसमधुनवनीतादीनां मद्यरसविकृतीनां प्रत्याख्यानं विरसरूक्षाद्यभिग्रहश्च । -तत्त्वार्थ० ६।१६ भाष्य से कि तं रस परिच्चाए ? अरोगविहे पणत्ते । तं जहा-निव्वीइए, पणीयरसपरिच्चाए (३) आयंबिलिए (४) आयामसित्थभोई (५) अरसाहारे, (६) विरसाहारे, (७) अन्ताहारे (८) पन्ताहारे, (१) लूहाहारे। .-औपपातिक, सम० ३० ४७. ठाणा वीरासणाईया जीवस्स उ सुहावहा । उग्गा जहा धरिज्जन्ति कायकिलेसं तमाहियं ॥ -उत्तरा० ३०१७ ४८. ठाणाङ्ग ७।३।५५४ ४६. ठाणाङ्ग ॥१॥३६६ ५०. औपपातिक, सम० ३० (ख) भगवती २५७ में भी कायक्लेश के अनेक भेद बताये है। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण संस्कृति और तप प्रतिसलीनता (४) विविक्तरायनासनसेवनता के रूप में चार प्रकार का है । और इनके भी अनेक उपभेद हैं।११ प्राभ्यन्तर तप के भी छह भेद हैं-५२ (७) प्रायश्चित्त--पूर्वकृत दोषों की आलोचना कर आत्मविशुद्ध यर्थ प्रायश्चित ग्रहण करना। प्रायश्चित्त पाप का छेदन करता है और चित्त को विशुद्ध करता है ।५४ प्रायश्चित्त तप के भी दस भेद हैं-(१) आलोचनाह (२) प्रतिक्रमरणार्ह (३) तदुमयाह (४) विवेकार्ह (५) व्युत्सर्गार्ह (६) तपार्ह (७) छेदाह (८) मूलाई (६) अनवस्थाप्याई (१०) पारांचितार्ह ।५५ ५१. इन्दियकसायजोगे, पडुच्च संलोणया मुणेयव्वा । तह जा विवित्तचरिया, पन्नत्ता वीयरागेहिं ॥ -उत्तरा० ३०१२८ नेमिचन्द्रीय टीका में उद्धृत ५२. पायच्छितं विणओ, वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। झारणं च विउस्सगो, एसो अभितरो तवो।। --उत्तराध्यन ३०।३० (ख) प्रायश्चितविनयवैयावृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् । ___ तत्वार्थ सूत्र अ० ६ सू० २० (ग) स्थानाङ्ग ६ सू० ५५१ (घ) मूलाचार-वट्टकेर गा० ३६० (ङ) प्रवचन सारोद्धार गा० २७०-७२ ५३. आलोयणारिहाईयं पायच्छित्त तु दसविहं । जं भिक्खू वहइ सम्मं पायच्छित्त तमाहियं ।। -उत्तरा० ३० ५४. पापं छिनत्ति यस्मात् प्रायश्चित्तमिति भण्यते तस्मात्, प्रायेण वापि चित्तं विशोधयति तेन प्रायश्चित्तम् । -दशवकालिक ११ हारिभद्रीया वृत्ति में उद्धृत ५५. आलोयणपडिक्कमणे मीराविवेगे तहा विउस्सग्गे, तवमूलमणवट्ठया य पारंचिए चेव । ... दशवकालिक ११ हारिभद्रीया वृत्ति में उद्धृत Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ धर्म और दर्शन (८) विनय-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, आदि सद्गुणों में बहुमान रखना विनय है। विनय के सात प्रकार हैं-(१) ज्ञान का विनय, (२) श्रद्धा का विनय (३) चारित्र का विनय (४) मन-विनय (५) वचनविनय (६) काय-विनय और (७) लोकोपचार विनय ५६ इनके भी फिर अनेक भेद प्रभेद हैं ।५० (९) वैयावृत्य-प्राचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्षक, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु आदि की आहार आदि के द्वारा सेवा करना।५८ (१०) स्वाध्याय-विधिपूर्वक प्रात्म-विकासकारी अध्ययन ५६ (ख) औपपातिक, सम० ३० (ग) स्थानाङ्ग ७३३ (घ) भगवती शतक २५ उ० ७ (ङ) व्यवहार भाष्य गा० ५३ पृ० २० (क) भगवती २५७ (ख) ठाणाङ्ग-५८५ (ग) औपपातिक (ग) धर्म संग्रह अध्ययन ३, व्रतातिचार प्रकरण णाणे दंसणचरणे मणवइकाओवयारिओ विणओ । णाणे पंचपगारो मइणाणाईण सद्दहण ॥ भत्ती तह बहुमाणो तद्दिद्वत्थाण सम्मभावणया । विहिगहणन्भासोवि अ एसो विणओ जिणाभिहिओ ॥ -दशवकालिक ११ हारिभद्रीया वृत्ति में ५७. (क) भगवती २५७ (ख) ठाणाङ्ग ७।३।५८५ (ग) दशव० हारि० वृत्ति० १११ ५८. विशेष विवरण के लिए देखें, लेखक का 'सेवा : एक विश्लेषण' लेख । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण संस्कृति और तप स्वाध्याय है ।५९ इसके पांच प्रकार हैं-(१) वाचना, (२) पृच्छा (३) परिवर्तन-स्मरण, (४) अनुप्रेक्षा-चिन्तन, (५) धर्म-कथा।६० (११) ध्यान-अध्यवसाय को स्थिर करना ध्यान है । चंचल चित्त का किसी एक विषय में स्थिर हो जाना ध्यान है। ध्यान के चार प्रकार हैं-(१) प्रातः, (२) रौद्र, (३) धर्म, (४) शुक्ल ।६२ पात और ५६. "अज्झयणंमि रओ सया"-अज्झयणं सज्झाओ भण्णइ, तंमि सज्झाए सदा रतो भविज्जति । -दशवकालिक, जिनदास चूणि २८७ (ख) स्वाध्याये वाचनादौ -दशवकालिक, हारिभद्रीयटीका २३५ ६०. वायणा पुच्छणा चेव, तहेण परियट्टणा । अगुप्पेहा धम्मकहा, सज्झाओ पंचहा भवे ॥ -उत्तरा० ३०॥३४ (ख) पंचविहे सज्झाए प० तं० वायणा, पुच्छणा, परियट्टणा, अणुप्पेहा, धम्मकहा। -स्थानाङ्ग ५।३।४६५ (ग) तत्त्वार्थ सूत्र ६।२५ (घ) भगवती २५७०२ औपपातिक ३० ६१. (क) एगग्ग मणसन्निवेसणाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ? एगग्गमणसन्निवेसणाए णं चित्तनिरोहं करेइ । -उत्तराध्ययन २६२५ (ख) उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् । -तत्त्वार्थ सूत्र ६२७ (ग) जं थिरमझवसाण तं झारणं । (घ) ठाणाङ्ग ॥३॥५११ टीका ६२. चत्तारि झाणा पं० २० अट्ट झाणे, रोद्द झाणे, धम्मे झारणे, सुक्के झाणे। -ठाणांग ४।१।३०८ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ धर्म और दर्शन रौद्र ये दो ध्यान अप्रशस्त हैं। धर्म और शुक्ल थे दो ध्यान प्रशस्त हैं ।६३ अप्रशस्त ध्यान को त्यागकर प्रशस्तध्यान में प्रात्मा को स्थिर करना वस्तुतः ध्यान है।६४ इन चारों ध्यानों के भी अनेक भेद प्रभेद हैं।६५ (१२) व्युत्सर्ग-शरीर, सहयोग, उपकरण और खान-पान का त्याग करना और कषाय, संसार और कर्म का त्याग करना व्युत्सर्ग है।६६ व्युत्सर्ग तप दो प्रकार का है-(१) द्रव्य व्युत्मर्ग (२) और भाव व्युत्सर्ग ।६० द्रव्य व्युत्सर्ग,---(१) शरीर व्युत्सर्ग,६८ (२) गण-व्युत्सर्ग, (३) उपधि व्युत्सर्ग (४) और अाहारव्युत्सर्ग रूप में चार प्रका है। भावव्युत्सर्ग-(१) कषायव्युत्सर्गः, (२) संसार व्युत्सर्ग ( ३र कर्मव्युत्सर्ग रूप में तीन प्रकार का है । इस प्रकार तप के दो प्रकार बताये हैं। बाह्य तप में सरीरसम्बन्धी सभी साधना-नियम समा जाते हैं, और पाभ्यन्तर तप में ६४. (ख) आर्तरौद्रधर्म शुक्लानि। -तत्त्वार्थः ६।२६ ६३. परे मोक्षहेतू । -तत्त्वार्थ० ६।३० अरुद्दाणि वज्जित्ता, झाएज्जा सुसमाहिए । धम्मसुक्काई झाणाई झाणं तं तु बुहा' वर ।। - उत्तरा० ३०१३५ स्थानाङ्ग ४।१।३०८ ६६. औपपातिक, तपोऽधिकार । ६७. बाह्याभ्यन्तरोपध्योः । -तत्त्वार्थ ० ६।२६ ६८. सयणासणठाणे वा, जे उ भिक्खू न वावरे । कायस्स विउस्सगो, छट्ठो सो परिकित्तिओ।। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण संस्कृति और तप १५६ हृदय को विशुद्ध बनाने वाले प्राचारों का समावेश हो जाता है। अनशन और ध्यान दोनों का सुन्दर समन्वय प्रस्तुत क्रम में किया गया है। इस क्रम में न केवल कष्ट सहन का विधान है और न कष्ट से पालयन कर चित्त को एकाग्र करने का प्रयत्न ही है । साधक के लिए सहिष्णुता और एकाग्रता दोनों अपेक्षित हैं। दोनों का सुमेल इस साधना क्रम में है। पर अन्य परम्पराओं में ऐसा सुनियोजित क्रम नहीं है । अन्य परम्पराओं ने जहाँ केवल काय-क्लेश और देह-दमन को महत्त्व दिया है, वहाँ जैन परम्परा ने कायक्लेश और देहदमन के साथ ही प्राभ्यन्तर तप को महत्त्व दिया है । जैन संस्कृति का यह वज्र आघोष रहा है कि बाह्य तप के साथ यदि प्राभ्यन्तर तप का मेल नहीं है तो वह बाह्य तप मिथ्या है । धन्य अनगार की तरह ही ६६. दव्वे भावे अ तहा दुहा, विसग्गो चउविहो दव्वे । गणदेहोवहिभत्त, भावे कोहादि चाओ त्ति । काले गणदेहाणं, अतिरित्तासुद्धभत्तपाणाणं । कोहाइयाण सययं, कायव्वो होई चाओ त्ति ।। -दशवकालिक १-१ हारिभद्रीया वृत्ति ७०. लोकप्रतीतत्त्वात् कुतीथिकैश्च स्वाभिप्रायेणाऽऽसेव्यमानत्वात् बाह्य, तदितरच्चाऽऽभ्यन्तरमुक्तम् । -उत्तराध्ययन ३०१७ नेमिचन्द्राचार्य वृत्ति (ख) बाह्यद्रव्यापेक्षत्वाद् बाह्यत्वम् ।१७ परप्रत्यक्षत्वात् १८ तीर्थ्यगृहस्थकार्यत्वाच्च ॥१९॥ अनशनादि हि तीथ्यगृहस्पैश्च क्रियते ततोऽप्यस्य बाह्यत्वम् । -तत्त्वार्थ सूत्र ६।१६ राजवातिक ७१. खुहं पिवासं दुस्सेज्जं, सीजणहं अरई भयं । अहियासे अव्वहिओ, देहे दुक्खं महाफलं ॥ -वशवकालिक गा० २७ ७२. अनुसरोपपातिक वर्ग ३ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० धर्म और दर्शन तामली तापस 3 और पूरण तापस ने उग्र तप किया था, किन्तु प्राभ्यन्तर तप के अभाव में उनके विपुल तप को भगवान् महावीर ने अज्ञानतप कहा है। करोड़ों वर्षों तक अज्ञान-तप करने पर अज्ञानी जितने कर्मों को नष्ट कर पाता है, उतने कर्मों को ज्ञानी कुछ ही समय में नष्ट कर देता है । एतदर्थ ही साधक को बाह्य तप करने के पूर्व आगमों का अध्ययन करना आवश्यक माना है । ६ बाह्य तप क्रियायोग का प्रतीक है और प्राभ्यन्तर तप ज्ञानयोग का । ज्ञान और क्रिया का समन्वय ही मोक्ष का मार्ग है। उपाध्याय यशोविजय जी ने एतदर्थ ही मुनि को बाह्य और आभ्यन्तर तप करने की प्रेरणा दी है। __महात्मा बुद्ध ने मज्झिम निकाय आदि में जैन संस्कृति के तप ७३. भगवती, शतक ३। उद्देश० १ ७४. भगवती, शतक ३ उद्द० २ जं अन्नाणी कम्म खवेइ, बहुयाहि वासकोडीहिं । तं नाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ ऊसासमित्तेण ।। ___.-संथार पइन्ना (ख) उग्गतवणण्णाणी जं कम्म खवदि भवहि बहुएहि । तं णाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ अंतोमुहत्तणं ॥ -मोक्ष पाहुड-कुन्दकुन्द ५३ ७६. तए णं से धन्न अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवारणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाइएक्कारस अगाई अहिज्जइ, अहिज्जित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावे मारणे विहरइ। -अनुत्तरौपपातिक वर्ग ३ ७७. दोहिं ठाणेहि अणगारे संपन्न अणाइयं अणवदग्गं दीहमद्ध चाउरंतसंसारकंतारं बीइवएज्जा, तं जहा-विज्जाए चेव, चरणेण नेव । -स्थानांग २१ (ख) ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः। ७५. मूलोत्तरगुणश्रेणि, प्राज्यसाम्राज्यसिद्धये । बाह्यमाभ्यन्तरं चेत्थं, तपः कुर्यात् महामुनिः ।। -ज्ञानसार तपप्रष्टक ६ ७६. मज्झिमनिकाय, उपालिसुत्त ५६ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमणसंस्कृति और तप का उपहास किया है और उसकी निरर्थकता बताई है । पर ज्ञात होता है कि उन्होंने केवल बाह्य तप को ही असली तप समझा, याभ्यन्तर तप की ओर उनका ध्यान ही नहीं गया । यदि गया होता तो भूलकर के भी वे जैन परम्परा के तप का उपहास नहीं कर सकते थे। जैन परम्परा में स्पष्ट कहा गया है-कायक्लेश और देहदमन तभी तक सार्थक हैं जब उनका उपयोग आध्यात्मिक शुद्धि के लिए होता है। जो बाह्य तप आध्यात्मिक कलुषता पैदा करता है, वह तप नहीं, ताप है, उपवास नहीं, लंघन है। उपवास का अर्थ है-पापों से निवृत्त होकर सद्गुणों में रमण करना। ___ महात्मा बुद्ध और भगवान् महावीर की तपः साधना में यही मुख्य अन्तर रहा है। महात्मा बुद्ध ने छह वर्ष तक उग्र तप किया, तप से देह को जर्जरित बनाया, पर प्राभ्यन्तर तप के अभाव में बाह्य तप उन्हें शान्ति प्रदान नहीं कर सका। अन्त में उन्होंने बाह्यतप का त्याग किया। किन्तु भगवान् श्री महावीर बाह्यतप के साथ सदा आभ्यन्तर तप करते रहे। अनशन के साथ आसन और ध्यान की स्पर्धा-सी चलती रही। उन्होंने अपने साधना काल में ऊकडू आसन, निषद्या, कायोत्सर्ग, प्रतिमाए एक बार नहीं, अपितु शताधिक बार ८०. तदेव हि तपः कार्य, दुनिं यत्र नो भवेत् । येन योगा न हीयन्ते, क्षीयन्ते नेन्द्रियाणि च ॥ -ज्ञानसार, तपअष्टक, उपा० यशोविजय ८१. कषायविषयाहारः त्यागो यत्र विधीयते । उपवासः स विज्ञेयः, शेषं लंघनंक विदुः ॥ ८२. उपावृत्तस्य पापेभ्यः सहवासो गुणहि यः । उपवासः स विज्ञेयो न शरीरस्य शोषणम् ॥ ८३. इहासने शुष्यतु मे शरीरं, त्वगस्थिमांसं प्रलयं च यातु । अप्राप्य बोधिं बहुकल्पदुर्लभां नैवासनात् कायमिदं चलिष्यति ॥ -दर्शन और चिन्तन, पं० सुखलाल जी द्वि० खण्ड -पृ० ६३ में उद्धृत ८४. मज्झिम निकाय १२ महासीहनाद सूत्र० दण्डिका २० से २६ तक । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ धर्म और दर्शन की।५ बारह बार उन्होंने एक रात्रि की प्रतिमा अंगीकार की।६ जब भगवान् दृढ़भूमि के पेढाल ग्राम में विचरण कर रहे थे तब उन्होंने पोलाश चैत्य में तीन दिन का उपवास किया। कायोत्सर्ग मुद्रा की। उनका तन आगे की ओर कुछ झुका हुआ था। एक पुद्गल पर दृष्टि केन्द्रित थी। आँखें अनिमेष थीं। तन प्रणिहित था, इन्द्रियाँ गुप्त थीं। दोनों पैर सटे हुए थे और दोनों हाथ प्रलम्बित थे। प्रस्तुत मुद्रा में भगवान् ने एक रात्रि की महाप्रतिमा की। __भगवान् ने सानुलष्टि ग्राम में भद्रा, महाभद्रा और सर्वतोभद्रा प्रतिमा नामक तपश्चर्या की । चारों दिशाओं में चार-चार प्रहर तक कायोत्सर्ग करना भद्रा प्रतिमा है।" इस प्रतिमा की आराधना करने वाला प्रथम दिन पूर्वदिशा की ओर मुख कर कायोत्सर्ग करता है, रात्रि ८५. तिन्नि सए दिवसारणं अउणापन्न य पारणाकालो । उक्कुडुअनिसिज्जाए, ठियपडिमाणं सए बहुए ॥ -श्रावश्यक नियुक्ति गा० ५३४ ८६. दस दो अ किर महप्पा ठाइ मणी एगराइयं पडिमं । अट्ठमभत्तेण जई इक्किकं चरमराई अ॥ -आवश्यक नियुक्ति गा० ५३१ ८७. ततो भयवं बहुमेच्छं दढभूमि गतो, तस्स बहिं पोलासं नाम चेइयं, तत्थ अट्ठमेण भत्तण अपाणएण ईसिपब्भारगएण काएणं, इसीपब्भारगतो नाम ईसि ओणतो कातो, एगपोग्गलनिरुद्धदिट्ठी अणिमिसनयणे, तत्थवि जे अचित्ता पोग्गला तेसु दिट्टि निवेसेइ, सचेत्तेहि दिट्ठी अप्पाइज्जइ, जहा दुच्चाए, अहापणिहिएहिं गत्तहिं सविदिएहिं गुत्तहिं दोवि पाए साहट्ट वग्घारियपाणी एगराइयं महापडिमं ठितो । एतदेवाहदढभूमी बहुमिच्छा पेढालग्गाममागओ भयवं । पोलासचेइयम्मि ट्ठिएगराई महापडिमं ॥ -आवश्यक नियुक्ति गा० ४६७ मलयगिरि वृत्ति पत्र २८८ पूर्वादिदिक्चतुष्टये प्रत्येकं प्रहरचतुष्टयकायोत्सर्गकरणरूपा अहोरात्र द्वयमानेति । - स्थानाङ्ग सूत्र, सटीक प्र० भा० पत्र ६५-२ ८८. Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमणसंस्कृति और तप १६३ में दक्षिण दिशा की ओर मुख कर कायोत्सर्ग करता है । द्वितीय दिन पश्चिम दिशा की ओर मुख कर कायोत्सर्ग करता है और रात्रि में उत्तर की ओर मुख कर कायोत्सर्ग करता है। भगवान् ने भद्रा के पश्चात् ही महाभद्रा प्रतिमा प्रारम्भ कर दी। उसमें चारों दिशाओं में एक दिन रात कायोत्सर्ग किया जाता है। भगवान ने चार दिन तक इसकी आराधना की। इसके पश्चात् सर्वतोभद्रा प्रतिमा का प्रारम्भ किया, इसमें दस दिन-रात लगे। दशों दिशाओं में क्रमशः अहोरात्र कायोत्सर्ग किया जाता है ! इस प्रकार भगवान् सोलह दिन-रात तक सतत ध्यानरत और उपवासी रहे ।९१ ८९. महाभद्रापि तथैव, नवरमहोरात्रकायोत्सर्गरूपा अहोरात्रचतुष्टयमाना । -स्थानाङ्ग बृत्ति प्र० भा० पत्र ६५-२ ६०. सर्वतोभद्रा तु दशसु, दिक्षु प्रत्येकमहोरात्रकायोत्सर्गरूपा अहोरात्रदशकप्रमाणेति ।। __ --वही, पत्र, ६५-२ ६१. तदनन्तरं सानुलष्टिग्रामं गतः । तत्थ बाहि भद्दपडिमं हितो । केरिसिया भद्दा पडिमा ? भन्नइ, पुब्बाभिमुहो दिवसं अच्छइ, पच्छा रत्ति दाहिणहुत्तो, ततो बोए अहोरत्त अवरेणं दिवसं उत्तरेणं रत्ति, एवं छ?णं भत्तेणं निट्ठिया, तहवि न चेव पारेइ, ततो अपारितो चेव महाभद्द पडिमं ठाइ, सा पुण एवं-पुवाए दिसाए अहोरत्त, एवं चउसु वि दिसासु चत्तारि अहोरत्ता, एवमेसा दसमेण निद्विआ, तहावि न पारेइ, ताहे अपारितो चेव सव्वतोभद्दपडिमं ठाइ, सा पुण सव्वतोभद्दा एवं इंदाए अहोरत्त, एवं-अग्गेईए जम्माए नेरईए वारुणीए वायव्वाए सोमाए ईसाणीए विमलाए (तमाए) तत्थ जाई उड्ढलोइयाई दवाई ताई निज्झायइ, तमाए हेछिल्लाई, एयमेसा दसहिं दिसाहिं बावीसइमेण समप्पइ, एवं च प्रथमायां प्रतिमायां चत्तारि यामचतुष्काणि, तद्यथाएक पूर्वस्यामेकमपरस्यामेकंदक्षिणस्यामेकमुत्तरस्यां, द्वितीयस्यामष्टौ यामचतुष्काणि, तद्यथा द्वयामचतष्के पूर्वस्यामेवं यावत द्वयामचतुष्के उत्तरस्यां, तृतीयस्यां विंशतिर्यामचतुष्कानि, तद्यथा-व यामचतुष्के पूर्वस्यामेवं यावत् द्वे यामचतुष्के तमायामिति,........ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ धर्म और दर्शन तब भी वे ऊकडू और ध्यानान्तरिका में कि वे तप से कभी भी जब भगवान् को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ था, आसन से बैठे थे। दो दिन का उपवास था । वर्तमान थे । उनके जीवनदर्शन से स्पष्ट है ऊबे नहीं । इस उग्र तपश्चरण की बदौलत उनमें असाधारण सहिष्णुता उत्पन्न हो गई थी । यही कारण है कि घोर से घोर अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्ग एवं परीषह उन्हें अपने ध्येय से विचलित नहीं कर सके । ९५ भगवान् ने अत्यन्त वीरता के साथ उन्हें सहन करके एक आदर्श उपस्थित कर दिया । उपाध्याय श्री यशोविजय जी कहते हैं - " जैसे धनार्थी मनुष्य को शीत, ताप, क्षुधा आदि दुस्सह प्रतीत नहीं होता, वैसे ही तत्त्व ज्ञान के अर्थी साधक को भी किसी प्रकार का देहकष्ट दुःस्सह नहीं होता । " पडिमा भद्द महाभद्द सव्वओभद्द पढमिया चउरो । अवीसाऽऽदे बहुलिय तह उज्झिया दिव्वा || ९२. जंभिय बहि उजुवालिय तीरवियावत्त सामसाल अहे । छक्कुडुयस्स उ उप्पन्न केवलं नाणं ॥ . ६. - श्रावश्यक नियुक्ति गा० ४६६, मलय० वृत्ति २०८ ६४. ६३. भारतरियाए वट्टमाणस्स । - श्रावश्यक नियुक्ति ५२४ बृ० प० २६५ धूली पिवलिआओ उद्दसा चेब तह य उण्होला । विच्छुअ नउला सप्पा य मूसगा चेव अट्ठमया ॥ हत्थी हत्थिणियाओ पिसाबए घोररूंव वग्घो य । थेरो थेरी सूओ आगच्छइ पक्कणो अ तहा ॥ खरवाय कलंकलिया, कालचक्कं तहेव य । पाभाइयमुवसग्गो, बीसइमे होति अगुलोमे ॥ सामाणियदेविद्धि देवो दाएइ सो विमाणगओ । भइ वरेह महरिसि ! निष्पत्ती सग्गमोक्खाणं ॥ - श्रावश्यक नियुक्ति गा० ५०२ - ५०५ (ख) त्रिषष्ठि ० १०।४।१८६ - २८१ - श्रावश्यक नियुक्ति गा० ५२५ आचारांग श्र० २, अ० १५, सू० १०१८ धनार्थिनां यथा नास्ति शीततापादि दुस्सहम् । तथा भव - विरक्तानां तत्व-ज्ञानार्थिनामपि ॥ -ज्ञानसार-तपाष्टक Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमणसस्कृति और तप १६५ अपितु ध्येय के माधुर्य का अनुभव हो जाने पर और उसमें गहरी लगन लग जाने पर देहदमन भी आनन्द की वृद्धि करने वाला होता है । __ जैन संस्कृति ने तप का मुख्य ध्येय आत्माभ्युदय स्वीकार किया है। प्राचार्य जिनदास गणी महत्तर के शब्दों में “तप वह है जो अष्ट प्रकार की कर्म ग्रन्थियों को तपाता है, उन्हें भस्म करता है।९८ भगवान् महावीर ने तप का फल व्युदान बताया है ।९९ व्युदान का अर्थ संचित कर्म-मल को साफ कर देना है। एक प्राचार्य ने तप का अर्थ इच्छाओं को रोकना किया है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने कहा है-जैसे सदोष स्वर्ण, प्रदीप्त अग्नि द्वारा शुद्ध होता है, वैसे ही प्रात्मा तप अग्नि से विशुद्ध होता है। बाह्य और प्राभ्यन्तर तपस्याग्नि के प्रज्वलित होने पर यमी दुर्जर कर्मों को तत्क्षण भस्म कर देता है । ०१ ६७. सदुपायः प्रवृत्तानामुपेयमधुरत्वतः । ज्ञानिनां नित्यमानन्दवृद्धि रेव तपस्विनाम् ।। -ज्ञानसार, तपाष्टक ६८. तवो णाम तावयति अढविहं, कम्मगंठि नासेतित्ति वुत्तं भवइ । -वशवकालिक, जिनदास चूणि पृ० १५ ६६. तवेणं भंते जीवे कि जणयइ ? तवेणं वोदाणं जणयइ ।। -उत्तराध्ययन अ०२६।२७ (ख) तवे वोदाणफले । -भगवती,शतक २। उद्दे० ५ १००. इच्छानिरुन्धनम् तपः । सदोषर्माप दीप्तेन, सुवर्ण वह्निना यथा, तपोऽग्निना तप्यमानस्तथा जीवो विशुध्यति । दीप्यमाने तपोवह्नौ, बाह्य चाभ्यन्तरेऽपि च, यमी जरति कर्माणि, दुर्जराण्यपि तत्क्षणात् । -नवतत्त्वसाहित्य संग्रहः श्री हेमचन्द्र सूरिरचित सप्ततत्त्व प्रकरण गा० १२६।१३२ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ धर्म और दर्शन उत्तराध्ययन में बताया है 'कोटि भवों के संचित कर्म तप द्वारा जीर्ण होकर नष्ट हो जाते हैं । १०२ प्राचार्य श्री शय्यंभव ने तप के ध्येय पर प्रकाश डालते हुए बताया- (१) इहलोकसंबंधी लाभ के निमित्त तप नहीं करना चाहिए (२) परलोक संबंधी अभ्युदय के निमित्त तप नहीं करना चाहिए (३) कीति, वर्ण, [लोक-व्यापी यश], शब्द [लोकप्रसिद्धि] और श्लोक [स्थानीय प्रशंसा] के लिए तप नहीं करना चाहिए। निर्जरा के अतिरिक्त अन्य किसी भी उद्देश्य से तप नहीं करना चाहिए।१०3 प्राचार्य अकलंक देव कहते हैं ---जैसे किसान को खेती से अभीष्ट धान्य के साथ-साथ पयाल भी मिलता है, उसी तरह तप-क्रिया का प्रधान प्रयोजन कर्मक्षय ही है । अभ्युदय की प्राप्ति तो पयाल की तरह आनुषंगिक है ।१०४ तप स्वरूपतः एक है, किन्तु तपस्वी की भावना के भेद के कारण उसे सकाम और निष्काम, इन दो भागों में विभक्त कर सकते हैं। लोकेषरणा या लौकिक ऋद्धि-सिद्धि के उद्देश्य से किया जाने वाला तप सकाम तप कहलाता है और आत्म-उत्थान के लिए या कर्म निर्जरा के अर्थ जो तप किया जाता है, वह निष्काम तप है। १०२. भवकोडि संचियं कम्मं तवसा निजरिज्जइ ।। -- उत्तरा० ३०१६ १०३. चउन्विहा खलु तवसमाही भवइ तंजहा (१) नो इहलोगट्ठयाए तवमहिट्ठज्जा (२) नो परलोगट्ठयाए तवमहिट्ठज्जा (३) नो कित्तिवण्णसद्दसिलोगट्ठयाए तवमहिठ्ठजा । (४) नन्नत्थ निज्जरट्ठयाए तवमहिठ्ठज्जा । -दशवकालिक अ० ६।उ० ४।४ १०४. गुणप्रधानफलोपपत्तर्वा कृषीवलवत् । अथवा, यथा कृषीवलस्य कृषिक्रियायाः पलालशस्यफलगुणप्रधानफलाभिसम्बन्धः तथा मुनेरपि तपस्क्रियायां प्रधानोपसर्जनाभ्युदयनिःश्रेयसफलाभिसम्बन्धोऽभिसन्धिवशाद्वदितव्यः । - तत्वार्थसूत्र ६।३, राजवार्तिक ५ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण संस्कृति और तप १६७ १०६ आगम साहित्य का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि लौकिक कामना से तप करने वालों को लौकिक- सिद्धियाँ भी उपलब्ध हुई हैं । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में चक्रवर्ती सम्राट् भरत का वर्णन है । उन्होंने समग्र षट्खण्ड भारतवर्ष को प्रशासनिक दृष्टि से एक सूत्र में ग्रथित करने के लिए, साथ ही प्रादिनाथ ऋषभ द्वारा स्थापित कल्याणकारी मर्यादाओं और व्यवस्थाओं को सर्वत्र लागू करने के लिए जो विराट् अभियान किया था, उसकी सफलता के लिए तेरह बार अष्टम तप की साधना की । १०५ श्री कृष्णवासुदेव अपने लघुभ्राता गजसुकुमार को प्राप्त करने के लिए तप करते हैं । गर्भवती रानी धारणी के दोहद को पूर्ण करने के अर्थ, देवी सहायता प्राप्त करने के लिए, अभयकुमार तप करते हैं । तप के प्रभाव से देव वर्षाकाल न होने पर भी वर्षा - काल का मनोहर दृश्य उपस्थित करता है । इत्यादि उदाहरणों से स्पष्ट है कि तप से लौकिक कामनाएँ भी पूर्ण होती हैं | पर जैन संस्कृति ने इस प्रकार के तप को प्राध्यात्मिक साधना की दृष्टि से कोई महत्त्व नहीं दिया है। यही नहीं, भोगों की लालसा से किये जाने वाले तप को मोक्षप्राप्ति में बाधारूप माना है । दशाश्र तस्कंध में स्पष्ट निर्देश है कि परभव में अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति के हेतु किया जाने वाला तप निदान है, जो साधना के लिए शल्य रूप है । ३०७ १०८ गांधी जी कहते हैं - तप से जीवन निखरता है, मन मँजता है और काया कंचनमय होती है ।१९ काया के कंचनमय हो जाने का १०५. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, भरतचक्रवर्ती अधिकार | १०६. अन्तकृतदशाङ्ग, तृतीय वर्ग १०७. ज्ञातृधर्मकथाङ्ग १।१६ १०८. दशाश्र तस्कंध अ० १० निदान वर्णन, (ख) स्थानाङ्ग ३|१८२, (ग) समवायाङ्ग सम० ३ १०६. गांधी जी की सूक्तियाँ G Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन आशय यही है कि तप से शुष्क शरीर में एक अनूठा तपस्तेज दमक उठता है । तप एक प्रकार से शुद्ध की हुई रसायन है। कहा जाता है कि आज के वैज्ञानिकों ने "वायोकेमिष्ट" औषधियों की शोध की है। उनका मन्तव्य है कि शरीर में बारह प्रकार के तत्त्व होते हैं। उन तत्त्वों में से किसी भी एक तत्त्व की न्यूनता होने से शरीर रुग्ण होता है । बारह प्रकार के क्षार तत्त्वों से रोगों को नष्ट कर शरीर को पूर्ण स्वस्थ और मस्त बनाया जा सकता है। तप के भी जो बारह प्रकार हैं, वे "वायो केमिष्ट" औषधियों के समान हैं। इन तपों का शरीर के किस तत्त्व पर कैसा प्रभाव पड़ता है, यह अनुसन्धान का विषय है । तथापि निस्सन्देह कहा जा सकता है कि इनके आचरण से कर्म रूपी रोग नष्ट होते हैं और प्रात्मा पूर्ण स्वस्थ होता है। तप श्रमण संस्कृति की आत्मा है। तप और श्रमण संस्कृति के द्वत की मान्यता को मैं मानस की सिकुड़न मानता हूँ। तप संयम की पौध का फलना, फूलना ही श्रमण संस्कृति का विकास है। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठ अहिंसा और सर्वोदय भारतीय चिन्तकों ने जितनी गहराई से अहिंसा के सम्बन्ध में चिन्तन किया है उतना विश्व के अन्य विचारकों ने नहीं। अहिंसा आत्मा का पालोक है, जीवन की पवित्रता है, मन का माधुर्य है, मैत्री का मूलमन्त्र है। स्नेह, सौहाद्र और सद्भावना का सूत्र है। धर्म, संस्कृति, समाज का प्राण है । साधना का पथ है। हिंसा शब्द हननार्थक हिंसि धातु से बना है । हिंसा का अर्थ है"प्रमत्त योग से दूसरों के प्राणों का अपहरण करना'- दुष्प्रयुक्त मन, वचन या काया के योगों से प्राण व्यपरोपण करना। और अहिंसा का अर्थ है-प्राणातिपात से विरति । जैन साहित्य में हिंसा के लिए प्राणातिपात शब्द का प्रयोग हुआ है। इन्द्रियाँ, मन, वचन, काया, श्वासोच्छ्वास और आयु ये प्राण है। प्राणातिपात का अर्थ है प्रारणी के प्रारणों का प्रतिपात करना-जीव से प्राणों का पृथक् करना। जीवों को समाप्त करना १. प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा । -तत्त्वार्थ सूत्र ७१३ २. मणवयणकाएहि जोएहि दुप्पउत्तहिं जं पाणववरोवणं कज्जइ सा हिंसा। --दशवकालिक, जिनदास चूणि प्र० अध्य० ३. अहिंसा नाम पाणातिवायविरती। -दशवकालिक, जिनदास चूणि पृ० १५ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन ही केवल प्रतिपात नहीं है, किन्तु उनको किसी भी प्रकार का कष्ट देना भी प्रारणातिपात है । १७० 1 उक्त व्याख्यानों में दया और करुणा का पयोधि उछालें मार रहा है । स्थूल से लेकर सूक्ष्म तक किसी भी प्राणी को मन, वचन और काया से कष्ट न पहुँचाना और उनके प्रति मैत्री भाव रखना हिंसा है। हिसा हमें " प्रात्मवत् सर्वभूतेषु' का पाठ पढ़ाती है । अहिंसा का महत्व प्रतिपादित करते हुए भगवान् श्री महावीर ने हिसा को 'भगवती' कहा है ।" और प्राचार्य समन्तभद्र ने अहिंसा को 'परम ब्रह्म' कहा है। महाभारतकार व्यास ने अहिंसा को परम धर्म, परम तप, परम सत्य, परम संयम, परम दान, परम यज्ञ, परम फल, परम मित्र और परम सुख कहा है।" (क) ४ पाणातिवाता [ तो ] अतिवातो हिंसरणं ततो एसा पंचमी अपादारणे भयहेतुलक्खणा वा भीतार्थानां भयहेतुरिति । - दशवं० श्रगस्त्य सिंह चूर्णि (ख) पाणाइवाओ नाम इं दिया आउप्पाणादिनो छव्विहो पाणा य जेसिं अत्थिते पागिणो भण्ांति, तेसिं पाणाणमइवाओ तेहि पाहि सह विसंजोगकरणत्ति वृत्तं भवइ । - दशवेकालिक, जिनदास चूर्णि पृ० १४६ तेषामतिपातः प्राणातिपातः - जीवस्य ५. (ग) प्राणा - इन्द्रियादयः महादुःखोत्पादनं, न तु जीवातिपात एव । एसा सा भगवती अहिंसा ६. अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमम् । ७. अहिंसा परमो धर्मस्तथाऽहिंसा परं तपः । अहिंसा परमं सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते ॥ अहिंसा परमो धर्मंस्तथाऽहिंसा परो दमः । अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः ॥ - दशवैकालिक, हारिभद्रीयावृत्ति प० १४४ --प्रश्नव्याकरण - बृहत् स्वयंभू स्त्रोत्र Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा और सर्वोदय १० आगम साहित्य का पर्यवेक्षण करने पर ज्ञात होता है कि महाव्रतों की त्रिविध परम्परा रही है । आचारांग में अहिंसा, सत्य और बहिर्धादान इन तीन का उल्लेख है', स्थानाङ्ग' उत्तराध्ययन' प्रभृति में हिंसा, सत्य, प्रचीर्य और बहिर्द्धादान" इन चार याम [महाव्रतों] का उल्लेख है । उत्तराध्यन १२ दशवैकालिक ३ यदि आगमों में अनेक स्थानों पर अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच महाव्रतों का वर्णन है । .93 स्थानाङ्ग प्रादि के अनुसार भगवान् श्री ऋषभदेव ने तथा भगवान् श्री महावीर ने पांच महाव्रतात्मक धर्म का प्ररूपण ८. ε, १०. ११. अहिंसा परमो यज्ञस्तथाऽहिंसा परं फलम् | अहिंसा परमं मित्रमहिंसा परमं सुखम् ॥ - महाभारत, अनुशासन ववं ११५ - २३ | ११६।२८-२६ जामा तिणि उदाहिया । स्थानाङ्ग २६६ उज्जामो अ जो धम्मो, जो इमो पंच देसिओ वद्धमाणेणं, पासेण च १२. अहिंस सच्चं च अतेणगं च, - उत्तरा० २३।२३ 'बहिद्वादाणाओं' त्ति बहिद्धा - मैथुनं परिग्रहविशेषः आदानं च परिग्रहस्तयोद्वन्द्व कत्वमथ वा आदीयते इत्यादानं परिग्राह्य वस्तु, तच्च धर्मोपकरणमपि भवतीत्यत श्राह - बहिस्तात् धर्मोपकरणाद् बहिरिति । इह च मैथुनं परिग्रहेऽन्तर्भवति, न ह्यपरिगृहीता योषिद् भुज्यत इति । -स्थानाङ्ग वृत्ति २६६ पडिवज्जिया पंच महव्वयाई, - आचारांग ७|१|४०० सिक्खओ | महामुनी ॥ ततो य बंभं चऽपरिग्गहं च । १३. दशवेकालिक, अ० ४ १७१ चरिज्ज धम्मं जिणदेसियं विऊ । -- उत्तराध्ययन, २१ २२ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ धर्म और दर्शन किया और अन्य बाईस तीर्थङ्करों ने चातुर्याम धर्म का निरूपण किया । १४ पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि सर्वत्र अहिंसा को प्रथम स्थान दिया गया है । हिंसा की विशद व्याप्ति में ही सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि व्रतों का समावेश हा जाता है । जहाँ हिंसा है वहाँ पाँचों महाव्रत हैं ।' १५ जैन दर्शन के मनीषी प्राचार्यों ने स्पष्ट किया है कि सत्य आदि जितने भी व्रत हैं वे सभी अहिंसा की सुरक्षा के लिए हैं । ६ अहिंसा धान है और सत्य आदि उसकी रक्षा करने वाले बाड़े हैं । " हिंसा यदि पानी है तो सत्य यदि उसकी रक्षा करने वाली पाल हैं । " १८ १४. १५. मज्झिगमा बावीसं अरहंता भगवंता चाउज्जामं धम्मं पण्णवेंति, तं जहा सव्वातो पाणातिवायाओ वेरमणं, एवं मुसावायाओ वेरमणं, सव्वातो अदिन्नादानाओ वेरमरणं, सव्वाओ बहिद्धादाणाओ वेरमणं । --स्थानाङ्गः २६६ अहिंसा - गहणे पंच महव्वयाणि गहियाणि भवंति । संजमो पुण तीसे चेव अहिंसाए उवग्गहे वट्टइ, संपुष्णाय अहिंसाय संजमो वि तस्स वट्टइ | १६. एक्कं चिय एक्कं वयं निद्दिट्ठ सवेहिं पाणाइवायविरमण १७. - दशवेकालिक चूर्णि प्र० प्र० जिणवरेहिं । सव्वसत्तस्स रक्खट्ठा । (ख) अहिंसेषा मता मुख्या स्वर्ग- मोक्ष प्रसाधनी । एतत्संरक्षणार्थ च न्याय्यं सत्यादिपालनम् । (ग) अवसेसा तस्स रक्खट्ठा । अहिंसाशस्य संरक्षणे वृत्तिकल्पत्वात् १८. अहिंसापयसः पालिभूतान्यन्यव्रतानि यत् । सत्यादिव्रतनाम् । - हारिभद्रीयाष्टक १६/५ — पंचसंग्रह - हारिभद्रीयाष्टक १६/५ - योगशास्त्र प्रकाश - २ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा और सर्वोदय १७३ योग साधना के पाठ सोपान हैं। उनमें प्रथम सोपान का प्रथम चरण है अहिंसा ।२० अहिंसा की मंजिल को पूरी किये बिना योग में गति और प्रगति नहीं हो सकती। अहिंसा की साधना से ही स्नेह, सौहार्द और प्रेम का समुद्र ठाठे मारने लगता है। यहाँ तक कि अहिंसक के सन्निकट पहुँचकर हिंसक से हिंसक का भी वैर विस्मृत हो जाता है ।२१ यही कारण है कि तीर्थङ्करों के समवसरण में शेर और बकरी एक स्थान पर बैठते हैं। देवर्षि नारद भक्तों को प्रेरणा देते हैं कि भगवान् के चरणों में अहिंसा, इन्द्रियनिग्रह, दया, क्षमा, शान्ति, तप, ध्यान और सत्य ये आठ प्रकार के पुष्प अर्पित करो। इनमें भी सर्वप्रथम पुष्प अहिंसा है ।२२ जिस प्रकार हाथी के पैर में सब प्राणियों के पैर समा जाते हैं, उसी प्रकार अहिंसा में सब धर्मों के अर्थ व तत्त्व समा जाते हैं। ऐसा जानकर समझकर जो अहिंसा का प्रतिपालन करते हैं वे नित्य अमृत-मोक्ष में वास करते हैं ।२3 १६. यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावंगानि । -पतंजलि, योगदर्शन २।२६ २०. अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः ।। -पतंजलि, योगदर्शन २०३० २१. अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्संनिधौ वैरत्यागः । २२. अहिंसा प्रथमं पुष्पं, पुष्पं इन्द्रियनिग्रहः । सर्वभूतदया पुष्पं, क्षमा पुष्पं विशेषतः । शान्तिः पुष्पं तपः पुष्पं ध्यानपुष्पं तथैव च । सत्यं अष्टविधं पुष्पं विष्णोः प्रीतिकरं भवेत् । ---पद्मपुराण २३. यथा नागपदेऽन्यानि पदानि पदगामिनाम् । सर्वाण्येवापि धार्यन्ते पदजातानि कौरे ॥ एवं सर्वहिंसायां धर्मार्थमपि धीयते । अमृतः स नित्यं वसति योऽहिंसा प्रतिपद्यते ॥ -महाभारत १२।२३७।१८।१६ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन अभिप्राय यह है कि सभी धर्मों ने, पन्थों ने, सन्तों और महर्षियों ने एक स्वर से ग्रहिसा के महत्व को स्वीकार किया है | २४ हिंसा धर्म, संस्कृति, समाज और राष्ट्र के योगक्षेम का मूलाधार है । अहिंसा के अभाव में धर्म, संस्कृति, समाज और राष्ट्र का कोई भी मूल्य नहीं है । १७४ हिंसा एक अमृतकलश के समान है, जिसका स्वाद सभी के लिए मधुर है, मधुरतम है । हिंसा और सर्वोदय का घनिष्ठ सम्बन्ध है । ग्रहिंसा ही सर्वोदय की जन्मभूमि है । जो अहिंसक है उसके विराट हृदय में ही सबके उदय, सबके उत्कर्ष, सबके विकास और सबके कल्याण की मंगलमय भावना उद्बुद्ध होती है । सबके जीवनोत्थान की प्रशस्त भावना को प्राचीन भारतीय मनीषियों ने अहिंसक भावना कहा है । उसे ही आज के चिन्तकों ने सर्वोदय कहा है । यह भी स्मरण रखना चाहिए कि महात्मा गान्धी सर्वोदय के उपदेष्टा थे, पर सर्वोदय शब्द के स्रष्टा नहीं थे । सर्वोदय शब्द का प्रयोग जैनाचार्य समन्तभद्र ने बहुत ही पहले किया है । उन्होंने तीर्थङ्कर के शासन को सर्वोदय तीर्थ कहा है । २५ तीर्थङ्कर का शासन एक ऐसा विशिष्ट और विलक्षण शासन है जिसमें प्राणीमात्र का उत्कर्ष है, सभी का विकास है । सभी का उदय होता है । वह समस्त आपदाओं का अन्तकर है। सर्वोदय भारतीय चिन्तन का मूलस्वर है । "सब सुखी रहें, सब स्वस्थ रहें, सब कल्याणभागी बनें, कोई कभी दुःखी न हो । २६ "सब परम धर्मं श्रुतिविदित अहिंसा | २४. २५. सर्वापदामन्तकरं निरंतं, सर्वोदयं तीथमिदं तवैव । , २६. सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत् । - संत तुलसीदास - समन्तभद्र Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा और सर्वोदय जीव मुझे क्षमा करें, मैं भी सबको क्षमा करता हूँ, सबके साथ मेरी मित्रता है, किसी पर भी मेरा वैर भाव नहीं है संसार का कल्याण हो, प्राणी एक दूसरे के हित में हमारे समग्र दोष नष्ट हों, सर्वत्र जीव सुखी रहें ।