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कर्मवाद : पर्यवेक्षण
उक्त कथन का यह अर्थ नहीं कि बद्ध कर्मों के विपाक में आत्मा कुछ भी परिवर्तन नहीं कर सकता। जैसे भंग के नशे की विरोधी वस्तु के सेवन से भंग का नशा नहीं चढ़ता या नाम मात्र को चढ़ता है, उसी प्रकार प्रशस्त अध्यवसायों के द्वारा पूर्वबद्ध कर्म के विपाक को मन्द भी किया जा सकता है और नष्ट भी किया जा सकता है । उस अवस्था में कर्म, प्रदेशों से उदित होकर ही निर्जीर्ण होजाते हैं । उसकी कालिक मर्यादा ( स्थितिकाल ) को कम करके शीघ्र उदय में भी लाया जा सकता है। नियतकाल से पूर्व कर्मों को उदय में ले आना 'उदीरणा' कहलाता है।
'पांतजलयोग' भाष्य में भी अदृष्ट-जन्य वेदनीय कर्म की तीन गतियाँ निरूपित की हैं। उनमें से एक गति यह है-"कई कर्म बिना फल दिये ही प्रायश्चित्त आदि के द्वारा नष्ट हो जाते हैं।" इसे जैन पारिभाषिक शब्दों में प्रदेशोदय कहा है। कर्म की पौद्गलिकता :
अन्य दर्शनकारों ने जहाँ कर्म को संस्कार और वासनारूप माना है, वहाँ जैनदर्शन उसे पौद्गलिक मानता है। कर्म आत्मा का गुण नहीं है, किन्तु वह आत्मगुणों का विघातक है। परतंत्र बनाने वाला और दुःखों का कारण है। यह तथ्य है, "जिस वस्तु का जो गुण है वह उसका विघातक नहीं होता । कर्म आत्मा का विधातक है अतः आत्मा का गुण नहीं हो सकता । कर्म पौद्गलिक न होता तो वह आत्मा की पराधीनता का कारण नहीं हो सकता था। ___ जैनदर्शन की दृष्टि से द्रव्य कर्म पौद्गलिक है। पुद्गल मूर्त ही होता है। उसमें रूप, रस, गंध और स्पर्श-ये चार गुण होते हैं। जिसका कारण पौद्गलिक होता है उसका कार्य भी पौद्गलिक होता है । जैसे कपास भौतिक है, तो उससे बनने वाला वस्त्र भी भौतिक ही होगा । जैसे कार्य से कारण का अनुमान किया जाता है वैसे ही कारण से भी कार्य का अनुमान किया जा सकता है। शरीर आदि कार्य
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