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________________ श्रमण संस्कृति और तप १६७ १०६ आगम साहित्य का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि लौकिक कामना से तप करने वालों को लौकिक- सिद्धियाँ भी उपलब्ध हुई हैं । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में चक्रवर्ती सम्राट् भरत का वर्णन है । उन्होंने समग्र षट्खण्ड भारतवर्ष को प्रशासनिक दृष्टि से एक सूत्र में ग्रथित करने के लिए, साथ ही प्रादिनाथ ऋषभ द्वारा स्थापित कल्याणकारी मर्यादाओं और व्यवस्थाओं को सर्वत्र लागू करने के लिए जो विराट् अभियान किया था, उसकी सफलता के लिए तेरह बार अष्टम तप की साधना की । १०५ श्री कृष्णवासुदेव अपने लघुभ्राता गजसुकुमार को प्राप्त करने के लिए तप करते हैं । गर्भवती रानी धारणी के दोहद को पूर्ण करने के अर्थ, देवी सहायता प्राप्त करने के लिए, अभयकुमार तप करते हैं । तप के प्रभाव से देव वर्षाकाल न होने पर भी वर्षा - काल का मनोहर दृश्य उपस्थित करता है । इत्यादि उदाहरणों से स्पष्ट है कि तप से लौकिक कामनाएँ भी पूर्ण होती हैं | पर जैन संस्कृति ने इस प्रकार के तप को प्राध्यात्मिक साधना की दृष्टि से कोई महत्त्व नहीं दिया है। यही नहीं, भोगों की लालसा से किये जाने वाले तप को मोक्षप्राप्ति में बाधारूप माना है । दशाश्र तस्कंध में स्पष्ट निर्देश है कि परभव में अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति के हेतु किया जाने वाला तप निदान है, जो साधना के लिए शल्य रूप है । ३०७ १०८ गांधी जी कहते हैं - तप से जीवन निखरता है, मन मँजता है और काया कंचनमय होती है ।१९ काया के कंचनमय हो जाने का १०५. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, भरतचक्रवर्ती अधिकार | १०६. अन्तकृतदशाङ्ग, तृतीय वर्ग १०७. ज्ञातृधर्मकथाङ्ग १।१६ १०८. दशाश्र तस्कंध अ० १० निदान वर्णन, (ख) स्थानाङ्ग ३|१८२, (ग) समवायाङ्ग सम० ३ १०६. गांधी जी की सूक्तियाँ Jain Education International G For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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