२८ विश्वात्मवाद सर्वोदय का प्रादर्श है और समन्वय उसकी नीति है । विश्वात्मवाद के द्वारा वह मानवनिर्मित समस्त विषमताओं को समता में परिवर्तित करना चाहता है। एक व्यक्ति सुख के सागर पर तैरता रहे और दूसरा व्यक्ति दुःख की भट्टी में झुलसता रहे, यह अनुचित है । वर्णव्यवस्था समाजकृत है, यह कृत्रिम है, स्वाभाविक नहीं, अतः सर्वोदय सभी वर्गों का उत्कर्ष चाहता है । पर - उत्कर्ष में ही स्व-उत्कर्षं निहारता है । सर्वोदय की निष्ठा राजनीति में नहीं, लोकनीति में है, शासन में नहीं, अनुशासन में है अधिकार में नहीं, कर्तव्य में है । विषमता में नहीं, समता में है । भेद में नहीं, प्रभेद में हैं, अनेकत्व में नहीं एकत्व में है । २७. जहाँ हिंसा है, मंत्री है, करुणा है, दया है, स्नेह है, सौहार्द है, सद्भावना है, वहीं सर्वोदय है और जहाँ सर्वोदय है बहीं शान्ति है, सुख है । २८. खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमन्तु मे I मित्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मज्झ ं न केणइ || शिवमस्तु दोषाः सर्वजगतः परहित निरता भवन्तु भूतगणाः । प्रयान्तु नाशं -श्रावश्यक सूत्र १७५ ।२७ "सम्पूर्ण सदा रत रहें, सर्वत्र सुखी भवतु लोकः । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवा : एक विश्लेषणा भारतवर्ष का चिन्तन मानव को सदा से यह संदेश प्रदान कर कर रहा है कि सेवा जीवन है, सेवा परम तप है, ' सेवा प्रधान धर्म है । सेवा से बढ़कर कोई धर्म नहीं, तप नहीं । 'सेवा' यह दो अक्षरों का लघु शब्द अपने आप में एक विराट् अर्थ- गरिमा को संजोये हुए हैं । आाज सेवा के अर्थ में सहयोग शब्द व्यवहृत होता है किन्तु सहयोग और सेवा में बहुत बड़ा अन्तर है । सहयोग विनिमय की भावना रहती है । सेवा में समर्पण होता है, सहयोग में अलगाव का भाव निहित है । सहयोग के अन्तस्तल अहंकार हो सकता है, जब कि सेवा में नम्रता के अतिरिक्त अन्य कोई भावना नहीं होती । वह विवेक पर आश्रित है अतः सेवा के अर्थ में सहयोग शब्द का प्रयोग करना, सेवा की 'महान् अर्थसम्पदा को कम करना है । १, २. पायच्छित्तं विणओ, वेयावच्चं तहेव सज्झाबो, भाणं च विउसग्गो, एसो अव्भिन्तरो तबो । - उत्तराध्ययन, ३०, गा० ३० (ख) औपपातिक तपोधिकार । (ग) प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायभ्युत्सगंध्यानान्युत्तरम् । -- तत्त्वार्थ सूत्र, प्रध्याय ६, सू० २० There is No greater religion than Seruice. Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवा : एक विश्लेषण १७७ जैनागमों में सेवा के अर्थ में वेयावडियं' और 'वेयावच्च'४ ये दो शब्द प्रयुक्त हुए हैं, जिनका संस्कृत रूप क्रमशः वयापृत्य और वयावृत्य है। वैयावृत्य का अर्थ है-जिस व्यक्ति को जिस प्रकार ३, (क) वेयावडियं करेह । (ख) वेयावडियं करेंति । -भगवती, शतक ५; उद्देशा ४ सू० १८७ (ग) एयाई तीसे वयणाई सोच्चा, पत्तीइ भद्दाइ सुभासियाई। इसिस्स वेयावडियट्ठयाए, जक्खा कुमारे विणिवारयन्ति ।। -उत्तराध्ययन प्र० १२, गा०२४ (घ) पुब्विं च इण्डिं च अणागयं च, मणप्पदोसो न मे अस्थि कोई । जक्खा हु वेयावडियं करेन्ति, तम्हा हु एए निहया कुमारा । -उत्तराध्ययन,१२१३२ (ङ) गिहिणो वेयावडियं । -दशवकालिक, प्र० ३, गा० ६ (च) गिहिणो वेयावडियं न कुज्जा। -दशवकालिक दूसरी चूलिका, गा० ६ ४. (क) वेयावच्चं तहेव सज्झाओ । -उत्तराध्ययन प्र० ३०३० (ख) उत्तराध्ययन अ० २६-४३ (ग) वेयावच्च वावडभावो इह धम्मसाहणणिमित्त, अण्णाइयाण विहिणो संपायणमेस भावत्थो । -स्थानाङ्ग ५३॥५११। टी०प० ३४६ (घ) भगवती २५७। पृ० २८० (ङ) औपपातिक सूत्र ३०1 पृ० २६ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ धर्म और दर्शन की आवश्यकता हो उस का उसी प्रकार उचित सत्कार करना । श्रमणों को शुद्ध आहार आदि से सहारा पहँचाना।' अथवा 'द्रव्य' और भाव से अपना स्वयं का तथा पर का उपकार करना। संयमी की आपत्तियों को दूर कर संयम में अपना अनुराग करना। ५. आसेवणं जहाथामं, वेयावच्चं तमाहियं । -उत्तराध्ययन अ० ३०।३३ ६. (क) व्यावृत्तस्य भावः कर्म वा वैयावृत्यं भक्तादिभिरुपष्टम्भः । -स्थानाङ्ग ३।३।१८८ टी० ५० १४५ (ख) व्यावृत्तभावो वैयावृत्यं धर्म साधनार्थ अन्नादि-दानमित्यर्थः । -स्थानाङ्ग ५॥३॥५११ टो० प० ३४६ (ग) 'वेआवच्चे' त्ति वैयावृत्त्यं भक्तपानादिभिरुपष्टम्भः । -प्रोपपातिक टी० पृ० ८१ (घ) भगवती २५७ पृ० २८० (ङ) व्यावृत्तभावो वैयावृत्यम् उचित आहारादिसम्पादनम् । - उत्तराध्ययन ३०॥३३ । वृहवृत्ति ५० ६०८ (च) वैयावच्चं वावडभावो, तह धम्मसाहणनिमित्तं । अन्नाइयाण विहिणा, सम्पायणमेस भावत्थो ।। -उत्तराध्ययन ३०॥३३ को नेमिचन्द्र टीका (छ) व्यावृत्तभावो वैयावृत्यं । ' -आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति प० ११६ (ज) व्यावृत्तस्य भावो वैयावृत्त्यं, साधूनां, मुमुक्षूणां प्रासुकाहारो पधिशय्यास्तथा भेषजविश्रामणादिषु पूर्वत्र च व्यावृत्तस्य मनोवाक्कायः शुद्धः परिणामो वैयावृत्त्यमुच्यते । -तत्त्वार्थभाष्य, सिद्धसेन टीका ७. दव्वेण भावेण वा, जं अप्पणो परस्स वा, उवकारकरणं तं सव्वं वेयावच्चं ॥ __-निशोथ चूणि ४।३७५ ८. व्यापत्तिव्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गुणरागात् । वैयावृत्यं यावानुपग्रहोऽन्योपि संयमिनाम् । -रत्नकरण्ड श्रावकाचार ११२ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवा : एक विश्लेषण वैयावृत्य के दस प्रकार हैं-(१) प्राचार्य, (२) उपाध्याय, (३) शैक्ष, (४) ग्लान. (५) तपस्वी, (६) स्थविर, (७) सार्मिक, (८) कुल (६) गण और (१०) संघ की वैयावृत्य करना। प्राचार्य, उपाध्याय, स्थविर प्रभृति के प्रति हार्दिक श्रद्धा रखना, उनकी प्राज्ञा के अनुकूल प्रवृत्ति करना. सेवा है । तपस्वी को तप में सहयोग प्रदान करना और नव दीक्षित श्रमण को श्रामण्य धर्म के विधानों से परिचित कराना, व सहधार्मिकों को धर्म पथ पर अग्रसर करना, उनकी जीवन विधि के प्रत्येक चरण में सहायता देना । कुल, गण, संघ के उत्कर्ष के लिए सतत सन्नद्ध रहना, रुग्ण व्यक्तियों को रोग के उपादानों से परिचित कराना तथा औषधोपचार से स्वस्थ ६. वेयावच्चे दसविहे पण्णत्ते तं जहा-आवरिय वेआवच्चे, उवज्झायवेआबच्चे, सेहवेआवच्चे, गिलाणवेगावच्चे, तवस्सिवेआवच्चे थेरवेआवच्चे, साहम्मिअवेआवच्चे, कुलवेआवच्चे, गणवेआवच्चे, संघवेआवच्चे। -भगवती शतक २५, उद्द० ७ सू० ८०२ (ख) वेआवच्चरतिबहुले, वेयावच्च दसविहं तं जहा आयरियउवज्भाते, थेर-तवस्सी-गिलाण-सेहाणं । साहम्मिय-कुल-गण, संघसंगयं तमियं कायव्वं ।।१।। - प्रावश्यक चूणि, जिनदास पृ० १३४ (ग) आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति प० ११६ (घ) आवश्यक मलयगिरि वृत्ति । (ङ) प्राचार्योपाध्याय तपस्विशक्षग्लानगणकुलसंघसाधुमनोज्ञानाम् । -तत्त्वार्थ सूत्र, अ० ६ सू० २४ (च) नवतत्व प्रकरण सार्थः पृ० १२६ (छ) नवतत्वप्रकरण, सुमंगला टीका-पत्र ११२-१ (ज) औपपातिक सूत्र । (झ) स्थानांग । (अ) आयरिय उवज्झाए, थेर तवस्सी गिलाण सेहाणं । साहम्मिय कुल-गण, संघसंगयं तमिह कायव्वं ।। -उत्त० ३०१३३ नेमिचन्द्रीय टीका Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० धर्म और दर्शन करना सेवा है । इनकी सेवा करने वाला श्रमण निर्गन्थ महानिर्जरा और महापर्यवसान करता है।" पूर्वोक्त दस में से प्रत्येक की तेरह प्रकार से वैयावृत्य की जा सकती है। अतएव वैयावत्य के १३० भेद होते हैं। भाष्यकार" व चूर्णिकार ने उसके तेरह प्रकार यों बतलाए हैं-(१) भक्त, (२) पान (३) शय्या, (४) संस्तारक-पासनादि प्रदान करना, (५) क्षेत्र का प्रतिलेखन करना, (६) पैरों का मार्जन करना, (७) ग्लान-रुग्णावस्था में औषध का लाभ देना, (८) मार्ग में थकावट आदि होने पर उसका निवारण करना, (६) राजादि के कोप भाजन बनने पर निस्तार करना, (१०) शरीर, उपधि आदि का संरक्षण करना, (११) अतिचार विशुद्धि के लिए प्रायश्चित्त लेना ११, ग्लान को समाधि उत्पन्न करना, (१३) तथा उच्चारप्रस्रवरण आदि के पात्रों की व्यवस्था करना । ये सभी सेवा के विभिन्न प्रकार हैं। १०. पंचहि ठाणेहि समणे निग्गन्थे महानिज्जरए, महापज्जवसाणे भवइ, तं जहा-अगिलाए आयरिय वेयावच्च करेमाणे, एवं उवज्झाय वेयावच्च, थेरवेयावच्च तवस्सिवेयावच्च, गिलाणवेयावच्च करेमाणे। ___ पंचहि ठाणेहिं समणे निग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ तं जहा- अगिलाए सेहवेयावच्चंकरेमारणे, अगिलाए कुलवेयावच्च कारेमाणे, अगिलाए संघवेयावच्च करेमाणे, अगिलाए साहमिय वेयावच्च करेमाणे । - स्थानांग ५, सू० १३ ।उ० १ ११. भत्ते पाणे सयणासणे य पडिलेह पायमच्छिमद्धाणे, राया तेणे दण्ड-गहे य गेलण्ण मत्ते य । -व्यवहार भाष्य १२. तं एक्केक्कं तेरसविहं तं जहा (१) भत्ते, (२) पाणे, (३) आसण, (४) पडिलेहा, (५) पाद, (६) अच्छि, (७) भेसज्ज, (८) अद्धाण, (९) दृट्ठ. (१०) तेणे, (११) दंडग, (१२) गेलन्न (१३) मन्नंति, - आवश्यक चूणि, जिनदास, पृ० १३४ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवा : एक विश्लेषण १८१ भगवती सूत्र में मानसिक, वाचिक और कायिक दृष्टि से सेवा के तीन भेद किये गए हैं । स्व-सेवा, पर-सेवा, और स्वपर सेवा के रूप में सेवा के तीन प्रकार और भी है।+ सेवा का अर्थ आज्ञा का पालन भी है। जब व्यक्ति आज्ञा की आराधना करता है तब वह अपनो सेवा करता है । आत्म गुरणों का विकास करना स्वयं की सेवा करना है। दूसरे के प्रात्म गुणों के विकास में सहायता करना तथा उन्हें समाधि प्रदान करना पर सेवा है। स्वयं के सद्गुरगों का विकास कर मानसिक समाधि प्राप्त करना और दूसरों को समाधि देना यह स्वपर-सेवा है। वैयावृत्य जैन श्रमण की साधना का प्रमुखतम अंग रहा है। स्वाध्याय भी उसकी साधना का अङ्ग है, पर स्वाध्याय से भी वैयावृत्य को प्रमुखताप्रदान की गई है। शिष्य प्रभात के पुण्य पलों में सर्वप्रथम वस्त्र पात्रादि का प्रतिलेखन करता है और उसके पश्चात् गुरु के चरणारविन्दों में प्रणिपातकर नम्र निवेदन करता है -- गुरुदेव! अब मुझे क्या करना चाहिए ? ग्राप चाहें तो मुझे वयावृत्य में संलग्न कर दीजिये या स्वाध्याय में । गुरु, शिष्य को यदि वैयावृत्य में नियुक्त कर देते हैं तो वह ग्लानिभाव का परित्याग कर सेवा करता है। १४ । जैन संस्कृति का श्रमरण शरीर के प्रति ममत्वभाव से प्रेरित होकर आहार नहीं करता। शरीर का पालन-पोषण करना उसका १३. तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासंति एवं वदासी । -भगवती, शतक, २ उदेश, ५ + (ख) स्थानाङ्ग, ठा० ३,सू ० १८८ । १४. पुब्विल्लंमि चउभागे, आइच्चमि समुट्ठिए। भंडयं पडिलेहित्ता, वंदित्ता य तओ गुरु॥ पुच्छिज्जा पंजलिउडो, किं कायव्वं भए इहं । इच्छं निओइग्रं भंते, वेयावच्चे व सज्झाए । वेयावच्चे निउत्तेणं, कायव्वमगिलायओ। -उत्तराध्ययन अ० २६ गा० ८।१० Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ adarlindirtistirremarLA.. १८२ धर्म और दर्शन लक्ष्य नहीं है । वह छह कारणों से आहार ग्रहण करता है, उनमें द्वितीय कारण वैयावत्य है। वैयावृत्य करने के पवित्र उद्देश्य से वह आहार-ग्रहण करता है क्योंकि आहार के अभाव में शरीर वैयावृत्य करने में असमर्थ हो जाता है। सेवा करने वालों के लिए आगमसाहित्य में विशेष विधान किये गये हैं। ____कल्पसूत्र के समाचारी प्रकरण में एक विधान है कि वर्षावासस्थित श्रमण को गृहस्थ के घर पर एक बार जाना कल्पता है । पुनः पुनः गृहस्थ के घर जाना नहीं कलाता। किन्तु प्राचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, बालक, रुग्ण अादि श्रमणों की सेवा का प्रसंग उपस्थित होने पर सेवानिष्ठ मुनि को अनेकवार गृहस्थ के यहाँ भिक्षा के लिए जाना कल्पता है । १६ श्रमण संस्कृति के श्रमणों के लिए प्राचारांग", बृहत्कल्प और १५. वेयण वेयावच्चे, इरियट्ठाए संजमट्ठाए । तह पाणवत्तियाए, छट्ठ पुण धम्मचिन्ताए । -उत्तराध्ययन २६३ १६. वासावासं पज्जोसवियाण निच्चभत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पइ एगं गोयरकालं गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पवेसित्तए वा, न ऽन्नत्य आयरियवेयावच्चेण वा उवज्झायवेयावच्चेण, तवस्सिगिलाणवे० खुडएणं वा अवंजणजायएणं । -कल्पसूत्र सू० २४० पृ० ७१ पुण्यविजय जो सम्पादित अब्भुगते खलु वासावासे अभिपवु? बहवे पाणा बहुबीया संभूया बहवे बीया अरगुन्भिन्ना अंतरा से मग्गा बहुपाणा, बहुबीया, जाव ससंताणगा अणोक्कंता पंथा णो विण्णाया मग्गा सेवं णच्चा णो गामाणुगामं दुइज्जेज्जा तओ संजयामेव वासावासं उवल्लिएज्जा । --प्राचारांग १८. नो कप्पइ निग्गंथाणं निग्गंथीणं वा वासावासासु चरित्तए । -बृहत्कल्प उद्दे० १, सू० ३६-३७ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवा : एक विश्लेषण निशीथ आदि आगम साहित्य में यह स्पष्ट विधान है कि वह वर्षावास में जीवों की दया के लिए, रक्षा के लिए, एक स्थान पर स्थिर होकर संयम साधना करे । वर्षाऋतु में ग्रामानुग्राम विहार न करके पवन रहित स्थान में रहे। आगमिक भाषा में उसे प्रतिसंलीनता तप कहा है- 'वासास पडिसलीणा ।"२० श्रमण प्रस्तुत विधान का उल्लंघन कर यदि ग्रामानुग्राम विहार करता है तो उसे चातुर्मासिक प्रायश्चित्त पाता है।२१ __ स्थानाङ्ग सूत्र में उपयुक्त विधान से भिन्न द्वितीय विधान यह है कि श्रमण वर्षावास में भी पाँच कारणों से विहार कर सकता है। उसमें एक कारण आचार्य उपाध्याय प्रभृति की सेवा है। प्राचार्य उपाध्यायादि का अन्यत्र वर्षावास है। उन्हें सेवा के लिए आवश्यकता है तो श्रमण विहार कर उनका सेवा के लिए जा सकता है, या वे जहाँ आदेश दें, सेवा के लिए, वहाँ जा सकता है ।२२ सेवा के लिए १६. निशीथ सूत्र, उद्देशा २, सू० ४१ । २०. (क) सदा इंदियनोइदियपरिसमल्लीणा विसेसेण सिणेहसंघट्ट परिहरणत्थं णिवातलतणगता वासासु पडिसंलोणा नो गामारणुगामं दूतिज्जति । -- दशवकालिक अगस्यसिंह चूणि (ख) वासासु पडिसंलीणा नाम आश्रयस्थिता इत्यर्थः, तवविसेसेसु उज्जमंति नो गामनगराइसु विहरंति । -दशवकालिक जिनदास चूणि पृ० ११६ (ग) वर्षाकालेषु संलोना, संलीना इत्येकाश्रमस्था भवन्ति । - दशवैवालिक हारिभद्रीया वृत्ति १० ११६ २१. जे भिक्खु पढमपाउसंसि गामारणुगामं दूइज्जइ दूइज्जतं वा साइज्जइ । -निशीय उद्धे २, सू० ४१ २२. कप्पइ पंचहि ठाणेहिं णिग्गंथाणं णिग्गंथीणं वा पढमपाउसंसि गामाणुगामं दूइज्जत्तए तंजहा णाणट्ठयाए, दंसणट्ठयाए, चरित्तद्वयाए, आयरिय उवज्झायारणं वा से वीसुभेज्जा, आयरिय उवज्झायारणं वा बहिया वेयावच्च करणयाए । -स्थानाङ्ग ५, स्थान Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ धर्म और दर्शन यदि श्रमण वर्षावास में विहार करता है तो उसे प्रायश्चित्त नहीं आता । हाँ, सेवा का प्रसंग समुपस्थित होने पर भी यदि वह विहार नहीं करता है तो प्रायश्चित्त का भागी है। कितना गहरा है सेवा का महत्त्व । श्राचार्य जिनसेन ने तो सेवा को तप का हृदय माना है परिहार विशुद्ध चारित्र को आराधना और साधना भी बिना वैयावृत्य के संभव नहीं है । आगम साहित्य में परिहार विशुद्ध चारित्र की विधि इस प्रकार है- " नौ पूर्वी तक या दशवें पूर्व की तृतीय आचार वस्तु तक अध्ययन करने वाले नौ साधु, ग्रध्ययन के पश्चात् तीर्थङ्कर या जिन्होंने तीर्थङ्कर के सान्निध्य में परिहारविशुद्ध चारित्र की साधना की है उन विशिष्ट साधकों के सान्निध्य में परिहार विशुद्ध चारित्र को स्वीकार करते हैं। उन नौ श्रमणों में से प्रथम चार श्रमण यदि उष्ण काल हुआ, तो उत्कृष्ट अष्टम भक्त की आराधना करते हैं । यदि शीत काल हुआ तो जघन्य षष्ट भक्त, मध्यम अष्टम भक्त और उत्कृष्ट दशम भक्त की प्राराधना करते हैं । यदि वर्षा काल हुआ तो जघन्य अष्टम भक्त, मध्यम दशम भक्त, और उत्कृष्ट द्वादश भक्त की तपश्चर्या करते हैं । अवशेष पांच श्रमणों में से एक श्रमण प्रवचन करता है और चार श्रमण पाँचों की सेवा करते हैं । तप करने वाले श्रमरण पारिहारिक कहलाते हैं और वैयावृत्य करने वाले अनुपारिहारिक कहलाते हैं । २४ प्रवचन करने वाला साधु, जो २३. स वैयावृत्यमातेने व्रतस्थेष्वा मयादिषु । अनात्मतरको भूत्वा तपसो हृदयं हि तत् ॥ २४. सेकितं परिहारविशुद्धिय चरितारिया ? परिहार विशुद्धि चरितारिया दुविहा पण्णत्ता तं जहा - निव्विस्समाग परिहार विसुद्धिय चरितारिया । निम्बिकाइयपरिहारविसुद्धियचरितारिया य । सेत्तं परिहार विसुद्धिय चरितारिया । तं दुविगप्पं निव्विस्समाणपरिहारियाऽणुपरिहारियाण --- - महापुराण ७२।११।२३३ पनवणा पद १ ० १०५ निव्विटुकाइयवसेण । कपट्टियस्सविय ॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवा : एक विश्लेषण १८५ गुरुस्थानीय होता है, कल्पस्थित कहलाता है । प्रस्तुत क्रम छह माह तक चलता है। उसके पश्चात् चारों तप करने वाले श्रमण वैयावृत्य करते हैं, वैयावृत्य करनेवाले तप तपते हैं । प्रवचन करने वाला श्रमण पूर्ववत् ही प्रवचन करता है। छह माह पूर्ण होने पर प्रवचन करने वाला तप करता है और आठ श्रमणों में से एक प्रवचन करता है, शेष सातों श्रमण सेवा करते हैं ।२५ छह मास तक तप कर चुकने वाले निविष्ट कायिक कहलाते हैं और जो तप कर रहे हों वे निविश्यमानक कहे जाते हैं। पागम साहित्य में. अनेक स्थलों पर कड़ाई स्थविर का वर्णन है। कडाइ स्थविर सेवा के जीते जगाते सजग प्रहरी होते थे । सेवा करना उनके जीवन का प्रमुख ध्येय होता था। वे सेवा की प्रशस्त भावना से प्रेरित होकर सथारा और संलेखना करने वाले के साथ पर्वतादि पर जाते थे। कहा जाता है कि जब तक संथारा करने वाले का संथारा पर्ण नहीं होता था तब तक वे स्वयं भी आहारादि ग्रहण नहीं करते थे और अग्लान भाव से उसकी सेवा करते थे ।२६ ।। परिहारो पुण परिहारियाण सो गिम्ह-सिसिर-वासासु । पत्त यतिविगप्पो चउत्थयाई तवो नेओ ।। गिम्ह-सिसिर-वासासु चउत्थयाईणि बारसताई। अड्ढोपक्कतिए जहण्ण मज्झिमुक्कोसयतवारणं ।। सेसा उ नियमभत्ता पायं भत्तं च ताणमायाम । होइ नवण्हवि नियमा न कप्पए सेसयं सव्वं ॥ परिहारिया-ऽगुपरिहारियाण कप्पट्ठियस्स वि य भत्त। छ छम्मासा उ तवो अट्ठारसमासिओ कप्पो । -विशेषावश्यक भाष्य, प्रथम भाग गा० १२७१ से १२७५ १० ४५८-४६० प्रकाशक-श्रागमोदयसमिति २५. पन्नवणा सूत्र, पृ० १०२-१०३ अमोलक ऋषि जी।। २६. ......"तहारुवेहि कडाइहिं थेरेहि सद्धि विउलं पव्वयं सणियं सणियं दूरुहइ दूरुहित्ता....."तएणं ते थेरा भगवंतो मेहस्स अणगारस्स अगिलाए वेयाविडयं करेंति । - ज्ञातासूत्र, अ० १ सू० ४६ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन नियुक्तिकार ने श्रमणों के लिए विधान किया है कि जब श्रमण शारीरिक दृष्टि से सक्षम हो जाय, भिक्षा लेने के लिए जाने में समर्थ हो जाय तो सर्वप्रथम उस साधक का कर्त्तव्य है कि ग्लान श्रमण की मन लगाकर सेवा करे | २७ १८६ नियुक्तिकार ने स्पष्ट कहा है कि 'चररण कररण में प्रमाद का ग्राचररण करने वाले, संयमीय सद्भाव से विमुख, पार्श्वस्य, अवसन्न, कुशील, निर्ग्रन्थों की भी कारण वशात् सेवा की जा सकती है, तो फिर विवेकी जितेन्द्रिय मन, वचन और काया को गोवन करने वाले उद्यतविहारी मोक्षाभिलाषी की तो हर प्रयत्न से सेवा करनी ही चाहिए । २८ वृद्धों की सेवा करने वाले पुरुषों को ही चारित्र आदि सम्पदा प्राप्त होती है और क्रोधादि कषायों से कलुषित बना मन भी निर्मल हो जाता है। गणधर गौतम के प्रश्न के उत्तर में भगवान श्री महावीर ने कहा - वैयावृत्य से जीव तीर्थङ्कर नाम गोत्र का बंध करता है | 30 केवल ज्ञान तो कोई भी विशिष्ट साधक प्राप्त कर सकता है, पर तीर्थङ्कर बनने के लिए लम्बी साधना करनी पड़ती है । साधना के जितने भी पथ हैं उन सभी में सेवा का पथ सर्वश्रेष्ठ है । यद्यपि सेवा २७. २८. कुज्जा गिलाणगस्स उ पढमालिअ जाव बहिगमणं । ३०. २६. वृद्धानुजीविनामेव, जता पासत्थोसण्ण कुसीलनिण्हवगाणंपि देसि चरणकरणालसारणं सम्भावपरं मुहा - श्रोघनियुक्ति, ग्लान द्वार करणं । च ॥ - प्रोघनियुक्ति ४८ स्युश्चारित्रादिसम्पदः । भवत्यपि च निर्लेप, मनः क्रोधादिकश्मलम् ॥ - ज्ञानार्णव प्र० १५ श्लोक १६ वेयावच्चेणं भंते ! जीवे किं जणयई ! arraच्चे जीवे तित्थयरनामगोत्तं कम्मं निबंधइ | - उत्तराध्ययन श्र० २६ प्रश्न० ४३ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवा : एक विश्लेषण १८७ धर्म परम गहन माना गया है, उस पर चलते समय योगियों के कदम भी लड़खड़ा जाते हैं" किन्तु यह विस्मरण नहीं होना चाहिए कि सुमनों की सुमधुर सौरभ वहीं प्राप्त होती है । कहावत भी है " करे सेवा, पावे मेवा ।" अन्य सभी गुरण प्रतिपाती हैं, वे मानवजीवन के प्रान्त तक ही साथ रहते हैं, पर वैयावृत्य प्रतिपाती है । वह दूसरे जन्म में भी साथ रहता है । संयम साधना से भ्रष्ट होने पर प्रथवा मृत्यु प्राप्त होने पर चारित्र की चारु चन्द्रिका नष्ट हो जाती है । स्वाध्याय के अभाव में पठित शास्त्र भी विस्मृति के अंचल में छिप जाते हैं किन्तु वैयावृत्य से प्राप्त शुभ फल कभी भी नष्ट नहीं होता । वह अवश्य ही प्राप्त होता है महात्मा बुद्ध ने भी कहा है " एक तरफ मानव सौ वर्षों तक जंगल में अग्नि की परिचर्या करे और दूसरी तरफ पुण्यात्मा की क्षणभर भी सेवा करे वह सेवा सौ वर्ष तक किये गये यज्ञ से कहीं उत्तम है | 33 सदा वृद्ध महानुभावों की सेवा करने वाले और अभिवादनशील पुरुष की प्रायु, सौन्दर्य, सुख और बल ये चार वस्तुएँ वृद्धि को प्राप्त सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः । उत्तरगुणे सव्वं किल पडिवाई, वेयावच्चं परिभग्गस्स मयस्स वा, नासइ चरणं सुयं अगुणगाए । न हु वेयावच्च चिय, सुहोदयं नासए कम्मं ॥ ३१. ३२ वेयावच्चं निययं करेह, ३३. धरिताणं । अपडिवाई | यश्च वर्षशतं जन्तुरग्निं परिचरेद् वने । एकं च भावितात्मानं, मुहूर्तमपि पूजयेत् ॥ तदिदं पूजनं श्रेयो, न तु वर्षशतं हुतम् ॥ पंचतंत्र - विष्णुशर्मा - श्रोघनियुक्ति ५३२०५३३ - धम्मपद ( संस्कृत छाया ) १०७ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ धर्म और दर्शन होती है।३४ अतः प्रत्येक साधक का कर्तव्य है कि वह श्रेष्ठ सद्गुणों के धारक महापुरुषों की निरन्तर सेवा करे। हिन्दी साहित्य के एक सन्त कवि ने भी बड़ी सुन्दरता से कहा है कि “सन्त की सेवा करने से परमात्मा भी प्रसन्न होता है।"37 सेवा से ही ज्ञान का अखण्ड प्रकाश प्राप्त होता है । प्रागमसाहित्य का मन्थन करने वाला प्रत्येक जिज्ञासु यह जानता है कि गणधर गौतम और जम्बू आदि ने जो ज्ञान की निर्मल ज्योति प्राप्त की थी, उसके अन्तस्तल में उनकी सेवा ही प्रमुख थी। सेवा से प्राप्त ज्ञान शतशाखी के रूप में विस्तृत हो सकता है । ग्लान श्रमण की सेवा करना स्वयं भगवान् की सेवा करने के समान है। गौतम महावीर से प्रश्न करते हैं-भगवन् ! जो मनुष्य ग्लान की सेवा कर रहा है वह धन्य है अथवा जो मनुष्य दर्शन के द्वारा प्रापको स्वीकार कर रहा है वह धन्य है ? ३४. अभिवादनसीलस्स, निच्चं वुडढापचायिनो । चत्तारो धम्मा वड्ढन्ति, आयु वण्णो सुखं बलम् ॥ -धम्मपद १०६ (ख) अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन । चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम् । - मनुस्मृति, अध्याय २ श्लोक १२१ ३५. सन्तन की भक्ति किया, प्रभु रीझत है आप। जांका बाल खेलाइये, तांका रीझे बाप ॥ (ख) ज्ञातासूत्र अ० १ सू० ३. (ग) भगवती श० ५, उ० ४, सू० ५ ३६. जे आयरिय उवज्झायाणं सुस्सूसा वयणं करे। तेसि सिक्खा पवड्ढांति, जल-सित्ता इव पायवा ।। -दशवकालिक प्र०६-२ गा० १२ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवा : एक विश्लेषण १८६ उत्तर में भगवान् कहते हैं-गौतम ! जो मनुष्य ग्लान की सेवा रहा है वह धन्य है। गौतम की जिज्ञासा ने पुनः वाणी का रूप लिया "भगवन् ! आप यह किस हेतु से कह रहे हैं ?" समाधान की भाषा में उत्तर मिला-गौतम ! जो ग्लान की सेवा कर रहा है वह मेरी सेवा कर रहा है, और जो मेरी सेवा कर रहा है, वह ग्लान की सेवा कर रहा है। अरिहंत का दर्शन अरिहंत की आज्ञा का पालन करना है। अर्थात् अरिहंत के दर्शन का सार हैअरिहन्त की आज्ञा का पालन करना । अतः हे गौतम ! मैंने ऐसा कहा कि जो मनुष्य ग्लान की सेवा कर रहा है, वह दर्शन से मुझे स्वीकार कर रहा। वही मेरा सच्चा उपासक है । महात्मा बुद्ध ने भी एक रुग्ण भिक्षु को दर्द से छटपटाते देखकर आनन्द आदि प्रधान श्रमणों को सम्बोधितकर कहा था-आनन्द, सर्व ३७. किं भन्ते ! जे गिलाणं पडियरइ से धन्न ? उदाहु जे तुमं दसणेण पडिवज्जइ ? गोयमा ! जे गिलाणं पडियरइ । -आवश्यक हारिभद्रीय वृत्ति पृ० ६६१ (ख) जो गिलाणं पडियरइ सो मं पडियरइ । ___ जो मं पडियरइ सो गिलाणं पडियरइ ।। -प्रोपनियुक्ति, सटीक गा० १२ (ग) जे गिलाणं पडियरइ से धण्णे (घ) उत्तराध्ययन, सर्वार्थ सिद्धि, परीषह अध्ययन, ३८. से केणट्टणं भन्ते एवं वुच्चइ ? । जे गिलाणं पडियरइ से मं दंसणेणं पडिबज्जइ, जे मं दंसणेण पडिवज्जइ से गिलारणं पडियर इत्ति आणाकरणसारं खु अरहंताणं दंसणं, से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ जे गिलाणं पडियरइ से मं पडिवज्जइ जे मं पडिवज्जइ से गिलारणं पडिवज्जइ। -प्रावश्यक हारिभद्रीया वृत्ति पृ० ६६१-६२ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन प्रथम रुग्ण भिक्षुत्रों की सेवा करो। जिनको मेरी सेवा करनी हो वे पीड़ितों की सेवा करें 38 १६० एक पाश्चात्य विचारक ने भी कहा है- गरीबों की सेवा ईश्वर की सेवा है ।" मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की जिज्ञासा का समाधान करते हुए वशिष्ठ ने कहा- जिस किसी भी तरह मन, वचन और काय से किसी की सेवा करना ईश्वरपूजा है ।४१ भगवान् का एक नाम दीनबन्धु है । उन्हें 'दीनानाथ " भी कहते हैं। दीन और रुग्ण की सेवा करना साक्षात् जीवित भगवान् की सेवा करना है । नरसेवा ही नारायणसेवा है । प्रश्न है कि जब सेवा का इतना गहरा महत्त्व है और जैन साहित्य में भी सेवा का इतना उल्लेख है तो जैन संस्कृति के श्रमरण को तो निःसंकोच भाव से सभी की सेवा करनी चाहिए, चाहे वह गृहस्थ हो या श्रमण हो । उत्तर है कि जैन संस्कृति के श्रमण की अपनी मर्यादा है। उसका अपना कर्मक्षेत्र है । मर्यादा में रहकर वह गृहस्थ की द्रव्य सेवा नहीं किन्तु भाव सेवा कर सकता है। भाव सेवा का महत्त्व भी कम नहीं है | यदि श्रमण अपने श्रमरण-धर्म की मर्यादा को भूलकर गृहस्थ की द्रव्य सेवा करता है तो वह श्रमण के लिए अनाचार है । ४२ ३६. ४०. ४१. ४२. (ख) जो गिलाणं पडियरइ से मज्भं जाणेणं दंसणेणं चरितेां पडिवज्जह -- वृहत्कल्प सूत्र, लघुभाष्य (ग) उत्तराध्ययन सर्वार्थ सिद्धि, परोषह अध्ययन (ब) आणाराइणं दंसरणं खु जिणारणं, विनय पिटक ८|७|| का सारांश, Service of poor is the service of GOD येन केन प्रकारेण, यस्य कस्यापि देहिनः । संतोषं जनयेद् राम !, तदेवेश्वरपूजनम् ॥ गिहिणो वेयावडियं, - दशबैकालिक श्र० ३ गा० ६ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवा : एक विश्लेषण १६१ श्रमण का कर्तव्य है कि संयमशील श्रमण की सेवा करे । ग्लान साध की सेवा करने से तीर्थ की अनुवर्तना होती है और तीर्थकर देव की भक्ति होती।४३ प्राचार्य का भी कर्तव्य है कि सहधर्मी के रोगी होने पर उसकी यथा शक्ति सेवा करे ।४४ जो संघ सेवा-शुश्र षा की भावना को नहीं जानता है, उसे प्रश्रय नहीं देता है, जिस संघ के प्राचार्य अपने संघ के सदस्यों की सुख दुःख निवारण की विधि नहीं जानते, रोगी की चिकित्सा से अनभिज्ञ हैं वह संघ छिन्न-भिन्न होकर नष्ट हो जाता है।४५ संघसमुत्कर्ष के लिए अपेक्षित है कि संघ का प्रत्येक सदस्य सेवानिष्ठ हो । नन्दिषेण ६ मेघकुमार बाहु,४८ और सुबाहु मुनि (ख) गिहिणो वेयावडियं न कुज्जा । -दशवकालिक दूसरी चूलिका गा० । (ग) 'गृहिणो' गृहस्थस्य वैयावृत्त्यं गृहिभावोपकाराय तत्कर्मस्वात्मनो व्यावृत्तभावं न कुर्यात्, स्वपरोभयाश्रेयः समायोजन दोषात् । -दशवकालिक-हारिभद्रीया वृत्ति प० २८१ ४३. तित्थाणुसज्जणा खलु भत्ती य कया हवइ एवं । -बृहत्कल्पसूत्र, लघुभाष्य गा० १८७८ ४४. साहम्मियस्स गिलायमाणस्स अहाथामं बेयावच्चे अन्भुद्वित्ता भवई ।। -दशाशु तस्कंध, चतुर्थदशा ४५. उप्पण्रोण गेलाणे जो गणधारी न जाणई तेगिच्छं । दीसं ततो विणासो सुह दुक्खा तेण उच्चता ।। - व्यवहार भाष्य ५५१२८ ४६. उत्तराध्ययन टीका-कथा। ४७. अज्जप्पभिईणं भंते ! मम दो अच्छीगि मोत्तुरणं । अवसेसे काए समणाणं निग्गंथालं निसटु । - ज्ञातृधर्म कथा प्र० १ आवश्यक चूणि पृ० १३३ (ख) आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति प० २१६ (ग) त्रिषष्ठिशलाका पुरुषचरित्र. १३१६६०६, आचार्य हेमचन्द्र कृत Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ धर्म और दर्शन की तरह संघ के प्रत्येक सदस्य के जीवन के कण-कण में सेवा की विराट भावना अठखेलियाँ करती रहे। सेवा का प्रसंग उपस्थित होने पर सच्चे सेनानी की तरह सदा तत्पर रहे, बगलें न झाँके । यदि वह झाँकता है तो प्रायश्चित्त का अधिकारी है। जो श्रमण श्रमण की ग्लानता सुनकर भी उसकी उपेक्षा करता है तो उसे [सविस्तार] गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त का भागी होना पड़ता है।५० ___यदि कोई समर्थ साधु बीमार साधु को छोड़कर अन्य किसी कार्य में लग जाय, बीमार की सार-संभाल न करे, तो उसे गुरु चौमासी प्रायश्त्ति पाता है।५१ रास्ते में जाते हुए, गाँव में प्रवेश करते हुए अथवा भिक्षा के लिए परिभ्रमण करते हुए श्रमण को यदि किसी मुनि की ग्लानावस्था की सूचना प्राप्त हो तो वह आवश्यक कार्य को छोड़कर उसके पास सेवा के लिए पहुँचे । यदि वह नहीं पहुँचता है तो उसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है ।५२ एक श्रमण विहार कर जा रहा है। उसे जिस स्थान पर पहुँचना है, वहाँ स्वगच्छ का अथवा परगच्छ का श्रमरण ग्लान है, वहाँ पहुँचने (घ) देखिए लेखक का 'ऋषभदेव : एक परिशीलन' ग्रन्थ । ४६. आवश्यक चूणि, पृ० १३३ (ख) आवश्यक नियुक्ति मलयगिरि वृत्ति । (ग) आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति पृ० २१९ (घ) त्रिषष्ठि० ११११९०६ ५०. जो उ उवेहं कुज्जा लग्गइ गुरुए सवित्थारे । -वृहत्कल्प सूत्र भाष्य १८७५ ५१. जे भिक्खू गिलाणं सोचा णच्चा न गवेसइ, न गवसंतं वा साइज्जइ........आवज्जइ चउम्मासियं परिहार ठाण अणुग्धाइयं । -निशीथ १३७ ५२. सोऊण उ गिलाणं, पंथे गामे य भिक्खवेलाए । जइ तुरियं नागच्छइ, लग्गइ गरुय स चउमासे ॥ -वहत्कल्पसूत्र भाष्य १८७२ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवा : एक विश्लेषण १६३ पर मुझे उनकी शुश्र षा करनी पड़ेगी, इस भावना से यदि वह श्रमण उस स्थान को छोड़कर अरण्य में होकर जाने का मार्ग ग्रहण करता है, अथवा जिस मार्ग से आया उसी मार्ग से पूनः लौटने का प्रयत्न करता है तो उसे आज्ञा, अनवस्था, मिथ्यात्व और विराधना अादि दोष लगते हैं। यदि कोई श्रमण अपने साथी मुनि की अस्वस्थता की उपेक्षा कर तपश्चरण करता है, शास्त्र स्वाध्याय करता है तो वह भी प्रायश्चित्त का अधिकारी है। वह संघ में रहने के अयोग्य है । सेवा से जी चुराना अपने प्रात्म-गुणों का हनन करना है। और साथ ही संघीय मर्यादा की उपेक्षा करना है, जो सबसे बड़ा पाप है। दशाश्र तस्कन्ध, समवायांग और आवश्यक सूत्र में महामोहनीय कर्म बन्धन के तीस प्रकार बताये हैं। अष्ट कम प्रकृतियों में मोहनीय कर्म सबसे अधिक पतन का कारण है । जब दुरध्यवसाय की तीव्रता एवं क रता अधिक मात्रा में बढ़ जाती है तब महामोहनीय कर्म का बंध होता है, अर्थात् उत्कृष्ट सत्तर कोडाकोडी सागर तक की स्थिति वाले मोहनीय कर्म का बंध करता है। प्रस्तुत तीस भेदों में बाईसवां और पच्चीसवां भेद सेवा न करने के सम्बन्ध में है। सेवा न करने से, और सेवा के प्रति उपेक्षा रखने से प्रात्मा का कितना भयंकर पतन होता है, वह इस से स्पष्ट है। प्राचार्य और उपाध्याय की जो सम्यक प्रकार से सेवा नहीं करता वह अप्रतिपूजक और अहंकारी होने से महामोहनीय कर्म की उपार्जना करता है ।५४ ५३. सोऊण उ गिलाणं. उम्मग्गं गच्छ पडिवहं वावि । मग्गाओ वा मग्गं, संकमई आणमाईणि ॥ -वृहत्कल्प नियुक्ति भाष्य १८७१ ५४. आयरिय-उवज्झायारणं, सम्मं नो पडितप्पइ । अप्पडिपूयए थद्ध, महामोहं पकुव्वइ ॥ -दशाभुत स्कन्ध, ६ दशा, गा० २२ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ धर्म और दर्शन ___जो शक्ति होने पर भी दूसरों की सेवा नहीं करता है और कहता है--'जब मैं रुग्ण हुआ था, तब इसने भी मेरी सेवा नहीं की थी। मैं क्यों करू? यदि वह व्यथा से व्यथित है तो भले ही हो, मुझे क्या गर्ज है ?' ऐसा विचार करने वाला भी महामोहनीय कर्म का बंधन करता है ।५५ प्राचार्य जिनदास गणी महत्तर ने सेवा को ही भक्ति माना है । आचार्य के सम्मान में खड़ा होना, दण्ड ग्रहण करना, पाँव पोंछना, आसन देना आदि जो सेवा है, वही भक्ति है ।१६ राजेन्द्र कोषकार ने सेवा का अर्थ भक्ति और विनय किया है।५७ उमास्वाति ने विनय के ज्ञान दर्शन, चारित्र और उपचार ये चार भेद किये हैं। इनमें उपचार का अर्थ प्राचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थ सिद्धि में प्राचार्य के पीछे चलना, सामने आने पर खड़ा होना, पंजलिबद्ध होकर (ख) समवायांग स.म० ३० (ग) आवश्यक अ०४ साहारणट्ठा जे :केइ, गिलाणम्मि उवट्ठिए । पभू न कुणइ किच्च, मझ पि से न कुम्वइ । सढे नियडी-पण्णाणे, कलुसाउल-चेयसे । अप्पणो य अबोहीए, महामोहं पकुव्वइ ।। -दशाभुत स्कन्ध, ६ दशा, गा० २५।२६ (ख) समवायांग सम० ३० । (ग) आवश्यक अ० ४ ५६. अन्भुट्ठाणदंडग्गहण-पायपुच्छणासणप्पदाणगहणादीहिं सेवा जा सा भक्ति । -निशीथ चूणि ५७. सेवायां भक्तिविनयः । -राजेन्द्र कोष ५८. ज्ञान दर्शन चारित्रोपचाराः । -तत्त्वार्थसूत्र, प्र० ६, सू० २३ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवा : एक विश्लेषण नमस्कार करना किया है। जो सेवा ही है। प्राचार्य कौटिल्य ने वैयावृत्य का अर्थ परिचर्या किया है ।५९... सेवा प्रात्म-साधना का अपूर्व उपाय है, नर से नारायण बनने की श्रेष्ठ कला है। सेवा करने वाला, सेवा करानेवा ले से महान् होता है । शिर सेव्य हैं और पैर सेवक है। सेव्य ही सेवक के चरणों में झुकता है। राम सेव्य थे, और हनुमान सेवक थे। हनुमान के उपासना गृह (मन्दिर) प्रायः प्रत्येक गांव में मिलते हैं, किन्तु राम के क्वचित् ही। हनुमान की यह लोक-प्रियता सिद्ध करती है कि सेव्य से भो सेवक अधिक जन-मन प्रिय होता है। गांधी जी के शब्दों में "सेवा से बढ़कर व्यक्ति को द्रवित करने वाली और कोई चीज संसार में नहीं है।६० ___ज्ञातृधर्म कथा का एक मधुर प्रसंग है। सेवामूर्ति पंथक मुनि की सेवानिष्ठा ने शैलकराजर्षि के जीवन को आमूलचूल परिवर्तित कर दिया। उन्हें न केवल द्रव्यनिद्रा से बल्कि भावनिद्रा से भी जागृतकर दिया था। ___ आज सेवा का नारा एक किनारे से दूसरे किनारे तक गज रहा है । सेवकों की भरमार है; पर सेवा में जैसी चाहिए वैसी चमक पैदा नहीं हो रही है। इसका कारण है प्रेम और तन्मयता का अभाव । कर्तव्य की दृष्टि से जो सेवा की जाती है, उसमें समर्पण एवं आत्मोत्सर्ग ही प्रमुख होता है। उसमें बदले की चाह नहीं होती । वह षड़ी के कांटे की तरह निरन्तर चलती रहती है। ५६. तह यावृत्यकाराणामधंदण्डः । व्याख्या-तद्व यावृत्त्यकाराणां तस्य वैयावृत्यकाराः विशेषेण आसमन्तावर्तन्त इति । व्यावृत्तः परिचारकः तस्य कर्म वैयावृत्यं परिचर्या तत् कुर्वन्तः परिचारकाः तेषां अर्धदण्ड । कौटिलीय अर्थशास्त्र, अधिकरण २ प्रकरण २३।