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________________ १६६ धर्म और दर्शन उत्तराध्ययन में बताया है 'कोटि भवों के संचित कर्म तप द्वारा जीर्ण होकर नष्ट हो जाते हैं । १०२ प्राचार्य श्री शय्यंभव ने तप के ध्येय पर प्रकाश डालते हुए बताया- (१) इहलोकसंबंधी लाभ के निमित्त तप नहीं करना चाहिए (२) परलोक संबंधी अभ्युदय के निमित्त तप नहीं करना चाहिए (३) कीति, वर्ण, [लोक-व्यापी यश], शब्द [लोकप्रसिद्धि] और श्लोक [स्थानीय प्रशंसा] के लिए तप नहीं करना चाहिए। निर्जरा के अतिरिक्त अन्य किसी भी उद्देश्य से तप नहीं करना चाहिए।१०3 प्राचार्य अकलंक देव कहते हैं ---जैसे किसान को खेती से अभीष्ट धान्य के साथ-साथ पयाल भी मिलता है, उसी तरह तप-क्रिया का प्रधान प्रयोजन कर्मक्षय ही है । अभ्युदय की प्राप्ति तो पयाल की तरह आनुषंगिक है ।१०४ तप स्वरूपतः एक है, किन्तु तपस्वी की भावना के भेद के कारण उसे सकाम और निष्काम, इन दो भागों में विभक्त कर सकते हैं। लोकेषरणा या लौकिक ऋद्धि-सिद्धि के उद्देश्य से किया जाने वाला तप सकाम तप कहलाता है और आत्म-उत्थान के लिए या कर्म निर्जरा के अर्थ जो तप किया जाता है, वह निष्काम तप है। १०२. भवकोडि संचियं कम्मं तवसा निजरिज्जइ ।। -- उत्तरा० ३०१६ १०३. चउन्विहा खलु तवसमाही भवइ तंजहा (१) नो इहलोगट्ठयाए तवमहिट्ठज्जा (२) नो परलोगट्ठयाए तवमहिट्ठज्जा (३) नो कित्तिवण्णसद्दसिलोगट्ठयाए तवमहिठ्ठजा । (४) नन्नत्थ निज्जरट्ठयाए तवमहिठ्ठज्जा । -दशवकालिक अ० ६।उ० ४।४ १०४. गुणप्रधानफलोपपत्तर्वा कृषीवलवत् । अथवा, यथा कृषीवलस्य कृषिक्रियायाः पलालशस्यफलगुणप्रधानफलाभिसम्बन्धः तथा मुनेरपि तपस्क्रियायां प्रधानोपसर्जनाभ्युदयनिःश्रेयसफलाभिसम्बन्धोऽभिसन्धिवशाद्वदितव्यः । - तत्वार्थसूत्र ६।३, राजवार्तिक ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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