२० ६०. गाँधी जी को सूक्तियाँ पृ० १११ ६१. णायाधम्मकहाओ श्रुत० १ अ० ५ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ धर्म और दर्शन ... प्रेम की जिस उर्वर भूमि से कत्तव्य का जन्म होता है वह कर्तव्य सेवा है। मां पुत्र की सेवा करती है। अपने आपको पुत्र की सेवा में विस्मृत कर देती है। भूख प्यास भूल जाती है । एतदर्थ ही उसकी सेवा उच्च कोटि की गिनी गई है। जिस सेवा में आत्म-भाव का अभाव होता है उसमें तोलने की बुद्धि रहती है, और जहाँ पर तोल है, वहाँ हृदय के माधुर्य का मोल कम हो जाता है। अतः भारतीय संस्कृति साधक के अन्तर्हृदय में सेवा की सही ज्योति जगाती है और सेवक के हृदय में प्रात्मार्पण की भव्य भावना पैदा करती है। अग्लान भाव से सेवा करने को उत्प्रेरित करती है।६२ ६२. गिलाणस्स अगिलाए वेयावच्च करणयाए अब्भु? यव्वं भवइ । -स्थानाङ्ग, स्थान ८, सूत्र ६२ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दस धर्म का प्रवेशद्वार : दान दान, धर्मरूपी भव्य-भवन का प्रवेशद्वार है ।' हृदय की उदारता का पावन प्रतीक है। मन की विराट्ता का द्योतक है, जीवन के माधुर्य का प्रतिबिम्ब है। ___ डुदान् धातु से अन् प्रत्य लगकर दान शब्द निष्पन्न हुआ है । जो दिया जाता है वह दान है। प्राचार्य शंकर ने दान का अर्थ संविभाग किया है। प्राचार्य उमास्वाति ने-अपनी आत्मा और पर के अनुग्रह के लिए त्याग करना दान माना है। उक्त मान्यता द्वारा यह ध्वनित किया गया है कि दाता अपने दान से पर का ही उपकार नहीं करता वरन् स्वयं भी उपकृत होता है। इस प्रकार दाता आदाता को उपकृत करता, है तो आदाता भी दाता को उपकृत करता है। पाखिर पादाता ही तो दाता को दान धर्म का १. प्रार्थना साधक को ईश्वर के मार्ग पर आधी दूरी तक पहुँचायेगी. उपवास महल के द्वार तक ले जायेगा और दान महल में प्रवेश करायेगा। मुहम्मव २. दीयते इति दानं । ३. दानं संविभागः । लार्य शंकर ४. अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम् । -तत्त्वार्थ सूत्र, अ० ७ । सू० ३८ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन अवसर प्रदान करता है । दान की इस व्याख्या को हृदयंगम कर लेने वाले दाता के मन में अहंकार उत्पन्न न होगा । और यह निरहंकार भाव ही दान का आभूषण है। इसी से दान के पूर्ण फल की प्राप्ति होती है । १६८ दान धर्म है ।" दान शील, तप और भावना ये धर्म के चार श्राधार स्तम्भ हैं । दान उनमें प्रथम है और सबसे अधिक आसान है । ग्राज दिन तक जितने भी तीर्थङ्कर हुए हैं वे सभी संयम ग्रहण करने के पूर्व एक वर्ष तक सूर्योदय से लेकर प्रातः कालीन भोजन तक एक करोड़ आठ लाख स्वर्ण मुद्राएँ दान देते रहे हैं।" वे एक वर्ष में तीन अरब, अठासी करोड़, और अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राओं का दान दानं धर्मः । ५. ७. — कोटिल्य सो धम्मो चउभेओ, उवहट्ठो सयलजिणवरिदेहि | दाणं सीलं च तवो, भावो विअ तस्सिमे भेया ॥ (ख) दुर्गतिप्रपतज्जन्तु - धारणाद् धर्मं उच्यते । दान-शील तपो-भाव—भेदात् स तु चतुर्विधः ॥ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र १।१।१५२ (ग) दानं सीलं च तवो, भाबो एवं चउब्विहो धम्मो । सम्वजिहिं भणिओ तहा दुहा सुअचरितेहिं ॥ - सप्ततिशतस्थान प्रक०, गा० ६६, पुव्वसूराओ ॥ संवच्छरण होहिति, अभिक्खमणं तु जिणर्वारिदाणं । तो अत्थि संपदाण, पव्वत्ती एगा हिरण्णकोडी, अठेव अणूणया सूरोदय- मादीयं सयसहस्सा | दिज्जइ जा पायरासोत्ति ॥ - आचारांग द्वि० ० ० २३ गा० ११२ ११३ (ख) एगा हिरण्णकोडी, अट्ठेब श्रगुणगा सय सहस्सा । दिज्जइ जा सूरोदयमाईयं 1 पायरासाओ ।। (ग) त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र १।३।२३ सोमतिलक सूरि -- श्रावश्यक नियुक्ति गा० २३६ भद्रबाहु Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का प्रवेशद्वार : दान १६६ देते हैं। दान ग्रहण करने के लिए जो भी सनाथ, अनाथ, पथिक, प्रेष्य, भिक्षु आदि प्राजाते हैं उन्हें वे बिना भेद भाव के दान देते हैं। संयम लेने के पश्चात् अन्य तीन धर्मों का आराधन हो सकता है पर दान नहीं दिया जा सकता है । अतः तीर्थङ्कर प्रथम दान देकर संसार को दान देने का उद्बोधन देते हैं। वैदिक ऋषि के शब्दों में उनका प्रस्तुत प्राचरण यही प्रेरणा देता है कि, "यदि तुम सौ हाथों से इकट्ठा करते हो तो हजार हाथों से बाँट दो।१° दान करने से गौरव प्राप्त होता है, धन का संचय करने से नहीं। जल का दान करने वाला मेघ सदा ऊपर रहता है और संग्रह करने वाला समुद्र नीचे रहता है। भर्तृहरि ने कहा है।-"दान, भोग और नाश ये तीन धन की गतियाँ है । जो न देता है और न भोगता ही है, उसका धन नष्ट हो जाता है ।'१२ और जब नष्ट हो जाता है तो धन का स्वामी मधु ८. तिण्रणेव य कोडिसया, अट्ठासीई अं होंति कोडीओ। असियं च सयसहस्सा, एयं संवच्छरे दिण्णं ।। -आवश्यक नियुक्ति, गा० २४२ (ख) त्रिपष्ठिशलाकापुरुष चरित्र १।३।२४ प० ६८ (ग) आवश्यक भाष्य गा० ८५ पृ० २६० ६. तते णं मल्ली अरहा कल्लाकल्लिं जाव मागहो पायरासोति बहूणं सणाहाण य अणाहाण य पंथियाण य पहियाण य करोडियाण य कप्पडियाण य एगमेगं हिरण्णकोडी अट्ठ य अणूणातिं सयसहस्साति इमेयारूवं अत्थसंपदारणं दलयति । --ज्ञातृधर्म प्र० ८ । सू० ७६ १०. शतहस्तं समाहर सहस्र हस्तं संकिर । ----अथर्ववेद ११. गौरवं प्राप्यते दानान्न तु वित्तस्य संचयात् । स्थिति रुच्च पायोदानां, पयोधीनामधः स्थितिः ।। १२. दानं भोगो नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य । यो न ददाति न भुक्ते, तस्य तृतीया गतिर्भवति ।। . --मोतिशतक श्लो० ०३ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन मक्खी की तरह हाथ मलकर शिर धुनता हुआ पश्चात्ताप करता है । ३ इसके विपरीत जो उदारमना होते हैं वे कर्ण की तरह देने में ही आनन्द की अनुभूति करते हैं। जिन प्रात्मानों को नीचे जाना होता वे धन को निम्न कार्यों में खर्च करते हैं और जिनको ऊपर जाना होता है वे धन को सन्मार्ग में व्यय करते हैं । २०० किसान पहले खेत को रेशम की तरह मुलायम करता है, उसके पश्चात् उसमें बीज बोता है । हृदय रूपी खेत को भी दान देकर मुलायम कीजिये, फिर अन्य व्रतादि रूपी बीज बोइये । श्रावक का जीवन उदार होता है, हृदय विराट् होता है । उसके घर का द्वार तुङ्गिया नगरी के श्रावकों की तरह सदा खुला रहता है । १४ जो भी अतिथि, अभ्यागत उसके द्वार पर आता है, उसका वह हृदय से स्वागत करता है और आवश्यक वस्तु प्रसन्नता से प्रदान करता है । देना ही उसके जीवन का प्रधान लक्ष्य है । देने से समाधि उत्पन्न होती है और समाधि के कारण उसे भी समाधि प्राप्त होती है । १५ आगम साहित्य का अध्ययन करने वाला विद्यार्थी सहज ही जान सकता है कि गणधर गौतम ने जब कभी भी किसी व्यक्ति को विपुल वैभव सम्पन्न देखा तब उन्होंने भगवान् श्री महावीर के समक्ष यह १३. देयं भोज ! धनं धनं सुकृतिभिर्नो संचितं सर्वदा ।' श्रीकरणस्य बलेश्च विक्रमपतेरद्यापि कीर्तिः स्थिता । आश्चर्यं मधुदानभोगरहितं नष्टं चिरात् सञ्चितम् ।' निर्वेदादिति पाणिपादयुगलं, घर्षन्त्यहो मक्षिकाः ॥ १४. ऊसिअफलिहे, अवंगुअदुवारे । १५. - ( कालीदास) चाणक्यनीति श्र०११ - भगवती शतक २, उद्दे० ५ समणोवास गं तहारूवं समरणं वा जाव पडिलाभेमाणे तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा समाहिं उप्पाएति समाहिकारएणं तमेव समाहिं पडिलभइ | - भगवती शतक ७, उ० १ सू० २६३ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का प्रवेशद्वार : दान २०१ जिज्ञासा प्रस्तुत की-भगवन् ! इस व्यक्ति ने पूर्वभव में क्या दान दिया था जिसके कारण इसे अतुल सम्पत्ति सम्प्राप्त हुई है ?१६ समाधान करते हुए भगवान् उसके दानसम्बन्धी पूर्वभव के सुनहरे संस्मरण सुनाते हैं। दान से जीव साता वेदनीय कर्म का बन्धन करता है । + दान के दिव्य प्रभाव से ही श्री ऋषभदेव के जीव ने और भगवान् श्री महावीर के जीव ने क्रमशः धन्ना, श्रेष्ठी के भव में१८ और नयसार के भव में१९ सर्व प्रथम सम्यक्त्व की उपलब्धि की। दान से ही शालिभद्र ने अपरिमित एवं स्वर्गीय सम्पत्ति प्राप्त की ।२° १६. किं वा दच्चा? -सुखविपाक, अ०१ १७. देखिए सुखविपाक । भूतव्रत्यनुकम्पादानंसरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सदस्थय । -तत्त्वार्थ ६।१३ १८. धणसत्थवाहपोसण, जइगमणं अडवि वासठाणं च । बहु बोलीण वासे, चिंता घयदाणमासि तया ।। --आवश्यक नियुक्ति गा० १६८ (ख) आवश्यक चूणि पृ० १३३ (ग) आवश्यक मलयगिरिवृत्ति ५० १५८।१ (घ) आवश्यक-हारिभद्रीयावृत्ति प० ११५ (ङ) तदानीं सार्थवाहेन, दानस्याऽस्य प्रभावतः । __लेभे मोक्षतरोर्बीजं, बोधिबीजं सुदुर्लभम् ।। --त्रिषष्ठि शलाकापुरुष चरित्र १११।१४३ १६. दाणऽन्न पंथ नयणं अणुकंप गुरुगकहणसम्मत्त । -प्रावश्यक भाष्य, गा० २ (ख) आवश्यक नियुक्ति गा०१४३, १४४ प० १५२ (ग) त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र १०।१।३-२२ २०. त्रिषष्ठि शलाका० ।१०।१० Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ धर्म और दर्शन दान श्रावक के जीवन का प्रधान गुण है ।२१ द्वादशवतों में अन्तिम व्रत अतिथिसंविभाग व्रत है ।२२ पण्डित राजमल्ल जी ने उसे सबसे बड़ा व्रत कहा है ।२३ जो संविभाग नहीं करता उसकी मुक्ति नही होती ।२४ श्रावक प्रतिदिन प्रातः तीन मनोरथों का चिन्तन करता है। उनमें प्रथम मनोरथ है-जिस दिन मैं अपने परिग्रह को सुपात्र की सेवा में त्याग कर प्रसन्नता अनुभव करूंगा, ममता के भार से मुक्त बनूंगा, वह दिन मेरे लिए कल्याणकारी होगा५ श्रावकों के लिए यह भी विधान है कि भोजन करने के पूर्व कुछ समय तक अतिथि की प्रतीक्षा करें। राजप्रश्नीय सूत्र में सम्राट प्रदेशी का वर्णन है । सम्राट् प्रदेशी के जीवन की तस्वीर केशीश्रमण के उपदेश से बदल जाती है। वह नास्तिक से परम आस्तिक बनता है। श्रमरणोपासक बनते ही वह अपनी राज्य श्री को चार भागों में विभक्त करता है । एक भाग से वह विराट् दानशाला खोलता है। जो भी श्रमरण, ब्राह्मण, भिक्षु, राहगीर आदि आते हैं, उन्हें वह सहर्ष दान करता है ।२६ इतिहासप्रसिद्ध सम्राट् कुमारपाल ने भी २१. (क) धर्मबिन्दु, आचार्य हरिभद्र, (ख) धर्मरत्न प्रकरण (ग) योगशास्त्र, हेमचन्द्र, (घ) श्राद्धगुण विवरण २२. अतिथिसंविभागवए -उपासक दशांग, अ०१ २३. अतिथिसंविभागाख्यं, व्रतमस्ति व्रताथिनाम् ।। __ सर्वव्रतशिरोरत्नमिहामुत्र सुखप्रदम् ॥ २४. असंविभागी नहु तस्स मोक्खो। दश० अ०४ २५. स्थानाङ्गसूत्र ३।४।२१ अहं णं सेयबियानगरीपामोक्खाइ, सत्त गामसहस्साई चत्तारि भागे करिस्सामि । एगं भागं बलवाहणस्स दलइस्सामि, एवं भागं कोट्ठागारे छभिस्सामि, एगं भागं अन्ते उरस्स दल इस्सामि, एगेरणं भागेरणं महईमहालयं कूडागारं सालं करिस्सामि । तत्थरणं बहूहिं पुरिसेहिं दिन २६. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का प्रवेशद्वार : दान २०३ प्राचार्य श्री हेमचन्द्र के प्रवचनपीयूष का पानकर परमाहत का विरुद पाया और असहायों के भोजन, वस्त्र के निमित्त सत्रागार की स्थापना की। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने एक मठ का भी निर्माण कराया था ।२७ जैन श्रावक भामाशाह, जगडूशाह और खेमादेदराणी की दानवीरता किसी से छिपी नहीं है, जिन्होंने राष्ट्र के लिए सर्वस्व समर्पण कर दिया था। वे श्रमणोपासक आनन्द की तरह ही समाज के लिए मेढ़ी-स्तम्भ आधार रूप थे, आँख के समान पथ-प्रदर्शक थे, और भोजन के समान आलम्बन रूप थे।२८ यदि आपका स्वधर्मी बन्धु प्रार्थिक दृष्टि से अत्यधिक संकटग्रस्त है, उसे समय पर खाने को नहीं मिल रहा है पहनने को कपड़े नहीं मिल रहे हैं, रहने को झोंपड़ो नसीब नहीं है, उस समय आप यदि उसकी दीनता पर हँसते हैं तो आप भी उसी बादशाह के खानदान के हैं, जो नगर को आग में झुलसता देखकर भी वंशी बजाया करता था। यदि आप उसकी स्थिति को देखकर भी उधर ध्यान नहीं देते हैं, तो मिट्टी के लौंदे के समान हैं। यदि आप उसे केवल टुकुर-टकुर निहारते हैं तो पशु के समान हैं। यदि आप उसे सहायता देते हैं, उस गिरे हुए को ऊपर उठाते हैं तो मनुष्य हैं, श्रावक हैं। एक पाश्चात्य विचारक ने कहा है-जीवन का अर्थ ही दान है ।२९ प्रार्थनामन्दिर में जाकर प्रार्थना के लिए सौ बार हाथ जोड़ने के बजाय दान के लिए एक बार हाथ खोलना अधिक महत्त्वपूर्ण है । अतः विचार किये बिना देते जाओ।१ हाथ क २७. २८. भइभत्त वेयणेहि वि उलं असणं ४ उवक्खडावेत्ता बहूणं समण माहण-भिक्खुयाणं पंथियपहियाणं पडिलाभेमाणे"." -रायपसेणिय कुमारपाल प्रतिबोध, सोमप्रभाचार्य मेढिभूए पाहारे आलंबणे चक्खुमेढिभूए उपासकवशांग ०१ Life means giving. One hand opened in charity is worth a hundred in Prayer, Give without a thought. २६. ३०. ३१. Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ धर्म और दर्शन शोभा दान देने से है, न कि रत्नजटित कंगन पहनने से।३२ भारतीय साहित्य में हाथ को कमल की उपमा दी है ।3 उसे 'कर-कमल' कहते हैं। हाथ तभी कमल बनता है जब उसमें से दान की मनमोहक सुगन्ध निकलती है। देना एहसान नहीं है, यह जीवन का ताना-बाना है। ताना बाने से स्थित है और बाना ताने से। यदि दोनों का सहयोग नष्ट हो जायेगा तो दोनों केवल सूत रह जायेंगे। भारतवर्ष के ऋषियों का चिन्तन कहता है कि दान दो, पर देने वाले को दीन-हीन और दरिद्र समझकर मत दो। यदि दीन-हीन और दरिद्र समझ कर दोगे तो उसमें अहंकार का विष मिल जायेगा, जो दान के प्रोज को नष्ट कर देगा । अतः लेने वाले को भगवान् समझकर दो । भक्त मन्दिर में पहुँचता है, मूर्ति के सामने मोहनभोग, और नैवेद्य चढ़ाता है । वह भगवान् को भूखा और दीन-हीन समझकर अर्पण नहीं करता, किन्तु विश्वम्भर समझकर देता है । "हे प्रभो ! यह सभी तुम्हारा है और तुम्हें ही समर्पण कर रहा हूँ"४ यह कितनी गहरी और ऊंची भावना है। अर्पण में कितना आनन्द और उल्लास है। पुत्र पिता को भोजन अर्पण करता है तो उसमें भी यही भावना है.। भूखे हैं, दो-ऐसा सोचकर नहीं देता, किन्तु 'पितृदेवो भव' समझकर देता है। वैसे ही प्रत्येक आत्मा को परमात्मा समझकर दो, बादलों की तरह अर्पण कर दो। बादल आकाश से पानी नहीं लाते किन्तु भूमण्डल से ही ग्रहण करते हैं। बादलों के पास जो एक-एक बद का अस्तित्व है वह इसी भू-मण्डल का है, इसी से लिया और इसी को अर्पण कर दिया । तुम्हारी चीज तुम्हें ही सर्पित है । इस अर्पण में एहसान नहीं, किन्तु प्रेम है । अहंकार नहीं, विनय है । यदि आप भाग्यवान हैं तो अपने भाग में से भाग देना सीखिए । आपकी सम्पत्ति में समाज का भी भाग है । यदि भाइयों के हिस्से हो ३२. दानेन पाणिर्न तु कङ्कणेन । ३३. दानामृतं यस्य करारविन्दे । ३४. त्वदीयं वस्तु गोविन्द, तुभ्यमेव समप्यते । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का प्रवेशद्वार : दान रहे हों और आपको अपना भाग नहीं मिलता है, तो आप कितने बेचैन होते हैं ? किन्तु समाज का भाग, जो आपके पास है, उसे देने के लिए बेचैन होते हैं या नहीं ? भारतीय संस्कृति के एक मननशील मेधावी सन्त ने कहा - ' जो अर्पण करता है वह देवता है ' देवै सो देवता और लेवें सो लेवता ।' सूर्य निरन्तर प्रकाश देता है अतः वह देवता है । जिसमें निरन्तर अर्पण करने की शक्ति है वह देव है । मराठी भाषा में 'दान' को देव कहा है । जिसके अन्तर में देवत्व विद्यमान है वह देता है । ---- प्राचीन युग में प्राचार्य दीक्षान्त भाषण में शिष्य से कहते थे" वत्स ! तुम गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के लिए जा रहे हो। तुम्हारे यहाँ कोई अतिथि आये तो श्रद्धा से देना, अश्रद्धा से न देना प्रसन्नता से देना, नम्रता से देना, पर भय से न देना, सहानुभूति श्रौर प्रेम से देना । 3 पद्मपुराणकार ने कहा-यदि शत्रु भी घर पर आजाय तो उसे भी अर्पण करो । किसी भी वस्तु के लिए इन्कार न करो । ३६ जो दिया जाता है वह मीठा होता है और जो लिया जाता है वह कडुवा होता है । वृक्ष अपनी इच्छा से जो फल देता है वह कितना मधुर होता ? पर जो बलात् लिया जाता है उसमें मधुरता कहाँ होती है ? दान एक वशीकरण मंत्र है, जो सभी प्राणियों को मोह लेता है, पर को भी अपना बना लेता है। अतः प्रतिदिन दान दीजिए, ३७ ३५. ३६. ३७. २०५ श्रद्धया देयम् ! श्रश्रद्धयाऽदेयम् ! श्रिया देयम् । ह्रिया देयम् ! भियाऽदेयम् ! संविदा देयम् ॥ शत्रावपि गृहायाते नास्त्यदेयं तु किंचन । तैत्तिरीय उपनिषद् १ । ११ - पद्मपुराण दानेन सत्वानि वशीभवन्ति, दानेन वैराण्यपि यान्ति नाशम् । परोऽपि बन्धुत्वमुपैतिदानात्तस्माद्धि दानं सततं प्रदेयम् ॥ -- धर्मरत्न Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन श्रद्धा से अर्पण कीजिए ।८ दान से ही अमरपद प्राप्त होता है।३९ __दान के विज्ञापन की आवश्यकता नहीं है। किसान खेत में जो बीज बोता है, उसे खुला नहीं रखता, मिट्टी से ढंक देता है। यदि बीज मिट्टी से ढंकता नहीं है तो उससे अंकुर नहीं उगता । वह नष्ट हो जाता है। वैसे ही दान को भी लँकिए, उसे गुप्त रहने दीजिए, उसका विज्ञापन न कीजिये। एक विचारक ने कहा है, 'जो मानव अपने हाथ से दान देता है वह देता नहीं, पर अपने हाथ से इकट्ठा करता है । एक अन्य पाश्चात्य विचारक ने लिखा है कि-बहुत अधिक देने से उदारता सिद्ध नहीं होती, किन्तु आवश्यकता के समय सहायता प्रदान करना ही सच्ची उदारता है।४१ दरिद्रों को दीजिये, ऐश्वर्यसम्पन्न व्यक्तियों को देना तो स्वस्थ और प्रसन्न व्यक्ति को औषध प्रदान करने के समान है ।४२ गंजे व्यक्ति को जिस प्रकार कंघी देना, और अन्धे व्यक्ति को दर्पण देना निरर्थक है, वैसे ही अनावश्यक और अनुपयोगी वस्तुओं का दान भी निरर्थक है। ज्ञातृधर्म कथा का प्रसंग है कि-नागश्री ने दीर्घ तपस्वी धर्म रुचि अनगार को कडुए तुम्बे का शाक दिया, और कठोपनिषद् का प्रसंग है कि वाजिश्रवा ऋषि ४०. ४१. ३८. दानं ददन्तु सद्धाय, सीलं रक्खन्तु सव्वदा । भावनाभिरुता होन्तु, एतं बुद्धान सासनं ।।-महात्मा बुद्ध ३६. दक्षिणावन्तो अमृतं भजन्ते । -ऋग्वेद The hand that gives gathers. ' Liberality does not consist in giving much, but in giving at the right moment. ४२. दरिद्रान् भर कौन्तेय ! मा प्रयच्छेश्वरे धनम् । व्याधितस्यौषधं पथ्यं, नीरुजस्य किमौषधम् ? -हितोपदेश सएणं सा नागसिरी माहणी धम्मरुई एज्जमाणं पासइ२ तस्स सालइ यस्स""एडणट्ठयाए (निसरणिठ्याए) हट्टतुट्ठा उठाए उ8 इ२ जेणेव भत्तघरे तेणेव उवागछइ,२ तं सालइयं"..."धम्मरुइस्स अणगारस्स पडिग्गंहंसि सव्वमेव निस्सिरइ -ज्ञातृधर्म कथा, अध्ययन १६ वा Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का प्रवेशद्वार दान ने वृद्ध गाएँ ब्राह्मणों को समर्पित की। यह दान था, या दान का उपहास था ? इसे ही 'मरी बछिया बाम्हन के नाम' कहते हैं । दान सुख की कुंजी है । जैन दर्शन ने लाभालाभ की दृष्टि से चित्त, वित्त और पात्र की महत्ता पर प्रकाश डाला है । द्रव्य देय और पात्र की शुद्धता से ही दान में चमक पैदा होती है । ४५ तीनों में एक की भी न्यूनता होने पर उत्कृष्ट फल की उपलब्धि नहीं हो सकती । जैन दर्शन की भाँति बौद्ध दर्शन ने भी दान के तीन उपकरण नाने हैं - ( १ ) दान की इच्छा (२) दान की वस्तु, (३) और दान लेने वाला । एक समय श्रावस्ती में कौशलराज प्रसेनजित ने महात्मा बुद्ध से कहा - भन्ते ! किसे देना चाहिए ? उत्तर में बुद्ध ने कहा - महाराज ! जिसके मन में श्रद्धा हो ।४६ द्वितीय प्रश्न किया-भंते ! किसको देने से महाफल होता है ? उत्तर दिया- महाराज शीलवान् को दिये गये दान का महाफल होता है । ४७ वैदिक धर्मं ने भी देश, काल, और पात्र की महत्ता स्वीकार की है । ४८ जैसे मोदक के निर्माण में घी, शक्कर, और मेदे की आवश्यकता होती हैं वैसे ही दान के लिए भी चित्त, वित्त, और पात्र की आवश्यकता है । ४४. कठोपनिषद् ४५. ४६. ४७. ४८. २०७ दव्वसुद्धणं, दायगसुद्ध ेणं, पडिग्गहसुद्ध ेणं, तिविहं तिकरणसुद्ध गं दाणे संयुत्त निकाय, 'इस्सत्य सुत्त' ३|३|४ संयुक्त निकाय, इस्सत्थ सुत्त ३३३३४ देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं विदुः । - भगवती श० १५ - गीता श्र० १७ श्लो० २० Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ धर्म और दर्शन स्थानाङ्ग में भावना आदि के भेद की दृष्टि से दान के दश भेद बताये हैं । ४९ (१) अनुकम्पादान-दीन, अनाथ, दरिद्र, दुःखी, रोगी, शोकग्रस्त प्राणियों पर अनुकम्पा करके देना ।५० (२) संग्रहदान-अभ्युदय या आपत्ति के अवसर पर सहायता हेतु देना। यह दान अपने स्वार्थ के लिए दिया जाता है, अतः वह मोक्ष का कारण नहीं है । (३) भयदान- राजा, मंत्री, पुरोहित, पुलिस प्रभृति के भय से देना ।५२ (४) कारुण्यदान-पुत्र आदि स्वजन के वियोग से व्यथित होकर उसके नाम से देना । जिससे उसका परभव सुधर जाय । ४६. दसविहे दाणे पण्णत्ते तं जहा अणुकंपा संगहे चेव,भये कालुणिते ति य । लज्जाते गारवेणं च, अधम्मे पुण सत्तमे ।। धम्मे य अट्ठमे वृत्त, काहीति त कतंति त ॥ -स्थानाङ्गप्र० १० सू० ७४५ ५० कृपणेऽनाथदरिद्र, व्यसनप्राप्ते च रोगशोकहते ।। यद्दीयते कृपार्थादनुकम्पा तद्भवेद्दानम् ॥ -स्थानाङ्ग १०।३ सू० ७४५ टीका अभ्युदये व्यसने वा, यत् किञ्चिद्दीयते सहायतार्थम् । तत्संग्रहतोऽभिमतं, मुनिभिर्दानं न मोक्षाय ॥ -स्थानाङ्ग १०१३ सू० ७४५ टीका ५२. राजारमपुरोहितमधुमुखमावल्लदण्डपाशिषु च ।। यद्दीयते भयात्तिद्भयदानं बुध यम् । -स्थानाङ्ग १०३, सू० ७४५ टीका कारुण्यं शोकस्तेन पुत्रवियोगादिजनितेन तदीयस्यैव तल्पादेः स जन्मान्तरे सुखितो भवत्विति वासनातोऽन्यस्य वा यद्दानं तत्कारुण्यदानं, कारुण्यजन्यत्वाद् वा दानमपि कारुण्यमुक्तम् उपचारादिति ॥ स्थानाङ्ग उ० ३ । सू० ७४५ टी. Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का प्रवेश द्वार दान (५) लज्जादान - जनसमूह की बीच बैठे हुए व्यक्ति से जब कोई माँगने लगता है, उस समय देने की इच्छा न होते हुए भी लज्जा के वशीभूत होकर देना । ५४ (६) गौरवदान - यश प्राप्ति के लिये नटों को, पहलवानों को, अपने स्नेही सम्बन्धियों को गौरवपूर्वक देना । १५ (७) धर्मदान -- धर्म की पुष्टि करने के लिए, गंदी वासनात्रों से प्रेरित होकर हिंसा, असत्य, स्तेय, वेश्यागमन, आदि दुष्कृत्यों के पोषण हेतु देना । ५६ (८) धर्मदान - जिनका जीवन त्याग और वैराग्य से परिपूर्ण हो, जिनके लिए तृण, मरिण मुक्ता एक समान हों ऐसे सुपात्र को धर्मभाव से देना । यह दान कभी व्यर्थ नहीं जाता । ७ (६) करिष्यतिदान - भविष्य में प्रत्युपकार की दृष्टि से जो दिया जाता है । अर्थात् भविष्य में इनसे मुझे सहायता प्राप्त होगी, इस अभिप्राय से देना । ५८ ५४. अभ्यर्थितः परेण तु यद्दानं जनसमूहगतः । परचितरक्षणार्थं, लज्जायास्तद्भवेद्दानम् ॥ ५५. नटनतं मुष्टिकेभ्यो दानं सम्बन्धिबन्धुमित्रेभ्यः । यद्दीयते यशोऽर्थं, गर्वेण तु तद्भवेद्दानम् ॥ ५६. हिंसानृतचौर्योद्यतपरदारपरिग्रहप्रसक्तेभ्यः । यद्दीयते हि तेषां तज्जानीयादधर्माय || ५८. २०६ ५७. समतृणमणिमुक्तेभ्यो यद्दानं दीयते सुपात्रेभ्यः । अक्षय मतुलमनन्तं तद्दानं भवति धर्माय ॥ १४ -- वहीं १०1३, सू० ७४५ पृ० ४६६ } 9 -स्थानाङ्ग १०।३।७४५ । पृ० ४६६ - स्थानाङ्ग १०।३।७४५ पृ० ४९६ करिष्यति कञ्चनोपकारं ममायमितिबुद्धया । तद्दानं तत्करिष्यतीति दानमुच्यते ॥ -स्थानाङ्ग १०।३।७४५ टोका पु०४६६ - स्थानाङ्ग १०।३।७४५ पृ० ४६६ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० धर्म और दर्शन (१०) कृतदान–पूर्वकृत उपकार से उऋण होने के लिए देना ।५९ . इन दानों में कौनसा दान हेय, ज्ञेय, और उपादेय है, यह तो पाठक स्वयं समझ सकते हैं। स्थानाङ्ग की तरह अंगुत्तर निकाय में भी दान के इसी प्रकार के पाठ भेद बताये हैं । धर्मदान में भी देय वस्तु की दृष्टि से तीन, चार, पाठ, दश, और चौदह भेद किये गए हैं। तत्त्वार्थ भाष्य में स्सष्ट निर्देश है कि देय वस्तु न्यायोपार्जित और कल्पनीय होनी चाहिए। जो न्यायोपार्जित और कल्पनीय है, वही अन्नपान आदि द्रव्य देय है ।६० अन्यत्र भाष्यकार ने यह भी लिखा है कि अन्न आदि सारजातीय और गुणों का उत्कर्ष करने वाले हों।६२ आचार्य अमितगति ने लिखा है कि वही देय वस्तु प्रशस्त हैं जिससे राग का नाश होता है, धर्म की वृद्धि होती है, संयम साधना को पोषण मिलता है, विवेक जागृत होता है, आत्मा उपशान्त होता है। वस्त्र, पात्र, और आश्रयादि भी रत्नत्रय की वृद्धि के लिए देना श्रेयस्कर है।६४ ५९. शतशः कृतोपकारो, दत्त च सहस्रशो ममानेन । अहमपि ददामि, किंचित्प्रत्युपकाराय तद्दानम् ॥ -स्थानाङ्ग १० । उ० ३, सू० ७४५ ६०. अंगुत्तर निकाय ८।३१॥३२ ६१. न्यायागतानां कल्पनीयानामन्नपानादीनां द्रव्याणां........दानं ।। -तत्त्वार्थ सूत्र ७।१६ भाष्य ६२. द्रव्यविशेषोऽन्नादीनामेव सारजातिगुणोत्कर्षयोगः । -तत्त्वार्थ सूत्र ७।३४ का भाष्य ६३. अमितिगति श्रावकाचार, परिच्छेद ६।४६ से ८० वस्त्रपात्राश्रयादीनि, पराण्यपि यथोचितम् । दातव्यानि विधानेन, रत्नत्रितयवृद्धये ॥ -अमितिगतिश्रावकाचार, परिच्छेद ६ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ धर्म का प्रवेश द्वार : दान त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र में धर्मरत्न प्रकरण में और सर्वार्थसिद्धि में दान के तीन भेद किये हैं। ज्ञानदान, अभयदान और धर्मोपग्रहरण दान । प्राचार्य समन्तभद्र,६ प्राचार्य पूज्यपाद,६८ प्राचार्य प्रकलंक और प्राचार्य विद्यानन्दी ने आहारदान, औषधदान, उपकरण दान और आवास दान-ये दान के चार प्रकार किये हैं। प्राचार्य कार्तिकेय, प्राचार्य जिनसेन,७२ सोमदेव, 3 ६५. तत्र तावद् दानधर्मस्त्रि प्रकारः प्रकीर्तितः । ज्ञानदानाऽभयदान धर्मोपग्रहदानतः ।। –त्रिशष्ठि०, प्राचार्य हेमचन्द्र १११११५३ दानं च तत्थ तिविहं, नाणययाण च अभयंदाण च । धम्मोवग्गहदाण च, नाणदाण इमं तत्थ ।। -धर्मरत्न प्रकरण, देवेन्द्रसूरि टीका गा० ५२ पत्र २२३। त्यागो दानम् । तत्त्रिविधम्-आहारदानमभयदानं ज्ञानदानं चेति । -सर्वार्थ सिद्धि ६७. आहारौषधयोरप्युपकरणावासयोश्च दानेन । वैयावृत्यं ब्रवते ! चतुरात्मत्वेन चतुरस्राः ॥ -समीचीनधर्मशास्त्र अध्याय ५ श्लो० ११७ ६८. अतिथये संविभागोऽतिथिसंविभागः । स चतुर्विधः भिक्षोपकरणोषधप्रतिश्रयभेदात् ॥ -तत्त्वार्थ सूत्र ७।२१ को सर्वार्थ सिद्धि टीका ६६. तत्त्वार्थसूत्र, ७।२१ राजवार्तिक टीका ७०. तत्वावंसूत्र, ७।२१ श्लोकवार्तिक टीका ७१. भोयणदारलेण सोक्खं, ओसहदारणेण सत्यदाण च । जीवाण अभयदाण, सुदुल्लहं सव्वदाणाण । -द्वादश अनुप्रेक्षाः, धर्म अनुप्रेक्षा ३६२ ७२. देयमाहारभैषज्यशास्त्राभयविकल्पितम् । -महापुराण पर्व० २०, श्लो० १३८ १० ४५७ -प्र० भारतीय ज्ञानपीठ काशी ७३. अभयाहारभैषज्यश्रुतभेदात् चतुर्विधम् । -येशस्तिलक, प्राश्वास ८ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ धर्म और दर्शन देवसेन, ४ बसुनन्दि,७५ और गुणभद्र ने ६ आहार दान, औषधदान, शास्त्र दान और अभयदान-यों दान के चार भेद किये हैं। उपदेश माला, तथा दान प्रदीप में दान के (१) वसति दान, (२) शयनदान, (३) आसनदान, (४) भक्त दान, (५) पानी दान, (६) भैषज्य दान, (७) वस्त्र दान, (८) पात्र दान ये पाठ भेद किये हैं। आवश्यक चूरिण में दान के (१) यथा प्रवृत्तदान (२) अन्नदान, (३) पानदान, (४) वस्त्रदान, (५) औषध दान, (६) भैषज्यदान (७) पीठ दान, (८) फलकदान (६) शय्यादान, (१०) संस्तारक दान-इस प्रकार दस भेद कहे गए हैं । ७४. अभयपयाण पढमं विदियं तह होइ सत्थदाण च । तइय ओसहदाण आहारं चउत्थं च ॥ -भावसंग्रह ४८६ ७५. आहारोसह-सत्थाभयभेओ जं चउव्विहं दाणं । तं कुच्चइ दायव्वं, णिहिट्ठमुवासयज्झयणे । -वसुनन्दि श्रावकाचार २३३ ७६. आहाराभयभैषज्यशास्त्रैर्देयं चतुर्विधम् । -गुणभद्रश्रावकाचार १५३ ७७. (१) वसही, (१-३) सयणासण, (४) भत्त, (५) पाण, (६) भेसज्ज, (७) वत्थ, (८) पत्ताई। - उपदेशमाला दो घट्टो टीका, गा० २४० ५० ४२०।२ ७८. दानप्रदीप सटीक पत्र ६४।२ ७६. जो अहापवत्ताणं अण्णपाणवत्थओसहभेसज्जपीठफलगसेज्जासंथारगादीणां संविभागो सो अहासंविभागो भवति । -प्रावश्यक चूणि, पृ० ३०५ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का प्रवेश द्वार : दान ८० आवश्यक सूत्र, उपासक दशांग, " सूत्रकृताङ्ग, भगवती आदि में (१) प्रशन, (२) पान, (३) खादिम, (४) स्वादिम, (५) वस्त्र, (६) प्रतिग्रह, (७) कम्बल, (८) पादपोंछन ( ६ ) पीठ, (१०) फलक (११) शय्या (१२) संस्तारक (१३) औषध (१४) भैषज्य, इन चौदह देय वस्तुनों का निर्देश करके प्रकारान्तर से दान के चौदह भेद कहे गए हैं। बौद्ध साहित्य में भी विविध दृष्टियों से दान के भेद निरूपित किये गये हैं । महात्मा बुद्ध ने (१) प्रामिषदान [ इन्द्रियों के विषयों का दान ] (२) और धर्मदान, ये दो भेद किये हैं । इन दोनों दानों में धर्मदान मुख्य है। फलदान की दृष्टि मे दान के तीन भेद हैं (१) दृष्ट धर्म वेदनीय, (२) परिपक्व वेदनोय, (३) और अपरावर्य वेदनीय | पात्र भेद की दृष्टि से भी दान के तीन प्रकार हैं - (१) पुद्गल दान, (२) संघदान, (३) और उद्देश्यदान । दान देने वाले के तीन प्रकार हैं (१) दानदास, (२) दान सहाय, (३) और दानपति । २१३ दायक और दानपात्र की उत्कृष्टता व निकृष्टता के कारण दान की विशुद्धता भी चार प्रकार की है ८०. ८१. समणे निग्गंथे फासुए एसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेरगं वत्थपडिग्गहकंबलपायपुंछरणं पाडिहारिएणं पीढफलगसिज्जासंथारएणं ओसहभेषज्जेण य पडिलाभेमाणे विहरामि । - आवश्यक सूत्र कप मे समणे नि गन्थे फासुएणं ससाणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थकम्बल पडिग्गहपायपुंछरणेण पीढफलगसिज्जासंथारएणं ओसहभे सज्जेण य पडिला भेमाणस्स विहरित्तए - - उपासकदशा - ११५८ ८२. अंगुत्तर निकाय २।१३ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ धर्म और दर्शन (१) दायक द्वारा दान विशुद्धि, (२) दान पात्र द्वारा दान विशुद्धि, (३) दायक और दानपात्र दोनों द्वारा दान विशुद्धि, (४) दायक और दानपात्र दोनों द्वारा दान विशुद्धि । सिंह सेनापति के प्रश्न के उत्तर में महात्मा बुद्ध ने कहा-दान से लोक में चार लाभ प्राप्त होते हैं-(१) दाता लोकप्रिय होता है (२) सत्पुरुषों का संसर्ग प्राप्त होता है (३) कल्याणकारी कीर्ति प्राप्त होती है। (४) किसी भी सभा में वह विज्ञ की तरह जा सकता है और परलोक में स्वर्ग में जाता है । यह अदृष्ट लाभ है। 3 कालदान (?) के भी चार भेद बताये हैं। (१) आगन्तुक को, (२) जाने वाले को (३) ग्लान को, (४) दुर्भिक्ष में।४ गीता में दान के सात्विक, राजस और तामस ये तीन भेद किये हैं। कर्तव्य बुद्धि से जो दान देश, काल और पात्र का विचार करके अपना उपकार न करने वाले व्यक्ति के लिए दिया जाता है वह सात्विक दान है। जो दान उपकार के बदले में अथवा फल पाने की इच्छा से दिया जाता है और जिसके देने से मन में कुछ क्लेश होता है वह राजस दान है।८६ जो दान विना सत्कार किये, अथवा तिरस्कारपूर्वक, - ८३. अंगुत्तर निकाय ५॥३४ ८४. अंगुत्तर निकाय ५२३६ ८५. दातव्यमिति यद्दानं, दीयतेऽनुपकारिणे । देशे काले च पात्रे च, तद्दानं सात्विकं विदुः ॥ --भगवद्गीता १७।२० ८६. यत्तु प्रत्युपकारार्थ, फलमुद्दिश्य वा पुनः । दीयते च परिक्लिष्टं, तद्दानं राजसं स्मृतम् ।। -भगवद्गीता प्र० ११ । २१ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का प्रवेशद्वार : दान २१५ देश काल का विचार किये विना अपात्र को दिया जाता है वह तामस दान है। __ जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों ही परम्पराओं में विविध दृष्टियों से दान के अनेक भेद प्रभेद किये गये हैं। विस्तार भय से तथा अनावश्यक होने से उन सभी का उल्लेख यहाँ नहीं किया जा रहा है। संक्षेप में तीनों ही परम्पराओं ने एक स्वर से अन्नदान, अभयदान और ज्ञानदान के महत्त्व को स्वीकार किया है और उनका विस्तार से निरूपण भी किया है। अन्नदान: ___ जैनागमों की दृष्टि से पुण्य के नौ प्रकारों में 'अन्नपुण्य' सर्व प्रथम है।" इसका कारण यह है कि क्षुधा के समान कोई वेदना नहीं है ।८९ बाईस परीषहों में क्षुधा परीषह प्रथम है ।° श्रमणों को दिये जाने वाले दानों में भी अन्नदान सर्व प्रथम है।१ भोजनदान देने से तीनों ही दान दिये हुए हो जाते हैं ।+ ८७. अदेशकाले यदानमपात्रेभ्यश्च दीयते । असत्कृतमवज्ञातं, तत्तामसमुदाहृतम् ॥ . -भगवद्गीता १७.२२ णवविहे पुण्णे पं० त० अण्ण पुण्णे, पाणपुण्णे, वत्थपुष्णे, लेणपुण्णे, सयणपुण्णे, मणपुण्णे, वयपुण्णे, कायपुण्णे, नमोक्कारपुण्णे । -स्थानाङ्ग सूत्र, अ० ६ सू० ६७६ ८९. खुहासमा नत्थि वेयणा । -गौतम कुलक १०. (क) समवायांग २२ (ख) भगवती शतक ८ उ० ८ पृ० १६१ (ग) उत्तराध्ययन अ० २ (घ) तत्त्वार्थसूत्र ६-८।१७ ६१. देखिए टिप्पण नं० ६७ से ८१ तक । + भोयणदाणे दिण्णे तिण्णि वि दाणाणि होति दिण्णाणि । -कार्तिकेयानुप्रक्षा ३६३ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और दर्शन संयुक्तनिकाय में महात्मा बुद्ध ने कहा है- "एक अन्न ही है, जिसे सभी चाहते हैं । देवता हो या मानव, भला ऐसा कौन सा प्राणी है जिसे अन्न प्यारा न हो ? जो अन्न का श्रद्धा से दान करते हैं, अत्यन्त प्रसन्न चित्त से, उन्हीं को वह अन्न प्राप्त होता है । इस लोक में और परलोक में भी २१६ महात्मा बुद्ध से पूछा गया-भगवन् ! क्या देने वाला बल देता है ? बुद्ध ने कहा - अन्न देने वाला बल देता है ? 33 अन्यत्र भी महात्मा बुद्ध ने कहा है - 'जो मनुष्य भोजन देता है वह लेने वाले को चार वस्तुएं देता है-वर्ण, सुख, बल और प्रयु । उसका फल देने वाले को देवायु, दिव्यवर्णं, दिव्य सुख, और दिव्य बल'४ के रूप में प्राप्त होता है । वैदिक संस्कृति के अमरगायक व्यास कहते हैं - " अन्न ही मनुष्यों का प्रारण है, उसी से प्राणी उत्पन्न होते हैं । सारा संसार अन्न के सहारे टिका है । अतः अन्नदान सब से अधिक प्रशंसनीय है । जो व्यक्ति दुर्बल, विद्वान्, जीविकाहीन एवं दुःखी व्यक्ति को अन्न देकर उसकी क्षुधा मिटाता है, उसके समान संसार में कोई नहीं । सब दानों में अन्नदान श्रेष्ठ है, अतः धर्म की इच्छा रखने वाले मनुष्य 'को सरल भाव से अन्न का दान करना चाहिए ।" २. ६३. ६४. ६५. ६६. ६७. 199 संयुक्त निकाय प्रथम भाग, अन्न सुत्त १|५|३ संयुक्त निकाय प्रथम भाग, कि ददं सुत्त ११५१२ अंगुत्तरनिकाय ४८ प्राणान्न मनुष्याणां तस्माज्जन्तुश्च जायते । अन्ने प्रतिष्ठितो लोकस्तस्मादन्न प्रशस्यते ॥ - महाभारत, अनुशासन, श्र० ११२ इलो० ११ कृशाय कृतविद्याय वृत्तिक्षीणाय सोदते । अपहन्यात् क्षुधां यस्तु, न तेन पुरुषः समः ॥ - महाभारत अनुशासन पर्व, श्र० ५६ श्लो० ११ सर्वेषामेव दानानामन्नं श्र ेष्ठमुदाहृतम् । पूर्वमन्त्र प्रदातव्यमृजुना धर्ममिच्छता । - महाभारत अनुशासन पर्व, अ० ११२ इलो० ११० Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का प्रवेशद्वार : दान २१७ अभयदान : किसी मरते हुए प्राणी को बचाना, संकट में पड़े हुए का उद्धार करना, उसे निर्भय बनाना अभयदान है ।+ भगवान् श्री महावीर ने कहा-दानों में श्रेष्ठ अभयदान है।८ पद्मपुराणकार ने तो कहा है कि अभयदान से बढ़कर अन्य दान नहीं है। जो विद्वान् सब जीवों को अभयदान करता है वह इस संसार में निःसंदेह प्राणदाता माना जाता है ।१०० अभयदान पाकर प्राणी को जो सुख होता है वह अपूर्व है। वर्तमान युग में मानव भय से काँप रहा है। विज्ञान के प्रखरप्रकाश में भी संसार पथ-भ्रष्ट हो रहा है । समर देवता की भयानक जीभ विश्व को निगलने के लिए लपलपा रही है। तीन अरब कण्ठों की प्रार्त-वाणो है-'मानवता संकटापन्न है, शान्ति की मासूम बुलबुले छटपटा रही हैं। अतः ऐसे माई के लाल की आवश्यकता है, जो मानवों को भय से मुक्त कर अभय प्रदान करे। + जं कोरइ परिरक्खा णिच्चं मरणभयभीरुजीवाणं । तं जाण अभयदाणं सिहामणी सव्वदाणाणं । -वसुनन्दि श्रावकाचार २३८ (ख) भवत्यभयदानं तु, जीवानां वधवर्जनम् । मनो-वाक्कायैः करण-कारणाऽनुमतैरपि ॥ -त्रिषष्ठि० १११११५७ (ग) वधस्य वर्जनं तेष्वभयदानं तदुच्यते । --त्रिषष्ठि० १।१।१६६ १८. दाणाण सेट्ठ अभयप्पयाणं । -सूत्रकृतांग ०६ गा० २३ ६६. अभयः सर्वभूतानां, नास्ति दानमतः परम् ।। -पद्मपुराण १००. सर्वभूतेषु यो विद्वान्, ददात्यभयदक्षिणाम् । दाता भवति लोके सः, प्रजानां नात्र संशयः ॥ -महाभारत अनु० प्र० ११५ श्लो० १८ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ धर्म और दर्शन ज्ञानदान : ज्ञान के अभाव में मानव अन्धा है। अंधे को नेत्र मिलने पर जितनी प्रसन्नता होती है, उससे भी अधिक अज्ञानी को ज्ञान प्राप्त होने पर होती है। ज्ञानदान से ही प्राणी हिताहित तथा तत्त्व अतत्त्व को जानता है और व्रत को ग्रहण करता है ।१ पहले ज्ञान है, फिर दया है । १०२ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों ही पुरुषार्थ ज्ञान के द्वारा सिद्ध होते हैं। अतः ज्ञानदान देने वाला इन चारों को पाने का अधिकारी होता है । १3 जल, अन्न, गौ, भूमि, वस्त्र, तिल, सुवर्ण तथा घत जैसे पदार्थों के दान से ज्ञान का दान कहीं अधिक उत्कृष्ट है।०४ दान धर्म का शिलान्यास है। इस शिलान्यास पर ही धर्म का सुहावना सौध निमित हो सकता है। एडीसन के शब्दों में दान ही धर्म का पूर्णत्व और उसका आभूषरण है । १०५ विक्टर ह्यगो ने कहा है, ज्यों ही पर्स (बटुग्रा) रिक्त होता है, हृदय समृद्ध होता है।०६ दान असंख्य पापों का छादन करने वाला है, अतः इस सनातन नियम को स्मरण रखो कि यदि तुम प्राप्त करना चाहते हो तो अर्पित करना सीखो।०८ दान 'प्रिजर्व' नहीं किन्तु 'यो' है। मौसम पर १०१. ज्ञानदानेन जानाति, जन्तुः स्वस्य हिताहितम् । वेत्ति जीवादितत्त्वानि, विरतिं च समश्नुते ।। -त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र १११११५५ १०२. पढमं नाणं तओ दया । -दशवकालिक, अ०४ १०३. आचार्य अमितगति, १०४. सर्वेषामेव दानानां, ब्रह्मदानं विशिष्यते । वार्यन्नगोमहीवासस्तिलकाञ्चनसर्पिषाम् ॥ -मनुस्मृति ४।१३३ १०५. ज्ञानगंगा। १०६. अमरवाणी। १०७. पीटर महान् । १०८. सुभाषचन्द्र बोस । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का प्रवेश द्वार : दान कोल्ड स्टोरेज में ग्राम आदि रख दिये जाते हैं और मौसम बीत जाने पर निकाल लिये जाते हैं । इस प्रकार रक्षित कर रखना 'प्रिजर्व' है । किन्तु ग्राम का बीज बोते हैं, उसमें अंकुर फूटते हैं, टहनियां आती हैं, फूल खिलते हैं फल लगते हैं, यह सब संवर्धन 'ग्रो' है । तात्पर्य यह है कि दान वृद्धि का कारण है । हिरात का शेख अब्दुला अन्सार अपने शिष्यों से कहता थाशिष्यो ! प्रकाश में उड़ना कोई चमत्कार नहीं है, क्योंकि गन्दी से गंदी मक्खियाँ भी प्रकाश में उड़ सकती हैं । पुल या नाव के बिना भी नदियों को पार कर जाना कोई चमत्कार नहीं है, क्योंकि एक साधारण कुत्ता भी ऐसा कर सकता है । किन्तु दुःखी हृदयों को सहायता देना, दान देना एक ऐसा चमत्कार है, जिसे पवित्रात्मा ही किया करते हैं । जो जीवन में धर्म की आराधना व साधना करना चाहते हैं, उन्हें सर्व प्रथम दान वृत्ति अपनाना चाहिए । S २१६ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारह महावीर के सिद्धान्त श्रमण भगवान् श्री महावीर युगप्रवर्तक क्रान्तिकारी और सूक्ष्म द्रष्टा महापुरुष थे। जिस युग में वे जन्मे थे उस युग में मानव अविद्या और रूढ़ियों की जंजीरों से जकड़ा हुआ था । भीषण अत्याचार पनप रहे थे । मानवता का कोई सम्मान नहीं था। जातिवाद को खुलकर प्रश्रय प्राप्त था । धर्म के नाम पर हजारों मूक प्राणियों की ही नहीं, अपितु मानवों की भी बलि दी जाती थी। उनके करुण क्रन्दन से भी धर्मध्वजियों के हृदय द्रवित नहीं होते थे । अन्धपरम्परा के निबिडतम अन्धकार से लोगों की आँख खोलने की शक्ति एकदम क्षीण हो चुकी थी। वे बिलकुल असहाय और विवश थे। उस विकट-वेला में दीर्घ तपस्वी और साधना के कषोपल पर कसे हुए महावीर एक नूतन सन्देश लेकर आये। उन्होंने भूले-भटके जीवनराहियों को प्रशस्त पथ का प्रदर्शन करते हुए अकारत्रयीअहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त की दिव्य देशना दी। प्रस्तुत अकारत्रयी में महावीर की समग्र वाणी का सार है, शेष जो कुछ भी है-इसी का विस्तार है। अहिंसा : भगवान् ने कहा-हिंसा ग्रन्थि है, मोह है, मृत्यु है, नरक है।' एतदर्थ ही वीर पुरुष अहिंसा के राजपथ पर चल पड़े हैं, तुम भी १. एस खलु गन्थे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णिरए। -प्राचारांग १।३।२३ २. पणया वीरा महावीहि । -प्राचारांग श्रु० १, अ० १ उ० ३ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर के सिद्धान्त २२१ चलो। प्राण, भूत, जीव सत्त्व की हिंसा न करो, उन पर शासन मत करो, उनको पीड़ित मत करो, उन पर प्रहार मत करो। ज्ञानियों के ज्ञान का सार यही है कि वह किसी भी प्राणी की हिंसा न करे। सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, अतः निर्गन्थ प्राणिवध का वर्जन करते हैं। सभी प्राणियों को अपने प्राण प्रिय हैं, सुख अनुकूल है और दुःख प्रतिकूल है। जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं है, वैसे ही सब जीवों को भी दुःख प्रिय नहीं है। यह समझकर जो न स्वयं हिंसा करता है और न दूसरों से हिंसा करवाता है वही श्रमण है। इस प्रकार हिंसा का निषेध कर उसे नरक ले जाने का प्रमुख कारण बताकर भगवान् ने मानव को अहिंसा के राजमार्ग पर बढ़ने . की प्रेरणा दी। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा-मनसा, वाचा, कर्मणा जो स्वयं जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से करवाता है, या जो जीव ३. सव्वे पाणा, सब्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता न हन्तव्वा । न मज्जावेयव्वा, न परिघेतन्या, न परियायेव्वा, न उद्दवेयन्वा ।। -आचारांग १।४।१ ४. एवं खु नाणिणो सारं, जं न हिंसई किंचण । -सूत्रकृतांग श्रु० १, अ० ११ गा० १० ५. सव्वे जीवा वि इच्छन्ति, जोविउ न मरिज्जि, तम्हा पाणिवहं घोरं, णिग्गन्था वज्जयंति णं । -वशवकालिक, ६१० ६. सव्वे पाणा पियाउया सुहसाया दुहपडिकूला अप्पियवहा पिय जीविणो जीविउकामा। सब्वेसि जीवियं पियं ।। -प्राचारांग ११२।३ ७. जह मम न पियं दुखं, जाणिय एमेव सव्व जीवाणं न हणइ न हणावेइ अ, सममणइ तेण सो समणो । -अनुयोग द्वार ८. महारंभयाए महापरिग्गहियाए, पंचिदिय वहेणं, कुणिमाहारेणं । -भगवती शतक ३९ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ धर्म और दर्शन हिंसा का अनुमोदन करता है वह वैर की वृद्धि करता है । अतः प्रारणीमात्र को प्रात्मतुल्य समझो।" उन्होंने हिंसात्मक यज्ञों के स्थान पर अहिंसात्मक आत्म-यज्ञ का निरूपण किया।" __ अहिंसा का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए भगवान् ने स्पष्ट शब्दों में कहा-इस विराट् विश्व में अहिंसा ही भगवती है।१२ वह भय-भीतों के लिए शरण है, पक्षियों के लिए पांख है, पिपासुत्रों के लिए पानी है, भूखों के लिए अन्न है, समुद्र यात्रियों के लिए पोत है, चतुष्पदों के लिए प्राश्रम-स्थल है, रोगियों के लिए औषध है, वन यात्रियों के लिए साथ (काफिला) है, अहिंसा सभी के लिए कल्याणकारी है।'3 अहिंसा उत्कृष्ट मंगल है ।१४ श्रमणधर्म और श्रावकधर्म की ९. सयंऽतिवायए पाणे, अदुवन्नेहि घायए । हणन्तं वाणुजाणाइ, वरं वढा अप्पणो । --सूत्रकृतांग १११११-३ १०. अत्तसमे मनिज्ज छप्पिकाये । -दशवकालिक १०-५ (ख) आयतुले पयासु । --सूत्र कृतांग १।१०१३ तवो जोई, जीवो जोइठाणं, जोगा सुया सरीरं कारिसंगं, कम्मेहा संजमजोगसन्ती, होमं हुणामि इसिणं पसत्थं । -उत्तराण्ययन सूत्र १२।४४ १२. एसा सा भगवती अहिंसा । -प्रश्न व्याकरण १३. जा सा भीयाण विव सरणं, पक्खोरा पिव गमणं, तिसियाणं पिव सलिलं, खुहियाणं पिव असणं, समुद्दमज्झे व पोतवहणं, चउप्पयालं व बासमपयं, दुहट्ठियारणं च ओसहिबलं, अडवीमज्झे विसत्थगमण ....तसथावरसव्वभूयखेमकरी एसा भगवती अहिंसा। -प्रश्न व्याकरण, संवरद्वार १४. दशवकालिक १११ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर के सिद्धान्त .१५ साधना हिंसा के विना संभव नहीं है । अतः महावीर ने महाव्रत' और अणुव्रत में हिंसा को प्रथम स्थान दिया । - १६ १८ यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि श्रमण भगवान् श्री महावीर हिंसा सिद्धांत केवल निषेधात्मक ही नहीं, अपितु विधेयात्मक भी है | प्रश्नव्याकरण में अहिंसा के जो साठ पर्यायवाची नाम बताये हैं, वे अहिंसा के विराट् स्वरूप के या उसके विविध रूपों के निर्देशक हैं । उनमें ग्यारहवां नाम दया है । १७ प्राचार्य श्री मलयगिरि ने उसका अर्थ 'देहधारी जीवों की रक्षा करना' किया है।' अहिंसा के जहाँ नेक नाम निषेधात्मक हैं वहाँ अनेक नाम विधेयात्मक भी हैं, जैसे रक्षा, दया, अभय आदि ।" निष्कर्ष यह है कि भगवान् महावीर के विराट् हिसातत्व को समझने के लिए अहिंसा के दोनों पहलुओं को समझना आवश्यक है । गान्धी जी ने भी कहा है - जहाँ दया नहीं, वहाँ हिंसा नहीं" २° अस्तु । अपरिग्रह भगवान् श्री महावीर ने अपरिग्रह का सन्देश देते हुए कहा" वस्तु अपने आप में परिग्रह नहीं है, किन्तु वस्तु के प्रति मूर्च्छा भाव ही वस्तुतः परिग्रह है । २१ परिग्रह एक प्रकार का बंधन है । संसार के १५. अहिंससच्चं च अतेणगं च ततो य बंभं च अपरिग्यहं च । पडिवज्जिया पंच महव्वयाई, चरिज्ज धम्मं जिणदेसियं बिऊ || - उत्तराध्ययन, २१ २२ १६. १७. १८. १६. २०. २१. २२३ उपासक दशांग अ० १ प्रश्नव्याकरण संवरद्वार दयादेहिरक्षा | प्रश्न श्याकरण संवरद्वार । गान्धीवाणी पृ० १७ मुच्छा परिग्गहो वृत्तो, इइ वृत्तं महेसिणा । - दशवेकालिक श्र० ६ । गा० २० Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ धर्म और दर्शन सभी प्राणियों को परिग्रह ने जकड़ रक्खा है। इससे बढ़कर अन्य कोई भी बंधन नहीं है ।२२ ___ जो ममत्त्वबुद्धि का त्याग करता है, वही व्यक्ति ममत्व का भी त्याग करता है, वही सच्चा और अच्छा साधक है। जिसे किसी भी प्रकार का ममत्त्व नहीं है ।२३ सच्चा साधक अपने तन पर भी ममत्त्व नहीं रखता ।२४ ___ जो व्यक्ति अर्थ को अनर्थ का कारण न मानकर उसे अमृत मानता है और उसे प्राप्त करने के लिए पापकृत्य करता है, वह कर्मों के दृढ़ पाश में बन्ध जाता है, अनेक जीवों के साथ वैरानुबन्ध कर अन्त में विराट् वैभव को यहीं छोड़कर एकाकी नरक में जाता है ।२५ पदार्थ ससीम है और तृष्णा असीम है, आकाश के समान अनन्त है। सूवर्ण, रजत के असंख्य पर्वत भी लोभी मानव के दिल में परितृप्ति उत्पन्न नहीं कर सकते । विराट् वैभव भी उसके मन को प्रमुदित नहीं कर सकता, वह समझता है—यह बहुत ही कम है।" २२. नत्थि एरिसो पासो, पडिबंधो अत्थि सव्व-जीवाणं। -प्रश्नव्याकरण जे ममाइअ मई जहाइ, से जहाइ ममाइग्रं । सेहु दिट्ठभएमुणी जस्स नत्थि ममाइअं॥ -प्राधारांग २४. अवि अप्पणो वि देहम्मि नाऽऽयरंति ममाइयं । -दशवैकालिक २५. जे पावकम्मेहिं धण मणूसा, समाययन्ती अमई गहाय । पहाय ते पासपयट्ठिए नरे, वेरागुबद्धा जरयं उर्वति । -उत्तराध्ययन, प्र० ४ गा० २ २६. सुवण्णरूवस्स उ पव्वया भवे सिया हु केलाससमा असंखया । नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि .. इच्छा हु आगाससमा अणंतिया ॥ -उत्तराध्ययन अ०६ । गा० ४८ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर के सिद्धान्त २२५ आग में कितना ही ईधन डाला जाय वह कभी तुष्ट नहीं होती, सागर में चाहे कितनी ही सरिताएं गिरें उसे तृप्ति नहीं होती।' यही अवस्था मानवमन की है। एतदर्थ महावीर ने इच्छाओं के नियंत्रण पर बल दिया। धन को ही जीवन का ध्येय समझने वालों को महावीर ने कहाधन इस लोक और परलोक में तुम्हारी कहीं भी रक्षा नहीं कर सकता, अतः धन को नहीं, धर्म को महत्त्व दो । धर्म ही सच्चा रक्षक और सही शरण है ।२८ अनेकान्त : श्रमरण भगवान श्री महावीर ने अनेकान्त का सन्देश देते हए कहा-तत्त्व उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त है ।२९ सत्य का परिज्ञान करने के लिए अपेक्षित है कि वस्तु का सभी दृष्टियों से चिन्तन किया जाय । जो वस्तु नित्य प्रतीत होती है, वह अनित्य भी है। जो वस्तु क्षणिक है वह नित्य भी है। जहाँ नित्यता है वहाँ अनित्यता भी है । अनित्यता के अभाव में नित्यता की प्रत्तीति नहीं हो सकती, और नित्यता के अभाव में अनित्यता की पहचान नहीं हो सकती है। एक की प्रतीति द्वितीय की प्रतीति से ही संभव है । अनेकानेक अनित्य प्रतीतियों के मध्य जहां एक स्थिर प्रतीति होती है, बह ध्रौव्य है। सब ज्ञानों की विषयभूत वस्तु अनेकान्तात्मक होती है। अतः २७. वित्तेण ताणं न लभे पमत्त, इमम्मि लोए अदुवा परत्था । -उत्तराध्ययन प्र०४।गा०५ २५. एको हु धम्मो नरदेव ! ताणं न विज्जए अन्नमिहेह किंचि।। -उत्तरा० अ० १४१४० २६. उप्पन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा। -स्थानाङ्ग सूत्र, ठा० १० ३०. अनेकान्तात्मकं वस्तु गोचरं सर्वसंविदाम् । -न्यायावतार, सिद्धसेन Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ धर्म और दर्शन वस्तु को अनेकान्तात्मक कहा है। जिसमें अनेक अर्थ, भाव, सामान्य विशेष. गुणपर्याय रूप से पाये जायें वह अनेकान्त है। और अनेकान्तात्मक वस्तुतत्त्व को भाषा के द्वारा कथन करना स्याद्वाद है । भगवान् ने अनेकान्त की दृष्टि से देखा और स्याद्वाद की भाषा में उसका प्रतिपादन किया। भगवद्वाणी सदा स्याद्वादमयी होती है।33 'स्यात्' यह अव्यय अनेकान्त का द्योतक है । अतः स्याद्वाद को अनेकान्तवाद भी कहते हैं।३४ सत्य का समुद्घाटन करने के लिए भगवान् ने प्रत्येक प्रश्न का उत्तर अपेक्षा दृष्टि से दिया । यथा जयन्ती-भगवन् ! सोना अच्छा है या जागना ! महावीर-कितनेक जीवों का सोना अच्छा है और कितनेक जीवों का जागना अच्छा है। जयन्ती-भगवन् ! यह कैसे ? महावीर-जो जीव अधर्मी हैं, अधर्मानुग हैं, अधर्मनिष्ठ हैं, अधर्माख्यायी हैं, अधर्मप्रलोकी हैं, अधर्मप्ररञ्जन हैं, अधर्मसमाचार हैं, अधार्मिक-वत्तियुक्त हैं, वे सोते रहें, यही अच्छा है। क्योंकि वे सोते रहेंगे तो अनेक जीवों को पीड़ा नहीं देंगे। और इस प्रकार स्व, पर और उभय को अधार्मिक क्रिया में संलग्न नहीं करेंगे, अतः उनका सोना श्रेष्ठ है। किन्तु जो जीव धार्मिक हैं. धर्मानुग हैं यावत् धार्मिक वृत्ति वाले हैं उनका तो जागना ही श्रेष्ठ है । क्योंकि वे अनेक जीवों ३१. अथोऽनेकान्तः । अनेके अन्ता भावा अर्थाः सामान्यविशेषगुण पर्यायाः यस्य सोऽनेकान्तः । ३२. अनेकान्तात्मकार्थकथनं स्याद्वादः ।। -लघीयस्त्रय टोका ६२ अकलंक ३३. स्याद्वादः भगवत्प्रवचनम् । -न्यायविनिश्चय विवरण प० ३६४ ३४. स्यादित्यव्ययमनेकान्तद्योतकं, ततः स्याद्वादोऽनेकान्तवादः । -- स्याद्वाद मंजरी का० ५ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहावीर के सिद्धान्त को सुख देते हैं, स्व, पर और उभय को धार्मिक अनुष्ठान में संलग्न करते हैं, अतएव उनका जागना ही श्रेष्ठ है। जयन्ती-भगवन् ! बलवान् होना श्रेष्ठ है या दुर्बल होना ? महावीर-कुछ जीवों का बलवान् होना श्रेष्ठ है और कुछ का दुर्बल होना। जयन्ती-यह कैसे ? महावीर--जो जीव अधार्मिक हैं, यावत् अधार्मिक वृत्ति वाले हैं, उनका दुर्बल होना श्रेष्ठ है। वे बलवान् होंगे तो अनेक जीवों को कष्ट देंगे । जो जीव धार्मिक हैं यावत् धार्मिक वृत्ति वाले हैं उनका बलवान् होना श्रेष्ठ हैं क्यों कि वे बलवान होने से अधिक जीवों को सुख पहुँचायेंगे इस प्रकार अलसत्व और दक्षत्व के प्रश्न का उत्तर भी विभाग करके दिया। गौतम-भगवन् ! आद्र गुड में कितने वर्ण हैं कितने गंध हैं कितने रस हैं और कितने स्पर्श हैं ? ___ भगवान् गौतम ! दो नय हैं-निश्चय नय और व्यवहार नय । व्यवहार नय से प्रार्द्र गुड में मधुरता है, और निश्चय नय से पाँच वर्ण हैं, दो गंध हैं, पाँच रस हैं और आठ स्पर्श हैं ।३६ गौतम-भगवन् ! म्रमर में कितने वर्ण हैं ? - भगवान्-गौतम ! व्यवहार नय की दृष्टि से भ्रमर काला है, एक ३५. ३६. भमवली १२।२।४४३ फाणियबुले शं भन्ते ! कइवन्ने कइगन्धे कइरसे कइफासे पण्णत्त ? ___ गोयमा ! एत्थरणं दो नया भवन्ति, तं जहा निच्छइयनए य वावहारियनए य, वावहारियनयस्स गोड्डे फाणियमुले, नेच्छइयनयस्स पंचवन्ने दुगंधे पंचरसे अट्ठफासे । -भगवती शतक १८६ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ धर्म और दर्शन वर्ण वाला है किन्तु निश्चय नय की दृष्टि से उसमें श्वेत, कृष्ण, नील आदि पाँचों वर्ण हैं। इसी प्रकार राख और शुक-पिच्छ3९ के सम्बन्ध में जिज्ञासा व्यक्त करने पर भगवान् ने व्यवहार और निश्चयनय की दृष्टि से उत्तर प्रदान किये। महात्मा बुद्ध ने लोक, जीव आदि की नित्यता, अनित्यता, सान्तता और अनन्तता के प्रश्नों को अव्याकृत कहकर टाल दिया। किन्तु भगवान् श्री महावीर ने उन प्रश्नों के उत्तर विविध रूप से प्रदान किये । महात्मा बुद्ध ने अात्मा आदि के सम्बन्ध में चिन्तन करना साधक के लिए अनूचित माना है। उसे--"अयोनिसोमनसिकारविचार का अयोग्य ढंग कहा है। "अयोनिसोमनसिकार" से आश्रव उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न प्राश्रव वृद्धिगत होते हैं। परन्तु भगवान् श्री महावीर ने साधना की दृष्टि से जीव, लोक प्रादि काज्ञान आवश्यक माना है ।४२ जब तक इन बातों का ज्ञान नहीं होता, तब तक कोई ३७. भमरे णं भन्ते ! कइवण्णे पुच्छा ? गोयमा ! एत्थणं दो नया भवन्ति तं जहा णिच्छइयणए य, वावहारियणए य । वावहारियणयस्स कालए भमरे, णिच्छइयणयस्स पंचवणे जाव अट्ठ फासे ।। -भगवती शतक १८१६ ३८. छारियाणं भन्ते ! पुच्छा ? गोयमा ! 'एत्थरणं दो नया भवन्ति तं जहा-णिच्छइयणए य, वावहारियणएय । वावहारियणयस्स लुक्खा छारिया, णेच्छइयस्स पंच वण्णे जाव अट्ठफासे पण्णत्त । -भगवती शतक १८१६ सुपिच्छेरणं भन्ते ! कइवण्णे पण्णत्त ! एवं चेव णवरं वावहारिय. णयस्स गीलए सुअपिच्छे, णेच्छइयस्स णयरस सेसन्तं चेव । -भगवती १८१६ ४०. मज्झिमनिकाय चूलमालुक्यसुत्त ६३ । ४१. मज्झिमनिकाय-सव्वासवसुत्त २ ४२. इहमेगेसि नो सन्ना भवइ तं जहा-पुरस्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, दाहिणाओ वा....अन्नयरीयाओ वा दिसाओ वा अणुदिसाओ ३६ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर के सिद्धान्त भी जीव आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी नहीं हो सकता । अतः आत्मा आदि के विषय में चिन्तन करना संवर और मोक्ष लाभ का कारण माना है । ४३ लोक शाश्वत है या प्रशाश्वत है ? इस प्रश्न के उत्तर में महावीर ने कहा जमालि ! लोक शाश्वत भी है और प्रशाश्वत भी है। त्रिकाल में एक भी ऐसा समय नहीं मिल सकता जब लोक न हो, अतएव लोक शाश्वत है । वह प्रशाश्वत भी है, क्योंकि लोक हमेशा एकरूप नहीं रहता । अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल में अवनति और उन्नति होती रहती है । कालक्रम से लोक में विविधरूपता ग्राती रहती है, अतः लोक अनित्य है, प्रशाश्वत है । ४४ लोक सान्त है या अनन्त है ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए भगवान् महावीर ने कहा- स्कन्दक ! लोक को चार प्रकार से जाना ४३. २२६ ४४. वा आगओ अहमंसि । एवमेगेसि नो नायं भवइ - अत्थि मे आया उववाइए, नत्थि मे आया उववाइए, के अहं आसी, के वा इओ चुओ इह पेच्चा भविस्सामि ? "से जं पुण जाणेज्जा सहसम्मइयाए, परवागररणेणं, अन्नेसि वा अन्तिए सोच्चा । तं जहा - पुरत्थिमाओ.... एवमेगेसि नायं भवइअत्थि मे आया उववाइए जो हमाओ दिसाओ अरदिसाओ वा प्रणुसंचरइ सब्दाओ दिसाओ अणुदिसाओ, सोहं - से आयावाई, लोगावाई कम्माबाई किरियावाई | - आचारांग १ -१1१ २-३ इह आगई गई परिन्नाय अच्चेइ जाइमरणस्स वहुमगं विक्खायरए | -- श्राचारांग १।५।६ सासए लोए जमाली, जन्न कथावि णासी णो कयावि ण भवति याविण भविस्सइ, भुवि च भवइ य, भविस्सइ य धुवे जितिए सासए अक्खए अव्वए अवट्ठिए णिच्चे । असासए लोए जमाली ! ओ ओप्पणी भवित्ता उसप्पिणी भवइ । - भगवती सूत्र ६३३।३८७ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० धर्म और दर्शन जाता है-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, और भाव से । द्रव्य की अपेक्षा से लोक एक है और सान्त है। क्षेत्र की अपेक्षा से लोक असंख्यात योजन कोटाकोटि विस्तार और असंख्यात योजन कोटाकोटि परिक्षेप प्रमाण वाला है, अतः क्षेत्र की अपेक्षा से लोक सान्त है। काल की अपेक्षा से कोई काल ऐसा नहीं जब लोक न हो, अतः लोक ध्र व है, नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है, नित्य है । उसका कभी अन्त नहीं है । भाव की अपेक्षा से लोक के अनन्त वर्णपर्याय, गंधपर्याय, रसपर्याय और स्पर्शपर्याय हैं। अनन्त संस्थानपर्याय हैं, अनन्त गुरुलघुपर्याय हैं, अनन्त अगुरुलघुपर्याय हैं। उसका कोई अन्त नहीं । अतः लोक द्रव्य दृष्टि से सान्त है, क्षेत्र दृष्टि से सान्त है, काल दृष्टि से अनन्त है, भावदृष्टि से अनन्त है ।४५ । जीव शाश्वत है या अशाश्वत है, प्रश्न का उत्तर देते हए भगवान् ने कहा-गौतम ! जीव किसी दृष्टि से शाश्वत है, किसी दृष्टि से ४५. एवं खलु मए खन्दया ! चउन्विहे लोए पण्णत्ते, तं जहा दब्वओ, खेतओ, कालओ, भावओ। दव्वओ णं एगे लोए सग्रंते । खेत्तमओ णं लोए असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोड़ीओ आयामविक्वंभेणं, असंखेज्जाबो जोयण कोडाकोडीओ परिक्खेवेणं पन्नत्त, अत्थिपुण सोते । कालयो रणं लोए , कयावि न आसि, न कयावि न भवति, न कयावि न भविस्सति । भविसु य भवति य भविस्सइ य, धूवे णितिए सासते, अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए, णिच्चे, णस्थि पुण से अंते । भावओ णं लोए अणंता वण्णपज्जवा गंधपज्जवा रसपज्जवा फासपज्जवा अणंता संठाणपज्जवा, अणंता गरुयलहुयपज्जवा अणंता अगरुलहुयपज्जवा नत्थि पुण से अन्ते । से त खन्दगा ! दव्वओ लोए सअंते, खेत्तओ लोए सअन्ते. कालतो लोए अणन्ते, भावतो लोए अणन्ते । -भगवती २।११० Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर के सिद्धन्त २३१ अशाश्वत है । द्रव्यार्थिक दृष्टि से शाश्वत है और भावाथिक पर्यायार्थिक दृष्टि से अशाश्वत है।४६ ___ द्रव्य दृष्टि का अर्थ है अभेदवादी दृष्टि और पर्यायदृष्टि का अर्थ है भेदवादी दृष्टि । द्रव्यदृष्टि से जीव में जीवत्वसामान्य का कभी अभाव नहीं होता, वह किसी भी अवस्था में हो, जीव ही रहता है, अजीव नहीं होता। अतः वह नित्य है। पर्याय दष्टि से जीव किसी न किसी पर्याय में रहता है। एक पर्याय का परित्याग कर अन्य पर्याय को ग्रहण करता रहता है, अतः अनित्य है। ___जीव सान्त है या अनन्त है, इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् ने कहा जीव सान्त भी है और अनन्त भी है। द्रव्य की दृष्टि से एक जीव सान्त है। क्षेत्र की अपेक्षा से भी जीव असंख्यातप्रदेशयुक्त होने से सान्त है । काल की दृष्टि से जीव भूतकाल में था, वर्तमान में है और भविष्यत् काल में रहेगा, अतः अनन्त है। भाव की अपेक्षा से जीव के अनन्त ज्ञानपर्याय, अनन्त दर्शन पर्याय, अनन्त चारित्र पर्याय और अनन्त अगुरुलघु पर्याय हैं, अतः अनन्त है।४० तात्पर्य यह है कि द्रव्य और क्षेत्र की दृष्टि से जीव सान्त है और काल तथा भाव की दृष्टि से अनन्त है। ४६. जीवा णं भन्ते ! कि सासया असासया ? गोयमा ! जीवा सिय सासया सिय असासया। गोयमा दवट्ठयाए सासया, भावठ्ठयाए असासया ।। -भगवती ७।२।२७३ ४७. जे वि य खन्दया ! जाव सअन्ते जीव, तस्स वि य णं एयमठे-एवं खलु जाव दव्वओ णं एगे जीवे सअन्ते, खेतओ णं जीवे असंखेज्जपएसिए असंखेज्जपएसोगाढ़े, अत्थि पुण से अन्ते, कालो णं जीवे न कयावि न आसि जाव निच्चे, नत्थि पुण से अन्ते, भावओ ण जोवे अणन्ता णाणपज्जवा, अणन्ता वेसणपज्जवा, अणन्ताचरित्तपज्जवा, अणन्ता अगुरुलहुयपज्जवा, नत्थि पुण से अन्ते । -भगवती० २।।६० Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ धर्म और दर्शन भगवान महावीर ने द्रव्य में एकता और अनेकता दोनों धर्म मान्य किये हैं। भगवान ने कहा-सोमिल ! द्रव्यदृष्टि से मैं एक हूं। ज्ञान और दर्शन की दृष्टि से मैं दो हूँ। न परिवर्तन होने वाले प्रदेशों की दृष्टि से मैं अक्षय हूँ, अव्यय हूँ, अवस्थित हूँ। परिवर्तित होने वाले उपयोग की दृष्टि से मैं अनेक हूँ।४८ इस प्रकार भगवान श्री महावीर ने अनेकान्त दृष्टि से प्रत्येक प्रान का समाधान किया। विरोधी प्रतीत होने वाले एकत्व और अनेकत्व, नित्यत्व और अनित्यत्व, सान्तत्व और अनन्तत्व, सत्त्व और असत्व धर्मों का अनेकान्त दृष्टि से समन्वय किया। यहाँ पर यह स्पष्टीकरण करना आवश्यक है कि भगवान महावीर की : नेकान्त दृष्टि दो एकान्तों को मिलाने वाली मिश्रदृष्टि नहीं है । किन्तु यह एक स्वतन्त्र और विलक्षण दृष्टि है, जिसमें वस्तु का पूर्ण रूप परिज्ञात होता है और वस्तु के सभी धर्म निर्विरोध रूप से प्रतिभासित होते हैं। भगवान् ने अपने श्रमणों को भी यह आदेश दिया कि भिक्षुओ ! तुम स्याद्वाद भाषा का ही प्रयोग करो।४९ भगवान श्री महावीर की वाणी में एक शाश्वत सत्य था, जो जन-मन को छू गया था। हिंसा, शोषण और दुराग्रह के स्थान पर अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त की अमल-धवल धारा जन-मन में प्रवाहित होने लगी। भगवान के पावन प्रवचनों से पशु और मानवों की बलि बन्द हुई, अहिंसक यज्ञ प्रारम्भ हुए। गुलाम प्रथा का अन्त हमा, नारी और शूद्रों को धर्माधिकार प्राप्त हुए । अपरिग्रह और अनेकान्त की प्राणप्रतिष्ठा हुई। ४८. सोमिला ! दव्वट्ठयाए एगे अहं, णाणदंसणट्ठयाए दुविहे अहं, पएसट्ठयाए अक्खए वि अहं, अव्वए वि अहं, अवट्ठिए वि अहं, उवओगट्ठयाए अणेगभूयभावभविए वि अहं । -भगवती ११० ४६. भिक्खु विभज्जवायं च वियागरेज्जा । -सूत्रकृताङ्ग १।१४।३२ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर के सिद्धान्त २३३ आज विज्ञान और विनाश की इस कसमसाती वेला में भगवान. महावीर के अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त दृष्टि के प्रचार की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी उस युग में थी। यह देशनात्रयी मानवसमाज के लिए एक अमृतोपम औषधि है, जिसके सेवन से मानव समाज पूर्ण स्वस्थ, मस्त और प्रसन्न हो सकता है। जब विचार में अनेकान्त, व्यवहार में अहिंसा और समाज में अपरिग्रह की उदात्त भावना अठखेलियां करने लगेगी तब जन-जन के जीवन में आनन्द की मियाँ तरंगित होंगो। अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त ही भारतीय संस्कृति के मूलभूत सिद्धान्त हैं - इनमें भारतीय संस्कृति का सार संगृहीत है। समाज, राष्ट्र और जीवन में सर्वत्र सुख और सन्तोष का संचार करना ही इसका मूल ध्येय है, जो पुरातन होने पर मी अभिनव है। चिरन्तन होने पर भी चिरनवीन है। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 'धर्म और दर्शन' में प्रयुक्त ग्रन्थ (१) प्राचारांग (२) चर्पटपंजरिका (३) महाभारत (४) दशवकालिक (५) दशवकालिक -जिनदास चूणि (६) दशवैकालिक-हारिभद्रीयावृत्ति (७) दशवकालिक-अगस्यसिंह चूणि (८) वैशेषिक दर्शन (8) सर्वदर्शन संग्रह टीका-माधवाचार्य (१०) बहदारण्योपनिषद् (११) उत्तराध्ययन (१२) गीता (१३) बौद्ध दर्शन (१४) अंगुत्तर निकाय (१५) सूत्रकृताङ्ग (१६) स्थानाङ्ग (१७) आवश्यक नियुक्ति प्राचार्य भद्रबाहु (१८) विशेषावश्यक भाष्य-जिनभद्र (१९) सूत्रकृताङ्ग-शीला टीका (२०) भगवती (२१) योगदर्शन (२२) तैत्तिरीय उपनिषद् (२३) मनुस्मृति (२४) समवायाङ्ग (२५) कल्पसूत्र-भद्रबाहु Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ धर्म और दर्शन (२६) कल्पसूत्र-पुण्यविजय जी (२७) कल्पसूत्र सुबोधिका टीका (२८) कल्पसूत्र-कल्पद्र म कलिका (२६) कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी-राजेन्द्रसूरि (३०) कल्पसूत्र कल्पलता (३ :) कल्पसूत्र कल्पार्थबोधिनी (३२) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति (३३) मज्झिम निकाय (३४) अनुत्तरोपपातिक (३५) अन्तकृद्दशा (३६) आवश्यक चूणि-जिनदासगणी महत्तर (३७) आवश्यक सूत्र-मलयगिरिवृत्ति (३८) आवश्यक सूत्र-हारिभद्रीया वृत्ति (३६) समवायाङ्ग-अभयदेव वृत्ति (४०) त्रिषष्ठिशलाका पुरुषचरित-प्राचार्य हेमचन्द्र (४१) उत्तराध्ययन-नेमिचन्द्रीय वृत्ति (४२) तत्वार्थ सूत्र-उमास्वाति (४३) तत्वार्थ सूत्र-राजवार्तिक (४४) मूलाचार-बट्टकेर (४५) मोक्षपाहुड-प्राचार्य कुन्दकुन्द (४६) संथार पइन्ना (४७) ज्ञानसार तपाष्टक-उपाध्याय यशोविजय (४८) दर्शन और चिन्तन-पं० सुखलाल जी (४६) उत्तर पुराण-गुणचन्द्राचार्य (५०) महापुराण-जिनसेनाचार्य (५१) गाँधीजी की सूक्तियाँ (५२) ज्ञाता सूत्र (५३) आर० विलियम्स, जैन योग (५४) वसुनन्दी श्रावकाचार (५५) पंचाचार वृत्ति (५६) कर्मग्रंथ टीका Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (५७) छहढाला -- पं० दौलतराम जी (५८) रत्नकरण्ड श्रावकाचार - (५६) निशीथ चूर्णि - जिनदास गणी महत्तर (६०) व्यवहार भाष्य (६१) वृहत्कल्प (६२) निशीथ सूत्र (६३) पन्नवगा सूत्र (६४) ओघनियुक्ति (६५) ज्ञानार्णव - शुभचन्द्र (६६) पंचतन्त्र - विष्णु शर्मा (६७) धम्मपद (६८) वृहत्कल्प लघुभाष्य ( ६ ) विनयपिटक ( ७० ) दशाश्रुतस्कन्ध (७१) ऋषभदेव : एक परिशीलन - देवेन्द्र मुनि ( ७२ ) वृहत्कल्प नियुक्ति (७३) राजेन्द्र कोष (७४) कौटलीय अर्थशास्त्र (७५) महानिशीथ (७६) दर्शन पाहुड (७७) मनुसंहिता (७८) षट् प्राभुत - श्राचार्य समन्तभद्र (७९) प्रश्न व्याकरण (८०) नंदी सूत्र (८१) योगसूत्र - पतञ्जलि (८२) बौद्ध दर्शन (८३) समयसार - - प्राचार्य कुन्दकुन्छ ( ८४) द्रव्य संग्रह - नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती (८५) परमात्म प्रकाश (८६) ज्ञान गङ्गा (८७) अमर वाणी २३:७ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २३६ (११९) पंचाध्यायी-पं० राजमल्ल (१२०) लोक प्रकाश-विनय विजय (१२१) गणधरवाद-गुजरात विधासभा, अहमदाबाद (१२२) विशुद्धिमग्ग (१२३) शान्तिशतकम् (१२४) द्वात्रिंशिका (१२५) षदर्शन समुच्चय टीका (१२६) महावीर जीवन दर्शन- देवेन्द्रमुनि (१२७) प्रतिक्रमण सूत्रवृत्ति-प्राचार्य नमि (१२८) प्रवचनसार (१२६) प्रशस्तपाद भाष्य-प्रशस्तपाद (१३०) माठर बृत्ति (१३१) कठोपनिषद् (१३२) मिलिन्द प्रश्न (१३३) कथावत्थु (१३४) भारतज्ञान कोष (१३५) उपदेशमाला, दोषट्टी टीका (१३६) जन-भावनगर (१३७) कर्मवाद : एक अध्ययन :-सुरेश मुनि (१३८) समाज और संस्कृति-उपाध्याय प्रमर मुनि (१३६) श्री अमर भारती, आगरा (१४०) प्रवचन सारोद्धार (१४१) धवल सिद्धान्त, धवला टीका (१४२) अभिधान चिन्तामणि (१४३) तिलोयपण्णत्ति (१४४) वसुदेव हिण्डी (१४५) गतागती स्तोक (१४६) दशाश्रु तस्कंध-श्री घासीलाल जी म. . (१४७) नवतत्त्व साहित्य संग्रह : (१४८) स्थानाङ्ग-समवायाङ्ग-पं० बलसुल मालवणिया (१४६) नियमसार-प्राचार्य कुन्दकुन्द Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २३६ (११९) पंचाध्यायी-पं० राजमल्ल (१२०) लोक प्रकाश-विनय विजय (१२१) गणधरवाद-गुजरात विधासभा, अहमदाबाद (१२२) विशुद्धिमग्ग (१२३) शान्तिशतकम् (१२४) द्वात्रिंशिका (१२५) षदर्शन समुच्चय टीका (१२६) महावीर जीवन दर्शन- देवेन्द्रमुनि (१२७) प्रतिक्रमण सूत्रवृत्ति-प्राचार्य नमि (१२८) प्रवचनसार (१२६) प्रशस्तपाद भाष्य-प्रशस्तपाद (१३०) माठर बृत्ति (१३१) कठोपनिषद् (१३२) मिलिन्द प्रश्न (१३३) कथावत्थु (१३४) भारतज्ञान कोष (१३५) उपदेशमाला, दोषट्टी टीका (१३६) जन-भावनगर (१३७) कर्मवाद : एक अध्ययन :-सुरेश मुनि (१३८) समाज और संस्कृति-उपाध्याय प्रमर मुनि (१३६) श्री अमर भारती, आगरा (१४०) प्रवचन सारोद्धार (१४१) धवल सिद्धान्त, धवला टीका (१४२) अभिधान चिन्तामणि (१४३) तिलोयपण्णत्ति (१४४) वसुदेव हिण्डी (१४५) गतागती स्तोक (१४६) दशाश्रु तस्कंध-श्री घासीलाल जी म. . (१४७) नवतत्त्व साहित्य संग्रह : (१४८) स्थानाङ्ग-समवायाङ्ग-पं० बलसुल मालवणिया (१४६) नियमसार-प्राचार्य कुन्दकुन्द Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० धर्म और दर्शन (१५०) जैन दर्शन ---डा० मोहनलाल मेहता (१५१) प्रज्ञापना टीका (१५२) विनयचन्द चौबीसी (१५३) तत्वार्थ सूत्र- पं० सुखलाल जी का विवेचन (१५४) तत्त्वार्थ सत्र-~सर्वार्थ सिद्धि (१५५) तत्त्वार्थ सूत्र-सिद्धसेनवृत्ति (१५६) तत्त्वार्थ सूत्र-श्रु तसागरीयावृत्ति (१५७) नवतत्त्व प्रकरण (१५८) नव पदार्थ (१५६) जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व (१६०) जैन भारतीकलकत्ता (१६१) धनञ्जय नाममाला (१६२) महावीर कथा (१६३) जयधवला भाग-१ (१६४) सुत्तागमे (१६५) सप्ततिशत स्थान प्रकरण-सोमतिलक सूरि (१६६) आवश्यक भाष्य (१६७) ऋग्वेद (१६८) नीतिशतक (१६६) चाणक्य नीति (१७०) अमितगतिश्रावकाचार (१७१) धर्मरल प्रकरण । (१७२) समीचीन धर्मशास्त्र (१७३) द्वादश अनुप्रेक्षा (१७४) यशस्तिलक चम्पू (१७५) भाव संग्रह (१७६) गुणभद्र श्रावकाचार (१७७) दान प्रदीप (१७८) कार्तिकेयानुप्रेक्षा (१७९) आचार्य अमितगति Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (१८०) सुखविपाक (१८१) उपासकदशाङ्ग (१८२) रायपसेणीय सुत्त (१८३) द्रव्य संग्रह, ब्रह्मदेव टीका (१८४) प्रमाणनयतत्त्वालोक-वादिदेव सूरि (१८५) माध्यमिक कारिका (१८६) पटिसंभिदा (१८७) कौषीतकी उपनिषद (१८८) चरक संहिता (१८९) तत्त्व संग्रह (१९०) न्यायावतारवार्तिक वृत्ति की प्रस्तावना (१६१) मागन्दिय सुत्तन्त (१९२) कुमारपाल प्रतिबोध-सोमप्रभाचार्य (१६३) शिव गीता (194) The wonder world of why aud how. (१६५) धर्म बिन्दु-प्राचार्य हरिभद्र (१६६) धर्म रत्न प्रकरण-महामहोपाध्याय मानविजय गणि (१९७) श्राद्धगुण विवरण-जिनमण्डन गणी (१९८) तत्त्वानुशासन (१९६) अध्यात्म संग्रह-उपाध्याय यशोविजय (२००) अष्टसहस्री-विद्यानन्दी (२०१) अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका-प्राचार्य हेमचन्द्र (२०२) जैनसूत्राज की भूमिका-डाक्टर हर्मन जैकोबी (२०३) समराइच्चकहा-प्राचार्य हरिभद्र (२०४) नन्दीसूत्र-मलयगिरि वृत्ति (२०५) पंचास्तिकायटीका-श्री अमृतचन्द्र (२०६) सन्मतितर्क-सिद्धसेन Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational For Pavale & Personal use only